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लोकपाल जनता का या सरकार का!

काफी जद्दोजहद के बाद लोकपाल विधेयक का नया मसौदा लोकसभा में पेश किया गया है। चर्चा के लिए खास तौर पर संसद सत्र की अवधि बढ़ाई गई। अब इस पर पूरे देश की निगाहें टिकी हैं। अन्ना हजारे इसे कमजोर बिल बताकर ठुकरा चुके। सरकार ने भी अपना रुख सख्त कर रखा है। दोनों पक्ष अड़े हैं। आखिर क्या होगा समाधान? पाठकों की प्रतिक्रियाओं में ऐसे ही प्रश्न हैं तो उनके कुछ समाधान भी हैं।

प्रिय पाठकगण! देश में भ्रष्टाचार को लेकर जो फिक्रमंद हैं, उनके जेहन में आज यही सवाल उठ रहा है—क्या लोकपाल विधेयक पारित हो पाएगा? या पिछले 43  साल से इस विधेयक का जो हश्र होता आया है, वही इस बार भी होने जा रहा है। सरकार ने काफी जद्दोजहद के बाद नया मसौदा लोकसभा में पेश किया। चर्चा के लिए खास तौर पर सत्र की अवधि बढ़ाई गई। अब पूरे देश की निगाहें टिकी हैं। यह ऐतिहासिक विधेयक कब, कैसे और किस रूप में पारित होगा। क्या यह एक मजबूत लोकपाल विधेयक है? अन्ना हजारे इसे कमजोर बिल बताकर ठुकरा चुके। सरकार ने भी अपना रुख सख्त कर रखा है। दोनों पक्ष अड़े हैं। इधर विभिन्न राजनीतिक दलों के अपने-अपने पेंच हैं। आखिर क्या होगा समाधान? होगा भी या नहीं। हो तो क्या होना चाहिए? पाठकों की प्रतिक्रियाओं में ऐसे ही प्रश्न हैं तो उनके कुछ समाधान भी हैं।
भोपाल से रवीन्द्र एस. मलैया ने लिखा— 'लोकपाल के लिए हमने 43 वर्षों का लम्बा इन्तजार किया तो क्यों नहीं हम नए साल पर एक मजबूत और प्रभावी लोकपाल के तोहफे की उम्मीद करें। लेकिन सरकार ने हमें तोहफे की बजाय ठेंगा बताने की तैयारी कर रखी है। उसने जो बिल पेश किया है, उसमें सब कुछ है—लोकपाल नहीं। जिस लोकपाल के पास न प्रशासनिक न वित्तीय अधिकार हों, वह क्या खाक भ्रष्टाचार मिटाएगा?'
जयपुर से गुणप्रकाश विजयवर्गीय ने लिखा— 'यह जनभावनाओं का लोकपाल नहीं, जिसके लिए अन्ना हजारे संघर्ष कर रहे हैं। सरकार ने लोकतंत्र और संसदीय मर्यादाओं की आड़ लेकर इसे मकड़ी का जाल बना दिया है। जिस संसद की बार-बार दुहाई दी जा रही है, उसे चुना किसने है। अन्ना हजारे कोई चार-पांच लोगों के आन्दोलन का नाम नहीं, यह जन-आन्दोलन है, जिसकी शक्ति नेताओं को दिखाई नहीं पड़ रही है।'
रायपुर से सुशीला त्यागी ने लिखा— 'अब भी वक्त है। सरकार हमारी भावनाओं को समझो। हम भ्रष्टाचार पर कोई समझाौता नहीं चाहते। भ्रष्टाचार का खात्मा करने के लिए अगर एक मजबूत लोकपाल के सर्वशक्तिमान बन जाने का अंदेशा है तो एकबारगी हमें वह भी मंजूर है।'
अजमेर से रोहित, दिव्या और मनीष ने लिखा— 'हमें भ्रष्ट राजनीतिक नेता बिल्कुल मंजूर नहीं। इन्हीं की वजह से पूरे देश में करप्शन फैला हुआ है।'
कोटा से हिमांशु गोयल ने लिखा— 'अन्ना हजारे के खिलाफ सारे नेता पार्टी लाइन भूलकर एक हो गए। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, जनता दल-यू, यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी व भाजपा के नेता भी एक सुर में बोल रहे हैं। क्या कभी आपने ऐसी एकता देखी? सभी को अन्ना का डर सता रहा है।'
प्रिय पाठकगण! पाठकों ने नए 'लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक-2011' के प्रावधानों पर खुलकर प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं, जो इस ज्वलन्त मुद्दे के अनेक पहलुओं पर प्रकाश डालती हैं। साथ ही उनके इस दृष्टिकोण को भी स्पष्ट करती है कि भ्रष्टाचार का खात्मा जरूरी है इसलिए सशक्त लोकपाल भी जरूरी है।
इंदौर से अनिल देशमुख ने लिखा— 'लोकपाल विधेयक के आधार पर राज्यों में लोकायुक्त बनाने का प्रावधान संविधान सम्मत नहीं है। इससे संघीय ढांचे पर असर पड़ेगा। इसके तहत राज्यों से कानून बनाने की शक्तियां छीन ली गई हैं। इस प्रावधान को अदालत से चुनौती मिलना तय है। यानी बिल अटक जाएगा।'
उज्जैन से दीपेन्द्र महर्षि ने लिखा— 'लोकपाल में आरक्षण का पेंच डालकर इसे ठंडे बस्ते में डालने की चाल रची गई है। इसके लिए लोकसभा में तीन-चौथाई सदस्यों की सहमति जरूरी है, जो संभव नहीं लगती।'
उदयपुर से राजेन्द्र पूर्बिया ने लिखा— 'लोकपाल विधेयक में झाूठी शिकायत करने पर एक साल की सजा व एक लाख का जुर्माना शिकायतकर्ता पर थोपा गया है। दूसरी तरफ शिकायत झाूठी पाई जाने पर अफसर का मुकदमा सरकार लड़ेगी और उसका पूरा खर्च उठाएगी। ताकतवर नौकरशाही अपने खिलाफ शिकायतों को किस तरह झाूठी साबित कर देती है, यह किसी से छिपा नहीं है। क्या कोई ऐसे भ्रष्ट और ताकतवर अफसर के खिलाफ शिकायत करने की हिम्मत करेगा?'
ग्वालियर से स्वप्नदास गुप्ता ने लिखा— 'बात-बात पर आरक्षण का राग अलापने वाले नेता कायर और डरपोक हैं। इन नेताओं की सुरक्षा करने वाले बॉडीगार्ड के लिए ये कभी आरक्षण की मांग नहीं करते। ये सेना में भर्ती के लिए भी कभी आरक्षण की मांग नहीं करते।'
जोधपुर से अरविन्द सोलंकी ने लिखा— 'भ्रष्टाचार के मामलों में सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव जांच की प्रक्रिया है। जांच करने वाली प्रमुख एजेन्सी सीबीआई सरकार के नियंत्रण में है। यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ समूची जांच सरकार के नियंत्रण में रहेगी न कि लोकपाल के नियंत्रण में।'
सीकर से श्याममनोहर शर्मा ने लिखा— ''लोकपाल बिल को लेकर कुछ नेता किस तरह सांसदों को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं ये इनके बयानों से साफ जाहिर है (पत्रिका: 22 दिसंबर) मुलायम सिंह ने कहा—लोकपाल आ जाएगा तो एस.पी., डी.एम., दरोगा जब चाहेंगे हमें जेल भेज देंगे। लालू यादव बोले— ये लोग जब चाहेंगे सांसदों को मारेंगे-पीटेंगे। हमारी इज्जत नहीं रहेगी। जबकि हकीकत यह है कि लोकपाल से सिर्फ भ्रष्ट नेता को खतरा है। मगर इनके बयानों से लगता है लोकपाल के नाम से ही इनके पसीने छूट रहे हैं।'
जबलपुर से ब्रजेन्द्र मिश्रा ने लिखा— 'लोकपाल बिल पर अन्ना टीम को फिलहाल टकराव छोड़कर बिल को पारित होने तक खामोश रहना चाहिए। एक बार बिल पारित तो हो। फिर मजबूत लोकपाल की लड़ाई लड़ी जा सकती है।'
प्रिय पाठकगण! पाठकों के पत्रों का सार है कि लोकपाल विधेयक पर चर्चा खूब हो चुकी। इसकी अच्छाइयों और कमियों पर देश में साल भर से बहस चल रही है। अब यह बिल पारित होना चाहिए। सरकार और सांसद देश को ऐसा लोकपाल दे जो भ्रष्टाचार का खात्मा करने में सक्षम हो। यह तभी संभव है जब लोकपाल मजबूत और पर्याप्त अधिकारों से सम्पन्न हो।

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ऑन-लाइन विचारों पर गाज!

घोटाले और भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह घिरी सरकार को हाल ही एफ.डी.आई. के मुद्दे पर मात खानी पड़ी। इधर लोकपाल को लेकर भी वह चौतरफा घिरी हुई है। ऐसे में सोशल मीडिया पर हाथ डालना बर्र के छत्ते को छेडऩे जैसा है। यही कारण है कि आज पूरी नेटवर्किंग सोसाइटी सरकार से नाराज है और उस पर जोरदार प्रहार कर रही है।


आई.टी. मंत्री कपिल सिब्बल का बयान (नेट पर नकेल कसेगी सरकार पत्रिका: 7 दिसंबर) पढ़कर बहुत कोफ्त हुई। सिब्बल केन्द्र सरकार की बची-खुची साख को भी पलीता लगा रहे हैं। उन्होंने सोशल नेटवर्किंग साइटों पर लगाम कसने की बात उस वक्त कही, जब केन्द्र सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ निम्नतर स्तर पर है। घोटाले और भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह घिरी सरकार को हाल ही एफ.डी.आई. के मुद्दे पर मात खानी पड़ी। इधर लोकपाल को लेकर भी वह चौतरफा घिरी हुई है। ऐसे में सोशल मीडिया पर हाथ डालना बर्र के छत्ते को छेडऩे जैसा है। यही कारण है कि आज पूरी नेटवर्किंग सोसाइटी सरकार से नाराज है और उस पर जोरदार प्रहार कर रही है।'
जयपुर से श्याम बिहारी माथुर ने उक्त प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इन शब्दों में आक्रोश जाहिर किया— 'कपिल सिब्बल पहले भी बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आन्दोलनों में सरकार की किरकिरी करा चुके। अब सोशल मीडिया पर हमला बोलकर उन्होंने न केवल कांग्रेस बल्कि यूपीए के अन्य घटक दलों को भी मुश्किल में डाल दिया है।'
प्रिय पाठकगण! पिछले दिनों केन्द्र सरकार के सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने फेसबुक, गूगल आदि वेबसाइट्स संचालकों को बुलाकर चेतावनी दी कि राजनेताओं (कांग्रेस) के बारे में की गई आपत्तिजनक टिप्पणियां हटाई जाएं। अगर वेबसाइट्स कंपनियां कोई कदम नहीं उठाएंगी तो सरकार कदम उठाएगी। प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस सोशल मीडिया पर सरकारी नियंत्रण के विरोध में कहा गया कि सरकार साम्प्रदायिकता या संवेदनशीलता की आड़ लेकर विरोधी स्वरों को दबाना चाहती है। हाल ही में फेसबुक पर भावनाओं को भड़काने वाला एक पोस्ट किया गया था जिसे तत्काल हटा दिया गया। परन्तु ऐसी घटनाओं के बहाने सरकार आपत्तिजनक सामग्री की बजाय अपनी आलोचनाओं पर रोक लगाना चाहती है। यह स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर कुठाराघात है। पाठकों की कुछ और प्रतिक्रियाएं भी यहां दी जा रही हैं, जो इस ज्वलंत मुद्दे के कई पहलुओं को स्पष्ट करती हैं।
रायपुर से हरिश सब्बरवाल ने लिखा— 'इसमें दो राय नहीं कि राष्ट्रीय सुरक्षा और संवेदनाओं को भड़काने वाली सामग्री तत्काल हटाई जानी चाहिए। लेकिन हकीकत यह है कि अपवाद स्वरूप ही ऐसी सामग्रियां अपलोड होती हैं। किसी सिरफिरे ने कुछ लिख भी दिया तो उसके विपरीत प्रतिक्रियाओं का दबाव ही  प्रबल रहता है कि वेबसाइट्स को यह सामग्री हटानी पड़ती है।'
भोपाल से देवेन्द्र भदौरिया ने लिखा— 'नेटवर्किंग की दुनिया विराट और विशाल है जिसमें विविधताओं का अम्बार है। इसमें ज्यादातर युवा अपनी अभिव्यक्ति और सपनों पर फोकस करते हैं। किसे फुरसत है भड़काने वाले मुद्दों पर उलझाने की?'
कोटा से स्वप्निल जोशी ने लिखा— 'सरकार नाहक घबरा रही है। नेटवर्किंग सोसाइटी खुले दिमाग वालों की है। उसमें संकीर्णता को कोई जगह नहीं। हां, भ्रष्टाचारियों को लेकर इधर खूब कमेन्ट्स किए जा रहे हैं।'
इंदौर से सुशील चन्द्र जैन ने लिखा— 'सरकार अपनी आलोचना को लेकर कितनी डरी हुई है, यह इसी से साबित है कि गूगल को पेश 358 शिकायतों में से 255 तो उसकी आलोचना से सम्बंधित सामग्री ही पोस्ट है। इनमें संवेदनशील मुद्दों पर महज 8 पोस्टें थीं जिसे सरकार की शिकायत के बाद हटा दिया गया।'
उदयपुर से आलोक श्रीवास्तव ने लिखा— 'नेट को बदनाम करने की क्या जरूरत है। क्या 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, गोपालगढ़ में साम्प्रदायिक हिंसा और संसद व मुम्बई में आतंकी हमले के लिए फेसबुक जिम्मेदार है?'
अलवर से रागिनी शर्मा ने लिखा— 'सोशल नेटवर्किंग पर सेंसर लगाने की सरकार की मंशा भांपते ही दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्रों ने 'राइट टू इंटरनेट एंड सोशलाइज' पेज बनाकर अपलोड किया है। इसमें तेजी से युवा जुड़ते जा रहे हैं।'
जोधपुर से डा. सौरभ ने लिखा— 'सरकार ने अगर साइबर विचारों पर पहरेदारी बिठाई तो उसकी दुनिया भर में बदनामी होगी। चीन ने जिस तरह से सायबर वल्र्ड पर सेन्सर लगा रखा है, उसे कोई पसंद नहीं करता।'
अजमेर से प्रो. देवकृष्ण शर्मा ने लिखा— 'अभिव्यक्ति का खुलापन कई समस्याओं का समाधान स्वत: कर देता है। समाज में यह दृष्टिकोण 'सेफ्टी वाल्व' का काम करता है। इससे डरने की जरूरत नहीं है।'
उज्जैन से डी.डी. भट्ट ने लिखा— 'सोशल मीडिया से वही घबराते हैं जो या तो भ्रष्टाचारी हैं या फिर अत्याचारी। आम जनता के लिए यह खूबसूरत मंच है।'
जबलपुर से मनमोहन 'विश्वास' ने लिखा— 'भारत में फेसबुक और ट्विटर के करीब 8 करोड़ उपभोक्ता हैं। इंटरनेट, मोबाइल आदि को जोड़ें तो करीब 20  करोड़ भारतीय इस सोशल मीडिया से जुड़े हैं। यह एक बहुत बड़ी ताकत है जिससे सरकार का डरना लाजिमी है।'
जबलपुर से दिव्या मिश्रा ने लिखा— 'आज का नेटवर्किंग युवा जागरूक और जिम्मेदार है। वह हिंसा भड़काने व घृणा फैलाने वाली सामग्री को पसंद नहीं करता।'
ग्वालियर से विजेता सिंह ने लिखा— 'बेहतर होगा सरकार सेंसर की बजाय लोगों को आपत्तिजनक सामग्री हटाने के विकल्पों के लिए शिक्षित व प्रेरित करे। ऐसे आइटम हटाने के लिए 'रिपोर्ट एब्यूज' का विकल्प मौजूद है। पहले कंटेट पर क्लिक करें, फिर रिपोर्ट पर एब्यूज पर क्लिक करें। ज्यादा उपभोक्ता जब ऐसा करेंगे तो साइट अपने आप उसे हटा देने के लिए मजबूर हो जाएगी।'
प्रिय पाठकगण! अभिव्यक्ति को बाधित करके कभी महान लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता। हमें असहमति को बर्दाश्त करना सीखना होगा। नुकसानदेह व असत्य सामग्री को नेट पर अस्वीकार करने के हमारे पास विकल्प मौजूद हैं। जैसा कि विजेता सिंह ने लिखा लोगों को इसकी जानकारी मिलनी चाहिए और इसके इस्तेमाल के लिए प्रेरित करना चाहिए। न कि सेंसर की तलवार चलानी चाहिए।

