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जहां तय है खबरों की दरें

कल्पना करें, जब सरकार का शक्तिशाली व साधन-सम्पन्न तंत्र ही खबरों की खरीद-फरोख्त करेगा, तो मीडिया को भ्रष्टाचार के दलदल में धकेलने से भला कौन रोक पाएगा? छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार ने कुछ प्रमुख टीवी चैनलों पर मनचाही खबरें दिखाने के लिए किस तरह सरकारी खजाना खोल दिया, इसकी पोल 'इंडियन एक्सप्रेस ने खोली है।

यह सही है, 'पेड न्यूज' के अधिकांश मामलों में मीडिया दोषी है। लेकिन दूसरी ओर मीडिया को भ्रष्ट करने में चुनावी उम्मीदवार, राजनीतिक दलों, नेताओं के अलावा कारपोरेट घरानों को भी कम जिम्मेदार नहीं माना जाता। अब इसमें एक नाम और जुड़ गया है और वह है छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार। सरकार भी खबरें खरीदती हैं, यह पहला उदाहरण है। कल्पना करें, जब सरकार का शक्तिशाली व साधन-सम्पन्न तंत्र ही खबरों की खरीद-फरोख्त करेगा, तो मीडिया को भ्रष्टाचार के दलदल में धकेलने से भला कौन रोक पाएगा? छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार ने कुछ प्रमुख टीवी चैनलों पर मनचाही खबरें दिखाने के लिए किस तरह सरकारी खजाना खोल दिया, इसकी पोल 'इंडियन एक्सप्रेस' ने पिछले दिनों प्रकाशित एक विस्तृत समाचार रिपोर्ट में खोल दी।
'छत्तीसगढ़ गवर्नमेंट पे'ज फार आल द टीवी न्यूज देट इज फिट टू बाय' हैडलाइन से प्रकाशित इस रिपोर्ट में जो तथ्य और आंकड़े दिए गए हैं, वे छत्तीसगढ़ में टीवी चैनलों और राज्य सरकार दोनों पर बदनुमा दाग है। रिपोर्ट में हालांकि 2009 से 2011 तक के ही ब्यौरे हैं, लेकिन अब सब कुछ ठीक हो गया होगा, यह मानने का कोई कारण नजर नहीं आता। सरकारी कार्यक्रमों खासकर, मुख्यमंत्री की कवरेज के लिए स्थानीय टीवी चैनलों ने बाकायदा कई पैकेज बना रखे हैं। सबकी अलग-अलग दरें निर्धारित हैं। एक टीवी चैनल का उदाहरण देखिए—मुख्यमंत्री के भाषण व अन्य महत्वपूर्ण सरकारी कवरेज के लिए 2 मिनट का स्पेशल पैकेज। रोजाना 15 बार प्रसारण। कीमत 3.28 करोड़ रु. प्रतिवर्ष। इसी तरह मुख्यमंत्री की जनसभाओं की 10 मिनट लाइव कवरेज की कीमत 48 लाख रु. प्रतिवर्ष। (हर माह 4  प्रसारण) एक और पैकेज है—टिकर। रोजाना 10 घंटे दिखाए जाने वाले इस टिकर पैकेज की कीमत है 60 लाख रु. प्रतिवर्ष। एक और स्पेशल पैकेज है जिसमें सरकारी कार्यक्रमों की आधा घंटा कवरेज है। यह राष्ट्रीय नेटवर्क के लिए भी भेजी जाती है। इस पैकेज की कीमत है—50 लाख रुपए प्रतिवर्ष। (हर माह दो कार्यक्रमों का प्रसारण) टीवी स्क्रीन पर एक पट्टिका दिखाने का भी छोटा पैकेज है, जिसमें बच्चों के साथ मुख्यमंत्रीजी की फोटो दिखाने का प्रावधान है। इसकी कीमत है 14.6 लाख रु. प्रतिवर्ष। ये सारे पैकेज निजी टीवी चैनल की ओर से सरकार को 2010-11 के कार्यक्रमों की कवरेज के लिए प्रस्तावित किए गए थे।
'इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट में कई टीवी चैनलों की प्रसारित खबरों का तिथिवार ब्यौरा भी छपा है, जिनकी अलग-अलग कीमतें प्रस्तावित की गईं। इन्हें अखबार ने 'मैन्यूफ्रेक्चर्ड न्यूज' कहा है। इस 'मैन्यूफ्रेक्चर्ड न्यूज' के दो-एक उदाहरणों से ही पता चल जाएगा कि सरकार किस तरह अपने पक्ष में खबरें प्रायोजित कराती हैं। इनमें विरोधियों से लेकर माओवादी तक शामिल हैं। जाहिर है, प्रायोजित या फिर नकली खबरों ने सरकार का नैतिक बल कमजोर कर दिया। शायद इसीलिए राज्य सरकार राज्य के बजट प्रसारण के लिए भी चैनलों को कीमत चुकाती है। अखबार की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 में राज्य सरकार ने बजट प्रसारण के लिए चार टीवी चैनलों को 25 लाख रु. का भुगतान किया। यही नहीं, बस्तर में गरीब आदिवासियों को अनाज वितरण का सरकारी कार्यक्रम टीवी पर दिखाने के लिए टीवी चैनलों को 14.26  लाख रु. की कीमत चुकाई गई। किसी के भी जेहन में यह सवाल कौंध सकता है, आखिर यह सब क्या है? सरकार को क्या जरूरत है ऐसा करने की? अपनी जन कल्याणकारी योजनाओं के लिए सरकार को मीडिया का मोहताज क्यों होना चाहिए? क्यों सरकार लालायित है मीडिया में अपनी पब्लिसिटी के लिए? स्पष्ट है, सरकार की नीयत में खोट है। अगर सरकार पब्लिसिटी ही चाहती है तो बाकायदा विज्ञापन जारी करे। विज्ञापन-सामग्री को खबर का रूप देना जनता से धोखा है। यही सवाल मीडिया से भी है। जन कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की जानकारी लोगों तक पहुंचाना मीडिया का काम है। इनकी जमीनी हकीकत बताना भी मीडिया का फर्ज है। जनहित में सूचनाओं का प्रसार और खबरों का विश्लेषण मीडिया नहीं तो और कौन करेगा? इन कार्यों की कीमत कैसी? आश्चर्यजनक रूप से सरकार और मीडिया ने अपने-अपने तर्कों में लीपापोती की है। छत्तीसगढ़ सरकार और स्थानीय चैनल जिन्हें विज्ञापन या प्रायोजित खबरें बता रहे हैं, वे साधारण खबरों के रूप में ही लोगों के सामने परोसी गईं, विज्ञापन के रूप में नहीं। चतुराई बरतते हुए भले ही कुछेक अपवाद छोड़ दिए गए हों, लेकिन भ्रष्टाचार का यह धंधा छत्तीसगढ़ में आज भी खूब फल-फूल रहा है। वह भी राज्य सरकार के सरपरस्ती में।
सरकारी मकानों पर             
पत्रकारों के कब्जे
मीडिया और सरकार के भ्रष्ट गठजोड़ का एक और उदाहरण मध्यप्रदेश से है। मामला मीडिया संस्थानों की बजाय मीडिया कर्मियों से ज्यादा जुड़ा है। मध्यप्रदेश में सरकारी मकानों पर 210 पत्रकार बरसों से कब्जा जमाए बैठे हैं। इन पत्रकारों पर 14 करोड़ रु. से अधिक की किराया राशि बकाया है। यह चौंकाने वाली जानकारी अगर राज्य सरकार की ओर से स्वाभाविक तौर पर आई होती तो और बात थी। जानकारी सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त हुई है। इस आधार पर एक रिटायर्ड सरकारी अधिकारी ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की है। आरोप है कि दो या तीन साल के लिए आवंटित सरकारी मकान में कुछ पत्रकार तो 37 वर्षों से कब्जा जमाए हुए हैं। इस दौरान राज्य में पांच-छह सरकारें तो आई होंगी। किसी भी सरकार ने इन पत्रकारों से मकान खाली कराने या किराया वसूल करने की कोशिश क्यों नहीं की? जाहिर है, हर सरकार अपने हित साधने के लिए पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई करने से बचती रही। हालांकि 210 आवंटित सरकारी मकानों पर 11 मकानों में अदालत का स्टे है और 23 मकान खाली भी कराए गए हैं। लेकिन अब भी 176 मकानों पर पत्रकारों के अनधिकृत कब्जे हैं। क्या इनके खिलाफ सरकार कोई कार्रवाई कर रही है या फिर कोर्ट के आदेश का इंतजार कर रही है?

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मनोरंजन, मजाक और मौत!

यह पाठकों, मीडिया और सरकार, तीनों के लिए महत्वपूर्ण समय है। जहां मीडिया को अपनी सीमा का ध्यान रखना चाहिए। वहीं सरकारों को भी आलोचना बर्दाश्त करनी चाहिए। कोई भी सरकार आदर्श सरकार नहीं होती। इसलिए आलोचना से ऊपर नहीं हो सकती। ऐसे में मीडिया अगर जनहित के मुद्दे उठाकर लोगों का ध्यान खींचे, तो क्या बुराई है?
रेडियो जॉकी की 'हॉक्स कॉल' के बाद मौत को गले लगा लेने वाली नर्स जेसिंथा सल्दान्हा का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। जेसिंथा मीडिया के एक क्रूर मजाक का शिकार बन गई। भारतीय मूल की जेसिंथा सल्दान्हा लंदन के मशहूर किंग एडवर्ड सप्तम अस्पताल में नर्स थी। उसकी ड्यूटी एक खास मरीज की सेवा में लगी थी। यह खास मरीज थी ब्रिटेन के शाही परिवार की बहू केट मिडिल्टन, जो इन दिनों गर्भवती हैं।
गत सप्ताह अस्पताल की रिसेप्शनिस्ट के पास फोन आया। यह फोन ऑस्ट्रेलिया के २ डे एफ.एम. के दो रेडियो जॉकी ने मिलकर किया। महिला जॉकी मेल ग्रेग ने ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का स्वांग रचते हुए कहा, 'क्या मैं अपनी बहू केट से बात कर सकती हूं।' रिसेप्शनिस्ट ने तत्काल फोन मिला दिया। उधर से नर्स जेसिंथा ने बात की। निस्संदेह जेसिंथा ने महारानी एलिजाबेथ समझकर ही रेडियो जॉकी से बात की। उसे जरा भी संदेह नहीं हुआ, क्योंकि बीच-बीच में वह एक पुरुष आवाज भी सुन रही थी, जिसे महारानी 'प्रिंस चाल्र्स' कहकर सम्बोधित कर रही थी। प्रिंस चाल्र्स का रोल माइकल क्रिश्चियन निभा रहा था। जेसिंथा ने शाही बहू की तबीयत का पूरा ब्यौरा भी दिया और चिंतित महारानी को ढांढस भी बंधाया कि उनकी बहू ठीक हैं और सो रही हैं। जेसिंथा ने भोलेपन में मरीज से मिलने का माकूल समय भी बता दिया। तभी दोनों रेडियो जॉकी ठहाका लगाकर हंस पड़े। हकीकत पता चलने पर जेसिंथा बहुत शर्मिन्दा हुई। अगले दिन वह अपने फ्लैट में फंदे से लटकी पाई गई। आत्महत्या से पूर्व उसने तीन पत्र लिखे। पत्र में उसने अपनी मौत के लिए दोनों रेडियो जॉकी को जिम्मेदार ठहराया। उसके शव को भारत लाकर उड्डुपी के पास पैतृक गांव में गमगीन माहौल के बीच अंतिम संस्कार कर दिया गया।
एक कत्र्तव्यनिष्ठ नर्स की दुखद मृत्यु ने झकझोर दिया। सोशल मीडिया में गुस्सा फूट पड़ा। रेडियो जॉकी व एफ.एम. चैनल की जबर्दस्त निन्दा की गई। लंदन में शोकसभा कर जेसिंथा को श्रद्धांजलि दी गई। ऑस्ट्रेलिया की प्रधानमंत्री जूलिया गेलार्ड ने इसे 'भयानक हादसा' बताया। खबर है २ डे एफ.एम. रेडियो की लोकप्रियता में गिरावट आ गई। कई विज्ञापनदाताओं ने रेडियो से मुंह फेर लिया। ऑस्ट्रेलिया के संचार और मीडिया प्राधिकरण ने स्वत: संज्ञान लेकर रेडियो के खिलाफ जांच शुरू कर दी।
इधर सोशल नेटवर्क पर कई लोगों ने मांग की है कि शाही बहू केट मिडिल्टन के होने वाले बच्चे का नाम जेसिंथा रखा जाए। कुछ लोगों ने सोशल नेटवर्क पर वेबपेज बनाया, 'नेम द रॉयल बेबी जेसिंथा इन द मेमोरी ऑफ नर्स जेसिंथा सल्दान्हा'। 'हॉक्स कॉल' करते हुए दोनों रेडियो जॉकी को अंदाज नहीं था कि बात इस हद तक पहुंच जाएगी। वे तो नर्स को मजाक का पात्र बनाकर श्रोताओं का मनोरंजन करना चाहते थे। नर्स ही क्यों, किसी का भी मजाक उड़ाकर लोगों का मनोरंजन हो, तो क्या हर्ज है! यही सोच आज मीडिया पर हावी है। जेसिंथा त्रासदी की वजह भी यही है। ब्रिटिश पत्रकार एंड्रयू ब्राउन ने 'द गार्जियन' में सही लिखा कि मीडिया को अपने कामकाज के तरीकों पर गौर करने की जरूरत है।
छत्तीसगढ़ में प्रेस का दमन
मीडिया ही क्यों, सरकारों को भी अपने कामकाज के तरीकों पर गौर करने की जरूरत है। जनता के वोटों से चुनी हुई सरकारें जब जनता के हकों पर ही कुठाराघात करें, तो लोकतंत्र का खतरे में पडऩा निश्चित है। छत्तीसगढ़ में यही हो रहा है। यहां की रमन सिंह सरकार प्रेस का दमन करने में सबको पीछे छोड़ चुकी है। सरकार जब सत्ता के मद में डूब जाती है, तो उसे ठकुरसुहाती के अलावा कुछ पसंद नहीं आता। सरकारी तंत्र के घपले-घोटाले उजागर करके पत्रिका ने लोगों के हकों पर हो रहे कुठाराघात की ओर ध्यान खींचा। यही नहीं, मुख्यमंत्री रमन सिंह के भी कुछ कारनामों को उजागर किया, जो पहली बार छत्तीसगढ़ की जनता के सामने आए। सरकार की भवें तन गईं। पत्रिका को सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए। इसकी परवाह न करते हुए पत्रिका जनता के प्रति अपना दायित्व लगातार निभाता रहा। पिछले विधानसभा सत्र में पत्रिका संवाददाताओं के प्रवेश पत्र निरस्त कर दिए गए थे।
पत्रिका को सुनवाई का मौका तक नहीं दिया। अगला सत्र शुरू होने के बावजूद पत्रिका संवाददाताओं के विधानसभा प्रवेश पर रोक जारी है। जबकि जब छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के निर्देश हैं कि पत्रिका के आवेदन करने पर उसके संवाददाताओं को विधानसभा कवरेज के लिए प्रवेश पत्र जारी करने पर निर्णय करें। विधानसभा लोकतंत्र का मंदिर है, जहां कानून का सम्मान होता है। न्यायालय के आदेश के बावजूद पत्रिका संवाददाताओं को प्रवेश से रोकना क्या कानून और न्याय की अवहेलना नहीं है?
छत्तीसगढ़ की जनता को जानने का हक है कि सदन में उसके हितों के लिए राज्य सरकार क्या कदम उठा रही है। इस हक से वंचित करना जनता की अवहेलना है, जिसने सरकार को सत्ता सौंपी। यह सीधे अभिव्यक्ति व प्रेस की स्वतंत्रता का दमन है। यह दूसरी बात है कि पत्रिका अपने स्रोतों से विधानसभा के समाचार प्रकाशित कर रहा है और जनता के प्रति अपना दायित्व निभा रहा है।  
गांव का 'स्मार्ट' अखबार
गत दिनों अखबारों की दुनिया में एक नई शुरुआत हुई। लखनऊ के पास छोटे से गांव कुनौरा से नया हिन्दी अखबार निकला—'गांव कनेक्शन'। यह गांवों की 'स्मार्ट' तस्वीर पेश करेगा। अखबार के सम्पादक नीलेश मिश्र के अनुसार, मीडिया में यह भ्रान्ति है कि गांव का मतलब सिर्फ खेती-बाड़ी या फिर ऑनर किलिंग है। आप कुनौरा आकर देखिए। यहां लोगों को डेनिम्स पहने हुए और गांव की स्टॉल पर मोमोज खाते हुए देख सकते हैं। 'गांव कनेक्शन' का पहला अंक ही स्मार्ट तेवर के साथ आया है। एक फीचर ग्रामीण शादियों में लोकप्रिय हो रहे 'बुफे डिनर' पर है, तो एक लेख बलिया के निवेश बैंकर पर है, जो मूलत: न्यूयार्क में स्थित है।
'गांव कनेक्शन' में युवा ग्रामीण पत्रकारों को रखा गया है, जिनमें ज्यादातर संवाददाता मॉस कम्यूनिकेशन व पत्रकारिता स्कूलों के स्थानीय विद्यार्थी हैं।

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अखबारों की महत्वपूर्ण भूमिका

सबसे बड़ी खामी धारा 66-ए में यह है कि अगर आपकी बात से किसी को नाराजगी हुई तो वह आपके खिलाफ मामला दर्ज करवा सकता है। और इस पर पुलिस का एक सिपाही भी आपको थाने ले जाकर बैठा सकता है। ऐसे में सर्वोच्च अदालत की दखलंदाजी से इस कानून की कमियों, अस्पष्टताओं को दूर करने के हर संभव प्रयास  करने पड़ेंगे

