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देसी व्यापारी बनाम विदेशी कारोबारी

देश भर में चारों तरफ आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट मिलने से हमारा खुदरा व्यापार का ढांचा तहस-नहस हो जाएगा। छोटे व्यापारी, किसान और खेतिहर मजदूर बर्बाद हो जाएंगे तथा बेरोजगारी विकराल रूप धारण कर लेगी। दूसरी तरफ सरकार और कई विशेषज्ञों का तर्क  है कि इससे नए किस्म की आर्थिक क्रान्ति का उदय होगा। उपभोक्ता और किसान फायदे में रहेंगे।

प्रिय पाठकगण! विदेशी कंपनियों के खुदरा व्यापार के मसले पर देश भर में घमासान मचा है। केन्द्र सरकार आलोचनाओं से घिरी है। चारों तरफ आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट मिलने से हमारा खुदरा व्यापार का ढांचा तहस-नहस हो जाएगा। छोटे व्यापारी, किसान और खेतिहर मजदूर बर्बाद हो जाएंगे तथा बेरोजगारी विकराल रूप धारण कर लेगी। दूसरी तरफ सरकार और कई विशेषज्ञों का तर्क  है कि इससे देश में एक नए किस्म की आर्थिक क्रान्ति का उदय होगा। उपभोक्ता और किसान फायदे में रहेंगे। रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। इस मुद्दे पर देशव्यापी बहस छिड़ी है। मीडिया में अलग-अलग विवेचनाएं सामने आ रही हैं। लेकिन एफडीआई का केन्द्रबिन्दु देश का आम उपभोक्ता इस मुद्दे पर क्या सोचता है— यह जानना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हमारे पाठकों की ये प्रतिक्रियाएं आम उपभोक्ता के दृष्टिकोण की ही अभिव्यक्ति मानी जा सकती है। आइए, जानें।
इंदौर से नीरज बंसल ने लिखा — 'मुझे अर्थव्यवस्था की बारीकियां नहीं मालूम। एक उपभोक्ता के नाते मैं तो सिर्फ यह चाहता हूं कि बाजार में मैं जब ब्रेड और मक्खन खरीदने जाऊं तो मुझे  ताजा, उच्च गुणवत्ता से परिपूर्ण और किफायती दाम पर सुलभ हो जाएं। चाहे आटा, चावल, तेल हो या फिर साबुन, ट्यूबलाइट, जूते-चप्पल हों, सभी गुणवत्ता और दाम के लिहाज से अपने उपयुक्ततम स्तर पर हों, ताकि उपभोक्ता के तौर पर मुझे संतुष्टि का सर्वोच्च स्तर प्राप्त हो। यह सब प्रदान करने की गारंटी उपभोक्ताओं को बहुराष्ट्रीय कंपनियां दे रही हैं तो हमें उनसे क्यों एतराज होना चाहिए? मुझे समझ में नहीं आ रहा कि वॉलमार्ट, कैरीफोर जैसी श्रेष्ठ सेवाओं के लिए ख्यात कंपनियों का क्यों विरोध किया जा रहा है।'
जयपुर से एम.बी.ए. छात्र धीरज श्रीवास्तव ने लिखा — 'जो लोग एफडीआई का विरोध कर रहे हैं वे किसान विरोधी तथा व्यापार में बिचौलियों के संरक्षक हैं। उपभोक्ता और उत्पादक (किसान) के बीच में बिचौलियों की क्या जरूरत? हर कोई जानता है कि बिचौलिया पद्धति से किसानों और उपभोक्ताओं को कितना नुकसान भुगतना पड़ता है। किसानों से तीन रुपए में वस्तु खरीदकर उसे तेरह रुपए में बेचना उपभोक्ता और किसान दोनों का शोषण करना है।
उदयपुर से निधि शर्मा ने लिखा — 'कंपनियों के स्टोर्स का माहौल बहुत सुखद होता है। यहां ग्राहकों से बहुत शालीन व्यवहार किया जाता है। कोई भी वस्तु आंख मूंदकर खरीदी जा सकती है। ग्राहक से धोखा नहीं होता।'
प्रिय पाठकगण!  ऐसा नहीं है कि सभी पाठकों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों का स्वागत किया है। पाठकों का एक बड़ा वर्ग है, जो छोटे दुकानदारों के पक्ष में है और खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों के खिलाफ है। इन पाठकों की राय में केन्द्र सरकार का निर्णय अदूरदर्शितापूर्ण और देश के लिए अहितकर है।