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देसी व्यापारी बनाम विदेशी कारोबारी

देश भर में चारों तरफ आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट मिलने से हमारा खुदरा व्यापार का ढांचा तहस-नहस हो जाएगा। छोटे व्यापारी, किसान और खेतिहर मजदूर बर्बाद हो जाएंगे तथा बेरोजगारी विकराल रूप धारण कर लेगी। दूसरी तरफ सरकार और कई विशेषज्ञों का तर्क  है कि इससे नए किस्म की आर्थिक क्रान्ति का उदय होगा। उपभोक्ता और किसान फायदे में रहेंगे।

प्रिय पाठकगण! विदेशी कंपनियों के खुदरा व्यापार के मसले पर देश भर में घमासान मचा है। केन्द्र सरकार आलोचनाओं से घिरी है। चारों तरफ आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट मिलने से हमारा खुदरा व्यापार का ढांचा तहस-नहस हो जाएगा। छोटे व्यापारी, किसान और खेतिहर मजदूर बर्बाद हो जाएंगे तथा बेरोजगारी विकराल रूप धारण कर लेगी। दूसरी तरफ सरकार और कई विशेषज्ञों का तर्क  है कि इससे देश में एक नए किस्म की आर्थिक क्रान्ति का उदय होगा। उपभोक्ता और किसान फायदे में रहेंगे। रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। इस मुद्दे पर देशव्यापी बहस छिड़ी है। मीडिया में अलग-अलग विवेचनाएं सामने आ रही हैं। लेकिन एफडीआई का केन्द्रबिन्दु देश का आम उपभोक्ता इस मुद्दे पर क्या सोचता है— यह जानना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हमारे पाठकों की ये प्रतिक्रियाएं आम उपभोक्ता के दृष्टिकोण की ही अभिव्यक्ति मानी जा सकती है। आइए, जानें।
इंदौर से नीरज बंसल ने लिखा — 'मुझे अर्थव्यवस्था की बारीकियां नहीं मालूम। एक उपभोक्ता के नाते मैं तो सिर्फ यह चाहता हूं कि बाजार में मैं जब ब्रेड और मक्खन खरीदने जाऊं तो मुझे  ताजा, उच्च गुणवत्ता से परिपूर्ण और किफायती दाम पर सुलभ हो जाएं। चाहे आटा, चावल, तेल हो या फिर साबुन, ट्यूबलाइट, जूते-चप्पल हों, सभी गुणवत्ता और दाम के लिहाज से अपने उपयुक्ततम स्तर पर हों, ताकि उपभोक्ता के तौर पर मुझे संतुष्टि का सर्वोच्च स्तर प्राप्त हो। यह सब प्रदान करने की गारंटी उपभोक्ताओं को बहुराष्ट्रीय कंपनियां दे रही हैं तो हमें उनसे क्यों एतराज होना चाहिए? मुझे समझ में नहीं आ रहा कि वॉलमार्ट, कैरीफोर जैसी श्रेष्ठ सेवाओं के लिए ख्यात कंपनियों का क्यों विरोध किया जा रहा है।'
जयपुर से एम.बी.ए. छात्र धीरज श्रीवास्तव ने लिखा — 'जो लोग एफडीआई का विरोध कर रहे हैं वे किसान विरोधी तथा व्यापार में बिचौलियों के संरक्षक हैं। उपभोक्ता और उत्पादक (किसान) के बीच में बिचौलियों की क्या जरूरत? हर कोई जानता है कि बिचौलिया पद्धति से किसानों और उपभोक्ताओं को कितना नुकसान भुगतना पड़ता है। किसानों से तीन रुपए में वस्तु खरीदकर उसे तेरह रुपए में बेचना उपभोक्ता और किसान दोनों का शोषण करना है।
उदयपुर से निधि शर्मा ने लिखा — 'कंपनियों के स्टोर्स का माहौल बहुत सुखद होता है। यहां ग्राहकों से बहुत शालीन व्यवहार किया जाता है। कोई भी वस्तु आंख मूंदकर खरीदी जा सकती है। ग्राहक से धोखा नहीं होता।'
प्रिय पाठकगण!  ऐसा नहीं है कि सभी पाठकों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों का स्वागत किया है। पाठकों का एक बड़ा वर्ग है, जो छोटे दुकानदारों के पक्ष में है और खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों के खिलाफ है। इन पाठकों की राय में केन्द्र सरकार का निर्णय अदूरदर्शितापूर्ण और देश के लिए अहितकर है।
भोपाल से डा. सुरेखा नागर ने लिखा — 'अजीब बात है, वॉलमार्ट जैसी कंपनियों का अमरीका में जोरदार विरोध हो रहा है, लेकिन भारत में हमारी सरकार पलक-पांवड़े बिछाए जा रही है। सिर्फ अमरीका में ही नहीं, दुनिया के 40 से अधिक देशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध हो रहा है, क्योंकि वहां के लोगों के इन कंपनियों को लेकर कड़ुए अनुभव रहे हैं। क्या हम भी पहले चोट खाकर फिर इनके बारे में अपनी राय बनाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं?'
जोधपुर से जमुनदास पुरोहित ने लिखा — 'बहुराष्ट्रीय कंपनियों का स्वागत करने वालों को इनका इतिहास पता नहीं है। शुरू में ये लागत से कम कीमत पर माल बेचती हैं और घाटा उठाती हैं। फिर छोटे व्यापारियों का खात्मा कर उनके व्यवसाय पर एकाधिकार कायम कर लेती हैं। इसके बाद उनकी असलियत सामने आने लगती है।'
कोटा से रविन्द्र जैमन ने लिखा — 'भारतीय उपभोक्ता किसी खाम खयाली में नहीं रहे कि उन्हें अच्छी सेवाएं और सस्ती वस्तुएं मिलेंगी। मोनोपॉली कायम करने के बाद ये उपभोक्ताओं को मक्खी-मच्छर से अधिक नहीं समझती।'
रायपुर से हीरेन पटोदिया ने लिखा — 'कुछ राज्यों के चुनाव सामने हैं। यूपीए सरकार ने यह क्या किया। अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी दे मारी। लाखों रिटेलर्स और छोटे कारोबारी सरकार के इस फैसले से खफा हैं।'
अजमेर से दीपक निर्वाण ने लिखा — 'बहुराष्ट्रीय कंपनियां आर्थिक सत्ता हासिल करने के बाद राजनीतिक सत्ता हासिल करने की कोशिश में जुट जाती है। ईस्ट इंडिया कंपनी का अनुभव हमारे इतिहास के पन्नों में दर्ज है। शायद यही वजह है कि इन कंपनियों का व्यापक स्तर पर विरोध किया जा रहा है।'
ग्वालियर से राजेश्वर सिंह ने लिखा — '30 लाख करोड़ रु. का भारतीय रिटेल बाजार हमारी सरकार ने थाली में परोसकर विदेशी कंपनियों को पेश कर दिया है। क्या किसी और देश में ऐसा संभव था?'
बीकानेर से पी.सी. सुथार ने लिखा — 'सरकार की दलील है कि इन कंपनियों को बहुत सारी शर्तों के साथ व्यापार की अनुमति दी गई है। इसलिए भारतीय व्यापार-जगत को नुकसान की आशंकाएं गलत है। परन्तु एक समय के बाद ये कंपनियां किसी शर्त का पालन नहीं करती। सरकारी अधिकारी इनके सामने नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐसे में भारतीय हितों की रक्षा कौन करेगा।'
प्रिय पाठकगण!  इस मुद्दे पर बहस तथा पक्ष-विपक्ष के अनेक बिन्दु हैं। बुनियादी सवाल यह है कि हजारों-लाखों कारोबारियों की अनदेखी करके किसी एक या कुछ विदेशी कारोबारियों को ही व्यापार सौंपने का सिद्धान्त कितना न्यायपूर्ण है। अगर तर्क  यह है कि इससे व्यापार की गुणवत्ता बढ़ेगी और करोड़ों उपभोक्ताओं को फायदा होगा तो यह उद्देश्य मौजूदा व्यवस्था में भी हासिल किया जा सकता है। जरूरत है हमारे खुदरा व्यापार के ढांचे को चुस्त-दुरुस्त करने की। सरकार खुदरा व्यापार की एक सुस्पष्ट नीति बनाकर और उसे सही तौर पर लागू करवाकर सबका भला कर सकती है—खुदरा और छोटे व्यापारियों का भी, किसानों का भी तथा आम उपभोक्ताओं का भी।

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महंगाई से हैं सब परेशान

सरकार में बैठे लोगों का मानना है कि आम आदमी की क्रय शक्ति बढ़ी है इसलिए वह महंगाई से इतना त्रस्त नहीं है, जितना मीडिया में बताया जा रहा है। तेल कंपनियों की सोच भी यही है कि लोग बढ़े हुए दाम चुकाने में सक्षम हैं। जिन पर महंगाई को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी है, वे अजीबो-गरीब तर्क देते हैं। वे कहते हैं खाद्य वस्तुओं के दाम बढऩा अर्थव्यवस्था
के विकास का प्रतीक है।

'मौत की ओर ले जा रही महंगाई'  (पत्रिका: 5 नवम्बर) समाचार पढ़ा तो लगा केरल हाईकोर्ट ने मुझ जैसे करोड़ों भारतवासियों के दिल की बात कह दी। यह प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जयपुर से श्याम सिंह आढ़ा ने लिखा— 'महंगाई ने पहले से ही मार रखा है। उस पर महीने-दो महीने से बढ़ती पेट्रोल की कीमतें मरे हुए पर लात मारने जैसी लगती है। आम आदमी महंगाई से कराह रहा है, लेकिन यूपीए सरकार कुंभकर्ण की तरह बेसुध होकर सोई हुई है।'
प्रिय पाठकगण! पिछले दिनों महंगाई बढऩे के समाचार मीडिया में लगातार सुर्खियां बने हुए थे। इसी बीच तेल कंपनियों ने भी फिर पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने की घोषणा कर दी। सरकार में बैठे लोगों का मानना है कि आम आदमी की क्रय शक्ति बढ़ी है इसलिए वह महंगाई से इतना त्रस्त नहीं है, जितना मीडिया में बताया जा रहा है। तेल कंपनियों की सोच भी यही है कि लोग बढ़े हुए दाम चुकाने में सक्षम हैं। जिन पर महंगाई को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी है, वे अजीबो-गरीब तर्क देते हैं। वे कहते हैं खाद्य वस्तुओं के दाम बढऩा अर्थव्यवस्था के विकास का प्रतीक है।
क्या वाकई ऐसा है? क्या सचमुच महंगाई से लोग परेशान नहीं है? एक नमूना आपने ऊपर देखा। आइए देखते हैं, क्या कहते हैं आम नागरिक।
रायपुर से उमा धरेन्द्रा ने लिखा— 'हम पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं। दो बच्चे और सास-ससुर हैं। कुल छह सदस्यों का परिवार चलाना हम दोनों के लिए दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है। ग्रोसरी, दूध व सब्जियों पर ही आधा वेतन खर्च हो जाता है। रही-सही कसर पेट्रोल निकाल देता है। बच्चों की स्कूल फीस कमर तोड़ देती है। बीमार सास के लिए बहुत महंगी दवाएं खरीदनी पड़ती है। ऊपर से कार की किस्त! हम दोनों अब कार बेचने की सोच रहे हैं। लेकिन बच्चे रोक रहे हैं। उन्हें कैसे समझाएं।'
इंदौर से कृष्णदास 'कौशल' ने लिखा— 'हमारे देश जैसा शायद ही कहीं विचित्र आर्थिक-तंत्र होगा। महंगाई रोकने के लिए रिजर्व बैंक बार-बार ब्याज दरें बढ़ाता है। पेट्रोल कंपनियां बार-बार दाम बढ़ाकर पानी फेर देती हैं।'
उदयपुर से प्रवीण भनोत ने लिखा— 'केन्द्र सरकार झूठी है। वह कहती है पेट्रोल की कीमतों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। जबकि उसका पूरा नियंत्रण है। पिछली बार कुछ राज्यों में चुनाव होने वाले थे। घाटा उठाकर भी तेल कंपनियां दाम बढ़ा नहीं पा रही थीं। क्यों? चुनाव हो गए तो ये कंपनियां एक दिन भी नहीं रुकी। इन्हें चुनाव होने तक कौन रोक रहा था, क्या जनता नहीं जानती?'
कोटा से इंद्र मोहन थपलियाल ने लिखा— 'तेल कंपनियों से सरकार की साठगांठ साफ समझ में आती है। पेट्रोल के दाम कंपनियों को बढ़ाने है, लेकिन लोगों को मानसिक रूप से तैयार करने का काम सरकार करती है। कुछ दिनों पहले से ही मंत्रियों के बयान छपने लगते हैं। इस बार भी कंपनियों ने पेट्रोल के दाम ३ नवम्बर को बढ़ाए थे लेकिन पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी का बयान २२ अक्टूबर को ही अखबारों में प्रकाशित हो गया।'
भोपाल से संदीप राठोड़ ने लिखा— 'पेट्रोल की कीमतों को सरकार क्यों रोकेगी? उसकी तो चांदी ही चांदी है। एक ही झाटके में करोड़ों रु. का कर सरकारी खजाने को भर देता है। पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने सही कहा— अगर सरकार पेट्रोल पर करों का मोह छोड़ दे, तो आज जनता को २३.३७ रु. लीटर पेट्रोल मिल सकता है।'
जोधपुर से के.एल. पंवार ने लिखा— 'पेट्रोल की कीमतों को अन्तरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों से जोडऩा एक सही तर्क तभी होगा, जब अन्य पेट्रो उत्पादों के दाम भी बढ़े। केरोसिन के दाम इसलिए नहीं बढ़ते, क्योंकि वह गरीबों के लिए है। डीजल इसलिए महंगा नहीं कर सकते, क्योंकि ट्रक मालिकों की लॉबी बहुत मजबूत है। पेट्रोल के उपभोक्ता असंगठित हैं। सबसे ज्यादा मार इसी वर्ग पर पड़ रही है।'
ग्वालियर से असीम गुप्ता ने लिखा— 'तेल कंपनियां पेट्रोल के दाम बढ़ाने से पहले हर बार घाटे का तर्क देती है। कोई इनकी बैलेंस शीट तो देखें। करोड़ों का मुनाफा कमा रही है।'
उदयपुर से शरद माथुर ने लिखा— 'चीन ने महंगाई को कैसे काबू में किया, इससे भारत को सीखना चाहिए। चीन ने मुक्त बाजार के दौर में भी मूल्य नियंत्रण की नीति अपनाई। कंपनियों को दो टूक आदेश दिया कि किसी भी सूरत में 5 फीसदी से ज्यादा कीमतें नहीं बढ़ाई जाएंगी।'
अलवर से सुरेश यादव के अनुसार— 'अच्छे मानसून और गोदाम भरे होने के बावजूद महंगाई बढ़ी। साफ है कि जमाखोरों, कालाबाजारियों और बिचौलियों पर हमारी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है।'
जबलपुर से शीतल मिश्र ने लिखा— 'इजरायलवासियों की तरह हमें भी महंगाई के विरोध में सड़कों पर उतरना चाहिए। केरल हाईकोर्ट ने सही टिप्पणी की—लोगों को राजनीतिक दलों से महंगाई से राहत का इंतजार नहीं करना चाहिए। खुद आगे आकर विरोध करना चाहिए। (पत्रिका: 5 नवम्बर)'
प्रिय पाठकगण! बेलगाम कीमतों और अनियंत्रित महंगाई पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी से न तो केन्द्र और न ही राज्य सरकारें बच सकती हैं। चुनाव के दौरान हर राजनीतिक दल महंगाई कम करने का राग अलापता है। जनता से वादे करता है और सत्ता हाथ में आते ही सब कुछ भूल जाता है। सौ दिन में महंगाई कम करने का वादा जनता भूली नहीं है। सरकार भूल गई है तो उसे याद दिलाने के लिए केरल हाईकोर्ट की टिप्पणी पर जनता को गौर करना चाहिए।

