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सिर्फ रस्म निभाना है!


राजस्थान रोडवेज धुलंडी पर प्रदेश की महिलाओं को निशुल्क यात्रा की सुविधा मुहैया करवाएगा। यह खबर जिसने भी पढ़ी, उसे सरकार के इस फैसले पर हैरत हुई होगी। धुलंडी पर होली खेली जाती है। बहुत कम लोग सफर के लिए निकलते हैं। महिलाएं तो और भी कम निकलती हैं। ऐसे में निशुल्क बस यात्रा की सुविधा कितनी महिलाएं उठा पाएंगी? फैसला करते समय किसी अधिकारी के दिमाग में यह बात नहीं आई होगी—यकीन करना मुश्किल है। धुलंडी 8 मार्च को है। 8 मार्च को महिला दिवस भी है। इस अवसर पर प्रदेश की महिलाओं को राज्य सरकार निशुल्क यात्रा का तोहफा देना चाहती है। इसमें कोई हर्ज नहीं है, लेकिन फैसला करते समय यह तो सोचा होता कि इसका लाभ बहुत कम महिलाएं उठा पाएंगी। अन्य समुदाय की महिलाएं भी धुलंडी पर कम ही बाहर निकलती हैं। तो क्या अफसरों ने जानते-बूझते यह फैसला किया? महिला दिवस पर महिलाओं को खुश करने की इस रस्म अदायगी का तर्क समझ से परे है। खुद रोडवेज हर साल आधिकारिक तौर पर धुलंडी पर बसों का संचालन बंद रखता है। रोडवेज केवल शाम को बसें चलाता है, जब लोग होली खेल चुके होते हैं। होली के पर्व की इस सांस्कृतिक परम्परा का निर्वाह करते-करते अचानक धुलंडी पर बसों के संचालन का फैसला करना शायद ही किसी को भाएगा। महिलाओं को भी नहीं। अगर महिलाओं को लाभान्वित ही करना है, तो यह फैसला किसी और दिन के लिए टाला जा सकता था, लेकिन जब उद्देश्य ही रस्म अदायगी करना हो तो महिलाओं के हित-अहित की किसे परवाह है! राज्य सरकार रक्षाबंधन पर भी महिलाओं को निशुल्क यात्रा की छूट देती है। याद करें पिछला रक्षाबंधन। पूरे प्रदेश में महिलाओं की भीड़ उमड़ पड़ी थी। रोडवेज बसों में महिलाएं व बच्चे ठूंस-ठूंस कर भर दिए गए थे। बच्चों का क्या हाल हुआ था—लोगों को आज भी याद है। कुव्यवस्थाओं का आलम यह था कि जगह-जगह महिलाओं और उनके परिजनों ने रोडवेज को कोसा। लोग प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन बसें नदारद थीं। बहुत कम तादाद में बसें चलाई गईं। महिलाओं को लाभान्वित करने का सरकार का फैसला अफसरों की नादानी का शिकार बन गया। बसों की संचालन और लोगों की संख्या का आकलन करने में रोडवेज बिल्कुल नाकाम रहा। एक अच्छे फैसले की किरकिरी हुई। यही इस बार किया गया। फर्क इतना-सा है कि पिछली बार बसें कम पड़ गई थीं—इस बार बसें महिला यात्रियों के लिए तरस सकती हैं। संभव है, ऐसा न भी हो, लेकिन यह तय है कि इस सुविधा का लाभ अधिकाधिक महिलाओं को नहीं मिल पाएगा, जो सरकार की इस घोषणा का वास्तविक उद्देश्य था।

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मीडिया है आंख और कान


बाहुबलियों के खिलाफ कोई राजनीतिक दल शिकायत दर्ज नहीं कराता, क्योंकि सब दलों में बाहुबली मौजूद हैं। सब दलों को वोट चाहिए। इसलिए जीतने के लिए सारे हथकंडे आजमाए जाते हैं। जनता बेचैन है। उसकी आवाज चुनावी कोलाहल और बाहुबलियों के खौफ में कहीं दब जाती है। ऐसे में मीडिया जनता की आवाज बने और चुनाव आयोग उसे सुने तो निष्पक्ष और निर्भय चुनाव संभव है, यही लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत है।


