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कुदरत का कहर : मीडिया का भेदभाव!

जम्मू-कश्मीर की बाढ़ को लेकर मीडिया ने जो संवेदनशीलता दिखाई वह देश के उत्तर-पूर्व (असम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश) में आई बाढ़ में कहीं नजर नहीं आई। जबकि बाढ़ का कहर और उससे प्रभावितों की त्रासदी किसी भी तरह कमतर नहीं थी।
क्या मीडिया ने देश के दो अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ की कवरेज में भेदभाव बरता? निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर में पिछले 60 वर्षों की यह सबसे भीषण बाढ़ थी। वहां के लोगों ने झोलम का ऐसा रूप पहले कभी नहीं देखा था। राज्य के ढाई हजार से अधिक गांवों में बाढ़ ने कहर बरपाया। 300 से अधिक लोगों की जान चली गई। 10 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी तत्परता से बाढ़ प्रभावित इलाकों का हवाई सर्वेक्षण करने के बाद कहा- 'यह राष्ट्रीय स्तर की आपदा है।' उन्होंने एक हजार करोड़ रुपए की बाढ़ पीडि़तों की सहायता की घोषणा की। सरकारी तंत्र ने सक्रियता दिखाई। सेना के बचाव व राहत कार्य तेजी से शुरू हुए।
शायद इसीलिए राष्ट्रीय मीडिया ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लगातार दस दिन तक जम्मू-कश्मीर की बाढ़ सुर्खियों में रही। 'जन्नत' कहे जाने वाले कश्मीर में कुदरत का कहर कयामत बनकर किस तरह टूटा, इसकी हकीकत मीडिया ने देश को बताई।
लाइव रिपोर्टिंग, जलप्लावन की दर्दनाक तस्वीरें, पीडि़तों की आप-बीती तथा मानवीय संवेदनाओं को छूने वाले वृत्तांत मीडिया के जरिए ही देश के लोगों ने पढ़े, सुने और देखे। पीडि़त परिवारों के बिछुड़े लोगों को मिलाने और उनके बारे में जानकारियां देने में मीडिया की अहम भूमिका सामने आई। लोगों ने यह भी देखा कि घाटी में आम दिनों में सेना पर पत्थर बरसाने वालों ने किस तरह सेना की रहनुमाई में बाढ़ से अपनी जान बचाई।
सही है, जब देश के किसी हिस्से में तबाही मची हो तो राष्ट्रीय मीडिया उसकी अनदेखी कैसे कर सकता है। आपको याद होगा, पिछले साल उत्तराखंड में बाढ़ ने भयानक कहर बरपाया था। 6 हजार लोगों की जानें चली गईं। ४ हजार से ज्यादा गांव जलमग्न हो गए। उत्तराखंड की त्रासदी भीषणतम त्रासदियों में से एक थी। उस दौरान राष्ट्रीय मीडिया जिस तरह तत्पर हुआ, उसी तरह कश्मीर में भी हुआ। हां, तब 24 घंटे चलने वाले चैनलों ने जरूर अति कर दी थी। उसकी आलोचना भी की गई थी लेकिन उस वक्त मीडिया, खासकर चौबीस घंटे चलने वाले न्यूज चैनलों की पेशेगत जिम्मेदारी को लेकर इंसानी भेदभाव और अनदेखी का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता था। मगर यह आरोप इस बार कश्मीर की बाढ़ के दौरान मीडिया कवरेज खासकर न्यूज चैनलों पर की गई रिपोर्टिंग को लेकर अवश्य लग चुका है। इसे अगर और स्पष्ट कहूं तो यह कि जम्मू-कश्मीर की बाढ़ को लेकर मीडिया ने जो संवेदनशीलता दिखाई वह देश के उत्तर-पूर्व (असम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश) में आई बाढ़ में कहीं नजर नहीं आई। जबकि बाढ़ का कहर और उससे प्रभावितों की त्रासदी किसी भी तरह कमतर नहीं थी।