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चीन को जवाब

प्रिय पाठकगण! भारत के खिलाफ चीन की हरकतें लगातार बढ़ती जा रही हैं। हाल ही हमारे सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह ने स्वीकार किया कि पाक-अधिकृत कश्मीर में करीब 4 हजार चीनी सैनिकों ने डेरा जमा रखा है। ऐसे में यह सवाल मजबूती से उठाया जा रहा है कि हमारे लिए चीन से सुरक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण है या व्यापार। क्या हमें चीन की करतूत की अनदेखी करनी चाहिए? आखिर चीन से हमें कैसा बर्ताव करना चाहिए ताकि हमारी सम्प्रभुता को कोई चुनौती न दे सके। आइए देखें, पाठक क्या कहते हैं।

इंदौर
अरविन्द खरे ने लिखा—'न्यूयार्क टाइम्स ने खबर दी थी कि पीओके में करीब 11 हजार चीन के सैनिक मौजूद हैं। इसके बाद हमारे सेनाध्यक्ष की स्वीकारोक्ति आई (पत्रिका: 6 अक्टूबर) कि वहां 4 हजार चीनी सैनिक हैं। इसी दिन यह खबर भी छपी कि हमारे विदेश मंत्रालय ने चीन और भारत की राजधानियों में उच्चस्तरीय कूटनीतिक सैन्य मुख्यालयों की घोषणा की है। दोनों देशों की सहमति से ही यह घोषणा हुई होगी, लेकिन हमारी सीमा पर सैनिकों का जमावड़ा कर चीन ने बदनीयत जाहिर कर दी। हमें भी मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए। विदेश मंत्रालय को तुरंत विरोध स्वरूप सैन्य मुख्यालयों की घोषणा को एकतरफा रद्द कर देना चाहिए।'
जयपुर
हरीश शुक्ल ने लिखा—'हम आतंकवाद, नक्सलवाद, महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों में इतने उलझे  हुए हैं कि हमें चीन की कारगुजारियों की तरफ ध्यान देने की फुरसत ही नहीं है। हम अक्सर पाकिस्तान की करतूत तक ही सिमट जाते हैं, जबकि चीन एक चालाक दुश्मन की तरह भारत के चारों तरफ जाल बुनता जा रहा है। दरअसल, हमें पाकिस्तान से ज्यादा चीन से खतरा है। यह बात हमारा रक्षा मंत्रालय अपनी एक रिपोर्ट में कह चुका है।'
जबलपुर
प्रमोद कुमार वाजपेयी के अनुसार—'पिछले दिनों चीन ने अरुणाचल प्रदेश में सीमा पर हमारी ओर से खड़ी की गई दीवार को गिरा दिया। यह चीन की अब तक की सबसे गंभीर हरकत थी, लेकिन भारत सरकार बयानों तक सीमित रही। अगर भारत चीनी सीमा में ऐसी कोई हरकत करता तो चीन जमीन-आसमान एक कर देता। हम कभी भी ऐसे मुद्दों को अन्तरराष्ट्रीय रूप नहीं दे पाते।'
कोटा
प्रसून गर्ग ने लिखा—'हमारी नरमी के कारण ही चीन का हौसला बढ़ता गया। हमने जब कभी थोड़ी सी भी आंख दिखाई, चीन लाइन पर आ गया। हाल ही चीन ने भारत को वियतनाम की ओर से प्रस्तावित चीन सागर में तेल की खोज से दूर रहने की चेतावनी दी। भारत ने चीन की आपत्ति सिरे से खारिज कर दी, तो चीन ने भी चुप्पी साध ली। वरना वह अपना तेवर दिखाए बिना बाज नहीं आता।'
भोपाल
शैलेन्द्र चुघ ने लिखा—'चीन की पाकिस्तान में बढ़ती गतिविधियां भारत के लिए खतरनाक हैं। आर्थिक रूप से कंगाल पाक अमरीका की धमकी के बाद चीन की गोद में पूरी तरह से बैठ गया है। हमारे आसपास तिब्बत, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश के जरिए चीन हमें चारों ओर से घेरने की कोशिश कर रहा है। इस खतरे को हमने अब भी नहीं भांपा तो हमें पश्चाताप के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा।'
जोधपुर
यमुना प्रसाद पुरोहित ने लिखा—'मुझे घोर आश्चर्य है कि चीन की करतूत से आंखें मूंद कर हमारे हुक्मरान चीन के रिश्तों की थोथी दुहाई देते हैं। प्रधानमंत्री चीन को हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझोदार बताते हैं, तो रक्षा मंत्री चीन के साथ करीबी रिश्तों की दुहाई देते हैं। क्या कोई करीबी रिश्तेदार हमारी महत्वपूर्ण नदी ब्रह्मपुत्र पर दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाकर नदी के प्रवाह को रोकने की तैयारी कर सकता है?'
रायपुर
दीपचन्द कौशिक ने लिखा—'हमें चीन से व्यापारिक रिश्तों से कोई परहेज नहीं है, लेकिन उसे हमारी सम्प्रभुता का पूरा ख्याल रखना पड़ेगा। चीन ने भारतीय सीमा में घुसपैठ के सारे रिकार्ड तोड़ दिए। एक ही वर्ष में उसने 270 बार भारत में घुसपैठ की।'
अहमदाबाद
डॉ. सरयू भोजानी ने लिखा—'भारत हर तरह से चीन की चुनौती से मुकाबला करने में सक्षम है, लेकिन सरकारी तौर पर हमें ढुलमुल रवैया छोडऩा होगा। एक सक्षम प्रतिद्वन्द्वी की तरह हमें चीन से पेश आना होगा।'
ग्वालियर
अनूप सिंह ने लिखा—'भारत को आक्रामक कूटनीति अपनानी पड़ेगी। चीन की तरह भारत भी चीन के आसपास के देशों से घनिष्ठता बढ़ाए। लाओस, कंबोडिया, सिंगापुर, मलेशिया, वियतनाम, थाईलैण्ड आदि देशों से आर्थिक-सामरिक रिश्ते मजबूत करे। उत्तरी कोरिया, जापान जैसे विकसित देशों से सम्बन्ध गहरे करे। चीन को चीन की भाषा में ही जवाब देने की रणनीति अपनाए।'
भिलाई
देशराज गुप्त के अनुसार—'यह सही है कि हमें आर्थिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत है परन्तु दुश्मनों की कारगुजारियों की अनदेखी की कीमत पर नहीं। चीन ने साइबर हमला कर हमारा महत्वपूर्ण डाटा चुरा लिया। हमें क्यों पीछे रहना चाहिए।'
उदयपुर
डी.सी. चंदेल ने लिखा—'अगर देश ही नहीं बचेगा तो व्यापार क्या खाक करेंगे? हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता देश की सम्प्रभुता होनी चाहिए।'

  प्रिय पाठकगण! यह सही है कि पड़ोसी देशों से परस्पर तनाव और झागड़े हमारी प्राथमिकता में नहीं है, लेकिन कोई अगर राष्ट्र की सम्प्रभुता को चुनौती पेश करे तो वह हमें कतई स्वीकार नहीं होनी चाहिए। किसी भी कीमत पर नहीं। चीन या भारत के प्रति दुश्मनी रखने वाले देश को यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि भारत एक कमजोर देश है, जिसे कभी भी आंख दिखाई जा सकती है। भारत की तरफ तिरछी नजर करने से पहले उसे सौ बार सोचने की जरूरत पड़े।

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जख्मों पर नमक

प्रिय पाठकगण! 
पेट्रोल के दाम बढ़ने से हर कोई नाराज है। पाठकों का तर्क है कि जब अन्तरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रो-उत्पाद के दाम नहीं बढ़े, तो भारतीय तेल कंपनियों ने क्यों बढ़ाए? पाठकों की राय में तेल कंपनियां जनता को लूट रही हैं। सरकार से इनकी मिलीभगत है। सरकार जनता को राहत की बजाय विभिन्न वस्तुओं के दाम बढ़ाकर और ज्यादा भार डाल रही है। यह जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है।
आइए देखें, पाठक क्या कहते हैं- 
जयपुर
'मुझे उस दिन अखबार (पत्रिका: 16 सितम्बर) पढ़कर लगा जैसे सरकार ने आम आदमी को पेट्रोल से बुरी तरह झुलसा डाला और ऊपर से घावों पर नमक भी छिड़क दिया।'
इन शब्दों में अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए के.सी. गुप्ता ने लिखा- 'फ्रंट पेज पर ही दोनों खबरें छपी थीं। पहली खबर पेट्रोल के दाम फिर बढ़ाने को लेकर थी तो दूसरी खबर रसोई गैस सिलैण्डर पर सब्सिडी हटाने के प्रस्ताव के बारे में थी। एक तीसरी खबर भी नश्तर की तरह चुभ रही थी- किस मंत्री की सम्पत्ति कितनी बढ़ी जिसमें कुछ केन्द्रीय मंत्रियों की बेशुमार बढ़ती दौलत को ग्राफिक में दर्शाया गया था। लगा कि सरकार हम गरीबों पर एक साथ प्रहार करने को आमादा है।'
अजमेर
हरिश्चन्द्र अटलानी ने लिखा- 'पेट्रोल के दाम बढ़ने से कुछ दिन पहले ही राजस्थान में बिजली की दरें बढ़ाई गई थीं। पेट्रोल के दाम बढ़े तो अगले दिन रिजर्व बैंक ने ब्याज दर भी बढ़ा दी। इसके तत्काल बाद राज्य सरकार ने रोडवेज का किराया बढ़ा दिया। फिर सरस घी महंगा किया। अगले दिन सरस दूध के दाम भी बढ़ा दिए। निर्यात पर रोक हटाने से प्याज और ज्यादा महंगा मिलने लगा। क्या राज्य, क्या केन्द्र की सरकार, जिसे मौका मिलता है, वही आम आदमी पर महंगाई रूपी गाज गिरा रही है। क्या ये जन कल्याणकारी सरकारें हैं?'
रतलाम
मुन्नालाल गर्ग के अनुसार- 'भारत में पेट्रोल कंपनियों ने हद कर दी। चारों बड़ी कंपनियों की बेलेंस शीट करोड़ों का मुनाफा बता रही हैं। फिर भी पेट्रोल के दाम मनमर्जी ढंग से बढ़ा रही हैं। सरकार से मिलीभगत के बिना यह संभव नहीं। पेट्रोल कंपनियों से ज्यादा बड़ी गुनहगार सरकार है जिसने उन्हें कीमतों से नियंत्रण मुक्त कर लोगों को लूटने का ठेका दे दिया।'
इंदौर
सुशान्त राघव ने लिखा- 'विश्व के 98 देश ऐसे हैं जहां भारत से सस्ता पेट्रोल मिलता है। क्या वहां की कंपनियां घाटे में चल रही हैं? अलग-अलग देशों की परचेजिंग पावर को ध्यान में रखते हुए देखें तो भारत में पेट्रोल की दर सबसे महंगी है। अगर यही हाल रहा तो जनता भ्रष्टाचार की तरह पेट्रोल के दामों के खिलाफ भी सड़कों पर उतर आएगी।'
जोधपुर
गोपाल अरोड़ा ने लिखा- 'सरकार ने तेल कंपनियों को नियंत्रण मुक्त कर उन्हें जनता को लूटने के लिए छोड़ दिया। तीन वर्ष पहले जब पेट्रोल का अंतरराष्ट्रीय भाव 138 डॉलर प्रति बैरल था तब भारत में पेट्रोल 50 रुपए लीटर था। अब जब भाव गिरकर 111 डॉलर प्रति बैरल हो गया तो पेट्रोल के दाम 71 रुपए लीटर जा पहुंचे।
भोपाल
रविन्द्र भदौरिया ने लिखा- 'केन्द्र सरकार पेट्रोल-डीजल से भारी-भरकम राजस्व की वसूली करती है। वर्ष 2009-10 में पेट्रोल-डीजल से 90 हजार करोड़ रुपए लोगों से वसूले गए। वर्ष 2010-11 में यह राशि एक लाख करोड़ रुपए से भी ऊपर पहुंच गई। इसके बाद राज्य सरकारें वैट और सैश के नाम पर जो शुल्क वसूलती हैं, वह अलग है।'
रायपुर
सुबोधकान्त ने लिखा- 'पेट्रोल पर लोगों की निर्भरता इतनी बढ़ गई कि दाम बढ़ते ही उनका बजट लडख़ड़ा जाता है। हमारी सरकार अदूरदर्शी है। उसे बॉयो फ्यूल उत्पादन पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में बॉयो फ्यूल की अपार संभावनाएं हैं।'
कोटा
राम स्वरूप राही के अनुसार- 'अब समय आ गया है कि हम पेट्रो-पदार्थों के विकल्पों की ओर बढ़ें। बैट्री और सौर ऊर्जा से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा दें ताकि तेल कंपनियों का एकाधिकार खत्म हो। एथेनॉल और बॉयो फ्यूल भी विश्व भर में पेट्रो-विकल्प के तौर पर देखें जा रहे हैं।'
अलवर
निधि अग्रवाल ने लिखा- 'राजस्थान में अन्य कई राज्यों से पेट्रोल महंगा है। इसलिए पत्रिका की मुहिम 'नो व्हीकल डे' (पत्रिका: 19 सितम्बर) अच्छा सुझाव है। राजस्थान विश्वविद्यालय की तरह उम्मीद है, अन्य संस्थाएं और संगठन भी आगे आएंगे।'
सीकर
गजेन्द्र सोलंकी ने लिखा- 'पेट्रो पदार्थ वैसे भी दुनिया में बहुत सीमित मात्रा में बचे हैं। इसलिए पेट्रोल-डीजल के विकल्पों के अलावा हमारे पास कोई चारा भी नहीं है।'
उदयपुर
गजेन्द्र पालीवाल ने लिखा- 'भारत में पेट्रोल पर सरकार लालची व्यापारी की तरह 50 फीसदी तक टैक्स वसूलती है। अगर सरकार इस दर को तर्क सम्मत बना दे तो भारत में भी अमरीका व चीन की तरह सस्ता पेट्रोल मिल सकता है।'
प्रिय पाठकगण! पेट्रोल के दाम बढ़ने से लोगों की मुश्किलें बढ़ी हैं। इसलिए आम आदमी सरकार को कोस रहा है। सरकार का दायित्व है, वह तेल कंपनियों की दरें बढ़ाने पर निगरानी रखे। यह भी सच है कि हम पेट्रो-पदार्थों के विकल्पों पर जोर दें तथा पेट्रोल बचत के उपायों को भी रोजमर्रा की जिन्दगी में अपनाएं।