भोपाल से डा. सुरेखा नागर ने लिखा — 'अजीब बात है, वॉलमार्ट जैसी कंपनियों का अमरीका में जोरदार विरोध हो रहा है, लेकिन भारत में हमारी सरकार पलक-पांवड़े बिछाए जा रही है। सिर्फ अमरीका में ही नहीं, दुनिया के 40 से अधिक देशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध हो रहा है, क्योंकि वहां के लोगों के इन कंपनियों को लेकर कड़ुए अनुभव रहे हैं। क्या हम भी पहले चोट खाकर फिर इनके बारे में अपनी राय बनाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं?'
जोधपुर से जमुनदास पुरोहित ने लिखा — 'बहुराष्ट्रीय कंपनियों का स्वागत करने वालों को इनका इतिहास पता नहीं है। शुरू में ये लागत से कम कीमत पर माल बेचती हैं और घाटा उठाती हैं। फिर छोटे व्यापारियों का खात्मा कर उनके व्यवसाय पर एकाधिकार कायम कर लेती हैं। इसके बाद उनकी असलियत सामने आने लगती है।'
कोटा से रविन्द्र जैमन ने लिखा — 'भारतीय उपभोक्ता किसी खाम खयाली में नहीं रहे कि उन्हें अच्छी सेवाएं और सस्ती वस्तुएं मिलेंगी। मोनोपॉली कायम करने के बाद ये उपभोक्ताओं को मक्खी-मच्छर से अधिक नहीं समझती।'
रायपुर से हीरेन पटोदिया ने लिखा — 'कुछ राज्यों के चुनाव सामने हैं। यूपीए सरकार ने यह क्या किया। अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी दे मारी। लाखों रिटेलर्स और छोटे कारोबारी सरकार के इस फैसले से खफा हैं।'
अजमेर से दीपक निर्वाण ने लिखा — 'बहुराष्ट्रीय कंपनियां आर्थिक सत्ता हासिल करने के बाद राजनीतिक सत्ता हासिल करने की कोशिश में जुट जाती है। ईस्ट इंडिया कंपनी का अनुभव हमारे इतिहास के पन्नों में दर्ज है। शायद यही वजह है कि इन कंपनियों का व्यापक स्तर पर विरोध किया जा रहा है।'
ग्वालियर से राजेश्वर सिंह ने लिखा — '30 लाख करोड़ रु. का भारतीय रिटेल बाजार हमारी सरकार ने थाली में परोसकर विदेशी कंपनियों को पेश कर दिया है। क्या किसी और देश में ऐसा संभव था?'
बीकानेर से पी.सी. सुथार ने लिखा — 'सरकार की दलील है कि इन कंपनियों को बहुत सारी शर्तों के साथ व्यापार की अनुमति दी गई है। इसलिए भारतीय व्यापार-जगत को नुकसान की आशंकाएं गलत है। परन्तु एक समय के बाद ये कंपनियां किसी शर्त का पालन नहीं करती। सरकारी अधिकारी इनके सामने नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐसे में भारतीय हितों की रक्षा कौन करेगा।'
प्रिय पाठकगण!  इस मुद्दे पर बहस तथा पक्ष-विपक्ष के अनेक बिन्दु हैं। बुनियादी सवाल यह है कि हजारों-लाखों कारोबारियों की अनदेखी करके किसी एक या कुछ विदेशी कारोबारियों को ही व्यापार सौंपने का सिद्धान्त कितना न्यायपूर्ण है। अगर तर्क  यह है कि इससे व्यापार की गुणवत्ता बढ़ेगी और करोड़ों उपभोक्ताओं को फायदा होगा तो यह उद्देश्य मौजूदा व्यवस्था में भी हासिल किया जा सकता है। जरूरत है हमारे खुदरा व्यापार के ढांचे को चुस्त-दुरुस्त करने की। सरकार खुदरा व्यापार की एक सुस्पष्ट नीति बनाकर और उसे सही तौर पर लागू करवाकर सबका भला कर सकती है—खुदरा और छोटे व्यापारियों का भी, किसानों का भी तथा आम उपभोक्ताओं का भी।

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