आपको याद होगा, जिस दिन शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे की अन्त्येष्टि हुई, उस दिन समूचा मुम्बई महानगर बंद रहा। बंद डर की वजह से रहा या ठाकरे के प्रति सम्मानवश, इस बहस में पड़े बगैर हम यह कहेंगे कि इस पर भिन्न राय रखने वालों को अपना मत प्रकट करने का पूरा अधिकार है। मुम्बई की दो लड़कियों ने फेसबुक पर अपनी राय जाहिर की। बल्कि राय सिर्फ शाहीन ने जाहिर की थी। उसकी दोस्त रेणु ने महज उसका समर्थन किया था। शाहीन की राय थी कि किसी की मृत्यु पर पूरे शहर को बंद कर देना कहां तक जायज है? इसे पढ़कर शिव सैनिक भड़क गए। शाहीन के चाचा के क्लिनिक पर तोडफ़ोड़ की तथा पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी। पुलिस रात को ही दोनों लड़कियों को पकड़कर ले गई। लड़कियों ने तत्काल माफी मांग ली। अपना फेसबुक अकाउंट भी बंद कर दिया। यह घटना संभवत: मुम्बई के एक इलाके पालघर तक सिमटकर रह जाती। लेकिन इस घटना का विवरण टाइम्स ऑफ इंडिया ने अगली सुबह प्रकाशित कर दिया। अगले दिन बाकी अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी यह घटना सुर्खियों में छा गई। अदालत में जमानत के बाद तीसरे दिन ये लड़कियां जेल से छूट पाईं। महाराष्ट्र सरकार की नींद खुली। लड़कियों के खिलाफ मामला बंद कर दिया गया। इतना ही नहीं, दो पुलिस अधिकारियों को निलंबित भी कर दिया गया। सरकार ने आदेश दिया कि अब से धारा ६६-ए के तहत मामलों को पुलिस महानिरीक्षक स्तर का अधिकारी ही देखेगा।
और अब इस धारा को देश की सर्वोच्च अदालत में चुनौती मिल गई। दिल्ली की छात्रा श्रेया सिंघल की जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सहित, महाराष्ट्र, प. बंगाल, दिल्ली और पुड्डुचेरी की सरकारों को नोटिस जारी करके चार सप्ताह के भीतर अपना पक्ष रखने को कहा है। इन राज्यों में सूचना तकनीक कानून के दुरुपयोग की घटनाएं पिछले दिनों प्रकाश में आई थीं। कुछ अरसा पूर्व पुड्डुचेरी के रवि श्रीनिवासन को भी पुलिस घर से पकड़कर ले गई थी। रवि ने ट्विटर पर वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम के बेटे कार्ति चिदम्बरम और सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा के बारे में समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों के आधार पर अपनी राय व्यक्त की थी। इसी तरह पश्चिम बंगाल में जाधवपुर विश्वविद्यालय के दो प्रोफेसरों को भी इसलिए जेल जाना पड़ा, क्योंकि इनमें से एक ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर कार्टून बनाया था और दूसरे ने अन्य लोगों को भेज दिया था। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर व्यक्त की गई अभिव्यक्तियों को जिस तरह से दबाने की कोशिशें की गई, उससे लोगों में यह संदेश गया कि सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने पर तुली है। स्वीकार किया जा रहा है कि सूचना तकनीक कानून के तहत मिले अधिकारों का पुलिस और शासन ने दुरुपयोग ही किया। शासन में बैठे कई लोग इस बात को मानते हैं कि सूचना कानून को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया। सूचना तकनीक मंत्री कपिल सिब्बल भी मानते हैं कि इस कानून में कई खामियां हैं। सबसे बड़ी खामी धारा 66-ए में यह है कि अगर आपकी बात से किसी को नाराजगी हुई तो वह आपके खिलाफ मामला दर्ज करवा सकता है। और इस पर पुलिस का एक सिपाही भी आपको थाने ले जाकर बैठा सकता है। ऐसे में सर्वोच्च अदालत की दखलंदाजी से इस कानून की कमियों को दूर करने का प्रयास होगा। संसद में हंगामा और बिना बहस कानून पारित होने से ऐसी ही विसंगतियां पैदा होती हैं।
कानून, मीडिया और कोयले की कालिख
सौ करोड़ की जबरन वसूली के मामले में जी न्यूज की दलील काम नहीं आई। अपने दो सम्पादकों की गिरफ्तारी में अभिव्यक्ति की आजादी के मुद्दे पर उसे समर्थन नहीं मिला। उल्टे सोशल मीडिया में लोगों का गुबार फूट पड़ा। मामला जिस रूप में सामने आया उससे जी न्यूज की काफी किरकिरी हुई। लिहाजा कानून को अपना काम करने देना चाहिए।
कानून को कोयले की कालिख भी मिटानी चाहिए। सांसद और उद्योगपति नवीन जिन्दल की कंपनी जिन्दल स्टील एंड पावर लि. जे.एस.पी.एल. पर गंभीर आरोप हैं। इसलिए कहीं जिन्दल दो सम्पादकों के वीडियो टेप के बहाने खुद को पाक साबित करने की कोशिश तो नहीं कर रहे? कैग की रिपोर्ट में बहुत कुछ साफ है। इसके बावजूद सीबीआई जे.एस.पी.एल. व उससे जुड़ी कंपनियों पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं कर सकी है। केन्द्र की सरकार अपने सांसद के कारनामों पर चुप्पी साधे हुए हैं। वह २ जी स्पेक्ट्रम की तरह सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बगैर कुछ नहीं करना चाहती। कैग की रिपोर्ट और मीडिया में आए तथ्य बताते हैं कि नवीन जिन्दल की कंपनी कोयला खदानों का आवंटन पाने और गरीब किसानों की जमीनें लेने में अग्रणी है। उनके पास झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और मध्यप्रदेश में कोयला खदानें हैं। कैग की रिपोर्ट के बाद जांच के दौरान यह बात सामने आई कि जे.एस.पी.एल. ने १६ कोयला खदानों के ब्लॉक्स हासिल करने के लिए आवेदन किया था। यह बात भी सामने आई कि कुछ कंपनियां, जिन्हें कोल ब्लॉक्स आवंटित हुए, वे भी नवीन जिन्दल की कंपनी से जुड़ी हुई हैं। इनमें नलवा स्पंज आइरन लि., गगन स्पंज आइरन लि. तथा मोनेट इस्पात एंड एनर्जी लि. कंपनियों के नाम शामिल हैं। मोनेट इस्पात संदीप जाजोडिया की कंपनी है, जो नवीन जिन्दल के निकट रिश्तेदार हैं। इन सभी मामलों की तह में जाने की जरूरत है। कुछ कंपनियां ही कोयला खदानों पर कब्जा जमाने की कोशिश में क्यों लगी हैं? उनके आपस में तार क्यों जुड़े हुए हैं? क्यों वे नाम बदलकर काम करती हैं? उनकी राज्यों व केन्द्र की सरकारों से क्या साठगांठ है? प्रशासनिक तंत्र क्यों उन पर मेहरबान रहता है? ये सारे सवाल मीडिया के सामने चुनौती की तरह हैं। केन्द्रीय जांच ब्यूरो अव्वल तो इनकी तह तक शायद ही जाए। अगर गया भी, तो परिणाम हासिल होगा, इसकी उम्मीद कम है। कई बड़े-बड़े नाम सामने आ चुके हैं। सजा किसी एक को भी अभी तक नहीं मिली। सजा मिलना तो दूर, अभी तक उनके खिलाफ कानून का शिकंजा कसता हुआ भी नजर नहीं आ रहा है।

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खुलेपन की आड़ में

माउस के एक क्लिक पर ऐसी दुनिया खुल जाती है, जहां कोई नैतिक या सामाजिक वर्जना नहीं। इस बारे में हिन्दी व अंग्रेजी की कई प्रतिष्ठित कही जाने वाली पत्रिकाएं कुछ ज्यादा ही एक दूसरे से होड़ करती हुई लगती हैं। खुलेपन की आड़ में अश्लीलता परोसी जा रही है। प्रतिष्ठित पत्रिकाएं यह सब बौद्धिकता के आवरण में लपेटकर कर रही हैं।


यह सही है कि युवा पीढ़ी की सोच में काफी खुलापन आ गया है। यह भी सच है कि सिनेमा व टीवी इसमें अहम भूमिका निभा रहे हैं, रही-सही कसर इंटरनेट पूरी कर रहा है। माउस के एक क्लिक पर ऐसी दुनिया खुल जाती है, जहां कोई नैतिक या सामाजिक वर्जना नहीं। सारी हदें पार हो जाती हैं। ऐसे में युवा-वर्ग को पत्र-पत्रिकाओं से जोड़े रखने की बड़ी चुनौती है।
इस चुनौती का जवाब प्रिंट मीडिया दो तरीके से दे सकता है। एक तो यह कि वह भी वो सब करने लगे जो ये इलेक्ट्रॉनिक्स माध्यम कर रहे हैं। या फिर दूसरा तरीका यह कि प्रिंट मीडिया अपनी अलग उपयोगिता और पहचान को मजबूत बनाए। दैनिक अखबार खबरों व सूचनाओं के माध्यम से इस चुनौती का काफी हद तक मुकाबला करने में सफल हुए हैं। लेकिन अनेक साप्ताहिक व मासिक पत्रिकाएं सस्ती लोकप्रियता के दलदल में धंसती हुई नजर आती हैं। इस बारे में हिन्दी व अंग्रेजी की कई प्रतिष्ठित कही जाने वाली पत्रिकाएं कुछ ज्यादा ही एक दूसरे से होड़ करती हुई लगती हैं। यह होड़ युवाओं के भविष्य की आवश्यकताओं और उनकी समस्याओं को लेकर होती तो कुछ और बात थी। होड़ इस बात को लेकर है कि युवाओं को रिझाने में कौन-सी पत्रिका आगे है। कुछ पत्रिकाएं तो सस्ती 'ए' फिल्मों व पोर्न साइटों को भी पीछे छोडऩा चाहती हैं। खुलेपन की आड़ में युवाओं को अश्लीलता परोसी जा रही है।
दिलचस्प बात यह है कि प्रतिष्ठित पत्रिकाएं यह सब बौद्धिकता के आवरण में लपेटकर कर रही हैं। कभी फिटनेस व सौन्दर्य के नाम पर, तो कभी प्रेम व रोमांस के नाम पर, कभी कला व साहित्य के नाम पर, तो कभी आधुनिक लाइफ स्टाइल और सेक्स सर्वे के नाम पर युवाओं को गुमराह किया जा रहा है। हर दूसरे-तीसरे माह सेक्स पर इन पत्रिकाओं के विशेष अंक आप देख सकते हैं। अगर यह नहीं तो कवर स्टोरी जरूर होगी। पोर्न स्टार सन्नी लियोन और मॉडल पूनम पांडे के उत्तेजक फोटोग्राफ्स बड़े चाव से छापे जा रहे हैं। हिन्दी-अंग्रेजी की कुछेक पत्रिकाएं तो इस बात के लिए जानी जाने लगी हैं कि वे साल में एक-दो 'धांसू' सेक्स सर्वे अंक जरूर निकालेंगी। सामग्री का स्तर, खासकर प्रस्तुतीकरण देखकर कोई भी अंदाज लगा सकता है कि इनका वास्तविक उद्देश्य क्या है। फोटो का चयन, शीर्षक-उपशीर्षकों की भाषा, उत्तेजक विवरण, कथन आदि को बॉक्स बनाकर अलग से हाईलाइट करने की शैली इन पत्रिकाओं को खूब आती है।
दिल्ली की एक मशहूर हिन्दी पत्रिका ने इस बार (14 नवम्बर 2012) साहित्य में सेक्स विषय पर कवर स्टोरी प्रकाशित की है। इसमें 'दुनिया की सबसे ज्यादा बिकने वाली इरॉटिक किताब' के बारे में जानकारी देते हुए बताया गया है कि इसे हिन्दी में लाने की तैयारी की जा रही है। साथ ही कवर पर पत्रिका ने पूछा कि 'क्या हिन्दी समाज स्त्री के लिखे सेक्स साहित्य के लिए तैयार है?' पत्रिका ने कुछ देसी-विदेशी 'इरॉटिक' किताबों के चटखारेदार अंश भी प्रकाशित किए हैं।
इसमें दो राय नहीं कि सेक्स कोई वर्जित विषय नहीं है। लेकिन इसे प्रस्तुत किस नीयत से किया गया है, यह देखना जरूरी है। विषय का प्रस्तुतीकरण इसका प्रमाण आप देता है। अधिकांशतया इन विषयों को पत्रिकाएं चटखारेदार बनाने की कोशिश कर रही हैं। इस कोशिश में श्लील-अश्लील के बीच की झाीनी रेखा पाट दी जाती है। चूंकि ये पत्रिकाएं घरों में पढ़ी जाती हैं, इसलिए चिन्ता करने की जरूरत है। श्लील और अश्लील की बहस होती रही है। लेकिन भारतीय मूल्यों में विश्वास रखने वाले परिवार यह अच्छी तरह समझाते हैं कि दोनों में फर्क करने वाली बारीक रेखा कब, कहां और क्यों शुरू होती है।
इसके बावजूद बुद्धिजीवियों का एक तबका इस विषय को केवल पश्चिम के नजरिए से देखता है और अपने निष्कर्ष भारतीय समाज पर थोपने की कोशिश करता है। यह तबका पश्चिमी लोगों के यौन व्यवहार में  बी.डी.एस.एम. (बॉन्डेज, डिसीप्लिन, सैडिज्म और मैसोथिज्म) का बहुत रस लेकर बखान करता है और ब्रिटिश लेखिका ई.एल. जेम्स की किताब 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' पर फिदा है। यह तबका मानता है कि अंग्रेजों के साथ ही भारतीय मध्य वर्ग ने भी विक्टोरिया के जमाने की नैतिकता को किनारे लगा दिया है। ये पत्रिकाएं भी यही कर रही हैं, जिसका बुरा असर न केवल युवाओं पर बल्कि किशोर-किशोरियों व बच्चों पर भी पड़ रहा है।
ताकतवर कौन?
ताकतवर लोगों के परिजनों के भ्रष्टाचार पर अगर आप ट्विट करते हों, तो सावधान हो जाएं! पुलिस आपको पकड़कर बंद कर सकती है। पुड्डूचेरी के इंजीनियर रवि श्रीनिवास के साथ पिछले दिनों ऐसा ही हुआ। उन्होंने केन्द्रीय वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम के बेटे कार्ति चिदम्बरम और सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा के बारे में प्रकाशित खबरों पर ट्विट किया था। इसे एक मामूली बात समझकर वे भूल भी गए थे कि अचानक सुबह-सुबह पुलिस उनके घर पहुंच गई और गिरफ्तार करके ले गई। बीबीसी की हिन्दी सेवा से बातचीत में रवि श्रीनिवास ने बताया कि पुलिस स्टेशन पर उन्हें बताया गया कि कार्ति चिदम्बरम ने उनके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई है, इसलिए उन्हें गिरफ्तार किया गया।
रवि के अनुसार, एक पुलिस वाले ने मुझसे संकेत में ही पूछा कि तुमने ताकतवर लोगों को छूने की कोशिश क्यों की? रवि को शिकायत है कि ट्वीटर पर मैंने इससे भी ज्यादा तीखे ट्वीट देखे हैं। मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूं कि उन्हें एक ऐसे आदमी की परवाह क्यों हुई, जो सिर्फ 16 लोगों के लिए ही ट्विट करता है। यह गौरतलब बात है कि रवि श्रीनिवास के ट्विटर पर सिर्फ 16 फॉलोअर्स थे, लेकिन इस घटना के बाद यह आंकड़ा ढाई हजार को पार कर गया है। इसे कहते हैं असली ताकत! अभिव्यक्ति की इसी शक्ति से अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं।

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गरीबों से खिलवाड़


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गरीबों को सस्ता गेहूं मुहैया कराने के सरकारी दावे की पोल एक बार फिर खुल गई। मरे जानवर जैसी बदबू वाला सड़ा हुआ गेहूं रविवार रात जब ट्रेन से जयपुर के कनकपुरा रेलवे स्टेशन पहुंचा, तो सड़ांध के मारे जी मिचलाने लगा। यह गेहूं  53 हजार कट्टों में पंजाब से आया था और फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया के गोदाम में भरा जा रहा था। 'पत्रिका' में सड़े गेहूं के कट्टों का फोटो व खबर छपने के बाद एफसीआई के अफसर लीपापोती कर रहे हैं। दरअसल, एफ.सी.आई. का ऐसे मामलों में यही तर्क होता है कि सड़ा हुआ अनाज लोगों में नहीं बांटा जाता। इसे वे 'नान इश्यू व्हीट' के खाते में डाल देते हैं। अव्वल तो इस बात का कोई भरोसा नहीं कि सड़ा गेहूं लोगों को नहीं बांटा जाता। मीडिया में अगर खबर नहीं आई होती, तो गेहूं चुपचाप न केवल गोदाम में भर दिया जाता, बल्कि लोगों के घरों में भी पहुंच जाता तो कोई आश्चर्य नहीं और यह मान भी लिया जाए कि कार्पोरेशन के अफसर इतने सतर्क हैं कि वे सड़े गेहूं को बांटने नहीं देते, तो सैकड़ों कट्टों को गोदाम में रखा क्यों जा रहा था? अधिकांश कट्टों की हालत इतनी खराब थी कि वह बाहर पड़े रहते तो जानवर भी उनमें मुंह नहीं मारते। यह जनता के साथ धोखा है। इस गेहूं का आटा लोगों तक पहुंच जाता तो? उनके स्वास्थ्य के साथ अक्षम्य खिलवाड़ होता। गरीबों को दो जून की रोटी नसीब नहीं। लेकिन खाये-अघाये अफसरों को कोई फिक्र नहीं। सड़ता है तो सड़े अनाज! उनकी तनख्वाह पक्की! अनाज की ऐसी दुर्गति अक्सर क्यों होती है, कोई पूछने वाला नहीं। यह कैसा राज है? एक तरफ देश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून लाने की तैयारी की जा रही है और दूसरी ओर ऐसे नारकीय दृश्य। आखिर कोई तो इसके लिए जिम्मेदार होगा? सरकार को तत्काल जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक मामला दायर करना चाहिए। राज्य सरकार भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। खाद्य विभाग का सतर्कता दस्ता क्या कर रहा था? सड़ा हुआ अनाज गोदाम तक पहुंचना भी गंभीर मामला है। लापरवाही चाहे एफसीआई के अफसरों की रही हो, ऐसा अनाज ट्रेन से जयपुर में उतरना ही नहीं चाहिए था। मामले की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि राज्यपाल को दखल करना पड़ा है।

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तो अब 'डेड न्यूज'भी!