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जनता में गुस्सा

प्रिय पाठकगण! दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर आतंकी धमाके पर पाठकों की तीखी प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं। ऐसी घटनाओं को रोकने में विफल सरकार और नेताओं के प्रति लोगों में किस कदर गुस्सा है, इसकी साफ झलक देखी जा सकती है
जयपुर
मनोज पूर्बिया ने लिखा- 'सात सितम्बर को टीवी चैनलों पर धमाके की खबर देखकर बहुत दुखी था। लेकिन अगले दिन सुबह अखबार (पत्रिका) में गृहमंत्री पी. चिदम्बरम का बयान पढ़कर गुस्से को काबू करना मुश्किल हो गया था। गृहमंत्री के अनुसार- दिल्ली पुलिस को जुलाई में खुफिया अलर्ट दिया गया था, लेकिन हमला नहीं रुक सका। इन्हीं गृहमंत्री महोदय ने 26/11 के मुंबई हमलों के दौरान फरमाया था मुंबई पुलिस को खुफिया जानकारी नहीं मिल पाई, इसलिए हमले हो गए। यानी एक आतंकी हमला इसलिए हुआ कि खुफिया जानकारी नहीं थी। और एक आतंकी हमला इसके बावजूद हुआ कि खुफिया जानकारी थी। आखिर चिदम्बरम देश की जनता को क्या समझते हैं। चिदम्बरम के ये बयान सही थे तो भी और गलत हैं तो भी- उन्हें गृहमंत्री का पद सुशोभित करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। 10 सितम्बर की पत्रिका में उनका बयान फिर पढ़ने के बाद तो साफ लगता है कि उन्हें अब घर बैठ जाना चाहिए। आपको याद दिलाऊं उन्होंने क्या कहा- 'कोई नहीं कह सकता कि आगे कोई आतंकी हमला नहीं होगा।' यानी जनता तैयार रहे- भारत में कहीं भी, कभी भी दिल्ली हाईकोर्ट जैसे धमाकों के लिए!'
इंदौर
राहुल मोघे ने लिखा- 'ये नेता, जो जिम्मेदार पदों पर बैठे हैं, ऐसे बयान कैसे दे सकते हैं। क्या इनकी जिम्मेदारी सिर्फ बयानों तक सीमित है। क्या इन लोगों ने अपने-अपने पदों की जिम्मेदारियां निभाने की शपथ नहीं ली। बहुत अफसोस हुआ जब हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी कह दिया- 'हमारे सिस्टम में कमी है। सिस्टम में स्पष्ट रूप से ऐसी दिक्कते हैं जिसका आतंककारी फायदा उठाते हैं।' लगातार 7 वर्ष से अधिक समय तक प्रधानमंत्री रहने के बावजूद अगर वे सिस्टम में कमियों को नहीं सुधार पाये तो दोष किसका?'
ग्वालियर
गिरीश नैथानी  ने लिखा- 'दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को बड़ी कोफ्त होती है जब लोग 9/11 की घटना के बाद अमरीका का उदाहरण देते हैं। अरे भई, यह इंडिया है। यहां और वहां फर्क है। अमरीका ने 9/11 के बाद 10 वर्षों में कोई आतंकी वारदात अमरीका की धरती पर नहीं होने दी। इंडिया 10 वर्ष में 19 वारदातें झेल गया।'
उदयपुर
दीप शिखा गुप्ता ने लिखा- 'आतंकी घटनाओं से देशवासियों में कितना रोष है, यह हाईकोर्ट परिसर में विस्फोट से घायलों को अस्पताल देखने पहुंचे नेताओं के सामने साफ नजर आ रहा था। मैं उस वक्त टीवी देख रही थी। राहुल गांधी को देखकर लोग भड़क रहे थे। और राहुल सिर झुकाए पतली गली से निकलते दीखे। नितिन गडकरी, विजय मल्होत्रा जैसे नेताओं को घायलों के परिजनों ने बोलने नहीं दिया। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ा। आम तौर पर स्वागत करने वाली भीड़ राजनेताओं पर भड़क रही थी। यह सिर्फ विस्फोट में मारे गए या घायलों के परिजनों का रोष नहीं था, यह देशवासियों के रोष की अभिव्यक्ति थी।'
भोपाल
शीतल उपाध्याय ने लिखा-'हूजी या किसी आतंकी संगठन की हिम्मत कैसे हो गई मीडिया को ई-मेल करने की। लगता है भारत जैसे 'नरम राष्ट्र' को इन आतंककारियों ने धर्मशाला समझ लिया है- अफजल की फांसी रद्द करो, नहीं तो और हमले होंगे। ब्लैकमेल जैसी आतंकियों की यह चेतावनी सीने में नश्तर की तरह चुभ रही है। अगर हमारी सरकार अफजल के मामले में ढिलमुल नीति नहीं अपनाती तो क्या यह नौबत आती।'
कोटा
कमल सिंह ने लिखा-'जयपुर, बेंगलुरु, अहमदाबाद, सूरत, पुणे, वाराणसी आदि शहरों में जब-जब भी धमाके हुए गृहमंत्री ने एक ही राग अलापा- यह हमला खुफिया चूक का परिणाम नहीं था। आतंकियों ने आसान निशाने को लक्ष्य बनाकर कार्रवाई की। सवाल है आतंकी मुश्किल निशानों को क्यों लक्ष्य बनाएंगे? और जिन्हें वे आसान निशाना कहते हैं उनमें मरने वाला कोई वीआईपी नहीं आम आदमी होता है। नेताओं के खोखले वक्तव्यों में अब किसी को दिलचस्पी नहीं रह गई।'
रायपुर
सौमित्र सेन ने लिखा- 'गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के बयानों में ही विरोधाभास है। राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि हमारा खुफिया तंत्र कमजोर है जिसे चुस्त करने की जरूरत है। ये बयानबाजियां ही चलेंगी या कोई सख्त निर्णय भी लेगी सरकार।'
जोधपुर
नवीन परिहार ने लिखा- 'सरकार के रवैये और नेताओं के बयानों से साफ झलकता है कि यह सब ऐसे ही चलता रहेगा। बेगुनाह लोग मारे जाते रहेंगे। आतंकी हमले होते रहेंगे, क्योंकि कोई नहीं कह सकता कि आगे कोई आतंकी हमला नहीं होगा। क्या इन लोगों को राज करने का कोई हक है?'
प्रिय पाठकगण! पाठकों की प्रतिक्रियाओं का सार है कि आतंकियों का खात्मा करना सरकार का दायित्व है। आखिर लोगों को सुरक्षा के लिए आश्वस्त कौन करेगा? जब सरकार ही हताश-निराश और निरूपाय दिखेगी तो जनता का क्या होगा। शायद इसीलिए सभी पाठकों की प्रतिक्रियाओं में जितना आतंकी घटनाओं पर रोष नजर आता है उतना ही सरकार की ढिलाई पर भी गुस्सा दिखाई पड़ता है।

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भ्रष्टतंत्र बनाम जनतंत्र

मैं 27  वर्षीय युवक हूं। सार्वजनिक मुद्दों में रुचि लेता हूं। आजादी के संघर्ष को किताबों में पढ़कर रोमांचित और भावुक होता रहा हूं। जेपी के आन्दोलन के बारे में भी मैंने खूब सुना था। इसलिए जब गांधीजी की तरह एक बुजुर्ग ने देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर आन्दोलन छेड़ा तो मैं इससे भावनात्मक रूप से जुड़ गया। रोज शाम को मोमबत्ती लेकर स्टेच्यू सर्कि ल पर पहुंच जाता, लेकिन जब दिन बीतने लगे तो मैं भावुक होने लगा। अन्ना का अनशन खत्म होगा या नहीं? आठ दिन-नौ दिन-दस दिन... एक-एक दिन मुझो बहुत भारी लग रहा था। आखिर बारहवें दिन प्रधानमंत्री जी की चि_ी पाकर अन्ना ने अनशन खत्म करने की घोषणा की, तो थोड़ी राहत मिली। फिर भी मन में शंका थी, कहीं रात को उन्हें कुछ हो गया तो? मुझो नींद नहीं आई। रविवार सुबह जब उनका अनशन टूटा तो चैन आया। मैं सोचता रहा आखिर मेरी इस बेचैनी की क्या वजह थी? आजकल वास्तविक मुद्दों को लेकर ऐसी मजबूती से आन्दोलन चलाने वाले कहां बचे हैं। मेरी पीढ़ी तो यही सुनती आ रही थी। अब एक विश्वास तो जगा है, अन्याय और शोषण के खिलाफ जनता का। आगे यह हौसला निरन्तर बढ़े, इसके लिए अन्ना हजारे जैसे नेतृत्वकारियों की सख्त जरूरत है। उनका जीवन अमूल्य है- शायद यही मेरी बेचैनी की वजह थी।
- दुष्यन्त पारीक, जयपुर
इस देश के लिए भ्रष्टाचार कितना बड़ा मुद्दा है, आम आदमी को अन्दर ही अन्दर मथ रहा था। अन्ना के आह्वान पर पूरा देश सड़कों पर निकल आया। कुछ घंटे या एक-आध दिन के लिए नहीं- पूरे बारह दिनों तक जनता जमी रही। जज्बा ऐसा कि बारह महीने भी आन्दोलन चलता तो लोग डटे रहते।
- रवीन्द्र कालरा, बीकानेर
मीडिया ने इस आन्दोलन को फैलाया तथा अन्ना की मजबूती और जनता के जज्बे ने सत्ता को झुकाया। यह भ्रष्टतंत्र बनाम जनतंत्र की लड़ाई थी। जिसे सिविल सोसायटी बनाम संसद की लड़ाई बनाने की चालें भी चली गईं।
- दिनेश जैन, इन्दौर
न लड़ाई अभी खत्म हुई है, न ही मुद्दा। बहुत बड़ी विजय की खामखयाली अभी न पालें तो बेहतर होगा। जन लोकपाल बिल पर एक किरण नजर आई है। कानून बनने की राह अभी दूर है। सिविल सोसायटी और व्हीसल ब्लोअर्स के सामने आगे कई चुनौतियां खड़ी हैं।
- नरेन्द्र साहू, रायपुर
जन लोकपाल बिल आन्दोलन से अभी हमें जो हासिल हुआ है, उसे कम नहीं आंकें। आन्दोलन ने सारे राजनीतिक दलों पर एक ऐसा नैतिक दबाव पैदा कर दिया है कि भ्रष्टाचार की आगे की लड़ाई अब इतनी मुश्किल नहीं रह जाएगी, जितनी आन्दोलन की शुरुआत में लग रही थी। ऊपर से लेकर निचले पायदान तक संदेश पहुंच चुका है।
- धर्मेश हाड़ा, कोटा
प्रिय पाठकगण! लोकपाल, जन लोकपाल और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर पाठक इस स्तंभ में खुलकर राय व्यक्त करते रहे हैं। १६ अगस्त को अन्ना हजारे के अनशन शुरू करने से लेकर २८ अगस्त को अनशन समाप्त करने तक अनेक पाठकों की प्रतिक्रियाएं और प्राप्त हुई हैं। इनमें कुछ चुनींदा प्रतिक्रियाओं की बानगी आपने देखी। कुछ और प्रतिक्रियाएं भी देखें।
जबलपुर से कौशल भारद्वाज ने लिखा- 'मैं एक निजी कम्पनी में कार्यरत हूं। सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक ड्यूटी करता हूं। अन्ना के आन्दोलन में भाग लेने के लिए सप्ताह भर छुट्टी लेकर दिल्ली गया। फिर लौट आया, लेकिन मन वहीं अटका रहा। इसलिए घर में ज्यादातर समय टीवी चैनल पर चिपका रहता हूं।'
जोधपुर से दिनेश चन्द्र पुरोहित ने लिखा- 'मीडिया से पल-पल की खबरें मिलती रहीं। सुबह-सुबह अखबार और शाम को टीवी चैनल। पिछले दस-बारह दिन की मेरी यही दिनचर्या थी। 'पत्रिका' के 'दमन पर भारी सत्याग्रह' को मैं सबसे पहले देखता था। जन लोकपाल बिल के मुद्दे को समझने में इस पृष्ठ ने मेरी बड़ी मदद की।'
उज्जैन से कृपाशंकर ने लिखा- 'दरअसल, जन लोकपाल विधेयक एक ऐसे कानून की परिकल्पना है, जिसमें ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की बात कही गई है। हालांकि कानून बनना एक बात है, उसे लागू करना बिलकुल दूसरी बात है। हम कई अच्छे कानूनों का हश्र देख रहे हैं। नेता और नौकरशाही उन्हें लागू ही नहीं होने देते।'
अजमेर से भगवान चन्द्र अजमानी ने लिखा- 'जन लोकपाल विधेयक से सबसे ज्यादा वही डर रहे हैं, जो भ्रष्टाचारी हैं। बड़े-बड़े घोटालों में जिन नेताओं और अफसरों के नाम हैं, वे इसे कभी लागू करना नहीं चाहेंगे। शायद इसीलिए इतने बड़े जन आन्दोलन के बावजूद एक सशक्त लोकपाल बिल बनने में इतनी अड़चनें आ रही हैं।'
उदयपुर से गौरव मेहता ने लिखा- 'अन्ना ने सही कहा, अभी आधी जीत हुई है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत लोकपाल कानून बनना ही काफी नहीं होगा, उसे उतनी ही मजबूती से लागू कराने की भी जरूरत पड़ेगी। इसके लिए टीम अन्ना और आम जनता को तैयार रहना होगा।'
प्रिय पाठकगण! हर जन आन्दोलन का एक संदेश है। जिसका निहितार्थ है कि हम कर्तव्य और अधिकार दोनों के प्रति जागरूक रहें। इन पर आंच आए तो संघर्ष के लिए तैयार रहें। गांधीजी और अन्ना के अहिंसक संघर्ष की तरह। इसकी शक्ति बहुत बड़ी है, जिसकी एक बानगी आपने देखी। देश कितनी ही तरक्की कर ले, भ्रष्टाचार का दैत्य उसे निगल जाएगा। इसलिए इस आन्दोलन को अपने उद्देश्य तक पहुंचना बहुत जरूरी है।