जम्मू-कश्मीर की तरह ही उत्तर-पूर्वी राज्यों का एक बड़ा हिस्सा भीषण बाढ़ की तबाही से जूझा रहा था। कश्मीर में बाढ़ से सिर्फ एक सप्ताह पहले तक ब्रह्मपुत्र ने झोलम से भी अधिक रौद्र रूप धारण कर रखा था। उत्तर-पूर्व के राज्यों में बाढ़ की क्या स्थिति है और वहां के लोग किन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं इसकी एक झालक भी चौबीस घंटे चलने वाले हमारे इन राष्ट्रीय कहे जाने वाले चैनलों में दिखाई नहीं पड़ी। जो थोड़ी बहुत सूचनात्मक तौर पर जानकारियां सामने आईं वह भी प्रिंट मीडिया के जरिए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को हत्या, बलात्कार, गॉसिप या फिर मनोरंजन परक कथा-कहानियों से ही फुरसत नहीं थी। केन्द्र सरकार ने तो उत्तर-पूर्वी राज्यों की बाढ़ को बहुत हल्के में लिया ही, मीडिया ने भी यही किया। मानों टीवी चैनल्स सरकार का अनुसरण करने में लगे हों। उत्तर-पूर्व के राज्यों में कुल मिलाकर २० लाख से भी अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हुए थे। अकेले असम के १६ जिलों में १२ लाख लोग बाढ़ से बुरी तरह पीडि़त थे। (पत्रिका: २८ अगस्त) जबकि सिर्फ डेढ़-पौने दो लाख पीडि़तों को ही सरकारी राहत शिविरों में शरण दी जा सकी थी। ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों ने असम में लगातार हुई बारिश से भारी तबाही मचा रखी थी। दो हजार से अधिक गांव पूरी तरह जलमग्न थे। दूर-दराज के ग्रामीण इलाके हर तरह के सम्पर्क  से कटे हुए थे। कच्चे झाोंपड़ों में रहने वाली गरीब ग्रामीण आबादी को अस्तित्व का संघर्ष करते हुए देखा जा सकता था। लोग पेड़ के डंठल की नावें बनाकर खतरनाक ढंग से उफनते पानी को पार कर रहे थे। ये हालात कुछ प्रेस एजेन्सियों के हवाई सर्वेक्षणों और तस्वीरों में कुछ राष्ट्रीय अखबारों के जरिए सामने आए। अगर असम सहित उत्तर-पूर्वी राज्यों में बाढ़ की विभीषिका की आपको वास्तविक थाह लेनी है तो गूगल सर्च करके देखिए।  प्रेस एजेन्सियों के फोटोग्राफ्स और विवरण सारी स्थिति बयां कर देंगे। मेघालय में जिंजिरम नदी के कारण काफी तबाही हुई। करीब सवा लाख लोग बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुए। मणिपुर के लाम्फेलपेट इलाके के कई हिस्सों में नाम्बुल नदी के उफान ने बरबादी मचाई। अरुणाचल प्रदेश में लगातार बारिश तथा सियांग और संबासिरी नदियों में उफान से जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा। प्रदेश का पूर्वी सियांग और लोहित जिला अन्य हिस्सों से कट गया था। छितरी आबादी और विकट क्षेत्र के कारण बाढ़ प्रभावितों की वहां कोई मदद करने वाला नहीं था लेकिन केन्द्र सरकार ने अनदेखी की तो मीडिया भी सोया रहा। सरकार का असम की बाढ़ के प्रति नजरिया केन्द्रीय मंत्री वी.के. सिंह के बयान से ही स्पष्ट था। वी.के. सिंह 'डेवलपमेंट ऑफ नॉर्थ-इस्टर्न रीजन' (डीओएनईआर) के प्रभारी मंत्री हैं। प्रेट्र के संवाददाता ने जब उनसे असम में बाढ़ के हालात के बारे में पूछा तो उनका जवाब था- 'असम में बाढ़ कोई नई बात नहीं है।' असम सहित उत्तर-पूर्व के ज्यादातर राज्य हर वर्ष बाढ़ की विभीषिका से जूझाते हैं, यह वहां के निवासियों का जज्बा है लेकिन क्या इसीलिए हमें उनकी पीड़ा से कोई सरोकार नहीं? यह कैसी संवेदनहीनता है? देश के नागरिकों के बीच भेदभाव करने की यह कैसी मानसिकता है? इन स्थितियों में जम्मू-कश्मीर में अगर सरकार की तत्परता तथा असम में उदासीनता को जम्मू-कश्मीर राज्य में आसन्न चुनाव से जोड़कर देखा जाए तो क्या गलत है? खैर, सरकार और विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने राजनीतिक कारणों से यह विभेद करते हैं लेकिन मीडिया भी यही करे तो यह गंभीर चिन्ता का विषय होना चाहिए। उत्तर-पूर्व के लोगों में यह भावना और मजबूत होगी कि सरकार तो है ही देश का मीडिया भी उनकी समस्याओं को लेकर संवेदनहीन है। मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हाल ही देश के दो अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ को लेकर जो रवैया अपनाया, उससे तो यह प्रमाणित भी हुआ है