नवीन जिन्दल पहले से ही कठघरे में हैं। जिस तरह जी-न्यूज पर आरोप लगाकर नवीन जिन्दल बरी नहीं हो सकते, वैसे ही जिन्दल पर आरोप लगाकर न्यूज चैनल बरी नहीं हो सकता। जी-न्यूज कोल ब्लॉक्स आवंटन से जुड़ी भ्रष्टाचार की खबरें निरन्तर दिखा रहा था। तभी जी-न्यूज पर यह दुर्भाग्यपूर्ण आरोप लगा कि यह धंधे का हिस्सा था। दुर्भाग्य कि बचाव में जी-न्यूज लचर दलीलें दे रहा है।

खबरों के शौकीन पाठकजी उस दिन बेचैन नजर आए। दो-तीन बार उनका फोन आ चुका था। उन्हें खबरों की चीर-फाड़ किए बगैर चैन नहीं पड़ता। खबरों पर टीका-टिप्पणियां करना और बिन मांगे सलाह देना उनका शौक है। मीडिया सम्बंधी खबरों पर वे पैनी नजर रखते हैं। अक्सर वे मुझासे फोन पर ही बात करते हैं। वे जी-न्यूज- नवीन जिन्दल प्रकरण पर कुछ कहने के लिए उतावले हो रहे थे।
फिर घंटी बजी। इस बार उनसे बात हुई। वे छूटते ही बोले, 'अब तक मीडिया नेताओं का स्टिंग करता था। अब ये नेता लोग मीडिया का स्टिंग करने लगे हैं। कैसा रहा रिवर्स स्टिंग?'
मैं कुछ कहता, उससे पहले वह बोल पड़े, 'पैसा लेकर खबर छापने की बात तो सुनी थी। पैसा लेकर खबर रोकने की बात पहले कभी नहीं सुनी। आपने सुनी क्या? आपको जी-न्यूज के स्पष्टीकरण पर भरोसा हुआ?'
मेरा जवाब सुनने की उन्हें फुरसत नहीं थी। वह बोलते चले गए, 'जी-न्यूज के संपादक ने जो कहा उस पर कौन यकीन करेगा। माना नवीन जिन्दल फंसे हुए हैं। लेकिन आज के जमाने में ऐसा नासमझा कौन होगा, जो अपने खिलाफ खबर रुकवाने के लिए किसी एक न्यूज चैनल से 'सौदा' करेगा? वो भी तब, जब सारे न्यूज चैनल और अखबार उसके खिलाफ खबरें दे रहे हों... देश का सबसे बड़ा घोटाला (कोल ब्लॉक्स आवंटन) हुआ हो... इस घोटाले पर कैग की रिपोर्ट जग-जाहिर हो चुकी हो... रिपोर्ट में कांग्रेस सांसद नवीन जिन्दल की कंपनी का नाम भी शामिल हो... तो कौन मासूम होगा, जो केवल एक मीडिया ग्रुप से सौदेबाजी की कोशिश करेगा? क्या जी-न्यूज के चुप होने पर सारा मीडिया भी खामोश होकर बैठ जाता?' इतने सारे सवाल दागने के बाद जवाब सुनने की पाठकजी को कोई दिलचस्पी नहीं थी। अपनी बात कहकर उन्हें चैन आ चुका था। उपसंहार करते हुए अंत में वे चुटकी लेने से बाज नहीं आए, 'पेड न्यूज के बाद अब मीडिया की नई ईजाद है 'डेड न्यूज'! यह पेड न्यूज से आगे का मामला है भाई। है कि नहीं? अच्छा तो नमस्कार।' कह कर उन्होंने फोन बंद कर दिया।
भारत के नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में १ लाख ८६ हजार करोड़ रुपए के कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले में सांसद व उद्योगपति नवीन जिन्दल की कंपनी जे.एस.पी.एल. का नाम भी शामिल है। मीडिया में खबरें आ रही थीं। इसी बीच गत २५ अक्टूबर को नवीन जिन्दल ने एक प्रेस कान्फ्रेंस में समाचार चैनल जी-न्यूज पर काफी संगीन आरोप लगाया। जिन्दल ने अपनी कंपनी द्वारा कराए गए स्टिंग ऑपरेशन का खुलासा किया। कहा, कंपनी से जुड़ी कोल ब्लॉक की खबरें नहीं दिखाने के बदले चैनल ने उनसे १०० करोड़ रुपए मांगे थे। प्रेस कांफ्रेंस में जी-न्यूज प्रमुख सुधीर चौधरी व जी-बिजनेस चैनल के समीर अहलूवालिया से हुई बातचीत का टेप भी जारी किया गया। जिन्दल का आरोप था कि दोनों चैनल सहित डीएनए अखबार में खबरें रोकने के नाम पर 20 करोड़ की राशि मांगी गई थी, जो बाद में 100 करोड़ तक पहुंच गई। जी- न्यूज प्रतिनिधियों ने जिन्दल के आरोप खारिज किए। कहा, वे तो उल्टे जिन्दल की कंपनी की पोल खोलना चाहते थे कि वह अपने खिलाफ खबरें रुकवाने के लिए किस हद तक जाने को तैयार थी। जी-न्यूज ने नवीन जिन्दल पर १५० करोड़ रुपए की मानहानि का नोटिस भी दिया है।
इस प्रकरण की आमजन में कैसी प्रतिक्रिया है, पाठकजी के फोन से इसकी कुछ झालक मिल जानी चाहिए। आम जनता की जिस तरह राजनेताओं पर पैनी नजर है, उसी तरह मीडिया पर भी है। उसकी निगाहों में धूल झाोंकने की कोशिश निरर्थक है।  जिन्दल की कंपनी ने किस तरह कोयला खदान हथियाई, यह कैग की रिपोर्ट के बाद मीडिया में आई रिपोर्टों में जाहिर हो चुका है। नवीन जिन्दल पहले से ही कठघरे में हैं। जिस तरह जी-न्यूज पर आरोप लगाकर नवीन जिन्दल बरी नहीं हो सकते, वैसे ही जिन्दल पर आरोप लगाकर न्यूज चैनल बरी नहीं हो सकता। जी-न्यूज कोल ब्लॉक्स आवंटन से जुड़ी भ्रष्टाचार की खबरें निरन्तर दिखा रहा था। दर्शक उसकी साहसपूर्ण खबरों की प्रशंसा कर रहे थे। तभी जी-न्यूज पर यह दुर्भाग्यपूर्ण आरोप लगा कि यह सब धंधे का हिस्सा था। दुर्भाग्य की बात यह भी कि बचाव में जी-न्यूज लचर दलीलें दे रहा है। जो प्राथमिक तथ्य सामने आए हैं, उनके मद्देनजर न्यूज चैनल पर कौन भरोसा करेगा? क्यों करेगा? जब आप रंगे हाथ पकड़े जा चुके हों। अगर आपको नवीन जिन्दल की कंपनी का भ्रष्टाचार दिखाना था तो २० करोड़ की पेशकश ही काफी थी। उसे १०० करोड़ तक ले जाने की क्या जरूरत थी? और अगर जी-न्यूज और जी-बिजनेस के हैड जिन्दल की कंपनी से विज्ञापन की कोई डील कर रहे थे, तो सवाल उठता है कि इसकी जरूरत उस वक्त क्यों थी, जब आप कंपनी के खिलाफ लगातार खबरें दिखा रहे थे? न्यूज चैनल आसानी से नहीं छूट पाएगा। जिन्दल की कंपनी ने बाकायदा चैनल के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई है। आरोप में दम नहीं होता तो न्यूज चैनलों की संस्था ब्रॉड कास्टिंग एडिटर एसोसिएशन(बीईए) जी-न्यूज के सुधीर चौधरी की सदस्यता रद्द नहीं करती। आरोपों के बाद बीईए ने छानबीन करने के लिए तीन सदस्यों की समिति बनाई थी। समिति की रिपोर्ट के बाद बीईए ने यह फैसला किया। सुधीर चौधरी बीईए के कोषाध्यक्ष भी थे। हालांकि बीईए के फैसले पर सुधीर चौधरी ने अपना विरोध दर्ज कराया है, लेकिन जो दाग लग चुका है उसे हटाने की जरूरत है। यह तभी संभव है, जब आप अपने पाक-साफ होने का प्रामाणिक सबूत भी पेश करें। यह इसलिए भी जरूरी है कि इस घटना ने पत्रकारिता के स्थापित मूल्यों को बहुत क्षति पहुंचाई है। ऐसे तो पत्रकारिता का उद्देश्य खत्म हो जाएगा।
वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने लिखा, 'जब भ्रष्टाचार का मुद्दा राजनीति को हिला रहा है, वही भ्रष्टाचार अगर मीडिया में आ जाए तो सत्ता और सरकार का काम और आसान हो जाएगा' ऐसी स्थिति में आम आदमी का क्या होगा? जिसकी पैरवी करने की मीडिया पर अहम जिम्मेदारी है।

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खोजी पत्रकारिता का हाल

मीडिया ने अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से उठाया है। छिपे हुए मामलों, प्रकरणों और घोटालों का पर्दाफाश किया है। स्टिंग ऑपरेशनों ने भ्रष्टाचारियों और आतताइयों की पोल खोली है। इसलिए मीडिया से लोगों को बड़ी उम्मीदें हैं। इसलिए मीडिया का काम जब कोई दूसरा करता है, तो उसकी भूमिका और सार्थकता को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।

उस दिन सुबह-सुबह एक फोन आया। आवाज में झाल्लाहट थी— 'महोदय, क्या देश में खोजी पत्रकारिता खत्म हो चुकी है?'
अचानक दागे गए प्रश्न पर मैं हैरानी से इतना ही बोल पाया—
'क्यों, क्या हुआ भाई?'
'क्या हुआ??' उसने गहरी सांस भरी— 'लगता है आप भी सोये हुए हैं।' आवाज में व्यंग्य का पुट भी था— 'क्या सारे बड़े कांड, घपले-घोटालों का भंडाफोड़ करने का काम अब मीडिया ने आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं के हवाले कर दिया है?'
अब तक मैं संभल चुका था। लेकिन उसने मुझो फिर बोलने का अवसर नहीं दिया। सवालों का हमला जारी था—
'पहले 70 हजार करोड़ का सिंचाई घोटाला, जिसमें एक उप मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। और अब 'देश के दामाद' की करोड़ों की काली कमाई, जिसने सरकार को हिला कर रख दिया। किसने उजागर किए? क्या यह सच्चाई नहीं, अंजली दमानिया या अरविन्द केजरीवाल 'बड़े लोगों के बड़े कारनामे' उजागर कर रहे हैं और पूरा मीडिया फॉलोअप कर रहा है?'
अन्त में वह फिर व्यंग्य करने से बाज नहीं आया— 'महोदय, असली खबरें तो इन लोगों के पास हैं।'
फोन बंद हो चुका था, पर उसने एक ऐसे मुद्दे पर हाथ रखा था, जो संभवत: अनेक लोगों के जेहन में भी कौंध रहा होगा। तो क्या सचमुच खोजी पत्रकारिता दम तोड़ रही है? यह सवाल इसलिए भी उठता है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों के दौरान देश को झकझोरने वाले भ्रष्टाचार के जितने भी बड़े मामले उजागर हुए उनमें मीडिया का योगदान नहीं था। कम-से-कम प्रारम्भिक उद्घाटनों में तो नहीं था। आप जानते हैं आदर्श हाउसिंग स्कीम, कॉमनवेल्थ खेल, 2 जी स्पैक्ट्रम से जुड़े घोटाले तो लोगों को रट चुके हैं। फिर आए कोयला आवंटन, महाराष्ट्र सिंचाई परियोजना और रॉबर्ट वाड्रा से जुड़े मामले, ये सब या तो कैग की रिपोर्टों से सामने आए या सीवीसी की रिपोर्ट से। या फिर आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं ने उजागर किए। कई मामले उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद खुल सके।
रॉबर्ट वाड्रा का मामला तो और भी संगीन है। करीब डेढ़ वर्ष पहले एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित होने के बावजूद इसे एक मुद्दे के रूप में खड़ा करने का श्रेय मीडिया की बजाय अरविन्द केजरीवाल को प्राप्त हुआ। रॉबर्ट वाड्रा की कंपनियों के कारनामों पर 'द इकनोमिक्स टाइम्स' ने मार्च, 2010 में ही एक रिपोर्ट प्रकाशित कर दी थी। मीडिया इसका फॉलोअप नहीं कर सका। जानबूझकर या अनजाने में—यह अलग मसला है। आज यह सवाल हर कोई पूछना चाहेगा कि केजरीवाल से ज्यादा साधन-सम्पन्न और सक्षम होने के बावजूद मीडिया पीछे क्यों रहा? क्यों मीडिया इतने भर से संतुष्ट है कि उसे एक बनी-बनाई खबर मिल गई? जो काम केजरीवाल ने आज किया, वह काम मीडिया डेढ़ साल पहले ही नहीं कर सकता था? मीडिया पर और भी कई प्रश्नचिक्ष लग रहे हैं। क्या मीडिया शक्तिसम्पन्न और प्रभावशाली लोगों के बारे में सीधे तौर पर मुद्दे उठाने से बच रहा है? या फिर उसकी खोजी अन्तर्दृष्टि खत्म होती जा रही है? आज मीडिया से लोग यह जानना चाहते हैं कि वह खोजी पत्रकारिता कहां है, जो स्वयं पहल करके दस्तावेजों का पड़ताल करती थी। विश्लेषण करके निष्कर्ष निकालती थी। दूर-दराज के इलाकों में जाकर धूल फांकती थी और तथ्यों का स्वयं सत्यान्वेषण करती थी।
मीडिया ने अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से उठाया है। कई छिपे हुए मामलों, प्रकरणों और घोटालों का जनहित में पर्दाफाश किया है। भागलपुर का आंखफोड़ कांड, नेल्ली का नरसंहार, बोफोर्स कांड, हथियारों की दलाली, रिश्वत लेकर संसद में प्रश्न पूछने से लेकर सामाजिक अन्याय व उत्पीडऩ और मानवाधिकार हनन के अनेक महत्वपूर्ण प्रकरण उजागर किए हैं। कई स्टिंग ऑपरेशनों ने भ्रष्टाचारियों, बाहुबलियों और आतताइयों की पोल खोली है। इसलिए मीडिया से लोगों को बड़ी उम्मीदें हैं। आम जनता की भलाई और सेवा के लिए बनी हुई सरकारें हकीकत में कर क्या रही हैं, यह लोगों को मीडिया से बेहतर और कौन बताएगा? इसलिए मीडिया का काम जब कोई दूसरा करता है, तो उसकी भूमिका और सार्थकता को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
सुबह-सुबह उस दिन मुझे जिस फोन ने जगाया वह मीडिया के प्रति इसी जनमानस की अभिव्यक्ति थी। यह अजीब मगर सुखद संयोग ही था इस घटना के तीन दिन बाद ही खोजी पत्रकारिता के दो महत्वपूर्ण उदाहरण मीडिया ने पेश किए। इंडिया टीवी ने 20-20 क्रिकेट में छह अम्पायरों को मैच फिक्सिंग की बात कबूलते हुए कैमरे में कैद किया। इन छहों अम्पायरों को जांच पूरी होने तक अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद ने निलम्बित कर दिया। जो अम्पायर खेल नियमों का पालन करने के जिम्मेदार थे, वे पहली बार मैच फिक्सिंग के आरोपी बने। फिर 'आज तक' ने स्टिंग के जरिए केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद की पोल खोली। आरोप है कि उनकी संस्था जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट ने विकलांगों के नाम पर अफसरों के जाली हस्ताक्षर कर 71 लाख रु. हजम कर लिए। सलमान खुर्शीद इस संस्था के अध्यक्ष तथा उनकी पत्नी लुइस खुर्शीद परियोजना निदेशक हंै। इस खुलासे के बाद देश के कानून मंत्री की खासी किरकिरी हुई। वे सफाई दे रहे हैं, लेकिन लोगों को उनकी सफाई शायद ही रास आए। जो सच्चाई कैमरे में कैद हुई, उसे झाुठलाना आसान नहीं।
बात फिर खोजी पत्रकारिता की। मीडिया गाहे-बगाहे अपनी भूमिका निभा रहा है। लेकिन वो नहीं, जिसकी उससे उम्मीद की जाती है। फस्र्ट पोस्ट डॉट कॉम के सम्पादक आर. जगन्नाथन के अनुसार— 'मीडिया राजनेताओं, उद्योगपतियों, मंत्रियों और नौकरशाहों के प्रति इतना नरम क्यों है? राजनेताओं से मीडिया फिर भी सवाल कर लेता है, लेकिन उद्योगपतियों, खासकर बड़े और शक्तिशाली व्यवसायियों को कभी कठघरे में खड़ा नहीं करता।' मीडिया के भविष्य को लेकर सजग व्यक्ति आज यही चिन्ता करता नजर आता है।

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समाचार अभियान और सरकार

शायद ही ऐसा कभी हुआ कि अतिक्रमण, अवैध निर्माण व आवंटन के लिए जिम्मेदार अफसरों का कुछ बिगड़ा हो। अफसर क्यों जान-बूझाकर आंखें मूंदे रहते हैं? अतिक्रमण ढहाकर अतिक्रमणकारी को सजा मिल जाती है, तो इसके लिए कसूरवार अफसर का क्यों बाल भी बांका नहीं होता? सरकार से मोटी तनख्वाह व सुख-सुविधाएं पाने वाला अफसर अपनी जिम्मेदारी में विफल रहकर क्यों साफ बच निकलता है?