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ऐसा हो लोकपाल


पाठक इसी स्तंभ में राय व्यक्त कर चुके हैं कि देश में भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए एक लोकपाल की नियुक्ति शीघ्र होनी चाहिए। सरकार के भरोसे पिछले 42 वर्षों से लोकपाल विधेयक अटका रहा। अन्ना हजारे ने अनशन किया तो सरकार हरकत में आई। आनन-फानन में समिति बनी और तय समय में लोकसभा में विधेयक भी पेश हो गया। इसलिए अब बहस का विषय यह नहीं है कि लोकपाल की नियुक्ति हो, बल्कि यह है कि सशक्त लोकपाल की नियुक्ति हो। ऐसे लोकपाल की जो भ्रष्टाचार का खात्मा करने में सक्षम हो।
क्या सरकार ने जो विधेयक पेश किया है वह इस उद्देश्य को पूरा करता है?
या अन्ना हजारे ने जो मसौदा रखा, वह इस उद्देश्य के ज्यादा नजदीक है। यानी आज बहस का विषय है कि देश का लोकपाल कैसा हो।
जैसा अन्ना हजारे और सिविल सोसाइटी चाहती है वैसा हो, क्योंकि...
या
जैसा यूपीए सरकार और गठबंधन दल चाहते हैं वैसा हो, क्योंकि...
लोकपाल पर समूची बहस इन दो बिन्दुओं में सिमट आई है। सरकार के अपने तर्क हैं, अन्ना हजारे के अपने। एक को सरकारी लोकपाल कहा जा रहा है। दूसरे को जन लोकपाल जो अन्ना हजारे और सिविल सोसाइटी के आंदोलन का मुख्य मुद्दा है। आखिर इन दोनों में क्या फर्क है, इस पर मीडिया में खूब चर्चा हो चुकी है। अनेक विशेषज्ञों के विचार सामने आ चुके हैं। पाठकों के क्या विचार हैं, यह जानना भी महत्वपूर्ण है। लोकपाल कैसा हो-इस पर पाठकों की राय जनभावनाओं का प्रतिबिम्ब है।
भोपाल से आरिफ अहमद ने लिखा-'जैसा अन्ना हजारे और उनकी टीम चाहती है वैसा लोकपाल ही नियुक्त होना चाहिए, क्योंकि यही जनभावनाएं हैं। देश के आम नागरिकों की भावनाओं का सच्चा प्रतिनिधित्व अन्ना का जन लोकपाल ही करता है, न कि सरकारी लोकपाल जिसका मसौदा संसद में पेश किया गया है। यह कपिल सिब्बल, प्रणव मुखर्जी जैसे घाघ सत्ताधीशों ने तैयार किया है। इस विधेयक के पारित होने से भ्रष्टाचारियों का बाल तक बांका नहीं होगा।'
कोटा से ज्योति जैन ने लिखा-'यह प्रणव मुखर्जी वहीं हैं जिन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को शामिल करने की सिफारिश की थी। मुखर्जी लोकपाल का मसौदा तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष थे और तब विपक्ष में नेता थे। लेकिन आज सत्ता में आकर उन्होंने गिरगिट की तरह रंग बदल लिया।'
जयपुर से दिनेश पालीवाल ने लिखा-'सरकारी लोकपाल विधेयक की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह भ्रष्टाचार की शिकायत करने वाले को ही कटघरे में खड़ा कर देता है। अगर भ्रष्टाचार की शिकायत गलत पाए जाने पर किसी को जेल हो सकती है तो कोई भ्रष्टाचार की शिकायत करेगा ही क्यों?'
इंदौर से संजय नागौरी ने लिखा-'लोकपाल ऐसा होना चाहिए, जिसे भ्रष्ट व्यक्ति को दंडित करने और उसकी सम्पत्ति जब्त करने का सम्पूर्ण अधिकार हो। केवल सिफारिश करने में लोकपाल से कोई नहीं डरेगा। दोषी व्यक्ति अपनी तिकड़म और ताकत से सरकार में पूरी दखल रखता है। इसलिए वह साफ बच निकलेगा।'
उदयपुर से कैलाशचन्द गुप्ता ने लिखा-'अन्ना हजारे का लोकपाल एक शक्तिशाली लोकपाल है, जिसकी आज देश को सख्त जरूरत है। क्योंकि देश में भ्रष्टाचार अपनी चरम स्थिति में पहुंच चुका है। लोकसभा में कुल 543 सांसदों में 162 सांसद दागी हैं। 76 सांसद तो ऐसे हैं जिन पर संगीन आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। देश में प्रतिनिधित्व जब ऐसे लोग करेंगे तो आम जनता का क्या होगा।'
रायपुर से अनिल बिस्वाल ने लिखा-'काले धन की समस्या का समाधान सशक्त लोकपाल ही कर सकता है। सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल की कोई हैसियत नहीं होगी कि वह भ्रष्टाचारियों की काली कमाई विदेशों से लाकर जब्त कर ले। काला धन आज देश का लाइलाज रोग बन चुका है। ताज्जुब होता है जब यह सुनते हैं कि भारत का लगभग 280 लाख करोड़ रुपए स्विस बैंकों में जमा है। ये कालाधन आजादी के 64 साल में देश से भ्रष्टाचारियों ने लूटा है। अंग्रेजों ने भारत पर करीब 200 साल राज किया और करीब एक लाख करोड़ रुपए लूटे, लेकिन ये भ्रष्टाचारी तो अंग्रेजों से गए-गुजरे हैं जिन्होंने महज 64 वर्षों में देश का 280 लाख करोड़ रुपए लूट लिया।'
अजमेर से दीप साहनी ने लिखा-'लोकपाल के गठन में जब 9 में से 5 सरकार के लोग होंगे तो वे शक्तिशाली लोकपाल का चुनाव करेंगे? कौन मूर्ख होगा जो अपनी सर्वशक्तिमान सत्ता को किसी दूसरे को सौंप कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा।'
श्रीगंगानगर से कुलदीप चढ्ढा ने लिखा-'लोकपाल की नियुक्ति और गठन का अधिकार नागरिकों की समिति को ही दिया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार करने वाले ही जब लोकपाल का चयन करेंगे तो निश्चय ही एक भ्रष्ट व्यक्ति को ही चुनेंगे।'
इसके विपरीत कुछ पाठकों ने राय व्यक्त की है कि लोकपाल के मुद्दे पर अन्ना हजारे और सिविल सोसाइटी को लचीला रुख अपनाना चाहिए और प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट को मुक्त रखना चाहिए।
ग्वालियर से देवेन्द्र कौशिक ने लिखा-'अन्ना हजारे का जन लोकपाल न्याय प्रक्रिया में स्थापित सिद्धांत का उल्लंघन करता है। न्याय का सिद्धांत है कि अपराध का संज्ञान लेने वाली, जांच करने वाली तथा अभियोजन करने वाली संस्थाएं अलग-अलग होनी चाहिए। लेकिन जन लोकपाल में अकेले में सारी प्रक्रियाएं समाहित की गई हैं। लोकपाल ही पुलिस, लोकपाल ही वकील और लोकपाल ही न्यायाधीश का काम करेगा। ऐसे में जन लोकपाल में एक निरंकुश, सर्वशक्तिमान अधिपति की बू आती है।'
उज्जैन से रामकृष्ण दाधीच  ने लिखा-'अत्यन्त शक्तियों से परिपूर्ण जन लोकपाल कहीं भष्मासुर का दूसरा अवतार नहीं बन जाए।'
बीकानेर से पूनमचंद सुथार ने लिखा-'भारत में सरकारी कर्मचारियों की संख्या करोड़ों में है। अकेला जन लोकपाल इन सबके भ्रष्ट कारनामों पर कैसे नजर रखा पाएगा?'
प्रिय पाठकगण! जन लोकपाल बनाम सरकारी लोकपाल की शक्तियों और कमजोरियों पर पाठकों ने खुलकर प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं, जिनसे यह तो स्पष्ट है कि देश के लिए एक सशक्त लोकपाल की जरूरत है। सरकार का लोकपाल कहीं बहुत कमजोर तो नहीं कि उसके अस्तित्व का औचित्य ही खत्म हो जाए तथा जन लोकपाल कहीं इतना ताकतवर तो नहीं कि अधिनायक बनकर लोकतंत्र को ही लील जाए। पाठकों की ये प्रतिक्रिया इसी चिन्ता की अभिव्यक्ति है। लेकिन भ्रष्टाचार के भस्मासुर का खात्मा हो, यह हर आम आदमी चाहता है। क्योंकि वहीं इससे पीडि़त है। इसलिए लोकपाल सशक्त, स्वतंत्र और सक्षम हो-यह लोकतंत्र ही नहीं देश की सेहत के लिए भी बहुत अच्छा रहेगा।
सभी पाठकों को 65वें स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।

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आयकर वसूली

  • क्या भारत में व्यक्तिगत आयकर की वसूली खत्म कर देनी चाहिए?
  • क्या मौजूदा आयकर प्रणाली देश के सभी आयकरदाताओं के साथ समान रूप से न्याय करती है?
  • क्या काले धन की समस्या की मुख्य वजह आयकर ढांचे की विसंगतियां हैं?
प्रिय पाठकगण!  इस बार पाठकों की बहस इन्हीं बिन्दुओं पर केन्द्रित है। पाठकों ने अपने विचार 'नहीं वसूला जाए आयकर' (पत्रिका: 24 जुलाई 2011) के संदर्भ में व्यक्त किए हैं। यह रविवारीय आवरण-कथा भारत में आयकर के 150 वर्ष के अवसर पर प्रकाशित की गई थी। ज्यादातर पाठकों ने जहां व्यक्तिगत आयकर वसूली को खत्म करने के विचार का समर्थन किया है, वहीं कई पाठक आयकर ढांचे को अधिक न्याय संगत बनाने के पक्षधर हैं।
जयपुर से जी.सी. श्रीवास्तव ने लिखा- 'आयकर का सिद्धान्त है- ज्यादा कमाने वाले से ज्यादा कर और कम कमाने वाले से कम कर, लेकिन बिल्कुल उल्टा हो रहा है। हमारी वर्तमान आयकर प्रणाली छोटे, मध्यम नौकरीपेशा वर्ग से तो पाई-पाई वसूल कर लेती है, लेकिन काली कमाई करने वाले बड़े 'मगरमच्छों' के सामने लाचार नजर आती है। हां, बीच-बीच में जो छापामारी की कवायद दिखाई पड़ती है- वह जनता की आंखों में धूल झोंकने के सिवाय कुछ नहीं। हकीकत में छापे की ये कार्रवाइयां भारत जैसे विशाल देश में काली कमाई के महासागर में बुलबुले के समान हैं। जो 728 खरब रुपए का कालाधन अब तक विदेशी बैंकों में जमा हो चुका है, वह इस सच्चाई को प्रमाणित करने के लिए काफी है। ये आंकड़े भारत में आयकर के 150 साल के इतिहास के नहीं हैं, बल्कि 1961 का आयकर कानून बनने के बाद के हैं। इसमें भी ज्यादातर काली कमाई पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के दौरान जमा की गई।'
इंदौर से अरुण सनोलिया ने लिखा-'नौकरीपेशा छोटे आयकरदाताओं के साथ आयकर पद्धति न्याय नहीं करती। इसलिए इस वर्ग के लिए आयकर एक अनचाहा उत्तरदायित्व बन गया है। पन्द्रह से पच्चीस हजार मासिक वेतन पाने वाला देश में बहुत बड़ा तबका है। यह तबका महंगाई और दूसरे आर्थिक दबावों से त्रस्त है। इन दबावों के चलते इसे कई सामाजिक समस्याओं से भी जूझना पड़ता है। कर्ज और समस्याओं से घिरे व्यक्ति को अपने अल्प वेतन का भी कुछ हिस्सा कर के रूप में चुकाना पड़ता है। दूसरी तरफ उससे अधिक कमाने वाले गैर वेतन भोगी को जब वह मजे से कर चोरी करते पाता है, तो मन मसोस कर रह जाता है।'
भोपाल से रवि कौशिक ने लिखा- 'मुझे बहुत कोफ्त होती है, जब हमारे खून-पसीने की कमाई से वसूले गए कर राजस्व का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्ट नेता और अफसर एक झटके से घोटालों में हड़प जाते हैं।
जोधपुर से श्याम सुन्दर ओझा ने लिखा-'आयकर में स्लैब व्यवस्था न्यायपूर्ण नहीं है। 8 लाख रुपए कमाने वाला भी 30 प्रतिशत कर चुकाए और 80 लाख कमाने वाला भी 30 प्रतिशत ही चुकाए, यह उचित नहीं। ऐसे प्रावधान लोगों को कर चोरी के लिए मजबूर करते हैं।
जबलपुर से बी.के. पटेल ने लिखा- 'आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2010-11 में देश को आयकर से कुल 4 लाख 46 हजार करोड़ रुपए का राजस्व प्राप्त हुआ। हालांकि देश का आकार और क्षमता को देखते हुए यह राशि बहुत कम है, लेकिन यह सच्चाई है कि यह राशि हमारे सकल राजस्व में 35 फीसदी की हिस्सेदारी निभाती है। दूसरी सच्चाई यह भी है कि करीब साढ़े चार लाख करोड़ रुपए के आयकर राजस्व में निगम कर और धन कर को छोड़ दें तो व्यक्तिगत आयकर का योगदान सिर्फ डेढ़ लाख करोड़ रुपए है, जबकि 2जी घोटाला 1.76 लाख करोड़ का है। और कई घोटालों में कई लाख करोड़ का भ्रष्टाचार सामने आ चुका है। यह धन देश के नागरिकों से वसूला गया टैक्स है, जिससे कम से कम व्यक्तिगत आयकरदाताओं को तो मुक्त रखा ही जा सकता है।'
रायपुर से राजेन्द्र साहू ने लिखा-'एक तरफ छोटे करदाताओं पर बोझ लादा जाता है, दूसरी तरफ बड़े आयकरदाताओं को आयकर संबंधी कई माफी योजनाओं के जरिए लाभ पहुंचाया जाता है। इससे काला धन जमा करने वालों को ही प्रोत्साहन मिलता है। यह पढ़कर आश्चर्य हुआ कि भारत सरकार ने 2005-06 से 2010-11 के बीच कॉरपोरेट जगत को 3 लाख 74 हजार 937 करोड़ रुपए की कर माफी दी। दूसरी तरफ हम किसानों और गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों को सरकारी अनुदानों को हड़पने का दोषी ठहराते हैं। आर्थिक सिद्धान्तों के ये दोहरे मापदंड क्यों?'
उदयपुर से अंकित सामर ने लिखा- 'देश के कुल राजस्व में आयकर की हिस्सेदारी को खत्म कर दिया गया तो हमारी अर्थव्यवस्था को ऐसा तगड़ा झटका लगेगा कि हम संभल नहीं पाएंगे। आयकर खत्म करने की बजाय आयकर तंत्र को सुधारने की ज्यादा जरूरत है।'
बीकानेर से मिथिलेश गुप्ता ने लिखा- 'आयकर का ढांचा इतना सुसंगत हो कि किसी को भी यह बाध्यकारी कानून की बजाय एक नैतिक और जरूरी नागरिक उत्तरदायित्व लगे।'
प्रिय पाठकगण! यह सही है कि आयकर के संदर्भ में अर्थशास्त्रियों व विशेषज्ञों की राय महत्वपूर्ण है। आयकर की अवधारणा, महत्व और उद्देश्य को वे अच्छी तरह परिभाषित कर सकते हैं। आयकर कानून यही इंगित करता है, लेकिन आयकरदाता और आम नागरिकों का दृष्टिकोण भी कम मायने नहीं रखता। आयकर की विसंगतियों को लोगों के अनुभवों से ही परिमार्जित किया जा सकता है। बेहतर होगा, कर नीतियों-खासकर व्यक्तिगत आय कर के मामले में जनता के विचारों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।