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मीडिया में 'ट्राई' की सिफारिशें

चाहे किसी भी दल की सरकार हो, बातें तो सभी मीडिया की स्वतंत्रता की करती हैं लेकिन कोई भी सरकार मीडिया को पूरी तरह स्वतंत्रता देना चाहती नहीं। स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र का रक्षक तो हो सकता है लेकिन सरकार का रक्षक भी हो, यह जरूरी नहीं।

'ट्राई' (टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी आफ इंडिया) ने एक बार फिर भारतीय मीडिया को सरकारी दखल और बड़ी कंपनियों के बढ़ते एकाधिकार के खतरों से आगाह किया है। हालांकि 'ट्राई' ने पांच वर्ष पूर्व अपनी विस्तृत रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी लेकिन इतना समय बीत जाने के बाद भी सरकार ने कुछ नहीं किया। इस स्थिति पर चिन्ता जाहिर करते हुए 'ट्राई' ने हाल ही अपनी ताजा सिफारिशें सरकार को भेजी हैं। इन सिफारिशों में कहा गया है कि न केवल सरकार को मीडिया में हस्तक्षेप करने से दूर रहना चाहिए, बल्कि मीडिया में पूंजी के माध्यम से स्थापित किए जा रहे एकाधिकार व वर्चस्व के खतरों को रोकने का भी प्रयास करना चाहिए।
'ट्राई' ने और भी कई सिफारिशें की हैं जिनका सम्बन्ध इलेक्ट्रॉनिक ही नहीं, प्रिंट मीडिया से भी है। 'ट्राई' के पास प्रसारण नियमन का ही अधिकार है। शायद इसीलिए उसकी सिफारिशें और उन्हें जारी करने के अधिकार को लेकर प्रिंट मीडिया में कुछ लोगों ने एतराज जताया है। सवाल किया जा रहा है कि मीडिया-उद्योग ने आज जो स्वरूप धारण कर लिया है, वह बिना विशाल पूंजी के कैसे टिक पाएगा? सवाल अपनी जगह सही है। इसका समाधान मुश्किल मगर असंभव नहीं है। लेकिन इसकी आड़ में मीडिया से जुड़े बुनियादी मुद्दों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। 'ट्राई' की सिफारिशों को इसी दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। 'ट्राई' की बुनियादी दो सिफारिशों पर ही गौर करें तो उनमें आपत्ति की कोई बात नजर नहीं आती।
 मीडिया में सरकारी दखलंदाजी को लेकर देश में एक पाखंड साफ तौर पर देखा जा सकता है। चाहे किसी भी दल की सरकार हो, सभी बातें तो मीडिया की स्वतंत्रता की करती हैं लेकिन कोई भी सरकार मीडिया को पूरी तरह स्वतंत्रता देना चाहती नहीं। स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र का रक्षक तो हो सकता है लेकिन सरकार का रक्षक भी हो, यह जरूरी नहीं। सरकार के घपले घोटाले और शासन की विसंगतियों को लोगों के सामने लाना मीडिया का काम है। सरकार को यही रास नहीं आता और वह मीडिया को काबू में करने के प्रत्यक्ष व परोक्ष हथकंडे अपनाने लगती है। सरकार नियंत्रित या निर्देशित मीडिया कभी अपनी भूमिका को सही ढंग से नहीं निभा सकता। उसका पतन अवश्यंभावी है। ऐसे में अगर 'ट्राई' मीडिया को सरकार की दखलंदाजी से बचाने की सिफारिश करता है तो इसमें गलत क्या है।