मीडिया अपनी प्रभावी भूमिका को किस तरह निभा सकता है— इसके उदाहरण 'पत्रिका' के अभियान हैं। महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर ये अभियान चलाए जाते रहे हैं। पाठकों को याद होगा, पिछले दिनों मोबाइल टॉवरों को लेकर जो अभियान छेड़ा गया, वह देशव्यापी मुद्दा बना। हाल ही एक और अभियान रंग लाया, 'लौटे अमानीशाह का अतीत।'
कहने को यह जयपुर शहर के एक नाले में अतिक्रमण से जुड़ा मुद्दा है, परन्तु इसका प्रतीकात्मक महत्व व्यापक है। नाले में बनी एक बड़ी कंपनी की नौ मंजिल इमारत का बड़ा हिस्सा बारूद से उड़ा दिया गया। राज्य में ऐसा पहली बार हुआ। कार्रवाई उच्च न्यायालय के आदेश से हुई। लेकिन नदी-नालों के प्राकृतिक प्रवाह को अवरुद्ध करने वाले इन अतिक्रमणों के विरुद्ध जो अभियान छेड़ा गया था, उसने भूमाफिया, भ्रष्ट अफसरों व राजनेताओं की चूलें हिला दी। नाले में रसूखदारों के कुछ और अतिक्रमण भी हटाए गए। शहर के बीच से निकल रहा यह प्राचीन नाला भारी बारिश से उफन पड़ा था। अतिक्रमणों के अवरोध से पानी का प्रवाह बाधित हुआ। बारिश लगातार हो जाती, तो यह नाला तबाही का कारण बन जाता। इस खतरे को भांपकर ही पत्रिका ने अभियान शुरू किया था।
न्यायालय के आदेश और पत्रिका के अभियान से उभरे अतिक्रमण के विरुद्ध जनाक्रोश के दबाववश सरकारी एजेंसियां सक्रिय हुईं। अफसरों ने आनन-फानन कुछ कार्रवाइयां कीं। बहुत कुछ करना अभी बाकी है। भ्रष्ट नौकरशाही पर अंगुलियां उठीं। राजस्थान उच्च न्यायालय ने उन पर तल्ख टिप्पणियां की। जब भी ऐसा माहौल बनता है, अतिक्रमियों के विरुद्ध अभियान छिड़ जाता है। लेकिन चपेट में अक्सर गरीब जनता ही आती है, लेकिन इस बार कुछ रसूखदार भी चपेट में आए। शायद ही ऐसा कभी हुआ कि अतिक्रमण, अवैध निर्माण व आवंटन के लिए जिम्मेदार अफसरों का कुछ बिगड़ा हो। अफसर क्यों जान-बूझकर आंखें मूंदे रहते हैं? अतिक्रमण ढहाकर अतिक्रमणकारी को सजा मिल जाती है, तो इसके लिए कसूरवार अफसर का क्यों बाल भी बांका नहीं होता?
सरकार से मोटी तनख्वाह व सुख-सुविधाएं पाने वाला अफसर अपनी जिम्मेदारी में विफल रहकर क्यों साफ बच निकलता है? ये सवाल अब सब तरफ उठने लगे हैं। उच्च न्यायालय ने तो साफ कह दिया—जिसका निर्माण टूटे उसे अफसरों से पैसे दिलाओ। न्यायालय की चिन्ता गरीबों को लेकर खास तौर पर है। पिछले दिनों रामगढ़ बांध के बहाव क्षेत्र में अतिक्रमण पर सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने मौखिक टिप्पणी की — अतिक्रमण होते समय तो अधिकारी सोते हैं। लापरवाही अफसर करता है, तलवार जनता पर लटकती है। अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम नौकरशाही सवालों के घेरे में है। भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाही का गठबंधन शायद इतना ताकतवर है कि सचमुच इनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता।
अमानीशाह के मामले को ही ले लीजिए। चारों तरफ से कठघरे में खड़े होने के बावजूद अभी तक नौ मंजिला इमारत के मामले में किसी अफसर के विरुद्ध कुछ नहीं हुआ। राज्य के नगरीय विकास मंत्री शान्ति धारीवाल ने घोषणा की— 'सरकार की मंशा है कि गलत निर्माण की इजाजत देने वाले अधिकारियों पर अवश्य कार्रवाई होनी चाहिए। अमानीशाह नाले में इस तरह के निर्माण के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को चिह्नित किया जाएगा।'  25 दिन बीत गए, आज तक अधिकारी चिह्नित नहीं किए गए। कार्रवाई की बात तो बहुत दूर है। आजकल सरकारें ऐसे जनहितकारी कार्य न्यायालय के आदेश से भले ही करने को बाध्य हो जाएं, स्व-विवेक से नहीं करतीं।
मोबाइल टॉवरों का उदाहरण लें। शहरों में लगे उच्च क्षमता के हजारों टॉवर जनता के स्वास्थ्य के साथ किस तरह खिलवाड़ कर रहे, इसका खुलासा अखबार ने किया। यह काम सरकार का था। खुलासा होने के बाद टॉवरों के बारे में निर्णय करने का कार्य तो सरकार का था। वह भी उसने नहीं किया। न्यायालय के आदेश से ही सरकार हिली। स्कूलों से टॉवर हटाने का काम आधे मन से शुरू किया। परिणाम भी अधूरा है। पत्रिका ने अपनी भूमिका निभाई, बड़ी मोबाइल कंपनियों की नाराजगी झेलकर भी। न्यायालय ने भी फर्ज निभाया, पर सरकार निद्रा में है।
प्राकृतिक जलाशयों को उनका मूल स्वरूप लौटाने की लड़ाई पत्रिका सिर्फ राजस्थान में ही नहीं, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में भी लड़ रहा है। भोपाल में बड़ी झील और रायपुर में तेलीबंधा तालाब को लेकर भी मुहिम चल रही है। मोबाइल टॉवर का मुद्दा भी लगभग सभी प्रमुख शहरों में उठाया गया। निश्चय ही ये मुद्दे गांव, शहर और जनता के भविष्य से जुड़े हैं। मगर ध्यान दिलाने के बावजूद सरकार सोई रहती है। तभी तो पत्रिका का ध्येय वाक्य है— 'य एषु सुप्तेषु जागर्ति।'
पत्रकारों का पलायन
पिछले दिनों आई एक रिपोर्ट ने पत्रकारिता के पेशे को लेकर चिन्ताजनक तस्वीर पेश की है। रिपोर्ट के अनुसार देश में काफी संख्या में प्रशिक्षित पत्रकार दूसरे क्षेत्रों में पलायन कर रहे हैं। रिपोर्ट में वर्ष 1985 से लेकर 2010 तक के आंकड़े शामिल करने का दावा किया गया है। यह रिपोर्ट मीडिया स्टडीज ग्रुप और जन मीडिया जर्नल ने भारतीय जनसंचार संस्थान के उक्त अवधि के शैक्षणिक सत्र के छात्रों की प्रतिक्रिया के आधार पर तैयार की है। रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय जनसंचार संस्थान से प्रशिक्षित एक चौथाई से ज्यादा (26.76 फीसदी) पत्रकार दूसरे क्षेत्रों में पलायन कर चुके हैं। रिपोर्ट भले ही पत्रकारिता के एक बड़े और केन्द्रीय संस्थान के छात्रों की प्रतिक्रिया पर आधारित है, फिर भी है, तो चिन्ताजनक। खासकर तब, जब मल्टीमीडिया के युग में अखबार, टीवी, रेडियो, साइबर माध्यम तथा जनसम्पर्क का दायरा विस्तृत होता जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, मीडिया से जुड़े प्रशिक्षित छात्रों में से 32.28 फीसदी अखबार, 25.98 फीसदी टीवी, 13.39 फीसदी साइबर माध्यम, 8.66 फीसदी रेडियो, 7.09 फीसदी पत्रिकाओं, 2.88 फीसदी विज्ञापन तथा 5.77 फीसदी जनसम्पर्क क्षेत्रों में कार्यरत हैं।

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पत्रकार की लक्ष्मण रेखा

देश में पिछले दिनों हुईं न्यायिक कार्यवाहियां इस बात का प्रमाण है कि संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सरकारें और नौकरशाही अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए जब-तब इस पर कुठाराघात करती रहती हैं। मीडिया पर प्रत्यक्ष या परोक्ष अंकुश लगा दिए जाते हैं। लेकिन न्यायपालिका की सजगता से अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करना आसान
नहीं है।


गत सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय ने दो ऐसे फैसले सुनाए, जिससे मीडिया की स्वतंत्रता को मजबूती प्राप्त हुई। ग्यारह सितम्बर को न्यायालय ने अदालती कार्यवाही की मीडिया रिपोर्टिंग को लेकर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एस.एच. कपाडिय़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अदालती कार्यवाही की रिपोर्टिंग में पत्रकारों के लिए दिशा-निर्देश बनाने से इन्कार कर दिया। अलबत्ता पीठ ने मीडिया की स्वतंत्रता और निष्पक्ष सुनवाई के अभियुक्त के अधिकार में संतुलन के लिए कुछ समय तक रिपोर्टिंग स्थगित रखने का सिद्धान्त अवश्य दिया। संविधान पीठ के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय किसी मामले के आधार पर अदालती कार्यवाही के प्रकाशन व प्रसारण को स्थगित रखने का आदेश दे सकते हैं। फैसले में स्पष्ट किया गया कि ऐसा आदेश संक्षिप्त अवधि के लिए होगा। यह भी कहा कि आदेश ऐहतियाती कार्रवाई होगी, दंडात्मक नहीं।
साथ ही संविधान पीठ ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान में प्रदत्त कोई निरंकुश अधिकार नहीं है। पत्रकारों को लक्ष्मण रेखा जाननी चाहिए ताकि अवमानना की मर्यादा का उल्लंघन न हो। स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने अभियुक्त की निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को संरक्षित किया, वहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी मजबूती प्रदान की। न्यायालय के फैसले से इस विचार को बल मिला, जिसमें मीडिया पर किसी बाहरी अंकुश की बजाय स्वयं मीडिया द्वारा आचार-संहिता पालन पर जोर दिया जाता है।
इसी तरह सेना की इकाइयों के मूवमेंट सम्बंधी समाचार देने से मीडिया को रोकने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर 14 सितंबर को सर्वोच्च न्यायाय ने रोक लगाकर मीडिया की स्वतंत्रता को पुन: मजबूती प्रदान की। आपको याद होगा 'इंडियन एक्सप्रेस' में 4 अप्रेल को प्रकाशित एक समाचार ने हलचल मचा दी। शीर्षक था—The January night Raisina Hill was spooked: Two key army units moved towards Delhi without notifying govt. यह समाचार इस वर्ष 16 जनवरी को दो सैन्य इकाइयों के दिल्ली की ओर कूच करने से सम्बंधित था। इसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर फैसला देते हुए केन्द्र व राज्य सरकारों को यह पुख्ता करने के निर्देश दिए कि ऐसे समाचार मीडिया में न आएं। न्यायालय ने ऐसे समाचारों को देशहित के विपरीत बताया। आपको यह भी याद दिला दूं कि यह उस समय का मामला है, जब सेना प्रमुख वी.के. सिंह की उम्र को लेकर विवाद चरम पर था और वे सुर्खियों में बने हुए थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के बाद सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने एक एडवाइजरी जारी की, जिसमें मीडिया को इस आदेश का सख्ती से पालन करने का निर्देश था। सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय प्रेस परिषद और इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी की याचिका पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला गलत ठहराया और उसके आदेश को रद्द कर दिया। न्यायमूर्ति एच.एल. दत्तू और सी.के. प्रसाद की बेंच ने कहा कि यह आदेश देकर उच्च न्यायालय ने गलती की है।सवाल है कि सैन्य इकाइयों की देश में मूवमेंट की खबर पर रोक की आखिर क्या तुक थी? ऐसी खबरें अखबारों में प्रकाशित होती रही हैं। हां, इन खबरों के प्रकाशन में संयम बरता जाए और अनावश्यक सनसनी से बचना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का यही सार निकाला जा सकता है। इधर कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी के मामले में मुम्बई उच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान पुलिस को जो फटकार लगाई, उससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक बार फिर मुहर लगी। कार्टूनिस्ट असीम को मुंबई पुलिस ने विवादित कार्टून के आधार पर राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया था। बाद में असीम को जमानत पर छोड़ दिया था। उच्च न्यायालय ने कहा कि कार्टूनिस्ट की गिरफ्तारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। न्यायालय ने पुलिस से पूछा, कार्टूनिस्ट पर राजद्रोह का मामला दर्ज करने से पहले अपना दिमाग क्यों नहीं लगाया? न्यायालय ने पुलिस और सरकार के रवैए को लेकर कई तीखे प्रश्न किए।
गत एक सप्ताह के दौरान देश में हुई ये न्यायिक कार्यवाहियां इस बात का प्रमाण है कि संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सरकारें और नौकरशाही अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए जब-तब इस पर कुठाराघात करती रहती हैं। मीडिया पर प्रत्यक्ष या परोक्ष अंकुश लगा दिए जाते हैं। लेकिन न्यायपालिका की सजगता से अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करना आसान नहीं है।
अब 'वाशिंगटन पोस्ट' भी!
आपको याद होगा, कुछ समय पहले भारतीय मूल के जाने-माने अमरीकी लेखक व पत्रकार फरीद जकारिया पर साहित्यिक चोरी का आरोप लगा था। इस आरोप में टाइम पत्रिका और टीवी चैनल सी.एन.एन. ने उन्हें कुछ समय के लिए निलंबित कर दिया था। हालांकि फरीद जकारिया ने खेद व्यक्त कर दिया था, लेकिन इस घटना से मीडिया बिरादरी को बड़ी ठेस पहुंची। ऐसी ही ठेस पहुंचाने वाली घटना पिछले दिनों फिर घटित हुई।
अमरीकी अखबार 'द वाशिंगटन पोस्ट' ने भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की— India’s silent prime minister becomes a tragic figure. यह रिपोर्ट दक्षिण एशिया में 'वाशिंगटन पोस्ट' के ब्यूरो चीफ साइमन डेनियर ने लिखी, जिस पर भारत में काफी बवाल मचा। इस रिपोर्ट में भारतीय पत्रिका 'कारवां' से कुछ अंश सीधे-सीधे उठा लिए गए थे, जो वर्ष 2011 में प्रकाशित एक लेख का हिस्सा थे। इस लेख में 'कारवां' के एसोसिएट एडिटर विनोद के जोस ने भारतीय इतिहासकार रामचन्द्र गुहा तथा डॉ. मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू व अन्य कई लोगों से बातचीत की थी। 'वाशिंगटन पोस्ट' में साइमन डेनियर ने अपनी रिपोर्ट में रामचन्द्र गुहा तथा संजय बारू के बयानों को तो प्रमुखता से छापा, लेकिन 'कारवां' का कहीं उल्लेख नहीं किया। हालांकि बाद में 'वाशिंगटन पोस्ट' ने अपनी गलती सुधारते हुए 'कारवां' का उल्लेख किया, लेकिन विनोद के जोस ने बीबीसी को कहा— मुझ उम्मीद है वो औपचारिक रूप से माफी मांगेंगे। अगर वो (वाशिंगटन पोस्ट) ऐसा करते हैं तो ये पत्रकारिता के लिए अच्छा होगा।
पत्रकारिता में एक-दूसरे की टिप्पणियों और विवरणों का उल्लेख करना बुरी बात नहीं है। कई प्रतिष्ठित पत्रकार और लेखक ऐसा करते रहे हैं। लेकिन वे उन्हें श्रेय भी देते हैं, जिनकी बातों का उल्लेख करते हैं। यह एक नैतिक नियम है, जिसका पत्रकारिता में पालन करना जरूरी है। लेकिन अब प्रतिष्ठित पत्रकार और अखबार भी इसका उल्लंघन करने लगे हैं, यह शुभ संकेत नहीं है। हमें अपनी लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखना होगा।

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बढ़ रही है अपनी हिन्दी

भारत में हिन्दी को लेकर भले ही अभी हम संतुष्ट न हों, लेकिन विदेशों में हिन्दी बढ़ रही है। इसका श्रेय एक ओर विदेशों में बसे प्रवासी भारतीयों को है, वहीं विभिन्न देशों के विश्वविद्यालयों, सरकारी व निजी संस्थाओं और संगठनों को भी है, जिनके निरन्तर प्रयास हिन्दी को आगे बढ़ा रहे हैं।  अमरीका में रहने वाले प्रवासी भारतीयों द्वारा स्थानीय टीवी पर 'चलो हिन्दी बोलें' नामक कार्यक्रम भी
चलता है।