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न्याय का पक्ष

सलवा जुडूम पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से एक नई बहस छिड़ गई है। कुछ पक्षकारों की राय में यह फैसला माओवाद को बढ़ावा देगा और देश में माओवादियों को मनमानी करने की खुली छूट मिल जाएगी।
दूसरी तरफ कई जानकारों ने इस फैसले को आदिवासियों व गरीबों के हक में एक क्रांतिकारी निर्णय बताया। उनकी राय में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा प्रायोजित सलवा जुडूम गैर कानूनी ही नहीं अमानवीय व्यवस्था थी, जिसने एक आदिवासी को दूसरे आदिवासी की जान का दुश्मन बना दिया। हिंसा पर काबू पाने की बजाय राज्य सरकार ने आदिवासियों को ही हथियार थमा दिए। देश की सर्वोच्च अदालत ने राज्य सरकार की इस कार्यवाही को अपने 5 जुलाई के फैसले में असंवैधानिक करार दिया। इस पर मीडिया में कई पक्षकार, पत्रकार, कानूनविज्ञ, और विश्लेषक अपनी-अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं। पाठक इस मुद्दे पर क्या कहते हैं, आईए जानते हैं।
रायपुर से प्रवीण दुबे ने लिखा- 'सलवा जुडूम पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से सबसे ज्यादा नुकसान माओवादियों को होगा, जो यह साबित करने पर तुले थे कि यह सरकार गरीबों की सुनती नहीं है। इसलिए अब बंदूक उठा लेना ही एक मात्र रास्ता है। इसमें दो राय नहीं कि चाहे केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें- सभी गरीबों की बजाय उद्योगपतियों व कॉरपोरेट घरानों के हित साधने में जुटी हुई हैं। छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार भी इसका अपवाद नहीं। सरकार गरीबों का जितना शोषण करेगी, गरीब या आदिवासी उतने ही माओवादियों के करीब हो जाएंगे। कोर्ट का फैसला आदिवासियों के पक्ष में है।'
भिलाई से आलोक त्यागी ने लिखा- 'छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार गरीब आदिवासियों के साथ न्याय नहीं कर रही थी। बड़े-बड़े उद्योगपतियों के लिए आदिवासियों को जंगलों से बेदखल किया जा रहा था। आदिवासी विरोध करते तो पुलिस उन्हें माओवादी ठहरा देती। उन पर भयानक जुल्म ढाती। मुट्ठीभर माओवादियों को मुफ्त में प्रचार मिल रहा था। माओवादी खुश थे। आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल करने का काम आसान हो रहा था। सरकार भी खुश थी। ऐसे में इन्हें सुप्रीम कोर्ट का निर्णय भला कैसे रास आएगा। शायद इसीलिए राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट में पुनरीक्षण याचिका दायर करने जा रही है।'
इंदौर से कार्तिक गर्ग ने लिखा 'पत्रिका' में 7 जुलाई को प्रकाशित गुलाब कोठारी के विशेष सम्पादकीय 'असंवैधानिक' की इन पंक्तियों से शायद ही कोई असहमत होगा जिसमें लिखा कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के विरुद्ध चलाया गया अभियान मानवीय संवेदनाओं की सभी सीमाएं पार कर चुका था। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने इसी बात की पुष्टि की है। प्रदेश के सिर्फ एक जिले में ही 35 से ज्यादा पावर प्लान्ट बनाने के राज्य सरकार के करार से यह साफ जाहिर है कि सार्वजनिक उपयोग के नाम पर आदिवासियों की अपरिवर्तनीय भूमि को रूपान्तरित करके बड़े उद्यमियों को हस्तान्तरित किया जाएगा। राज्य सरकार सार्वजनिक हित की आड़ में पिछले कई वर्षों से यही सब तो कर रही है।'
बिलासपुर से दिवाकर शर्मा ने लिखा- 'आदिवासी युवकों को सलवा जुडूम में शामिल करने के लिए एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारी) बनाने के पीछे सरकार का तर्क था कि माओवादियों की हिंसा पर लगाम लगेगी, लेकिन तथ्य यह है कि सलवा जुडूम के बाद राज्य में हिंसा 22 गुणा बढ़ गई और माओवादियों की संख्या में 125 गुणा वृद्धि हो गई। चूंकि मृतकों में अधिकांश आदिवासी शामिल हैं, इससे साफ है कि माओवादी हिंसा के मुख्य शिकार गरीब लोग हैं।'
प्रिय पाठकगण! कई पाठकों ने इन प्रतिक्रियाओं से हटकर राय व्यक्त की है। जयपुर से जितेन्द्र एस. चौहान के अनुसार- 'नक्सली हिंसा की बर्बरता को देश कई बार झेल चुका है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद या माओवाद को देश के लिए आतंककारियों से ज्यादा गंभीर समस्या बताया था। सलवा जुडूम माओवादियों से लड़ने के लिए सरकार के पास एक पुख्ता हथियार की तरह था। यह हथियार छिन जाने पर सरकार माओवादियों के समक्ष और अधिक असहज महसूस करेगी।'
उदयपुर से रजनी रमण ने लिखा- 'हमें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जो आतंककारियों और माओवादियों को मजबूत करे। क्या हम गत वर्ष दंतेवाड़ा में माओवादियों के उस सबसे बड़े हमले को भूल गए हैं जिसमें एक साथ 76 जवानों को बेदर्दी से मार दिया गया था! ये जवान अपना कर्तव्य पालन कर रहे थे। खूंखार माओवादियों के पास अत्याधुनिक हथियार कहां से आए?'
भोपाल से आशीष कुमार सिंह ने लिखा- 'अगर सरकार आदिवासियों को बंदूक थमा कर आगे कर रही है तो माओवादी भी कम नहीं हैं। वे भोले-भाले आदिवासियों को लाल क्रांति का सपना दिखाकर लुभा रहे हैं। माओवादियों ने बाकायदा वेतन देकर बेरोजगार युवकों को भर्ती कर रखा है। उनके पास धन कहां से आ रहा है?'
जबलपुर से शशि शेखर मयंक ने लिखा- 'सलवा जुडूम पर रोक से छत्तीसगढ़ में 5 हजार आदिवासी युवक बेरोजगार हो गए। मणिपुर, उड़ीसा, असम आदि राज्यों में सैकड़ों एसपीओ पर भी प्रश्न चिक्ष लग गया जो नक्सलवाद या उग्रवाद का मुकाबला करने के लिए इन राज्य सरकारों ने नियुक्त किए हैं। केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने इन पर करोड़ों रुपए खर्च कर दिए।'
सिरोही से भानु कुमार ने लिखा- 'माओवादी कभी सैद्धान्तिक लड़ाई लड़ते थे। वे सिर्फ व्यवस्था से जुड़े लोगों, जैसे पुलिस या सरकारी अफसर को निशाना बनाते थे। लेकिन अब तो वे आम जनता को निशाना बनाने से भी नहीं चूकते। झारग्राम में माओवादियों ने जिस ट्रेन को उड़ाया उसमें 140 बेकसूर रेल यात्री मारे गए थे। दंतेवाड़ा में जिस यात्री बस को बारूदी सुरंग से उड़ाया उसमें 40 नागरिक मारे गए। बेकसूर नागरिकों की फेहरिश्त बहुत लंबी है। इसलिए माओवादियों पर किसी तरह का रहम क्यों हो!'
प्रिय पाठकगण! सर्वोच्च न्यायालय का फैसला न तो माओवादियों के पक्ष में है और न ही आदिवासियों के खिलाफ। यह फैसला संविधान और न्याय के पक्ष में है। नागरिकों को संगठित हिंसा से बचाने का उत्तरदायित्व सरकार पर है। उसके पास पुलिस बल है जिसमें लोगों की नियुक्तियां एक निश्चित शैक्षणिक योग्यता, प्रशिक्षण और पात्रता के आधार पर दी जाती है। अगर सरकार आदिवासी युवकों को पुलिस में शामिल करना चाहती है तो उसे इस निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना होगा। अन्यथा उसकी कार्रवाई गैर कानूनी होगी। सलवा जुडूम राज्य सरकार की एक ऐसी ही असंवैधानिक कार्यवाही थी जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगाई है। न्यायालय ने माओवादियों की हिंसा से निपटने के लिए राज्य सरकार के प्रयासों पर रोक नहीं लगाई है।

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चीन की चाल

'ना-ना करते आखिर चीन ने यह मंजूर कर लिया कि वह ब्रह्मपुत्र नदी पर एक अरब 20  करोड़ डॉलर की लागत से विश्व का सबसे बड़ा बांध बनाने जा रहा है।'
जबलपुर से डॉ. पी.के. वाजपेयी आगे लिखते हैं- 'पांच साल पहले खुफिया सैटेलाइट के आधार पर सबसे पहले अमरीका ने बताया कि चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बना रहा है। इस पर भारत सरकार ने विरोध जताया तो चीन ने भरोसा दिलाया कि वह कोई बांध नहीं बना रहा। उल्टे अमरीका की इस सूचना को दुष्प्रचार बताया, लेकिन धीरे-धीरे छनकर जब सारी जानकारियां विश्व के सामने आ गईं तो अब चीन निर्लज्जतापूर्वक यह स्वीकार कर रहा है कि हां वह ब्रह्मपुत्र पर बांध बना रहा है। चीन विश्वसनीय देश न कभी था न कभी रहेगा। कम से कम भारत के संदर्भ में यह निष्कर्ष सौ फीसदी सही है।'
कोटा से योगेश गोयल ने लिखा- 'पत्रिका के 24 जून के अंक में अफसर करीम ने सही लिखा (चीन का हथियार पानी) कि ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन द्वारा बड़ा बांध बनाने से भारत और बांग्लादेश में नदी के प्रवाह पर विपरीत असर पड़ेगा। यह नदी दोनों देशों की अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा स्रोत है। नदी का प्रवाह बाधित होने से दोनों देशों के नागरिकों की रोजमर्रा की जिन्दगी पर असर पड़ेगा। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने केन्द्र सरकार से अनुरोध किया कि वह दोनों देशों के बीच जल संसाधनों के मुद्दे पर नदी-जल संधि पर दस्तखत करें क्योंकि ब्रह्मपुत्र पर बांध बनाने से असम समेत उत्तर पूर्व के राज्यों में पानी की उपलब्धता पर विपरीत असर पड़ेगा।'
जयपुर से प्रसून श्रीवास्तव के अनुसार 'एक तरफ ब्रह्मपुत्र नदी में जल- उपलब्धता को लेकर भारत में विभिन्न स्तरों पर चिन्ता व्यक्त की जा रही है, दूसरी तरफ हमारे विदेश मंत्री हैं जो चैन की बंसी बजा रहे हैं। विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा का कहना है कि हमने अपने सूत्रों से पता लगा लिया कि चीन की इस हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजना से नदी का प्रवाह नहीं रुकेगा। मेरा विश्वास है कि तुरन्त खतरे का कोई कारण नहीं है। मैं विदेश मंत्रीजी से यह जानना चाहता हूं, उनके विश्वास का आधार क्या है? बीसियों बार हम चीन से धोखा खा चुके हैं। वह कभी हमारा विश्वसनीय दोस्त नहीं रहा। हमारे ही रक्षा मंत्रालय ने अपनी रिपोर्ट (पत्रिका 29 जून) में साफ कहा कि हमारे लिए पाकिस्तान नहीं, चीन सबसे बड़ा खतरा है। फिर हमारे विदेश मंत्री किस खामख्याली में हैं।'
प्रिय पाठकगण! भारत की सीमा के निकट तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन एक विशालकाय बांध का निर्माण कर रहा है। ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत से होकर भारत में प्रवेश करती है। शुरू में इनकार के बाद चीन ने अब स्वीकार कर लिया है कि वह इस पर बांध बना रहा है और भारत को इससे घबराने की आवश्यकता नहीं है। चीन का तर्क है कि यह महज एक 'रन ऑफ द रीवर' योजना है जिसके तहत पानी को रोककर बिजली उत्पादित की जाएगी और बाद में पानी को पुन: नदी में छोड़ दिया जाएगा। भारत सरकार चीन के इस तर्क से आश्वस्त है, लेकिन पाठक नहीं। ज्यादातर पाठकों का कहना है कि चीन भरोसे लायक नहीं है।
भिलाई से देशराज गुप्ता ने लिखा- 'चीन की नीयत पर शक करना इसलिए जायज है कि अगर वह ब्रह्मपुत्र पर बांध बना रहा था तो इस तथ्य को छुपाता क्यों रहा? और अब जब सारे तथ्य नेशनल रिमोट सेन्सिंग एजेंसी ने कमेटी ऑफ सिक्रेटरीज के सामने रख दिए हैं तब भी चीन बांध को लेकर सारी सूचनाएं जाहिर नहीं कर रहा। इसके विपरीत वह भारत को बरगलाने की कोशिश कर रहा है। चीन का कहना है कि इस परियोजना का उद्देश्य सिर्फ बिजली उत्पादन करना है, जबकि कई विशेषज्ञों का मानना है कि चीन बिजली परियोजना की आड़ में ब्रह्मपुत्र की धारा को मोड़कर उत्तरी चीन में ले जाना चाहता है। उसका उद्देश्य ब्रह्मपुत्र के पानी को पम्प कर उत्तरी चीन की पूरी तरह सूख चुकी हुआंग हो नदी को पुनर्जीवित करना है। ऐसा कर वह अपने शिजियांग के रेगिस्तानी इलाके को भी सर-सब्ज कर लेगा।'
इंदौर से आशीष पंवार ने लिखा- 'चीन के लिए अपने राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हैं- यहां तक तो किसी को ऐतराज नहीं हो सकता, लेकिन वह दूसरे देशों के राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करे- यह हमें मंजूर नहीं। चीन को ब्रह्मपुत्र की धारा मोड़ने का कोई अधिकार नहीं है। हमें उसकी बिजली परियोजना पर नजर रखनी होगी। हमारे हिस्से के पानी पर आंच नहीं आए, इसकी पुख्ता व्यवस्था अभी से कर ली जाए।'
भोपाल से सुभाष तोमर ने लिखा- 'चीन की यह परियोजना उसके उस अभियान का एक हिस्सा भर है, जो वह तिब्बत के विशाल जल भंडारों पर नियंत्रण करने के लिए पूरा करना चाहता है। चीन ने तिब्बत में मेकांग नदी पर बड़े-बड़े बांध बनाकर सारा पानी निचोड़ लिया। अगर चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह दक्षिण-पूर्व एशिया के कई राष्ट्रों के हितों को प्रभावित कर सकता है। इसलिए भारत को चीन से कूटनीतिक स्तर पर भी निपटना होगा। हमें नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश, थाइलैंड, कंबोडिया, वियतनाम, लाओस आदि देशों को अपने साथ लेना होगा।'
उदयपुर से कल्याण चन्द्र शर्मा ने लिखा- 'चीन की इस परियोजना को अब तक गुप्त रखने से उसकी बदनीयती साफ झलकती है। वह पानी को भारत के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकता है। ब्रह्मपुत्र के पानी को रोककर सूखे के हालात पैदा कर सकता है तो अचानक पानी छोड़कर बाढ़ की स्थिति पैदा कर सकता है।'
जोधपुर से विक्रम पुरोहित ने लिखा- 'यह सही है कि आज बाजार का युग है, इसलिए हमें सामरिक मसलों में उलझने की बजाय आर्थिक और विकास के मुद्दों पर सहयोग की बात करनी चाहिए, लेकिन बात जब राष्ट्रीय हितों की हो तो हमें भी चीन की तरह सर्वोपरिता का सिद्धान्त अपनाना चाहिए। आखिर ब्रह्मपुत्र हमारी न केवल अर्थ-तंत्र की बल्कि सभ्यता और सांस्कृतिक तंत्र की भी रीढ़ है। अरुणाचल पर नजर गड़ाते हुए अब चीन की नजर ब्रह्मपुत्र के पानी पर भी पड़ना हमारे लिए शुभ संकेत नहीं है।'

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सरकारी लोकपाल


'अगर आज देश में इन दो मुद्दों पर जनमत कराया जाए तो जनता का क्या फैसला होगा-
1. विदेशों में जमा काले धन को जब्त कर राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करना चाहिए या नहीं?
2. भ्रष्टाचार पर एक सशक्त और कारगर लोकपाल विधेयक पारित होना चाहिए या नहीं?
भोपाल से डॉ. कमलेश श्रीवास्तव आगे लिखते हैं-'अगर इन दो मुद्दों पर जनमत कराया जाए तो मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कश्मीर से कन्याकुमारी तक जनता इन मुद्दों के पक्ष में वोट देगी। इन मुद्दों पर जनमत की जरूरत इसलिए है कि आज सरकार और विभिन्न राजनीतिक दल स्वार्थ के अनुरूप काले धन व लोकपाल विधेयक की व्याख्या कर रहे हैं। जनता स्वत: ही दूध का दूध और पानी का पानी कर देगी।'
जयपुर से वैभव जैन ने लिखा- 'अगर सरकार विदेशों में जमा काले धन को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने को तैयार है तो फिर बाबा रामदेव के आन्दोलन को कुचलने की क्या जरूरत थी?'
इंदौर से सतीश निगम ने लिखा- 'सरकार अगर भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए एक सशक्त लोकपाल विधेयक बनाने को तैयार है तो उसे अन्ना हजारे की सिविल सोसाइटी के ड्राफ्ट पर ऐतराज क्यों है?'
कोटा से धर्मेश हाड़ा ने लिखा- 'सरकार अगर जनभावनाओं की कद्र करती है तो फिर वह प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल बिल के दायरे से बाहर क्यों रखना चाहती है?'
प्रिय पाठकगण! पाठकों की ये प्रतिक्रियाएं इस बहस पर प्रकाश डालती हैं जो इन दिनों मीडिया में सुर्खियों में है। सरकार का दावा है कि वह काला धन और भ्रष्टाचार खत्म करना चाहती है, परन्तु ठोस उपाय सामने नहीं आ रहे। उल्टे सरकार के क्रियाकलापों से जनता में कई सवाल उठाए जा रहे हैं-
  • क्या काले धन पर सरकार की कथनी और करनी में फर्क है?
  • क्या भ्रष्टाचार, लोकपाल विधेयक पर सरकार की नीयत साफ है?
  • क्या जन भावनाओं को भांपकर सरकार सचमुच कोई ठोस उपाय करने को मजबूर है या वह सिर्फ ढोंग कर रही है?
पाठकों की प्रतिक्रियाओं में इन प्रश्नों के उत्तर चिन्हित किए जा सकते हैं।
रायपुर से महेन्द्र साहू ने लिखा- 'लोकपाल विधेयक पर सरकार की नीयत कतई साफ नहीं है। सरकार का दोगला रवैया देखकर आश्चर्य होता है। ये वही प्रणव मुखर्जी हैं जिन्होंने 2001में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की सिफारिश की थी। मुखर्जी इस मुद्दे पर गठित समिति के अध्यक्ष थे। यानी 'उनके' प्रधानमंत्री की बात अलग थी और 'हमारे' प्रधानमंत्री की बात अलग है! क्या यही सत्ताधीशों का चरित्र है! बिल्कुल नहीं, वाजपेयीजी तो खुद मुखर्जी की सिफारिश पर सहमत थे। कुछ समय पहले तक केन्द्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली और पी. चिदम्बरम भी प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने पर सहमति जता चुके थे। और तो और बड़बोले कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह भी यही बात दोहरा चुके थे। बाद में भले ही वह पलट गए।'
अहमदाबाद से डॉ. रूपा त्रिपाठी ने लिखा- 'काले धन को सरकार राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने को तैयार है तो फिर विधेयक लाने में क्या दिक्कत है? बाबा रामदेव यही चाहते थे, जिनकी मांग को बेरहमी से ठुकरा दिया गया।'
खमनोर (राजसमंद) से शंकरलाल कागरेचा ने लिखा- 'बाबा रामदेव के अहिंसक सत्याग्रह को जिस तरह कुचला गया उसकी मिसाल अन्यत्र नहीं मिलती। किसी जायज आन्दोलन को बलपूर्वक नहीं कुचला जा सकता। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेकर सरकार से जवाब मांगा। ये संस्थाएं ही न्याय करेंगी कि सरकार ने कितनी बर्बर और अनुचित कार्रवाई की।'
ग्वालियर से अशोक लाहा ने लिखा- 'बाबा रामदेव को गिरफ्तारी से बचने के लिए आन्दोलन स्थल से भागना नहीं चाहिए था। बाबा की इसी एक चूक ने विदेशी बैंकों में जमा  70 लाख करोड़ रुपए की काली कमाई का महत्वपूर्ण मुद्दा हाथ से गंवा दिया। केन्द्र सरकार और विरोधियों को उन पर हमला करने का अवसर मिल गया।'
बेंगलूरु से डी.सी. बोथरा ने लिखा- 'सरकार की यह चाल है कि वह मुद्दों की लड़ाई को व्यक्ति पर केन्द्रित कर दे ताकि उन्हें बदनाम किया जा सके। इसलिए कभी वह बाबा रामदेव को 'ठग' बताती है तो कभी अन्ना हजारे को आरएसएस का मोहरा।'
जबलपुर से कौशल भारद्वाज ने लिखा- 'दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे दोनों एक ही मकसद के लिए लड़ने के बावजूद अलग-अलग छोर पर खड़े नजर आते हैं। दोनों एक दूसरे के कुछ मुद्दों पर सहमत हैं कुछ पर असहमत, लेकिन उन्हें सार्वजनिक तौर पर जाहिर कर दोनों अपने-अपने आन्दोलनों को कमजोर ही कर
रहे हैं।'
बीकानेर से दौलत सिंह सांखला ने लिखा- 'विदेशों में जमा काले धन पर विधेयक तथा लोकपाल बिल में प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को शामिल किए बिना काला धन और भ्रष्टाचार कभी खत्म नहीं होंगे।'
श्रीगंगानगर से कुलदीप चढ्ढा ने लिखा- 'सरकार सिविल सोसाइटी के जन लोकपाल बिल को लागू करने को तैयार नहीं थी तो संयुक्त ड्राफ्ट कमेटी गठित करने की नौटंकी करने की क्या तुक थी। सरकार वही लोकपाल बिल पारित कर देती जो उसने 1968 में पेश किया था और जिसे लोकसभा में अब तक 14 बार रखा जा चुका है।'
उज्जैन से कृपाशंकर पुरोहित ने लिखा- 'सरकार अपने मकसद में कामयाब होती नजर आ रही है। पहले बाबा रामदेव के आन्दोलन की हवा निकाली और अब सिविल सोसाइटी के ड्राफ्ट की धज्जियां उड़ा रही है। हर कोई यह बात अच्छी तरह समझाता है कि अगर ड्राफ्ट कमेटी की ओर से दो अलग-अलग ड्राफ्ट केबिनेट में गए तो सरकार कौन से ड्राफ्ट को मंजूर करेगी। एक कमजोर लोकपाल का होना न होना
बराबर है और इसी की तैयारी की जा रही है।