 इसी तरह एकाधिकार भी किसी उद्योग के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। खासकर मुक्त अर्थव्यवस्था में तो यह एक गंभीर रोग से कम नहीं। भारतीय मीडिया में एकाधिकार की चर्चा ने पिछले दिनों तब जोर पकड़ा जब रिलायंस इंडस्ट्रीज ने नेटवर्क-१८ को खरीद लिया जिसके तहत कई न्यूज चैनल और वेब पोर्टल्स संचालित होते हैं। 'ट्राई' ने अपनी सिफारिशों में न केवल एकाधिकार को मीडिया उद्योग के लिए घातक बताया है बल्कि मीडिया में मालिकाना हक और नियंत्रण के अन्तर को भी स्पष्ट किया है। 'ट्राई' के अनुसार बिना बहुलांश हिस्सेदारी के भी मीडिया इकाइयों पर नियन्त्रण किया जा सकता है। नियंत्रण' को 'ट्राई' ने विस्तृत परिभाषित किया है। मीडिया के विकास में 'ट्राई' ने बड़ी कंपनियों के एकाधिकार और नियंत्रण दोनों को एक बुराई मानते हुए अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य एच.एच.आई. (हरफिंडाल हर्शमैन इंडेक्स) पद्धति की सिफारिश की है। साथ ही मीडिया में होल्डिंग और क्रॉस होल्डिंग की समीक्षा के लिए सुझााव दिया है कि ऐसे पूंजी निवेश की हर तीन साल में समीक्षा होनी चाहिए।  भारत में मीडिया में मालिकाना हक को लेकर 'क्रास मीडिया ऑनरशिप' पर कोई पाबंदी नहीं है। इससे काफी घालमेल हुआ है। मीडिया में क्रॉस ऑनरशिप के प्रचलित दोनों रूपों पर भारत में कोई प्रतिबंध नहीं है, जबकि अमरीका और कई यूरोपीय देशों में 'हारिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' प्रतिबंधित है।
जब एक मीडिया-कंपनी मीडिया से इतर दूसरे क्षेत्र में निवेश करे तो इसे 'हारिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' कहा जाता है। मीडिया में कई ऐसी कंपनियां या घराने प्रवेश कर चुके हैं जो अपना कारोबार चमकाने के लिए मीडिया को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। मीडिया के नियम और मूल्यों से उनका कोई सरोकार नहीं। भारतीय मीडिया-उद्योग में यह प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ती जा रही है, जो मीडिया में कई बुराइयों को जन्म दे रही है। इसलिए अगर 'ट्राई' ने मीडिया में ऐसे पूंजी निवेश की निरन्तर समीक्षा की बात कही है और एच.एच.आई. पद्धति लागू करने की सिफारिश की है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। प्रिन्ट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया- राजनेताओं के स्वामित्व वाली अधिकतर मीडिया इकाइयों में खबरों को किस तरह राजनीतिक रंग दिया जाता है यह सर्वविदित है। शायद इसीलिए 'ट्राई' ने राजनीतिक संगठनों को भी मीडिया-उद्योग में निवेश और हस्तक्षेप से रोके जाने की सिफारिश
की है।
 'ट्राई' ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में मीडिया पर निगरानी के लिए एक स्वतंत्र प्राधिकरण का गठन करने की जो सिफारिश की है, उस पर विचार-विमर्श की जरूरत है। मीडिया के स्वतंत्र विकास के लिए मीडिया के भीतर ही नियामक संस्था होनी चाहिए- इसे लेकर मीडिया से जुड़े ज्यादातर पक्ष एकमत हैं। किसी बाहरी संस्था के माध्यम से मीडिया पर निगरानी की कोई भी नियामक संस्था सार्थक भूमिका निभा पाएगी, इसमें संदेह है। फिर भी 'ट्राई' की दोनों बुनियादी सिफारिशें निर्विवाद हैं जिन्हें मानने में सरकार और मीडिया-उद्योग को भी कोई परहेज नहीं होना चाहिए।

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