हंगरी के छात्र पीटर का कहना है— 'हिन्दी भाषा से मुझो अगाध लगाव है। भारतीय राजनीति पर मैं शोध कर रहा हूं। विश्व की सभी भाषाओं में से स्पेनिश के साथ हिन्दी मेरी पसंदीदा भाषा है।'
रूस की छात्रा येव्गेनिया का कहना है— 'मुझो हिन्दी फिल्में देखना अच्छा लगता था। गाने भी पसंद आते थे। सो मैंने फैसला किया हिन्दी पढ़कर रहूंगी। और फिर मैं हिन्दी पढऩे लगी। हिन्दी जुबान ने मेरे दिल को छू लिया।'
इवान पैत्रोव का कहना है— 'स्कूल के बाद जब मुझो फैसला करना था कि मैं किस विषय को चुनूं, तभी मुझो पता चला कि मास्को विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग मौजूद है, तो मैंने वहीं दाखिला ले लिया। अब मैं भारतीय भाषाओं और इतिहास का अध्ययन कर रहा हूं।'
निकिता कुलकोव ने कहा— 'मुझो हिन्दी बोलने पर गर्व महसूस होता है।'
रूस, ब्रिटेन, हंगरी, रुमानिया आदि योरोपीय देशों के छात्र-छात्राएं गत १८ से २८ अगस्त के बीच भारत-भ्रमण पर आए हुए थे। ब्रिटेन की हिन्दी ज्ञान समिति पिछले १० वर्षों से यूरोप के प्रमुख देशों में हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता का आयोजन करती है। इस प्रतियोगिता के आधार पर चयनित विद्यार्थियों को भारत और ब्रिटेन की सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं के सहयोग से भारत-भ्रमण कराया जाता है। भारत में इन हिन्दी प्रेमी विद्यार्थियों को कई शहरों की यात्राओं पर ले जाया जाता है। इसी के तहत मेरठ विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के साथ संवाद कार्यक्रम के दौरान ये विदेशी छात्र अपने अनुभव सुना रहे थे। इन विद्यार्थियों का मानना है कि भारतीय समाज को समझाना है तो हिन्दी को भी गहराई से समझाना होगा। भारतीय संस्कृति के प्रति आकर्षण ही इन्हें हिन्दी की तरफ खींच लाया।
किसी विदेशी को हिन्दी पढ़ते और बोलते देखकर हमें अच्छा ही लगता है। इन हिन्दी प्रेमी विदेशी विद्यार्थियों का भारत में खूब स्वागत हुआ। 28 अगस्त को ये विद्यार्थी भारत की स्मृतियां लेकर अपने देश लौट गए।
भारत में हिन्दी को लेकर भले ही अभी हम संतुष्ट न हों, लेकिन विदेशों में हिन्दी बढ़ रही है। इसका श्रेय एक ओर विदेशों में बसे प्रवासी भारतीयों को है, वहीं विभिन्न देशों के विश्वविद्यालयों, सरकारी व निजी संस्थाओं और संगठनों को भी है, जिनके निरन्तर प्रयास हिन्दी को आगे बढ़ा रहे हैं। न्यूयार्क सिटी के शिक्षा विभाग में नियुक्त सुषमा मल्होत्रा हिन्दी भाषा सिखाने के लिए 'स्टारटॉक' नामक कार्यक्रम का आयोजन करती हैं। इसके तहत प्रवासी भारतीयों के साथ-साथ अमरीकी युवक भी हिन्दी सीख रहे हैं। 'स्टारटॉक' सरकारी कोष से चलने वाला कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य अमरीकी युवाओं को विदेशी भाषाओं की जानकारी देना है। अमरीका में रहने वाले प्रवासी भारतीयों द्वारा स्थानीय टीवी पर 'चलो हिन्दी बोलें' नामक कार्यक्रम भी चलता है जो काफी लोकप्रिय है।
विख्यात येल विश्वविद्यालय प्रतिवर्ष छात्रों में विभिन्न विषयों पर हिन्दी में चर्चा आयोजित करता है, जो अब अमरीका में एक राष्ट्रीय आयोजन बन चुका है। इस वाद-विवाद आयोजन में हार्वर्ड, प्रिंस्टन, कोलम्बिया जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के छात्र भाग लेते हैं। कुछ माह पूर्व आयोजित चौथी येल हिन्दी चर्चा में पेंसिलवेनिया, कार्नेल, वेल्सली, कैलीफोर्निया, लॉस एंजीलिस और टेक्सास विश्वविद्यालय के विद्यार्थी भी शामिल हुए।
हालांकि आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के साथ बुरे बर्ताव की घटनाएं बढ़ रही हैं, लेकिन यहां भी हिन्दी की लोकप्रियता कम नहीं है। आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रान्त की सरकार ने केन्द्र से हिन्दी को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में शामिल करने का अनुरोध किया है। राज्य सरकार ने अपने पत्र में लिखा है, विक्टोरिया में हिन्दी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली दूसरी भाषा बन चुकी है।
पुर्तगाल में लिस्बन विश्वविद्यालय में हिन्दी पठन-पाठन की व्यवस्था है, तो जापान के ओसाका विश्वविद्यालय में भारत विद्या विभाग देश-विदेश के विद्यार्थियों को हिन्दी में अध्ययन की सुविधाएं प्रदान कर रहा है। चीन में न केवल बिजिंग विश्वविद्यालय बल्कि अन्य कई चीनी विश्वविद्यालयों में हिन्दी का अध्ययन कराया जाता है। चीन में हिन्दी के प्रसार के लिए जिनान विश्वविद्यालय, शेनझोन विश्वविद्यालय व युनान विश्वविद्यालयों में अध्ययन पीठ स्थापित की गई है। अब गुआंगझाग विश्वविद्यालय में भी हिन्दी के लिए पीठ कायम की जा रही है। जर्मनी और रूस का हिन्दी प्रेम सभी जानते हैं।
ऐसा नहीं है कि दुनिया के विश्वविद्यालयों में ही हिन्दी बढ़ रही है। इंटरनेट और सूचना प्रौद्योगिकी में भी हिन्दी को वर्चस्व मिल रहा है। कुछ अरसा पहले गूगल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एरिंक श्मिट की एक टिप्पणी ने हलचल मचा दी थी। उन्होंने कहा, कुछ साल में इंटरनेट पर जिन तीन भाषाओं का वर्चस्व होगा उनमें से एक हिन्दी होगी। कम्प्यूटर कंपनियों के लिए आज हिन्दी में साफ्टवेयर आधारित योजनाओं को लाना फायदे का सौदा साबित हो रहा है। याहू, गूगल, एमएसएन सब हिन्दी में आ रहे हैं। लिनक्स और मैकिन्टोश पर भी हिन्दी आ गई है। यूनिकोड ने हिन्दी को आम कम्प्यूटर उपभोक्ता के लिए सर्वसुलभ बना दिया है। यह सही है कि संचार के माध्यम के रूप में हिन्दी अभी कच्ची है। रोमन लिपि, यूनिकोड के प्रयोग व अनुवाद की भाषा को लेकर हमारे कई हिन्दी विद्वान भले ही आश्वस्त नहीं हों, लेकिन हिन्दी के प्रचलन को लगातार विस्तार मिल रहा है। उसकी लोकप्रियता का ग्राफ निरन्तर ऊंचा उठ रहा है। कोई भाषा तभी निखरती है, जब उसका प्रयोग करने वाले हों। हिन्दी को मिल रहा लगातार विस्तार उसे निखारने में मददगार ही साबित होगा।
हिन्दी चैनल और राज ठाकरे
विदेशों में हिन्दी बढ़ रही है, मगर हमारे देश में राज ठाकरे जैसे नेताओं का हिन्दी पर गुस्सा फूट रहा है। यह हिन्दी का ही असर है कि नफरत की राजनीति करने वाले नेताओं को हिन्दी से डर लगता है।
राज ठाकरे जब भी आग उगलते हैं या विवादास्पद बयान देते हैं तो उसे पूरा मीडिया कवर करता है। लेकिन राज ठाकरे हिन्दी समाचार चैनलों और अखबारों से डरे हुए हैं। कहते हैं डरा हुआ सांप ही फन उठाता है। सो राज ठाकरे ने इस बार हिन्दी समाचार चैनलों को निशाना बना डाला। बिहारियों के साथ उन्होंने महाराष्ट्र से हिन्दी चैनलों को भी खदेडऩे की धमकी दे डाली। ठाकरे कहते हैं, अगर हिन्दी समाचार चैनल उन्हें निशाना बनाना बंद नहीं करेंगे तो वे महाराष्ट्र में हिन्दी चैनल बंद करवा देंगे। ठाकरे साहब, महाराष्ट्र आपकी जागीर नहीं है। इस पर पूरे देश का हक है। जैसे मराठी चैनल और अखबार देश के किसी भी हिस्से में प्रसारित हो सकते हैं, वैसे ही हिन्दी चैनलों व अखबारों को भी महाराष्ट्र में प्रसारित होने से कोई नहीं रोक सकता। यह हक मीडिया को भारतीय संविधान ने दिया है।

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सोशल मीडिया का दुरुपयोग

सवाल है, क्या अब सोशल मीडिया अफवाहें व वैमनस्य फैलाने का माध्यम बन रहा है? क्या वह दो देशों के बीच दुश्मनी बढ़ाने के लिए इस्तेमाल हो रहा है? क्या सोशल मीडिया एक कठपुतली है, जिसे नचाने वाला जैसा चाहे नाचने को मजबूर कर सकता है? अगर ऐसा है तो सोशल मीडिया जितना ताकतवर है उतना ही कमजोर भी है। जितना उपयोगी है, उतना ही खतरनाक भी है।

पड़ोसी देश म्यांमार की घटना है यह। वहां गत दिनों भड़की जातीय हिंसा में कई लोग मारे गए। इसी को फेसबुक पर बयान करते हुए एक फोटो अपलोड की गई। फोटो में एक स्थान पर कई शव दिखाए गए थे। इन्हें म्यांमार में हिंसा में मारे गए एक समुदाय के लोगों की लाशें बताया गया था।
यह फोटो दरअसल, म्यांमार की न होकर इंडोनेशिया की थी और शव जातीय हिंसा में मारे गए लोगों के न होकर सुनामी नामक तूफान में मारे गए लोगों के थे। यह फोटो अन्तरराष्ट्रीय फोटो एजेन्सी एपी द्वारा वर्ष २००४ में जारी की गई थी, जो कई अखबारों में छपी थी। फोटो में तूफान से मारे गए लोगों के शव समुद्र किनारे बहकर आए एक ढेर के रूप में पड़े इस प्राकृतिक आपदा की विभीषिका को बयान कर रहे थे। इस फोटो को फेसबुक पर म्यांमार की हिंसा से जोड़कर प्रचारित किया गया, लेकिन असलियत छुप न सकी। अलबत्ता, इस फोटो के जरिए निहित स्वार्थी तत्व और कट्टरपंथी ताकतें अपने मकसद में कुछ हद तक जरूर कामयाब हो गईं।
असम में भड़की हिंसा तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों के नागरिकों का देश के विभिन्न हिस्सों से पलायन की घटनाओं को भी इससे जोड़कर देखा जा सकता है। धीरे-धीरे साफ हो रहा है कि भारत में सोशल मीडिया के जरिए अफवाहें फैलाने की कुचेष्टा पाकिस्तान की तरफ से हुई। पाक खुफिया एजेन्सी आईएसआई की शह पर कट्टरपंथी ताकतों ने सोशल मीडिया का जमकर दुरुपयोग किया। गलत सूचनाओं व भ्रमित करने वाली फोटुओं को वेबसाइटों पर डाला गया। बल्क एसएमएस के जरिए दहशत भरे संदेश भेजे गए। भारत के गृह सचिव के अनुसार पाकिस्तान की 76 वेबसाइट्स की पहचान की गई है, जिनसे अफवाहें फैलाई गई और भारत में उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोग पलायन को मजबूर हुए। सोशल मीडिया का ऐसा दुरुपयोग पहले कभी सामने नहीं आया। सवाल है, क्या अब सोशल मीडिया अफवाहें व वैमनस्य फैलाने का माध्यम बन रहा है? क्या वह दो देशों के बीच दुश्मनी बढ़ाने के लिए इस्तेमाल हो रहा है? क्या सोशल मीडिया एक कठपुतली है, जिसे नचाने वाला जैसा चाहे नाचने को मजबूर कर सकता है? अगर ऐसा है तो सोशल मीडिया जितना ताकतवर है उतना ही कमजोर भी है। जितना उपयोगी है, उतना ही खतरनाक भी है।
संभवत: इसीलिए उत्तर-पूर्व के राज्यों के पलायन पर संसद में 17 अगस्त को विशेष चर्चा के दौरान कुछ सांसदों ने सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाने की मांग तक कर डाली। जब-तब सरकारों द्वारा सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने की बात कही जाती रही है। कुछ देशों में ऐसा किया भी गया है। लेकिन क्या यह समस्या का वास्तविक समाधान है? यहां हम रोग को खत्म करने की बजाय रोगी को ही खत्म करते नजर आते हैं। दरअसल, सोशल मीडिया एक दुधारी तलवार है, जो दोनों तरफ वार करती है। वार करने वाला चाहे तो दुश्मन से अपना बचाव कर सकता है। या फिर खुद अपना गला भी काट सकता है। लेकिन इसमें तलवार का क्या दोष? तलवार तो शत्रु को पराजित करने के लिए ही बनी है, न कि खुद का नाश करने के लिए। यही बात सोशल मीडिया पर लागू होती है।
सोशल मीडिया की उपयोगिता, महत्व और वास्तविक शक्ति को पहचाना जाना चाहिए। क्या हम भूल गए हाल के बरसों में कई देशों में तानाशाहों का खात्मा करने में इसकी क्या भूमिका रही? आक्यूपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन को सोशल मीडिया ने ही परवान चढ़ाया। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आन्दोलन को इसी ने ताकत दी। गुवाहाटी में अकेली लड़की के साथ सरेआम खिलवाड़ करने वाले गुंडों को जेल के सींखचों में सोशल मीडिया ने ही पहुंचाया। शक्तिशाली सत्ता केन्द्रों के खिलाफ कमजोर और आम जन की आवाज बना है। सोशल मीडिया का इस्तेमाल अगर निहित स्वार्थी ताकतें अफवाहें फैलाकर शान्ति भंग करने के लिए करती हैं, तो अमन पसंद ताकतें इसका जोरदार जवाब भी सोशल मीडिया से दे सकती हैं, अमन व भाईचारा कायम रख सकती हैं। शत्रु को शत्रु के हथियार से ही परास्त करना चाहिए जैसे, सुनामी की जिस फोटो का दुरुपयोग किया गया था उसकी असलियत भी सोशल मीडिया ने ही उजागर की।
साहित्यिक चोरी और पत्रकार
पिछले दिनों मीडिया-जगत में एक शर्मसार करने वाली घटना हुई। भारतीय मूल के जाने-माने अमरीकी लेखक व स्तंभकार फरीद जकारिया पर साहित्यिक चोरी का इल्जाम लगा। इस इल्जाम में टीवी चैनल सीएनएन व टाइम पत्रिका ने उन्हें निलंबित कर दिया। जकारिया ने टाइम पत्रिका के 20 अगस्त अंक में अपने स्तंभ में हथियार नियंत्रण पर लेख लिखा था। यह लेख एक अन्य प्रसिद्ध अमरीकी लेखक प्रो. जिल लेपोर के लेख से काफी मिलता-जुलता था। यह लेख 'द न्यूयार्कर' के 23 अप्रेल के अंक में छपा था। हालांकि जकारिया पर जिल लेपोर के लेख के एक पैरेग्राफ की चोरी करने का इल्जाम था, लेकिन इससे उनकी प्रतिष्ठा को बहुत आघात लगा। 48 वर्षीय फरीद जकारिया का भारत के मीडिया जगत में भी बहुत मान-सम्मान है। उन्हें भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया। स्वयं जकारिया इस साहित्यिक चोरी से लज्जित हैं। उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करते हुए सी.एन.एन. के दर्शकों तथा टाइम के पाठकों से माफी मांगी। जकारिया ने तुरन्त अपनी गलती स्वीकार करके अच्छा ही किया। लेखन के अपने मापदंड और आचार-संहिता हैं, जिनका पालन हर हाल में किया जाना चाहिए। अन्यथा लेखन के जरिए हम जिस समाज को प्रभावित करना चाहते हैं वह हम पर अपना विश्वास खो देगा। यह लेखन की बहुत बड़ी हानि होगी। लेखक की तो होगी ही।
जूलियन असांजे बनाम अमरीका
दुनिया भर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रतीक बने 'विकीलीक्स' के खोजी पत्रकार जूलियन असांजे फिर चर्चा में हैं। लंदन स्थित इक्वेडोर के दूतावास में असांजे गत रविवार को अचानक प्रकट हुए। इक्वेडोर के राजनीतिक शरण में रह रहे असांजे ने दूतावास के भीतर से ही अपने समर्थकों को संबोधित किया। असांजे ने कहा, दुनिया में अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है। पत्रकारों को चुप कराया जा रहा है ताकि लोग सच्चाई न जान सकें। अमरीका समेत दुनिया भर की सरकारें यही कर रही हैं। अपनी वेबसाइट विकीलीक्स के जरिए इराक, अफगानिस्तान के युद्धों सहित अमरीकी सरकार के कई महत्वपूर्ण राज उजागर करके उन्होंने पूरी दुनिया को चौंका दिया था। उनका आरोप है कि तभी से अमरीका उनके पीछे पड़ा है। ब्रिटेन सरकार असांजे को स्वीडन सरकार को सौंपना चाहती है। लेकिन इक्वेडोर के शरण देने की वजह से वे अभी तक बचे हुए हैं। असांजे स्वीडन जाने का विरोध कर रहे हैं। उनका आरोप है कि स्वीडन में उनके खिलाफ यौन शोषण का आपराधिक मुकदमा एक बहाना है। वहां की सरकार उन्हें अमरीका को सौंप देगी। अमरीका के हाथ पडऩे पर वे जीवित नहीं बचेंगे। इस आशंका के चलते वे दूतावास से बाहर नहीं निकल रहे हैं। अमरीका, स्वीडन और ब्रिटेन सहित दुनिया भर में असांजे के समर्थक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की उनकी लड़ाई में उनका समर्थन कर रहे हैं।

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समाज, बाजार और मीडिया

सच है कि समाज के अन्य अंगों की तरह मीडिया भी बाजारवाद से प्रभावित है। बल्कि उसके बहुत बड़े हिस्से पर बाजार की शक्तियां हावी हो गई हैं। 'मिशनरी' पत्रकारिता से 'व्यावसायिक' पत्रकारिता का सफर एक सच्चाई है। लेकिन 'व्यावसायिक' पत्रकारिता और मूल्यहीन पत्रकारिता में कोई अनिवार्य अन्तर्संबंध देखना भूल है।