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पाक परमाणु-शक्ति!

रायपुर (छत्तीसगढ़) से चन्द्रप्रकाश शुक्ला ने लिखा-'अमरीकी खुफिया एजेन्सियों का अनुमान है कि पाकिस्तान के पास इस समय 90 से 110 के बीच परमाणु हथियार हैं, जो भारत से कहीं ज्यादा है। (पत्रिका: 1 जून: परमाणु कार्यक्रम में जुटा पड़ोसी) इतना ही नहीं, पश्चिमी रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम की रफ्तार दुनिया के किसी अन्य देश की तुलना में सबसे ज्यादा है। रक्षा विशेषज्ञों को डर है कि पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम में यदि वर्तमान तेजी बनी रही तो वह बहुत जल्द फ्रांस की बराबरी पर पहुंच जाएगा। फ्रांस परमाणु हथियारों के भंडार के मामले में दुनिया का चौथा बड़ा देश है। मैंने जब यह विवरण पढ़ा तो मन में कई प्रश्न उठे।
  •  पहला, यह कि आर्थिक रूप से जर्जर राष्ट्र के पास परमाणु हथियारों के लिए अरबों रुपए का धन कहां से आ रहा है?
  • दूसरा, यह कि पाकिस्तान को किससे खतरा है कि वह ताबड़तोड़ तरीके से परमाणु हथियार एकत्र कर रहा है?
  • तीसरा, यह कि पाकिस्तान को कौन मदद कर रहा है, और क्यों?
  • चौथा और महत्वपूर्ण सवाल यह कि क्या पाकिस्तान अपने परमाणु हथियारों के भंडार की सुरक्षा करने में सक्षम है? अगर नहीं तो क्या इसका सबसे ज्यादा असर भारत पर पड़ेगा?'
इंदौर से विमल दशोरे ने लिखा- '22 मई 2011 की रात कराची के मेहरान नौ सेना बेस पर तालिबानी हमले से यह फिर साबित हो गया कि पाकिस्तान में परमाणु हथियार सुरक्षित नहीं हैं। हमलावर आतंककारी पाक के मसरूर एयरबेस पर रखे परमाणु जखीरे से सिर्फ 24 किमी दूर थे। इससे पहले भी पाक में नवम्बर 2007 व अगस्त 2008 में परमाणु ठिकानों के आसपास सैन्य बलों पर हमले हो चुके हैं।'
कोटा से रामराज गुप्ता ने लिखा- 'एक कहावत है नादान की दोस्ती, जी का जंजाल। इसे यूं भी कह सकते हैं- नादान पड़ोसी, जी का जंजाल। पाकिस्तान की नौ सेना बेस में घुसकर आतंकियों ने 15 घंटे तक कोहराम मचाए रखा और विस्फोट करके सेना के अत्याधुनिक पी-3सी ऑरियन विमान और कई जवानों को उड़ा दिया। उन हमलावर आतंकियों का खात्मा करने में पाक सुरक्षा बलों को पसीने छूट गए। अगर वो 20 आतंकी थोड़ा और दुस्साहस कर परमाणु हथियारों के जखीरे तक पहुंच जाते तो?'
जयपुर से अभिजीत कौल के अनुसार- 'उस देश में परमाणु हथियार सुरक्षित नहीं, जिस देश में परमाणु हथियारों की चाबी निर्वाचित सरकार के हाथ में नहीं हो। पाकिस्तान में राज सेना और आईएसआई का चलता है।'
उदयपुर से भीमसिंह शक्तावत ने लिखा- 'पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को लेकर हमारी चिन्ता का सबसे बड़ा कारण यह है कि एक तरफ खुफिया एजेंसी आईएसआई और आतंककारियों में साठगांठ है, तो दूसरी तरफ सेना में भी कई लोग आतंकियों से मिले हुए हैं। इस बात की पोल हाल ही पाकिस्तानी पत्रकार सलीम शहजाद ने ही खोल दी, जिसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। डेविड कोलमैन हैडली ने भी अमरीकी अदालत में आईएसआई व आतंकी गठबंधन की कलई खोल दी है। अब सारी दुनिया सच्चाई जान चुकी है।'
प्रिय पाठकगण! पड़ोसी देश पाकिस्तान में लगातार आतंकी हमले, विस्फोट और खून-खराबे की घटनाओं को भारत में किस तरह से देखा जा रहा है? भीतर के असुरक्षित हालात के बावजूद पाकिस्तान परमाणु हथियारों का विस्तार क्यों कर रहा है? साथ ही आईएसआई, सेना व आतंकियों के गठजोड़ के आरोप तथा हैडली के बयानों से उजागर हुए तथ्यों पर भारतीय नागरिकों की क्या प्रतिक्रिया है? उपर्युक्त पत्रों में एक स्पष्ट झलक आपने देखी। पाठकों की कुछ और प्रतिक्रियाएं भी देखें।
जबलपुर से अमरीश भाटिया ने लिखा- 'पाकिस्तान में आईएसआई, सेना और आतंकियों की मिलीभगत पर जिसने भी जुबान खोली उसे ठिकाने लगा दिया जाता है। मीडिया का वहां हमेशा गला घोंटा गया। एशिया टाइम्स आनलाइन के ब्यूरो चीफ सलीम शहजाद की हत्या ताजा उदाहरण है। इससे पहले जंग समूह के उमर चीमा तथा लाला हमीद बलूच जैसे पत्रकारों की मौत भी इन्हीं परिस्थितियों में हुई थी।'
अहमदाबाद से दिवेश अग्रवाल के अनुसार- 'हैडली के विस्तृत बयान से साफ है कि भारत में 26/11 की साजिश आईएसआई और लश्कर-ए-तैयबा ने मिलकर रची। मेजर इकबाल और हाफिज सईद के बारे में हैडली ने सब कुछ उगल दिया।'
ग्वालियर से दीपक साहू से लिखा- 'पाक ने खुशाब परमाणु परिसर में अचानक गतिविधियां तेज कर दी- यह बात मीडिया में सामने आई है। पाक अपनी परमाणु ताकत का जिस तेजी से विस्तार कर रहा है उससे पता चलता है कि उसे यूरेनियम प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो रहा है। अमरीका से रिश्ते कमजोर पड़ने पर अब उसे चीन मदद कर रहा है।'
उज्जैन से ज्ञानप्रकाश शर्मा ने लिखा- 'चीन और पाकिस्तान का गठजोड़ न केवल दक्षिण एशिया में शक्ति-संतुलन बिगाड़ देगा, बल्कि पश्चिमी देशों के लिए भी नए खतरे पैदा करेगा।'
भोपाल से आर.सी. कालरा ने लिखा- 'अगर पाकिस्तान में परमाणु हथियार आतंककारियों के हाथ में पड़ गए तो न केवल पाकिस्तान तबाह हो जाएगा, भारत को भी भारी नुकसान पहुंचेगा। इसलिए भारत सहित विश्व समुदाय को पाक पर दबाव बनाना चाहिए कि वह नए परमाणु संयंत्रों पर रोक लगाए। चीन को भी पाबंद किया जाए कि वह पाक को यूरेनियम सप्लाई बंद करे।'

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जनता से छल!

भिलाई से गौतम श्रीवास्तव ने लिखा-
'मैं यूनिवर्सिटी टॉपर रहा हूं। लेकिन कोई मुझ से पूछे कि बताओ साल भर में पेट्रोल की कीमतें कितनी बार बढ़ीं, तो मैं फेल हो जाऊंगा। सचमुच मुझे याद नहीं। देश में एक मात्र यही ऐसी चीज है जो असंख्य बार महंगी होती है। अपनी कार में पेट्रोल भरवाते हुए मैं कभी जान नहीं पाता, आज कितना पेट्रोल मिलेगा। कितने रुपए में कितना पेट्रोल? कुछ पता नहीं। पम्प के मीटर पर डिसप्ले होती संख्याएं बेमानी महसूस होती हैं। कल जो दाम था, आज नहीं। आज जो दाम है, कल भी कायम रहेंगे, कोई गारंटी नहीं। मेरे जैसे कई और लोग भी 'कंफ्यूज' रहते होंगे। कहीं ये तेल कंपनियों का षड़्यंत्र तो नहीं कि ग्राहक पेट्रोल की वास्तविक कीमत कभी याद ही न रख पाए। पेट्रोल पम्प वाले उन्हें मनमाफिक ढंग से लूटते रहें!'
कोलकाता से आशीष डागा ने लिखा- 'इस बात का रंज नहीं है कि पेट्रोल की कीमत फिर बढ़ा दी। इस बात का अफसोस है कि हमने जिन लोगों को चुना, उन्होंने ही हमें धोखा दिया। सिर्फ 24 घंटे! इतना भी सब्र नहीं रखा। उधर पांच राज्यों के चुनाव परिणाम घोषित हुए और इधर पेट्रोल के दाम बढ़ा दिए। यह जनता का सरासर अपमान है।'
प्रिय पाठकगण! पिछले पखवाड़े पेट्रोल की कीमतें 5 रुपए प्रति लीटर बढ़ाई गईं। यह अब तक की सर्वाधिक बढ़ोतरी है। शायद इसीलिए इस विषय पर पाठकों की सर्वाधिक प्रतिक्रियाएं भी प्राप्त हुई हैं। क्या पेट्रोल की इतनी मूल्य वृद्धि उचित है? क्या भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय मूल्य वृद्धि के बावजूद नागरिकों को राहत पहुंचाने में सक्षम है? क्या पेट्रोल कंपनियों की दलीलों पर लोगों को भरोसा है? क्या सरकार का पेट्रोल के दामों पर सचमुच कोई नियंत्रण नहीं? पाठकों की प्रतिक्रियाओं में इन सवालों के जवाब समाहित हैं।
इंदौर से दीनबंधु आर्य  के अनुसार- 'वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी जनता को मूर्ख समझते हैं। पेट्रोल के दाम बढ़ाने पर उन्होंने जो तर्क दिया जरा उस पर गौर करें। मुखर्जी ने कहा- पेट्रोल की कीमतों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं। सरकार ने जून 2010  के बाद पेट्रोल को नियंत्रण मुक्त कर दिया। यानी मुखर्जी साहब जनता की नाराजगी को भांपकर उसे फुसलाने की कोशिश कर रहे हैं। कौन यकीन करेगा? हर कोई जानता है कि पेट्रोल के अन्तरराष्ट्रीय दाम जनवरी 2011 में ही बढ़ गए थे। तभी से तेल कंपनियां पेट्रोल महंगा करना चाहती थी, लेकिन सरकार ने उन्हें पांच राज्यों के चुनावों के कारण ऐसा करने की इजाजत नहीं दी। जैसे ही चुनाव परिणाम आए, सरकार ने तेल कंपनियों को हरी झडी दिखा दी।'
कोटा से रामसिंह तंवर ने लिखा-'तेल कंपनियां पिछले 4 माह से घाटा क्यों उठा रही थीं? अगर वे सरकार के नियंत्रण से मुक्त थीं तो उन्हें खुलासा करना चाहिए कि दाम बढ़ाने से उन्हें किसने रोक रखा था?'
जोधपुर से विक्रम परिहार ने लिखा- 'यह सही है कि किरीट पारिख समिति की सिफारिशों के अनुसार पेट्रोल के दाम तेल कंपनियां खुद तय करती हैं, लेकिन इसी समिति की यह भी सिफारिश थी कि दाम बढ़ाने से पूर्व सरकार की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक है। इसलिए यह साफ है कि सरकार ने जनवरी 2011 से 13 मई 2011 तक कंपनियों को अपने राजनीतिक स्वार्थ की खातिर रोके रखा। जैसे ही स्वार्थ पूरा हुआ, कंपनियों को लूट की इजाजत दे दी। यह राजनीति का घिनौना पक्ष है।'
ग्वालियर से मगन सिंह 'ज्वाला' के अनुसार 'तेल कंपनियां और सरकार दोनों मिलकर जनता को लूट रहे हैं। क्या तेल कंपनियां जनता को यह बताएगी कि उनकी बैलेंस शीट कब घाटे में रही? गत वर्ष देश की तीनों प्रमुख कंपनियों ने करोड़ों रुपए का शुद्ध मुनाफा कमाया। दूसरी तरफ सरकार पेट्रोल पर अंधाधुंध टैक्स लगाकर जनता की जेब काट रही है। दुनिया के विकसित और पिछड़े दोनों तरह के कई देशों से भारत सरकार पेट्रोल पर ज्यादा टैक्स वसूली करती है।'
होशंगाबाद से हेमन्त शर्मा ने लिखा- 'अगर केन्द्र व राज्य सरकारें दोनों मिलकर अपने-अपने हिस्से के टैक्स में कुछ कटौती कर दें तो वह अंतरराष्ट्रीय बाजार के उतार-चढ़ावों से जनता को मुक्त रख सकती हैं। आखिर क्या जरूरत है पेट्रोल पर सौ प्रतिशत टैक्स वसूली की?'
जयपुर से सुभाष हल्दिया ने लिखा- 'पेट्रोल आज आम जनता की जरूरत बन गया है। ऐसे में सरकारों को जनता के हित में फैसले करने चाहिए। इसके विपरीत राजस्थान में तो सरकार जनता से वादा करके भूल गई और उसने आज तक पेट्रोल पर न तो वेट की दर कम की न ही रोड सैस घटाया।' जबकि बाड़मेर में तेल उत्पादन के बाद राज्य सरकार ने रॉयल्टी के तौर पर गत वर्ष 1700 करोड़ रुपए कमाए।'
उज्जैन से पीताम्बर शुक्ला ने लिखा- 'हर बार पेट्रोल महंगा करने का कारण अंतरराष्ट्रीय मूल्य वृद्धि बताया जाता है, लेकिन इसका सारा बोझ जनता पर डालना उचित नहीं। सरकार अपनी टैक्स दरें घटाए और कंपनियां अपना मुनाफा।'
चेन्नई से अच्युत श्रीनिवासन ने लिखा- 'पेट्रोल पर आयात शुल्क खत्म करना चाहिए। कच्चे तेल पर कस्टम ड्यूटी कम करनी चाहिए। इसी तरह पेट्रोल पर अनाप-शनाप लगाया जाने वाला उत्पाद शुल्क भी कम करना चाहिए। साथ ही, सभी पेट्रो पदार्थों पर सब्सिडी बढ़ाई जानी चाहिए।'
भोपाल से सैयद मुमताज अली ने लिखा- 'पेट्रोल के बढ़ते दामों ने मानो आग लगा दी है। अभी कुछ वर्षों पहले तक मैं अपनी कार में ढाई हजार रुपए का पेट्रोल प्रति माह डलवाता था। अब सात हजार रुपए भी कम पड़ने लगे हैं। यह पेट्रोल तो हमें शायद कहीं का नहीं छोड़ेगा।'

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बेखबर पाकिस्तान!