हाल ही मुझे एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में शामिल होने का अवसर मिला। चर्चा का केन्द्र-बिन्दु लोकतंत्र के स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया—में आम आदमी के सरोकारों से जुड़ा था। मीडिया से सम्बंधित चर्चा के दौरान कुछ ऐसे सवाल उठाए गए, जो इधर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लगातार उठाए जा रहे हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि संगोष्ठी एक छोटे-से कस्बे में कन्या शिक्षा से सम्बंधित एक निजी संस्थान द्वारा आयोजित की गई थी। बीकानेर जिले के नोखा कस्बे में श्री जैन आदर्श सेवा संस्थान के विशाल परिसर में कन्या शिक्षा से जुड़ी विभिन्न शिक्षण संस्थाएं संचालित हैं। संस्थान के 25 वर्ष पूर्ण होने पर रजत जयंती समारोह की शृंखला में 28 जुलाई को आयोजित इस संगोष्ठी में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार और ख्यात अर्थशास्त्री प्रो. विजय शंकर व्यास मुख्य वक्ता थे। प्रो. व्यास ने आर्थिक नीतियों और आम आदमी के अन्तरसम्बंधों पर सारगर्भित व्याख्यान दिया। अन्य विषयों पर भी आम आदमी पर केन्द्रित सार्थक चर्चा हुई। यहां मैं मीडिया के दायित्व-बोध पर हुई चर्चा पर रोशनी डालना चाहूंगा।
मीडिया को लेकर विभिन्न मंचों पर जो बात लगातार कही जा रही है, वही संगोष्ठी में भी उभर कर आई। ...वर्तमान परिवेश ने मीडिया को 'मिशन' से 'व्यवसाय' बना दिया है। वह बाजार की कठपुतली बन गया है। मीडिया जैसा शक्तिशाली माध्यम का इस्तेमाल करने वाला बाजार न तो किसी आचरण संहिता को मानता है और न ही किसी नैतिक मर्यादा को। एडमंड बर्क ने लोकतंत्र में प्रेस के महत्व व उपयोगिता को अभिव्यंजित करने के उद्देश्य से उसे चौथा स्तंभ कहा, लेकिन आज मीडिया के बाजारवाद की प्राथमिकता ने लोकतंत्र के इस स्तंभ से मूल्यपरक पत्रकारिता को छूमंतर कर दिया। पूंजीवाद से पोषित अर्थव्यवस्था में पल-बढ़ रहे मीडिया ने आम आदमी को भुला दिया है। वह संवेदनहीन हो गया है और उसका सामाजिक दायित्व-बोध नष्ट हो चुका है।...
उपरोक्त भाव मैंने एक प्रतिभागी डॉ. प्रतिभा कोचर के व्याख्यान से उद्धृत किए हैं, जो मीडिया पर व्यक्त किए जा रहे विचारों व धारणाओं की प्रतिनिधि अभिव्यक्ति है।
सच है कि समाज के अन्य अंगों की तरह मीडिया भी बाजारवाद से प्रभावित है। बल्कि उसके बहुत बड़े हिस्से पर बाजार की शक्तियां हावी हो गई हैं। 'मिशनरी' पत्रकारिता से 'व्यावसायिक' पत्रकारिता का सफर एक सच्चाई है। लेकिन 'व्यावसायिक' पत्रकारिता और मूल्यहीन पत्रकारिता में कोई अनिवार्य अन्तर्संबंध देखना भूल है। व्यावसायिक होते हुए भी मूल्यपरक पत्रकारिता की जा सकती है जिसमें पाठक केन्द्र में रहता है। जबकि बाजार प्रेरित मीडिया के केन्द्र में पाठक या दर्शक या श्रोता उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना बाजार और उसकी जरूरतें महत्वपूर्ण है। हमें मीडिया का आकलन करते समय इनमें अन्तर करना होगा ताकि सभी मीडिया संस्थानों को एक ही लाठी से न हांका जाए।
इसलिए जब संगोष्ठी के संयोजक और कन्या महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो. वेद शर्मा ने मुझो मीडिया की ओर से विचार रखने के लिए आमंत्रित किया तो मैंने 'राजस्थान पत्रिका' के एक समाचार अभियान के हवाले से अपना मंतव्य स्पष्ट किया। यह समाचार अभियान जयपुर शहर में मोबाइल टॉवरों से होने वाले रेडिएशन और लोगों पर पड़ रहे उसके दुष्प्रभावों को लेकर शुरू किया गया था, जो बाद में राज्य भर में फैला और अन्तत: एक राष्ट्रव्यापी बहस का मुद्दा बना। मोबाइल कंपनियों की ओर से गली-गली में अंधाधुंध ढंग से लगा दिए गए उच्च क्षमता के ये टॉवर लोगों के स्वास्थ्य के साथ किस तरह खिलवाड़ कर रहे हैं, इसकी असलियत उजागर की गई। अलग-अलग गली-मोहल्लों में रेडिएशन का स्तर क्या है? उसका जन स्वास्थ्य पर क्या दुष्प्रभाव पड़ रहा है? विशेषज्ञ क्या कहते हैं? आम लोगों की क्या प्रतिक्रिया है? मोबाइल कंपनियों के प्रतिनिधियों का क्या कहना है? ये सभी मुद्दे तथ्यात्मक आंकड़ों व सम्पूर्ण ब्योरों के साथ एक समाचार अभियान के रूप में लगातार प्रकाशित किए गए। अभियान का लोगों पर असर पड़ा। लोग अपने-अपने गली-मोहल्लों और कॉलोनियों में निकलने लगे। रेडिएशन से प्रभावित लोग मुखर होकर बोलने लगे। मोबाइल टॉवरों के खिलाफ प्रदर्शन करने लगे। न केवल कॉलोनियों में एक ही इमारत पर लगे कई टॉवरों का विरोध हुआ, बल्कि स्कूलों, अस्पतालों आदि संवेदनशील जगहों पर लगे मोबाइल टॉवरों को तत्काल हटाने की मांग जोर पकडऩे लगी। अपने घर में लगे टॉवर को कुछ मकान मालिकों ने स्वयं ही हटवाने का निर्णय किया। कैंसर जैसे जानलेवा रोग और रेडिएशन के अंतरसंबंधों पर विशेषज्ञों के विचार सामने आए। जन विरोध को देखते हुए राज्य सरकार ने जांच कमेटी बनाई। दूसरी ओर शिक्षा मंत्री ने शिक्षण संस्थानों पर लगे टॉवर हटाने की घोषणा की।
इधर राजस्थान उच्च न्यायालय के आदेश से भी जांच कमेटी बनाई गई। केन्द्रीय दूरसंचार मंत्रालय ने न्यायालय में बाकायदा शपथ पत्र पेश करके घोषणा की कि वह सितंबर 2012 से मोबाइल टॉवरों के मौजूदा 4500 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर रेडिएशन को 10 गुणा घटा देगा। जयपुर शहर के नागरिकों से प्रेरित होकर राज्य के कई शहरों में मोबाइल टॉवरों के खिलाफ धरने-प्रदर्शन हुए और जन स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का माहौल बना। राज्य की सीमा से निकलकर यह अभियान देश के अन्य शहरों में भी फैला। अब यह एक राष्ट्रव्यापी अभियान बन चुका है। जयपुर शहर में यह अभियान नवम्बर 2011 में शुरू हुआ था। इसके बाद से अब तक यानी गत आठ माह से कोई नया टॉवर नहीं लग पाया। केन्द्र सरकार मोबाइल टॉवर स्थापित करने की सर्वमान्य नीति पर विचार कर रही है। माना जाता है, मोबाइल कंपनियां टॉवर स्थापित करने के मामले में विकासशील और विकसित देशों में अलग-अलग मापदंड अपनाती हैं। विकसित देशों में कम फ्रिक्वेंसी के टॉवर लगाए जाते हैं, ताकि उनसे निकलने वाले रेडिएशन का स्तर कम हो। कई यूरोपीय देशों ने इन टॉवरों की क्षमता तय कर रखी है, जिससे अधिक क्षमता का टॉवर लगाने की अनुमति नहीं है। भारत जैसे विकासशील देश में ऐसे प्रतिबंध नहीं है। लिहाजा मोबाइल कंपनियों ने इसका फायदा उठाकर उच्च क्षमता के टॉवरों का देश भर में जाल फैला दिया है। यह लोगों के स्वास्थ्य के साथ कैसा खिलवाड़ है? पत्रिका के अभियान ने नीति-निर्माताओं को भी सोचने पर विवश किया। जाहिर है, मोबाइल कंपनियों की इस अभियान पर अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं हुई है। उन्होंने टॉवरों से रेडिएशन को बेबुनियाद बताया और पत्रिका के समाचारों के विपरीत प्रचार अभियान चलाया, पर लोग भ्रमित नहीं हुए। आखिर रेडिएशन के दुष्परिणामों के वे भुक्तभोगी हैं। पत्रिका ने तथ्यों सहित सारी जानकारियां जुटाईं। यही कारण है कि इस मुद्दे से लाखों लोग जुड़े और यह राष्ट्रीय बहस का विषय बना। क्या बाजार की शक्तियों के हाथों की कठपुतली बनकर कोई मीडिया संस्थान ऐसा जनोन्मुखी कार्य कर सकता है? 'पत्रिका' ने सामाजिक सरोकार के ऐसे अनेक जनोन्मुखी कार्य किए हैं। बाजार के दबाव से ग्रस्त कोई मीडिया ऐसा शायद ही कर पाए।

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कार्टून, ज्यादती और मनमोहन सिंह


तीन साल पहले भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को लाखों लोगों की जिन्दगियां बदलने वाला शख्स बताने वाली 'टाइम' पत्रिका ने लिखा, अर्थव्यवस्था के उदारीकरण में वैश्विक प्रशंसा पाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अब सुधारों पर कड़े फैसले लेने के अनिच्छुक लगते हैं। 'टाइम' की यह स्टोरी भारतीय मीडिया में सुर्खियां बनी और लगभग सबने अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या की।

इस बार हम पिछले दिनों मीडिया की सुर्खियों में रही कुछ घटनाओं पर चर्चा कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में माओवादियों से मुठभेड़ के नाम पर बस्तर के 17 आदिवासियों की मौत की घटना से रमन सिंह सरकार कठघरे में है। 'पत्रिका' ने शुरू से घटनाक्रम को प्रमुखता से उठाया। विभिन्न जांच एजेंसियां इस घटना की परतें उधेड़ रही हैं। राज्य सरकार सवालों से घिरी है। उससे जवाब देते नहीं बन रहा है। केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम को अपना पूर्व बयान बदलकर खेद व्यक्त करना पड़ा।
एन.सी.ई.आर.टी. से जुड़ा कार्टून विवाद फिर सुर्खियां बना। इस बार विवाद का कारण इस मुद्दे पर बनी एस.के. थोराट कमेटी की वह सिफारिश थी, जिसमें पाठ्य-पुस्तकों से 21 कार्टून हटाने की बात कही गई। इस पर कई प्रमुख शिक्षाविदों ने आपत्तियां उठाईं। 'द हिन्दू' और 'इंडियन एक्सप्रेस' ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया। परिणामत: एन.सी.ई.आर.टी. ने थोराट कमेटी की रिपोर्ट को दरकिनार करते हुए केवल दो कार्टून हटाने का निर्णय किया। अमरीका की प्रतिष्ठित पत्रिका 'टाइम' में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर प्रकाशित कवर स्टोरी 'अंडर अचीवर' मीडिया में न केवल खबर का विषय बनी, बल्कि इस पर अच्छी-खासी बहस भी चल पड़ी।
'माओवादियों' से मुठभेड़!
छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के कोरसागुड़ा गांव में 28-29 जून की रात को सुरक्षा बलों ने माओवादियों से मुठभेड़ के नाम पर 17 आदिवासियों की हत्या कर दी। प्रदेश में विपक्षी दल कांग्रेस ने इसे सामूहिक नरसंहार बताया और आदिवासी विधायक कवासी लखमा के नेतृत्व में जांच दल गठित किया। बताया गया कि जमीन के किसी विवाद को सुलझाने के लिए ग्रामीण एकत्रित हुए थे। पुलिस ने उन्हें चारों तरफ से घेरकर उन पर फायरिंग की। कांग्रेस के जांच दल की रिपोर्ट के अनुसार मारे गए 17 ग्रामीणों में 9 नाबालिग हैं। इनमें 7 तो 13 से 15 साल की उम्र के स्कूली बच्चे हैं। मृतकों में 2 स्कूली छात्राएं भी शामिल हैं। विपक्षी दल की रिपोर्ट सामने आई तो केन्द्र सरकार ने इस पूरे घटनाक्रम पर केन्द्रीय रिजर्व सुरक्षा बल से रिपोर्ट मांगी। सुरक्षा बल अपनी रिपोर्ट देता, उससे पहले ही दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस करके केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने घोषणा कर दी, 'कोरसागुड़ा की मुठभेड़ में मारे गए सभी माओवादी थे।' यही नहीं, उन्होंने इस घटना को अंजाम देने वाले पुलिस बल की तारीफ भी की।
'पत्रिका' ने सवाल उठाया कि रिपोर्ट मिले बगैर सभी मृतकों को माओवादी कहना और सुरक्षाबलों की पीठ थपथपाना कहां तक जायज है? लेकिन राज्य सरकार की तरह केन्द्र की आंख पर भी पर्दा पड़ा रहा। दूसरी तरफ, मानवाधिकार आयोग ने स्वत: प्रसंज्ञान लेते हुए सरकार से सम्पूर्ण घटनाक्रम की रिपोर्ट मांगी। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी पूरे घटनाक्रम को गंभीर माना और केन्द्र सरकार से निष्पक्ष जांच कराने तथा मानवाधिकार हनन के दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की। पीयूसीएल पीयूडीआर जैसे मानवाधिकार संगठनों ने अपने स्वतंत्र जांच दल गठित किए। अंतत: 4 जुलाई को चिदम्बरम ने इस घटना पर अफसोस जताया। दूसरी ओर, छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार अब भी दोषी पुलिसकर्मियों को बचाने और मामले पर पर्दा डालने की कोशिश में लगी है। निर्दोष ग्रामीणों और बच्चों की हत्याओं को आखिर सरकार कब तक छुपाकर रख पाएगी? बड़ा सवाल यह कि क्या ऐसी दुखद घटनाएं माओवाद को कुचल पाएंगी या उसे और जमीनी मजबूती देंगी?
थोराट कमेटी और कार्टून विवाद
अंबेडकर और नेहरू के कार्टून से उपजे विवाद के बाद सरकार की ओर से गठित एस.के. थोराट कमेटी ने एन.सी.ई.आर.टी. की नौवीं और ग्यारहवीं कक्षा की पाठ्य-पुस्तकों से 21 कार्टून हटाने की सिफारिश की। कमेटी की ओर से पाठ्य-पुस्तकों में प्रतिबंधित कार्टूनों में से कुछ कार्टून 'द हिन्दू' और 'इंडियन एक्सप्रेस' ने 4 जुलाई के अंक में प्रकाशित किए। एक्सप्रेस ने जहां पूरा पृष्ठ इस पर केन्द्रित किया, वहीं 'हिन्दू' ने प्रस्तावित प्रतिबंधित कार्टूनों के अलावा तीखा सम्पादकीय भी लिखा। एक बात स्पष्ट थी कि थोराट कमेटी की सिफारिश राजनेताओं को खुश करने के लिए है। इसका शैक्षणिक गुणवत्ता से कोई सम्बंध नहीं है। जिन कार्टूनों को पाठ्यपुस्तकों से हटाने की सिफारिश की गई, उनके बहुत ही लचर कारण बताए गए। जैसे, शेख अब्दुल्ला के जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बनने पर इंदिरा गांधी द्वारा उन्हें ताज पहनाना। इस कार्टून को हटाने की सिफारिश इसलिए की गई कि इससे प्रांतीय भावनाएं आहत होंगी। एक कार्टून में मतदान केन्द्र पर नेता मतदाता को हाथ जोड़कर कहता है—क्यों परेशान होते हो? जाओ तुम्हारा वोट तो हमने पड़वा दिया! यह कार्टून इसलिए हटाने की सिफारिश की कि इसमें राजनेताओं के विरुद्ध नकारात्मक संदेश है। इसी तरह के कारण गिनाते हुए कमेटी ने 21 कार्टून हटाने की सिफारिश कर दी।  विख्यात इतिहासज्ञ के.एन. पन्नीकर ने थोराट कमेटी की सिफारिशों को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए उसकी कड़ी आलोचना की। हैदराबाद विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर अरुण के. पटनायक ने कमेटी की रिपोर्ट को गलत माना। इसी तरह मृणाल मिरी, जी.बी. देशपांडे और प्रो. एस.एस. पांडियन जैसे ख्याति प्राप्त शिक्षाविद् भी कमेटी की रिपोर्ट से सहमत नहीं हैं। यहां तक कि एन.सी.ई.आर.टी. की निदेशक प्रवीण सिक्लेंर ने भी थोराट कमेटी की रिपोर्ट को अतार्किक बताया। और फिर अखबारों में खबरें छपीं कि एन.सी.ई.आर.टी. ने सिर्फ दो कार्टूनों को हटाने का निर्णय किया है। इनमें एक कार्टून अंबेडकर-नेहरू वाला है। दूसरा कार्टून हिन्दी विरोधी आन्दोलन से सम्बंधित है। निश्चय ही यह एक बेहतर निर्णय है। आखिर शैक्षणिक क्षेत्र में राजनीतिक हस्तक्षेप की जरूरत ही क्या है?
'टाइम' की कवर स्टोरी
'टाइम' पत्रिका ने अपने 8 जुलाई के अंक में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को 'अंडर अचीवर' बताते हुए लिखा कि भारतीय अर्थव्यवस्था की गति बहुत सुस्त चाल से चल रही है, लेकिन प्रधानमंत्री कोई फैसले नहीं ले पा रहे। भ्रष्टाचार और घोटालों पर भी वे सख्त कदम नहीं उठा पा रहे हैं। विकास दर स्थिर है और महंगाई पर नियंत्रण नहीं हो रहा। तीन साल पहले डॉ. मनमोहन सिंह को लाखों लोगों की जिन्दगियां बदलने वाला शख्स बताने वाली 'टाइम' पत्रिका ने लिखा, अर्थव्यवस्था के उदारीकरण में वैश्विक प्रशंसा पाने वाले मनमोहन सिंह अब सुधारों पर कड़े फैसले लेने के अनिच्छुक लगते हैं। 'टाइम' की यह स्टोरी मीडिया में सुर्खियां बनी और सबने अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या की। समीक्षकों ने 'टाइम' के इस आकलन की आलोचना की और भारतीय मामलों में एक विदेशी पत्रिका का अनावश्यक दखल बताया। यह सही है कि मनमोहन सिंह पर कुछ टिप्पणियां की गईं। लेकिन यह भी सच है कि कोई नई बात नहीं कही गई। 'टाइम' ने प्रधानमंत्री के बारे में जो लिखा वह भारतीय मीडिया में लगातार छपता रहा है। ऐसे में, 'टाइम' की स्टोरी को अनावश्यक तूल देने की क्या जरूरत है?

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आमिर खान के टीवी 'शो' के बहाने

'सत्यमेव जयते' की कडिय़ों में अब तक जो मुद्दे उठाए गए, वे अलग-अलग मंचों पर कई बार उठाए जा चुके हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी इन पर कई-कई बार रोशनी डाली गई है। इसके बावजूद आमिर के शो में ताजगी है। दर्शक उसे पसंद कर रहे हैं।

अगर आप सामाजिक मुद्दों पर केन्द्रित आमिर खान का टीवी शो 'सत्यमेव जयते' देखते हैं तो आपने महसूस किया होगा, इसके एपिसोड दिल को छू जाते हैं और हमें सोचने को मजबूर कर देते हैं। आमिर अपने शो में जो मुद्दा उठाते हैं उसे दर्शकों का पूरा समर्थन मिलता है। एपिसोड में आमिर द्वारा प्रस्तुत किए गए वास्तविक पात्रों के साथ दर्शक तादात्म्य करते दिखाई पड़ते हैं। दर्शक इन पात्रों के साथ भावुक होते हैं, दुखी होते हैं और ठहाके मारकर हंसते भी हैं। अब तक जो विषय उठाए गए वे असरदार रहे। सोशल और मुख्यधारा के मीडिया में इन पर चर्चाएं हुईं। कन्या भ्रूण हत्या के मुद्दे को तो आश्चर्यजनक जन समर्थन मिला।
इसमें दो राय नहीं, 'सत्यमेव जयते' की कडिय़ों में अब तक जो मुद्दे उठाए गए, वे अलग-अलग मंचों पर कई बार उठाए जा चुके हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी इन पर कई-कई बार रोशनी डाली गई है। कन्या भ्रूण हत्या, बाल यौन शोषण, अन्तरजातीय विवाह, घरेलू हिंसा से लेकर बीते रविवार को उठाई गई युवाओं में शराबखोरी की लत जैसी सामाजिक समस्याएं पहली बार सामने नहीं लाई गईं। ब्रांडेड बनाम जेनेरिक दवाएं और जैविक खेती जैसे राष्ट्रीय मुद्दों पर भी मीडिया में निरन्तर बहसें प्रकाशित-प्रसारित होती रही हैं। इसके बावजूद आमिर के शो में ताजगी है। दर्शक उसे पसंद कर रहे हैं। सवाल यह है कि मीडिया में अनेक बार उठाए गए मुद्दों पर बना एक टीवी शो कैसे अपना असर छोडऩे में कामयाब है? अगर हम यह पड़ताल करें तो संभव है इसके निष्कर्ष युवा पत्रकारों के लिए फायदेमंद साबित हों। आइए, आमिर के इस शो के बहाने हम इस पर चर्चा करें।
कैसे शुरुआत करें?
किस विषय को कैसे उठाएं कि शुरुआत में ही स्पष्ट हो जाए कि समस्या क्या है। अखबार की भाषा में कहें तो यह इंट्रो है। आमिर फसलों में कीटनाशकों के घातक परिणाम बताना चाहते हैं। वे गृहणियों से पूछते हैं। आप जो ताजा फल और सब्जियां बाजार से खरीद कर लाई हैं, उनमें कीटनाशकों का जहर भी छुपा हो सकता है—क्या आप जानती हैं? इसी तरह युवाओं में शराब की लत को फोकस करने के लिए आमिर शुरुआत ही युवा दर्शकों से यह पूछकर करते हैं— क्या आप कभी-कभी या अक्सर शराब का सेवन करते हैं? युवाओं के हां कहने पर वे कारण पूछते हैं। कोई बताता है—मस्ती के लिए तो कोई और कारण बताता है। आमिर सभी को मिलाकर एक निष्कर्ष की तरफ बढ़ते हैं कि कैसे कभी-कभी शराब पीना एक लत बन जाती है, जो आखिर में एक बीमारी का रूप धारण कर लेती है। ताजा फल और सब्जियों का उदाहरण देकर आमिर न केवल कीटनाशकों के घातक दुष्परिणामों को सामने लाते हैं, बल्कि जैविक खेती की उपयोगिता और विशेषताओं को भी प्रभावी ढंग से उजागर करते हैं।
प्रमाणित करें
किसी भी मुद्दे को अगर प्रामाणिक ढंग से उठाया जाए तो उसका असर जरूर होता है—यह भी 'सत्यमेव जयते' से सीखा जा सकता है। आमिर केवल नैतिक उपदेश या भाषण नहीं देते—वे समस्याओं को प्रामाणिक ढंग से आपके सामने रखते हैं। हमारे देश में निशक्त जन की आबादी और उनकी समस्याओं को उन्होंने इसी तरह अपने शो में रखा। एक उदाहरण देखिए—'सरकार कहती है, हमारी जनसंख्या का 2 फीसदी हिस्सा निशक्त है। ज्यादातर विशेषज्ञ और गैर सरकारी संगठन इस आंकड़े को 6 फीसदी तक बताते हैं। मैं सोचता हूं कि देश के विभिन्न हिस्सों में निशक्त जनों का यह आंकड़ा 6 से 10 फीसदी के बीच हो सकता है। मान लेते हैं कि यह 8 फीसदी है। 1.20 अरब जनसंख्या का 8 फीसदी यानी 9.6 करोड़ लोग। यह जनसंख्या इंग्लैंड की जनसंख्या (5.1 करोड़), फ्रांस की जनसंख्या (6.5 करोड़) और जर्मनी की जनसंख्या (8 करोड़) से भी ज्यादा है।' आमिर सवाल उठाते हैं— 'क्या हम अपनी 9.6 करोड़ आबादी को अशिक्षित, बेरोजगार और अनुत्पादक बने रहना चाहते हैं?' निश्चय ही भारत में निशक्तजन की समस्याओं को आमिर न केवल प्रामाणिकता देते हैं, बल्कि आम जन को उनके प्रति सोचने को मजबूर भी करते हैं। आमिर अपने शो की विभिन्न कडिय़ों में यही तरीका अपनाते हैं। वे खेती में कीटनाशकों का निर्माण करने वाली कंपनियों के तर्कों को खारिज करते हैं। वे कीटनाशकों के व्यापार का खोखलापन उजागर करते हुए आंकड़ों का सहारा लेते हैं— 'कीटनाशक की 1 प्रतिशत मात्रा ही कीटों को मारने के काम आती है। शेष 99 प्रतिशत भोजन के जरिए हमारे शरीर में पहुंचते हैं।' बेशक आमिर आंकड़ों और तर्कों के लिए विशेषज्ञों का सहारा लेते हैं, परन्तु विषय को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करने के सभी उपाय करते हैं।
संवेदनाओं को छूएं
आमिर में एक रूखे विषय को भी भावनाओं के स्पर्श से सरस बना देने की खूबी है। जब आप आंकड़ों और तथ्यों का जाल बुनते हैं तो दर्शक या पाठक उसमें उलझकर असली समस्या से दूर चला जा सकता है। आमिर अपने दर्शकों को मूल मुद्दे से तनिक भी भटकने नहीं देते। इसके लिए वे संवेदनाओं का सहारा लेते हैं। जेनेरिक और ब्रांडेड दवाओं के व्यापार की पोल वे विभिन्न दवाओं की कीमतों में तुलनात्मक अन्तर से बखूबी खोल देते हैं। (20 पैसे की एक गोली ब्रांडेड बनाकर साढ़े 12 रुपए में बेची जाती है।) पर वे एक भावनात्मक तथ्य पर लोगों का ध्यान खींचते हैं— 'किसी लाइलाज बीमारी से अपने बच्चे को लड़ते देखना और उसकी मृत्यु हो जाना एक दुखदायी और कटु सत्य है। खासकर जब हम एक लाइलाज बीमारी के सामने कुछ भी कर पाने में असमर्थ हों। पर, यदि किसी बीमारी का इलाज मौजूद हो और इलाज का खर्च वहन न कर पाने के कारण मेरा बच्चा मर जाए तो यह अकल्पनीय त्रासदी है।'
गहन अध्ययन करें
किसी मुद्दे की तह में जाने के लिए आपको उसके सारे पक्षों को खंगालना पड़ेगा। विषय के सभी अच्छी-बुरे पहलुओं को समझाना होगा। फिर उसे तर्क की कसौटी पर परखना होगा। तभी किसी मुद्दे पर संतुलित दृष्टिकोण रखा जा सकता है। आमिर जब प्रेम-विवाह और अपनी पसंद के जीवन-साथी का मुद्दा उठाते हैं तो युवाओं की पसंद को प्राथमिकता देते हैं। लेकिन वे माता-पिता की सीख और अनुभवों की भी अनदेखी नहीं करते। वे कहते हैं— 'मेरा मानना है कि बड़ों की सलाह में दम होता है और निश्चित रूप से युवाओं को उनकी सलाह का इस्तेमाल करना चाहिए।' इसी तरह महंगी दवाओं वाले एपिसोड में आमिर समस्या की तह में जाते हैं। आखिर दवाओं का यह महंगा व्यापार क्यों फल-फूल रहा है? जन स्वास्थ्य का विषय जन कल्याणकारी सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता में होना चाहिए। लेकिन सरकार हमारी जीडीपी की मात्र 1.4 फीसदी राशि ही जन स्वास्थ्य सेवाओं के लिए आवंटित कर रही है। आमिर एक सेलेब्रिटी हैं। उनके पास किसी मुद्दे पर शोध के लिए एक टीम है। टीम सभी संसाधनों से परिपूर्ण है। इसलिए जो काम आमिर खान कर सकते हैं, वह एक सामान्य पत्रकार नहीं कर सकता। इसमें काफी हद तक सच्चाई भी है। इसके बावजूद उनका यह शो किसी मुद्दे को उठाने की खास शैली, उसके प्रति संतुलित दृष्टिकोण तथा पूरी तैयारी और सजगता को जाहिर करता है, जिससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। खासकर, तब जब हम एक्सक्लूसिव स्टोरी या विशेष रिपोर्ट तैयार करते हैं।

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फैसला शानदार, लागू हो पूरे देश में

टिप्पणी
 गेहूं की बर्बादी पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जो सख्त रुख अपनाया है उसकी जितनी तारीफ की जाए, कम है। कोर्ट की लखनऊ बेंच का यह आदेश कि जिन अधिकारियों की वजह से अनाज सड़ता है, उनके वेतन से इस नुकसान की भरपाई की जानी चाहिए— पूरे देश के गैर-जिम्मेदार अधिकारियों के लिए एक नजीर है।
गेहूं की बर्बादी पर कोर्ट अनेक बार चिन्ता जाहिर कर चुका है। देश की सर्वोच्च अदालत तक कह चुकी है कि अनाज बर्बाद करने से अच्छा यह है कि उसे गरीबों में मुफ्त बांट दिया जाए। लेकिन न तो सरकार और न ही अधिकारियों ने न्यायालय के निर्देशों की परवाह की। उल्टे केन्द्र सरकार ने उपेक्षापूर्ण रुख अपनाया और बेशर्मीपूर्वक कह दिया कि नीतिगत रूप से यह सही नहीं होगा कि लोगों को मुफ्त में अनाज बांट दिया जाए। लगता है सरकार और उसके कारिन्दों की जनता के प्रति न तो कोई जवाबदेही है और न ही परवाह। उन्हें अपने वेतन-भत्तों और सुख-सुविधाओं के सिवा कुछ सूझता ही नहीं। इलाहाबाद न्यायालय ने यह आदेश एक जनहित याचिका पर दिया जिसमें कहा गया कि लखीमपुर खीरी में एक हजार बोरियों से ज्यादा गेहूं बारिश की वजह से सड़ गया। बारिश से गेहूं सड़ जाने के ऐसे समाचार राजस्थान हो या मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ हो या पश्चिम बंगाल देश के हर राज्य से मिलते हैं। और हर साल मिलते हैं। यानी लाखों टन गेहूं सिर्फ इसलिए बरबाद हो जाता है कि उसे रखने के लिए सरकार के पास जगह नहीं है। कृषि प्रधान देश में इससे बड़ी कोई विडम्बना नहीं हो सकती कि अच्छी मात्रा में पैदा हुए अन्न को रखने के लिए भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं है।
कुछ समय पहले ही सरकार ने संसद में सदस्यों के चिन्ता जाहिर करने पर आश्वस्त किया था कि गेहूं के भंडारण की समुचित व्यवस्था की जाएगी। लेकिन सरकार का यह वादा खोखला साबित हुआ। इसका प्रमाण है कि मानसून पूर्व बारिश के दौरान ही जगह-जगह से गेहूं की बोरियां भीगकर सडऩे के समाचार मिलने लगे और अब तक हजारों टन अनाज सड़ चुका है। जिस देश में ३०-३५ करोड़ लोगों को दो वक्त की रोटी नसीब न हो, वहां ऐसे हालात दयनीय हैं। होना तो खुश चाहिए कि इस बार लक्ष्य से ज्यादा अनाज का उत्पादन हुआ, लेकिन दिल रोने को कर रहा है। क्योंकि हमारी आंखों के सामने अनाज बरबाद हो रहा है। दरअसल, भंडारण की व्यवस्था तो एक आड़ है जिसे देश की नाकारा नौकरशाही ने जानबूझाकर ओढ़ रखी है। सारी दिक्कत अधिकारियों के कुप्रबंधन की है। पिछले साल यूपी के भंडारागार निगम के ११ में से ६ गोदाम एक निजी कंपनी को किराए पर दे दिए गए थे, जिसमें उसने कोल्ड ड्रिंक, सिगरेट और शराब की बोतलें भंडारित कर रखी थीं। दूसरी तरफ गेहूं बाहर सड़ रहा था। कमोबेश ऐसे हालात सभी राज्यों में हैं। अधिकारियों की अन्न के प्रति यह बेकद्री इसलिए है कि उनके पेट भरे हुए हैं। अनाज सडऩे पर उनसे कोई सवाल नहीं पूछता। सरकार और उसके मंत्री सोए हुए हैं। उल्टे वे भ्रष्ट और लापरवाह अधिकारियों को प्रश्रय ही देते हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला उनकी नींद उड़ाने वाला साबित होगा। देश भर में यही हालात हैं, ऐसे में इलाहाबाद कोर्ट का यह फैसला देश के सभी राज्यों पर लागू होना चाहिए। नुकसान की भरपाई जब अधिकारियों के वेतन से होगी, तब आप देखिएगा कि कैसे अनाज की हिफाजत होती है और कैसे गेहूं की बोरियां सुरक्षित रहती हैं। सड़ा हुआ अनाज शराब बनाने के काम भी आता है, जो शराब कंपनियों को नीलामी में बेचा जाता है। कहीं यह सब भ्रष्ट अफसरों और शराब कंपनियों की मिलीभगत का खेल तो नहीं— इसकी तहकीकात की भी जरूरत है।

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सोशल मीडिया का बढ़ता असर

पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन के ठिकाने पर अमरीकी हेलीकॉप्टरों के हमले की सबसे पहले सूचना मीडिया को एक ट्विट से हुई थी, जिसे एक स्थानीय बाशिन्दे ने पोस्ट किया था। सोशल मीडिया के एक विशेषज्ञ ने सही लिखा, 'अब हम सिर्फ श्रोता, पाठक या दर्शक नहीं रहे। आज का आम नागरिक भी एक लेखक, पत्रकार और प्रस्तोता की तरह ही ताकतवर हो गया है।