ग्वालियर से मिथुन मोघे ने लिखा-
1. 'क्या ओसामा-बिन-लादेन के खात्मे की अमरीकी कार्रवाई 'ऑपरेशन एल्विस' की जानकारी पाकिस्तान को पहले से थी?
2. या फिर पाकिस्तान की राजधानी व उसकी सैन्य अकादमी के नाक तले छुपे ओसामा को अमरीकी सैनिकों ने खोज निकाला, गोलियों से भूना, लाश को साथ लेकर हेलीकॉप्टरों से उड़ गए और बेचारे पाकिस्तान को कोई खबर तक नहीं हुई?
  इन दोनों सवालों के जवाब चाहे वे हां में हो या ना में-पाकिस्तान के गले की हड्डी बन गए हैं जो न उगलते बन रही है न निगलते। आज पाकिस्तान एक ऐतिहासिक राष्ट्रीय शर्म के दौर से गुजर रहा है। उसे पूरी दुनिया धिक्कार रही है। इन हालात के लिए कोई और नहीं पाकिस्तान खुद जिम्मेदार है।'
उदयपुर से नरेन्द्र चतुर्वेदी ने लिखा- 'पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के चीफ शुजा पाशा और पाक सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कियानी को अमरीकी ऑपरेशन की जानकारी नहीं थी- यह कोई नहीं मान सकता। ये दोनों ही पाकिस्तान के सर्वेसर्वा हैं। दोनों को मालूम था ओसामा कहां छुपा है। और यह भी साफ है दोनों को पहले से मालूम था कि अमरीका ऐबटाबाद में क्या करने जा रहा है? सवाल है ये दोनों सर्वशक्तिमान माने-जाने वाले पाक के 'भाग्य विधाता' आखिर खामोश क्यों रहे? क्यों उन्होंने 'ऑपरेशन एल्विस' का जरा सा भी प्रतिवाद नहीं किया? क्या किसी दूसरे राष्ट्र के  दस-बीस सैनिक लड़ाकू हेलीकॉप्टरों से आकर इतनी आसानी से सुरक्षित लौट सकते थे?'
प्रिय पाठकगण! ओसामा के खात्मे की अमरीकी कार्रवाई को लेकर भारतीय नागरिकों की क्या प्रतिक्रिया है? कहने को पाकिस्तान में लोकतंत्र है, लेकिन पाठक वहां राज सेना का ही मानते हैं। सवाल है, क्या कट्टरवादी पाक सेना पस्त हो चुकी है या फिर आईएसआई अपनी तयशुदा लाइन से पीछे हट गई है? क्या पाक की चुनी हुई सरकार बिलकुल नकारा है? क्या पाकिस्तान पूरी तरह से एक लुंजपुंज राष्ट्र बन चुका है? पाठकों की प्रतिक्रियाओं में इन सवालों के जवाब तथा भारतीय जनमानस की झलक भी देख सकते हैं।
इंदौर से प्रो. राजेन्द्र मोहन ने लिखा- 'जिस ऐबटाबाद में अमरीकी सैनिक हेलीकॉप्टर से उतरे वह पाकिस्तानी सेना का महत्वपूर्ण क्षेत्र है। वहां आने वाले हर व्यक्ति पर सेना की कड़ी निगरानी रहती है। आश्चर्य है अमरीकी सैनिक आए और ओसामा को मारकर चले गए। क्या पाक सेना सो रही थी?'
रायपुर से राजशेखर ने लिखा-'अमरीका ने ओसामा को ढूंढ निकाला और मार गिराया। यह अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद को एक बहुत बड़ा झटका है। आतंककारियों को इसी तरह ढूंढ-ढूंढ कर मारना चाहिए। पाकिस्तान पर मुझे तरस आता है। वह अब भी झूठ बोल रहा है कि उसे ओसामा की कोई जानकारी नहीं थी।'
जयपुर से सुभाष चन्द्रा ने लिखा- 'पाकिस्तान के हुक्मरानों के पास और कोई चारा भी नहीं था। उन्हें पाकिस्तानी जनता के सामने अपनी खाल बचाने के लिए झूठ बोलना ही पड़ेगा।'
जबलपुर से देवेन्द्र सरीन ने लिखा- 'पाकिस्तान की जनता पाकिस्तानी शासकों को दोनों तरफ से बख्शने वाली नहीं है। चाहे उन्हें अमरीकी कार्रवाई की जानकारी थी तो भी, नहीं थी तो भी।'
बीकानेर से पी.सी. सुथार ने लिखा- 'अमरीका आतंकवाद से लड़ने के लिए पाकिस्तान को प्रतिवर्ष जो 15 हजार करोड़ रुपए देता था, सेना व गुप्तचर एजेंसियों के लोग उसे ऐय्याशियों में उड़ा देते थे। वे आतंककारियों से कभी नहीं लड़े। उल्टे उन्हें मदद करते रहे और मनमाफिक देश को लूटते रहे। आज पाकिस्तान की हालत इतनी खराब है कि अगर अमरीका कर्ज न दे तो पाक जनता को राशन पानी भी नसीब न हो।'
अजमेर से डॉ. सतीश ने लिखा- 'हो सकता है पाकिस्तान को अमरीकी कार्रवाई की बिलकुल भनक न पड़ी हो। पाकिस्तान में कुछ भी हो सकता है।'
भोपाल से प्रियांशु जैन ने लिखा- 'भारत को भी इसी तरह की कार्रवाई करनी चाहिए। पाकिस्तान में भारत के अपराधी ओसामा जैसे एक नहीं कई आतंककारी छिपे बैठे हैं। इनमें कई तो वहां खुलेआम देखे जाते हैं। भारत को मुम्बई बमकांड का सरगना दाउद इब्राहिम और भारतीय संसद पर हमले का दोषी मौलाना मसूद अजहर के साथ वही करना चाहिए जो अमरीका ने ओसामा के साथ किया।'
कोटा से रामसिंह तंवर ने लिखा- 'पाक अधिकृत कश्मीर में भारत के खिलाफ सक्रिय आतंककारियों के 42 शिविर हैं। शिविरों को हमें हमला करके नष्ट कर देना चाहिए।'
जोधपुर से करणसिंह भूणी ने लिखा- 'संपादकीय 'हम क्यों खामोश' (पत्रिका: 4 मई) पढ़कर प्रत्येक स्वाभिमानी भारतीय का मस्तक शर्म से झुका होगा, परन्तु सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं को स्वाभिमान की जरा-सी भी परवाह नहीं है। भारत की कमजोर सरकार अब तक संसद पर हुए हमले के मुख्य आरोपी अफजल गुरु को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद मृत्युदंड देने में हिचकिचा रही है। उससे क्या उम्मीद करें।'
पाली से दीपक मेहता ने लिखा- 'मैं कलीम बहादुर के लेख 'अब तो सुधरे पाकिस्तान' (पत्रिका: 3 मई) से सहमत हूं। हमें पाकिस्तान पर दबाव बनाना चाहिए। सीधा हमला ठीक नहीं होगा।'
बेंगलूरु से सोमेन्द्र मैसी ने लिखा- 'ओसामा को खत्म करने के बाद अमरीका के राष्ट्रपति ओबामा ने कहा- हम जो ठानते हैं कर दिखाते हैं। क्या भारत के प्रधानमंत्री भी पाक में छिपे आतंककारियों के लिए ऐसा कहेंगे?'

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कोख में कत्ल




जयपुर से कुमारी सुष्मिता ने लिखा- 'जनगणना- 2011 के आंकड़ों ने मुझे शर्मसार कर दिया। इन आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में छह साल उम्र की बालिकाएं घट गई हैं। यानी बाल लिंगानुपात लड़कों के मुकाबले और ज्यादा गिर गया है। शिक्षा के प्रसार और कन्या-भ्रूण हत्या के खिलाफ लगातार सामाजिक-सरकारी अभियानों के बावजूद यह क्या हो रहा है? क्या हम पढ़े-लिखे सभ्य समाज कहलाने के हकदार हैं? जो आंकड़े प्रकाशित हुए हैं (पत्रिका: 1 व 5 अप्रेल) उनसे साफ जाहिर है कि लड़कियों की संख्या घटने का एकमात्र कारण कोख में ही उनका कत्ल कर देना है। पहले हम रूढि़यों, अंधविश्वास और अशिक्षा को दोषी मानकर खासकर, ग्रामीण समाज को कोसते थे, लेकिन अब? पढ़ा-लिखा शहरी समाज गर्भ में लिंग का पता लगा कन्याओं का खात्मा कर रहा है। मुझे बहुत ही मानसिक कष्ट हुआ जब एक तरफ पत्रिका में लिंगानुपात के आंकड़े प्रकाशित थे तो बगल में यह खबर भी छपी थी जिसमें उसी दिन जयपुर में दो नवजात कन्याओं की हत्या की गई थी। एक स्थान पर कोई नवजात कन्या का शव फेंक गया था तो दूसरी जगह नाले में कन्या-भ्रूण पॉलिथिन बैग में लिपटा मिला। क्या यह सब हमारे सभ्य-समाज के मुंह पर कालिख नहीं है?'
डी.के. शर्मा (कोटा) ने लिखा- '...तो ढूंढे नहीं मिलेगी दुल्हन' शीर्षक समाचार का निष्कर्ष चेतावनी की घंटी है। अगर अनसुनी की तो लड़के आने वाले वर्षों में दुल्हनों के लिए तरस जाएंगे। आबादी का संतुलन गड़बड़ाने से सब कुछ गड़बड़ा जाएगा। हमारे परिवारिक और सामाजिक रिश्तों का ताना-बाना बिखर जाएगा।'
प्रिय पाठकगण! जनगणना- 2011 के आंकड़ों में एक हजार पुरुषों की आबादी पर महिलाओं की संख्या में थोड़ी बढ़ोतरी को जहां कई पाठकों ने अच्छा संकेत माना है, वहीं बाल लिंगानुपात घटने पर गहरी चिन्ता प्रकट की है। शायद आपको यह विरोधाभास लगे कि वर्तमान में कन्या-भ्रूण हत्याओं के लिए पढ़े-लिखे शहरी समाज को ज्यादा दोषी माना जा रहा है, वहीं शहरी समाज से ही इस बुराई के खिलाफ आवाज भी उठ रही है। पाठकों की ये प्रतिक्रियाएं इसकी बानगी भर हैं।
ग्वालियर से दिग्विजय सिंह ने लिखा- 'पूरे देश में कन्या-भ्रूण हत्या के आंकड़े भयावह हैं। अनुमान लगाया गया है कि पिछले 50 वर्षों में भारत में 1.50 करोड़ नवजात कन्याओं की हत्या की जा चुकी है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के भारतीय प्रतिनिधि के अनुसार 2001 से 2007 के बीच लिंग परीक्षण के कारण प्रसव पूर्व ही 6 लाख लड़कियां प्रतिवर्ष नहीं जन्मी। यानी रोजाना 1600 लड़कियों की गर्भ में ही हत्या कर दी गई। वर्ष में औसतन 28  से 30  लाख भ्रूण परीक्षण होते हैं। सरकारी एजेंसियां सोई हुई हैं। पुलिस और चिकित्सा महकमों की हालत का पता इसी से चलता है कि मार्च-2011 तक देश के विभिन्न राज्यों में जन्म से पूर्व लिंग परीक्षण करने वालों के खिलाफ सिर्फ 805 मामले दर्ज हुए और इनमें भी मात्र 55 मामलों में कार्रवाई हुई। मध्य प्रदेश में दर्ज 70 मामलों में तो एक पर भी कार्रवाई नहीं हुई।'
ज्योति शर्मा (धौलपुर) ने लिखा- 'कन्या-भ्रूण हत्या रुके भी तो कैसे? सरकारी मशीनरी का इस बुराई को रोकने में कोई रोल ही नजर नहीं आता। प्रदेश में पीसीपीएनडीटी एक्ट-1994 के तहत कन्या-भ्रूण हत्या रोकने के उद्देश्य से एक विशेष टीम गठित की गई थी जिसका मुखिया डिप्टी एसपी स्तर का अधिकारी था, लेकिन इस विशेष टीम ने आज तक कुछ नहीं किया सिवाय कागजी कार्रवाई के। उल्टे लिंग परीक्षण करने वाले दोषी डॉक्टरों और सोनोग्राफी सेन्टरों को खुली छूट मिल गई।'
अहमदाबाद से अलका जोशी ने लिखा-'देश के 17  राज्यों में लिंगानुपात घटने पर केन्द्र सरकार केवल घडि़याली आंसू बहा रही है। (पत्रिका: 22 अप्रेल) हाल ही उन सभी राज्यों के स्वास्थ अधिकारियों के साथ केन्द्रीय सचिव की बैठक में निर्णय तो लंबे-चौड़े किए गए हैं, लेकिन ऐसे निर्णय बाद में ठंडे बस्ते में चले जाते हैं। अगर सरकार सचमुच गंभीर है तो कन्या-भ्रूण हत्या में दोषियों के लिए मौत की सजा का प्रावधान करना चाहिए।'
भोपाल से ओमप्रकाश सिंघल ने लिखा- 'समझ में नहीं आता एक मां अपनी पुत्री की हत्या के लिए कैसे तैयार हो जाती है? अगर मां चाहे तो कोई ताकत कन्या-भ्रूण या नवजात कन्या की हत्या नहीं कर सकती।'
इंदौर से सुभाष अग्निहोत्री ने लिखा- 'गर्भवती महिला को लिंग परीक्षण के लिए परिवार के लोग ही बाध्य करते हैं। यदि उसकी इच्छा पूछी जाए तो एक मां कभी भी अपने जिगर के टुकड़े को खत्म नहीं करेगी।'
बैंगलूरुसे नरेन्द्र भंसाली ने लिखा- 'कन्या-भ्रूण हत्या पर हम जितना शोर मचाते हैं उतना ही अगर नारी अत्याचार पर मचाएं तो कन्या-भ्रूण हत्या की नौबत ही नहीं आएगी।'
अजमेर से लालचंद 'भारती' ने लिखा- 'आज देश की राष्ट्रपति नारी है। लोकसभा अध्यक्ष नारी है। देश के मुख्य सत्ताधारी दल की मुखिया भी नारी है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिसमें स्त्री-शक्ति ने मौजूदगी दर्ज नहीं कराई हो। मीडिया ने कन्या-भ्रूण हत्या के खिलाफ वातावरण बनाने में काफी मदद की है 'पत्रिका' की 'एकल पुत्री जयते' और 'अपनी पुत्री जयते' जैसे अभियान ने अनुकूल वातावरण बनाया है। कई सामाजिक संस्थाएं इस क्षेत्र में अनूठा कार्य कर रही हैं। हमें उम्मीद करनी चाहिए लोग बेटियों की कद्र करना सीखेंगे।'

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