उस दिन अखबारों में एक साथ ये दोनों खबरें छपीं। एक में प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का पहली बार फेसबुक पर आने का समाचार था, जिसमें उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए एपीजे. अब्दुल कलाम की उम्मीदवारी सुनिश्चित करने व उन्हें जिताने की अपील की।
दूसरी खबर, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के ट्विटर पर संदेश से सम्बंधित थी, जिसमें उन्होंने एपीजे. अब्दुल कलाम से राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लडऩे की अपील की। उमर ने अपने ट्विट में प्रणव मुखर्जी की उम्मीदवारी की घोषणा होने पर उन्हें बधाई भी दी।
कुछ दिन पहले लालकृष्ण आडवाणी की अपने ब्लॉग पर अपनी ही पार्टी भाजपा को लेकर की गई टिप्पणी मीडिया में सुर्खियां बनी थीं। यही नहीं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खेल, मनोरंजन व कॉरपोरेट जगत से जुड़ी हस्तियों के व्यक्त किए गए विचार, संदेश व टिप्पणियां भी मीडिया में खबरें बन रही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि डिजिटल संसार अब सोशल मीडिया की भूमिका निभा रहा है। उसकी सूचनाएं आए दिन प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरें बन रही हैं। यह सोशल मीडिया—जिसे न्यू मीडिया भी कहा जा रहा है—के बढ़ते प्रभाव का प्रमाण तो है ही, मुख्यधारा के मीडिया के साथ उसके प्रगाढ़ होते रिश्तों को भी दर्शाता है। ऐसा अकारण नहीं है। फेसबुक, ट्विटर, यू- ट्यूब, फ्लिकर, ब्लॉग्स, पॉडकास्ट्स, गूगल आदि डिजीटल माध्यमों की दिनोंदिन होती सर्वव्यापी पहुंच से इनके महत्व और उपयोग को कई नए आयाम मिले हैं। विभिन्न आयु व पेशागत वर्गों में भी ये माध्यम अपनी पैठ बढ़ाते जा रहे हैं। राजनीति में युवा उमर अब्दुल्ला ट्विटर से जुड़े हैं, तो प्रौढ़वय ममता बनर्जी भी फेसबुक का सहारा ले रही हैं। बुजुर्ग लालकृष्ण आडवाणी अपने ब्लॉग के जरिए लोगों से संवाद कायम कर रहे हैं। यानी आम और खास सभी इन डिजिटल माध्यमों से जुड़ रहे हैं।
दुनिया में करीब 2 अरब लोगों तक इन माध्यमों की पहुंच हो चुकी है। हो भी क्यों नहीं। आपका संदेश बहुत आसानी से लोगों तक जो पहुंच जाता है। मिस्र, सीरिया, लीबिया, ट्यूनीशिया, बहरीन जैसे मुल्कों में क्रान्ति का बिगुल सोशल मीडिया के मार्फत ही वहां की जनता ने बजाया। शक्तिशाली अमरीका को हिलाने वाले आक्युपाइ वॉलस्ट्रीट आंदोलन को भी इसी मीडिया ने परवान चढ़ाया। भारत में अन्ना हजारे के लोकपाल अभियान को सोशल मीडिया ने बहुत बल दिया। आज सोशल मीडिया शक्ति का एक नया केन्द्र बन चुका है, जिससे सभी देशों के राजनीतिक दल व नेता जुडऩा चाहते हैं। हाल ही फ्रांस में हुए राष्ट्रपति चुनावों के दौरान निकोलस सरकोजी और फ्रेंकोइस ओलान्द ने अपने-अपने प्रचार अभियान में सोशल मीडिया का जमकर उपयोग किया। अमरीका में जगजाहिर है, वहां चुनाव अभियानों में सोशल मीडिया की प्रमुख भूमिका रहती है। ओबामा ने युवा मतदाताओं को लुभाने के लिए इस माध्यम का खूब उपयोग किया। पाकिस्तान में इमरान खान और उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ लोगों से इसी माध्यम से संवाद कायम रखे हुए है। अनेक देशों में राजनीतिक पार्टियों की अपनी वेबसाइट्स हैं। उनके प्रवक्ता फेसबुक, ट्विटर आदि के जरिए लोगों से निरंतर संवाद रखते हैं।
अब सवाल यह है कि सोशल मीडिया की यह लोकप्रियता कहीं मुख्यधारा के मीडिया की राह में बाधक तो नहीं? सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत और प्रसार के बीच आजकल कुछ लोग अगर ऐसा सोचने लगे हैं, तो आश्चर्य नहीं। लेकिन यह सोचने से पहले हमें मीडिया के विभिन्न रूपों के विकास की प्रक्रिया व पृष्ठभूमि पर एक नजर डालने की जरूरत है। प्रिंट मीडिया के युग में सर्वप्रथम रेडियो के आगमन ने इसी तरह के संदेह व सवाल उपजाए, लेकिन क्या रेडियो अखबारों के विकास में बाधक बना? आंकड़े साक्षी हैं कि भारत में प्रिंट मीडिया का प्रसार रेडियो की मौजूदगी के बावजूद तेजी से बढ़ता गया। ये दोनों माध्यम एक-दूसरे के विकास के पूरक ही बने।
फिर टेलीविजन आया। इसमें श्रव्य और दृश्य, दोनों शक्तियां थीं। 24 घंटे अबाध रूप से चलने वाले न्यूज चैनलों के दौर के बावजूद पूर्ववर्ती मीडिया कायम रहा। यह सही है कि टेलीविजन ने एक लम्बे समय तक रेडियो की उपयोगिता को पृष्ठभूमि में धकेल दिया। लेकिन रेडियो ने अपना नया आविष्कार किया और एफएम और कम्युनिटी रेडियो के रूप में फिर एक नई पहचान कायम करके अपना अस्तित्व सिद्ध कर दिया। रंगीन टेलीविजन के युग ने अखबारों को आकर्षक कलेवर और सज्जा प्रदान की। विषयों में विस्तार हुआ। फलस्वरूप दुनिया भर में टीवी के बावजूद अखबारों की प्रसार-संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गई। आज तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी कम और पूरक ज्यादा नजर आते हैं। टीवी की खबरों का अखबारों में विश्लेषण होता है, तो अखबारों के समाचार टीवी पर चर्चा का केन्द्र बनते हैं। खबरों की विश्वसनीयता व प्रभावशीलता के स्तर को लेकर प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर जरूर बहस हो सकती है, लेकिन दोनों माध्यमों के विस्तार-विकास को सभी स्वीकार करते हैं।
इसके बाद डिजिटल युग आया। मोबाइल फोन, सोशल मीडिया, कम्युनिटी रेडियो, ई-मेल, एस.एम.एस. आदि ने न केवल सूचना के त्वरित सम्प्रेषण को मजबूत किया, बल्कि लोकतंत्र और जनता की आवाज को भी मजबूती प्रदान की। ये सभी माध्यम आज मुख्यधारा के मीडिया के लिए प्रतिस्पर्धी कम और प्रतिपूरक ज्यादा हैं। राजनेताओं और विभिन्न क्षेत्र के प्रसिद्ध व्यक्तियों के फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग आदि पर व्यक्त किए गए विचार व संदेश मुख्यधारा के मीडिया के लिए समाचार बन जाते हैं। वहीं मुख्यधारा के मीडिया में प्रकाशित-प्रसारित समाचार और वक्तव्य सोशल मीडिया में बहस-चर्चा का केन्द्र बन जाते हैं। शशि थरूर से लेकर ममता बनर्जी के उदाहरण इसके प्रमाण हैं। एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्य पुस्तक में अम्बेडकर का कार्टून विवाद मुख्यधारा के मीडिया से होकर ही सोशल मीडिया में चर्चा का व्यापक मुद्दा बना। उल्लेखनीय बात यह है कि आज सोशल मीडिया के जरिए हर व्यक्ति सूचना का एक स्रोत बन गया है। पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन के ठिकाने पर अमरीकी हेलीकॉप्टरों के हमले की सबसे पहले सूचना मीडिया को एक ट्विट से हुई थी, जिसे एक स्थानीय बाशिन्दे ने पोस्ट किया था। सोशल मीडिया के एक विशेषज्ञ ने सही लिखा, 'अब हम सिर्फ श्रोता, पाठक या दर्शक नहीं रहे। आज का आम नागरिक एक लेखक, पत्रकार और प्रस्तोता की तरह ही ताकतवर हो गया है। और यह सब किया है, आज की डिजिटल दुनिया ने—सोशल या न्यू मीडिया ने। इससे मुख्यधारा का मीडिया समृद्ध ही हुआ है। उसके सूचना के स्रोत का विस्तार हुआ है। प्राकृतिक आपदा या किसी आपातकालीन परिस्थितियों में सोशल मीडिया से प्राप्त संदेश व सूचनाएं प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सुर्खियां बनी हैं। जापान में भूकम्प के दौरान यह हम देख चुके है। इसमें दो राय नहीं कि डिजिटल क्रांति ने व्यक्ति की निजता को प्रभावित किया है। और यह भी कि सोशल मीडिया सही अर्थों में पत्रकारिता नहीं है और न ही यह एक सम्पूर्ण मीडिया की भूमिका निभा सकता है, (इस पर चर्चा फिर कभी) इसके बावजूद इसकी ताकत और असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।





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निशाने पर विकीलीक्स!

विश्व राजनीति के इतिहास में इतने बड़े स्तर पर सरकारी राज खोलने का श्रेय 'विकीलीक्स' और इसके संस्थापक जूलियन असांजे को है। इसलिए असांजे के साथ पिछले दो वर्षों से घटित घटनाओं पर न केवल उनके लाखों प्रशंसकों की नजर है, बल्कि कई देश भी जिज्ञासापूर्वक घटनाओं को देख रहे हैं। असांजे के समर्थकों का आरोप है कि उन पर यौन शोषण के आरोप एक गहरी साजिश के तहत लगे हैं।

अपनी वेबसाइट 'विकीलीक्स' के जरिए अमरीकी सरकार के कई महत्वपूर्ण राज उजागर कर अमरीका को पूरी दुनिया के सामने मुश्किल में डालने वाले खोजी पत्रकार जूलियन असांजे इन दिनों खुद मुश्किल में हैं। आखिर ब्रिटेन की सर्वोच्च अदालत ने उन्हें स्वीडन को प्रत्यर्पित करने का आदेश सुना दिया। हालांकि अदालत ने फैसले को चुनौती देने के लिए उन्हें 13 जून तक समय दिया है, लेकिन माना जा रहा है कि असांजे को स्वीडन भेजने की पूरी तैयारी की जा चुकी है।
असांजे स्वीडन जाने का विरोध कर रहे हैं। उनका आरोप है कि स्वीडन में उनके खिलाफ मुकदमा तो एक बहाना है। स्वीडन सरकार उन्हें अमरीका को सौंप देगी। दोनों देशों के बीच यह गुप्त 'डील' हुई है। असांजे किसी सूरत में अमरीका नहीं जाना चाहते। अमरीका उन्हें जानी-दुश्मन समझाता है। अमरीका के हाथ लगे, तो वे जीवित नहीं बचेंगे, ऐसी उन्हें आशंका है।
असांजे ने विकीलीक्स के जरिए और भी कई देशों की सरकारों की पोल खोली है, लेकिन अमरीका उनके खास निशाने पर रहा है। उन्होंने इंटरनेट पर अमरीकी शासन के लाखों गोपनीय संदेश, हजारों खुफिया दस्तावेज और अमरीका को मित्र व शत्रु देशों के समक्ष शर्मिन्दा करने वाले अनेक राज उजागर किए हैं। 'विकीलीक्स' के खुलासों को दुनिया के लगभग सभी प्रमुख अखबारों और न्यूज चैनलों ने अपनी सुर्खियों में स्थान दिया। आज भी 'विकीलीक्स' के खुलासों की विश्व मीडिया-जगत में उत्सुकता से प्रतीक्षा की जाती है। इन खुलासों की वजह से अमरीका असांजे से नाराज है। मित्र देशों में उसकी छवि को 'विकीलीक्स' ने खासा बट्टा लगाया। विकीलीक्स पर रोक के अमरीका ने कई प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रयास किए। इसलिए असांजे की आशंका गलत नहीं लगती कि अमरीका में उन्हें सजा-ए-मौत दी जाएगी। 'विकीलीक्स' के पोल खोलने वाले खुलासों के बाद उनके विरुद्ध गतिविधियों पर एक नजर डालना ठीक होगा।
आस्ट्रेलिया के निवासी जूलियन असांजे ने वर्ष 2006 में विकीलीक्स की नींव रखी। शुरुआत में वे इसका कामकाज जमाने में लगे रहे। चर्चा में वे तब आए, जब उन्होंने 'विकीलीक्स' के जरिए 2010 में एक वीडियो जारी किया। इस वीडियो में एक अमरीकी हेलीकॉप्टर को अफगानिस्तान में हमला करते हुए दिखाया गया जिसमें कई लोग मारे गए थे। जाहिर है, इससे अमरीका काफी नाराज हुआ। लेकिन 'विकीलीक्स' ने अपना अभियान जारी रखा। जुलाई 2010 में उसने एक साथ 91 हजार दस्तावेज साइट पर डालकर खलबली मचा दी। इसमें ज्यादातर अमरीकी सेना के गुप्त दस्तावेज थे। अफगान युद्ध से जुड़े इन दस्तावेजों से जाहिर हुआ कि इस युद्ध में अमरीकी शासकों की वास्तविक मंशा क्या थी।
इसके बाद के घटनाक्रम पर गौर करें। जुलाई में 'विकीलीक्स' ने दस्तावेज जारी किए और एक माह बाद असांजे को स्वीडन की एक महिला ने उनके भाषणों का कार्यक्रम तय किया। असांजे 11अगस्त 2010  को स्वीडन पहुंचे। 14 अगस्त 2010 को असांजे ने कथित तौर पर इस महिला से शारीरिक सम्पर्क कायम किया। 17 अगस्त को असांजे ने एक अन्य महिला से कथित रूप से शारीरिक सम्पर्क बनाया, जो उनसे 14 अगस्त के भाषण कार्यक्रम में मिली थी। 18 अगस्त को असांजे ने स्वीडन में रहकर अपनी वेबसाइट विकीलीक्स का आगे का काम जारी रखने के लिए सरकार से इजाजत मांगी। 20 अगस्त 2010 को असांजे के खिलाफ स्वीडन में वारण्ट जारी हो गए। दोनों महिलाओं ने शिकायत की कि असांजे ने उनके साथ बलात्कार किया। दोनों महिलाओं का कहना था कि असांजे के साथ उनके सम्बन्ध आपसी सहमति से शुरू हुए थे, जो बाद में असहमति में तब्दील हो गए। असांजे ने इन आरोपों को बेबुनियाद बताया। आखिरकार 18 नवम्बर 2010 को स्वीडन की अदालत ने असांजे की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए। तब तक असांजे स्वीडन से लौट चुके थे। इस बीच असांजे का विकीलीक्स पर अमरीका के खिलाफ अभियान जारी रहा। 22 अक्टूबर 2010 में विकीलीक्स ने अमरीकी सेना की कोई 4 लाख फाइलें जारी की, जो इराक युद्ध से जुड़ी थी। इतना ही नहीं, विकीलीक्स ने अनेक संवेदनशील सूचनाएं जारी कर दी, जो अमरीकी कूटनीति से संबद्ध थी। इससे अमरीका की काफी बदनामी हुई। बार-बार शर्मिन्दगी से अमरीका काफी परेशान था। 28 नवम्बर को फिर विकीलीक्स ने अमरीकी कूटनीति की संवेदनशील सूचनाएं जारी की। इसके बाद 7 दिसम्बर 2010 को असांजे को ब्रिटेन में स्वीडन के वारण्ट पर गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ दिनों में ब्रिटेन की अदालत ने उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया। तब से असांजे ब्रिटेन में है। उनके जुनूनी अभियान में कोई कमी नहीं आई। 'विकीलीक्स' अमरीका को निशाना बनाती रही। बीच-बीच में उसने, चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत आदि देशों को लेकर भी कई खुलासे किए, जिनसे वहां की सरकारें भी परेशान हुईं। दरअसल हर देश की सरकारें कई सूचनाएं जनता से छिपाती हैं। इनमें कुछ सूचनाएं तो राष्ट्रीय हितों को लेकर होती हैं, जिन्हें गोपनीय रखने पर शायद किसी को आपत्ति नहीं। लेकिन गोपनीयता की आड़ में वे सभी जानकारियां दबा दी जाती हैं, जो सरकार, शासन, अफसरों और नेताओं की पोल खोलती है। जनहित में होते हुए भी सूचनाओं पर पहरा लगा दिया जाता है। इसलिए जब कोई माध्यम इन सूचनाओं को जारी करने का बीड़ा उठाता है, तो उसे लोगों का समर्थन मिलता है। 'विकीलीक्स' को विश्व भर में मिले समर्थन का कारण भी यही है। एक शक्तिशाली देश की कथनी और करनी में फर्क को 'विकीलीक्स' दुनिया के सामने सप्रमाण लेकर आई। हालांकि सूचनाओं व खुलासों के प्रसंग में 'विकीलीक्स' ने कुछ मर्यादाएं भी भंग कीं, जिनका समर्थन नहीं किया जा सकता। फिर भी विश्व राजनीति के इतिहास में इतने बड़े स्तर पर सरकारी राज खोलने का श्रेय 'विकीलीक्स' और इसके संस्थापक जूलियन असांजे को है। इसलिए असांजे के साथ पिछले दो वर्षों से घटित घटनाओं पर न केवल उनके लाखों प्रशंसकों की नजर है, बल्कि कई देश भी जिज्ञासापूर्वक घटनाओं को देख रहे हैं। जूलियन असांजे पर स्वीडन में दो महिलाओं से बलात्कार के जो आरोप लगे हैं, उन पर कानूनी तौर पर कार्यवाही हो और दोषी पाए जाने पर असांजे को सजा भी हो, इस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन जिस तरह घटनाएं घटी हैं, खासकर 'विकीलीक्स' के खुलासों के बाद, उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। असांजे के समर्थकों का आरोप है कि उन पर यौन शोषण के आरोप एक गहरी साजिश के तहत लगे हैं।
असांजे कह ही चुके हैं कि उन्हें फंसाया जा रहा है। यौन शोषण का आरोप तो एक बहाना है। स्वीडन में उनके साथ क्या होगा, वे जानते हैं। इसलिए उन्होंने ब्रिटेन की अदालत में अपने प्रत्यर्पण का विरोध किया। ब्रिटिश अदालत के आदेश से असांजे संभवत: शीघ्र स्वीडन प्रत्यर्पित कर दिए जाएं, लेकिन पूरी दुनिया की उन पर नजर रहेगी कि असांजे जो आशंकाएं व्यक्त कर रहे हैं, क्या वे सच होंगी? अगर वे सच होती हैं तो यह विकीलीक्स पर निशाना साधना होगा, जो सूचना का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को शक्तिपूर्वक व योजनाबद्ध ढंग से कुचलने का प्रयास कहा जाएगा।

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