मीडिया जनता के मुद्दों को उठाकर किस तरह संवैधानिक संस्थाओं का ध्यान आकर्षित करता है और ये संस्थाएं मीडिया की खबरों का किस तरह जनहित में उपयोग कर सकती हैं, इसका एक अच्छा उदाहरण हाल ही में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने दिया। पत्रिका ने 15 फरवरी को चर्चित हस्तियों से ज्वलन्त मुद्दों पर बातचीत का नया कार्यक्रम शुरू किया—'पत्रिका ग्रुप इन कनवरसेशन विद न्यूज मेकर।' इस कार्यक्रम की पहली कड़ी में एस.वाई. कुरैशी को आमंत्रित किया गया। सम्पादकीय टीम ने उनसे बातचीत की। जहिर है, बातचीत का केन्द्रीय विषय चुनाव सम्बंधी ज्वलन्त मुद्दों को लेकर था। उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में चुनाव के संदर्भ में उनसे कई सवाल पूछे गए। एक सवाल था— 'बाहुबलियों के डर से कोई इनके खिलाफ चुनाव आयोग को शिकायत नहीं करता। ऐसे में बाहुबल के आधार पर कई लोग चुनाव जीतकर आ जाते हैं?'
जवाब में मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा— 'अब ऐसा संभव नहीं होता। चुनाव के दौरान प्रत्येक पोलिंग बूथ की वीडियो मॉनिटरिंग होती है। 24 घंटे आयोग बाहुबलियों की वीडियो रिकार्डिंग करवाता है। इसके अलावा मीडिया के कैमरों की पैनी नजर से बच पाना और भी कठिन है।' संभव है उनकी बात में कुछ अतिश्योक्ति हो, लेकिन इसी क्रम में चुनाव आयुक्त ने एक महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा— 'हमने कई मीडिया रिपोर्टों के आधार पर बाहुबलियों और धन बांटने वालों के खिलाफ कार्रवाई की है। मीडिया को हम अपने आंख और कान मानकर चलते हैं।'
प्रिय पाठकगण! मुख्य चुनाव आयुक्त का यह कथन देश की सभी संवैधानिक संस्थाओं सहित व्यवस्था-तंत्र की उन समस्त इकाईयों के लिए नजीर है, जो जन-शिकायतों के बगैर कोई कार्रवाई न कर सकने की विवशता जताते हैं। कई सरकारी विभाग तो हाथ बांधे बैठे रहते हैं। सबके सामने घटना घटित होती है। जिस विभाग पर कार्रवाई का जिम्मा है वह आंखें मूंदे हैं। भले ही लोगों के कान फट रहे हों, मगर उनको कुछ सुनाई नहीं देता। उनके पास शिकायत जो नहीं आई। सरकारी कामकाज का यह एक सामान्य ढर्रा बन गया है। क्या इससे निजात पाना जरूरी नहीं?
बाहुबलियों के खिलाफ कोई राजनीतिक दल शिकायत दर्ज नहीं कराता, क्योंकि सब दलों में बाहुबली मौजूद हैं। चुनाव के दौरान कोई दल जोखिम मोल नहीं लेता। सब जानते-बूझाते चुप हैं। सब दलों को वोट चाहिए। इसलिए जीतने के लिए सारे हथकंडे आजमाए जाते हैं। जनता बेचैन है। उसकी आवाज चुनावी कोलाहल और बाहुबलियों के खौफ में कहीं दब जाती है। ऐसे में मीडिया जनता की आवाज बने और चुनाव आयोग उसे सुने तो निष्पक्ष और निर्भय चुनाव संभव है, यही तो लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत है।
मीडिया हर चुनाव में बाहुबलियों के कारनामे उजागर करता रहा है। कई बाहुबली आज जेलों में बंद हैं तो उसका काफी श्रेय मीडिया को है। लेकिन अकेले मीडिया भी सब कुछ नहीं कर सकता। सरकारी एजेन्सियों को भी तत्पर होने की जरूरत है। पिछले वर्षों में चुनाव आयोग ने शिकंजा कसना शुरू किया तो बाहुबलियों के तेवर ढीले पडऩे लगे। आयोग के अपने तंत्र ने तो काम किया ही, साथ ही उसने मीडिया रिपोर्टों और सूचनाओं को भी आधार बनाया।
यह सही है कि मीडिया का एक हिस्सा अपनी अनेक गैर-प्रामाणिक खबरों की वजह से अविश्वसनीय होता जा रहा है, फिर भी कई मीडिया घराने जनता में अपनी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता को बरकरार रखे हुए है। शायद इसीलिए आज भी जनता के अधिकाधिक मुद्दे उठाने में जितना मीडिया कामयाब है उतना कोई दूसरा नहीं। उच्च न्यायालय अनेक मामलों में स्व-प्रेरित प्रसंज्ञान लेते हैं। इनमें ज्यादातर मीडिया के उठाए मुद्दे शामिल हैं। पत्रिका की कई खबरें माननीय न्यायालय में सुनवाई का आधार बनी हैं। पूरे जयपुर शहर को जलापूर्ति करने वाले रामगढ़ बांध क्षेत्र में अतिक्रमण और भू-आवंटन को लेकर की गई समाचार शृंखला 'मर गया रामगढ़' इसका ताजा उदाहण है।
तात्पर्य यह है कि जब उच्च न्यायालय और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं अखबार की खबरों पर कार्रवाई कर सकती हैं, तो अन्य संस्थाएं क्यों नहीं। जब तक सरकारी आदेश नहीं हो जाता, महकमे सोते रहते हैं। मीडिया में घपले-घोटाले उजागर होते रहते हैं, सरकारी महकमों को कोई फर्क नहीं पड़ता। हालांकि कई बार शासन-तंत्र मीडिया की सूचनाओं पर सक्रिय होता दिखाई पड़ता है। अनेक मामलों में उसके कानों में जूं तक नहीं रेंगती। मध्य प्रदेश में विधायक रमेश मेंदोला के झूठे शपथ पत्र को लेकर पत्रिका ने प्रमाण सहित समाचार प्रकाशित किए, लेकिन उनका कुछ नहीं बिगड़ा। और तो और, प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी तक ने, प्रकरण में कुछ नहीं किया। बावजूद इसके कि उन्हें सम्बन्धित सारे कागजात दे दिए गए थे। हालांकि खबरें छपने के बाद विधायक को अदालत से जमानत अवश्य करानी पड़ी। मगर सरकार चुप रही।
शासन-तंत्र की हठधर्मिता के ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं। अखबार ऐसी सैकड़ों खबरें, सूचनाएं और मुद्दे रोजाना सामने लाते हैं, जो जनता की समस्याओं से ताल्लुक रखते हैं। इन पर अगर सम्बंधित संस्थाएं कार्रवाई करने की ठान ले तो जनता की अनेक समस्याओं का समाधान संभव है। मीडिया का अपना सूचना-तंत्र है। यह सरकारी नेटवर्क से अधिक प्रभावी है और तत्परता से कार्य करता है। आदर्श हाउसिंग घोटाला सर्वप्रथम मीडिया ने उजागर किया था, जो एक आर.टी.आई. कार्यकर्ता के जरिए 2003 में ही सामने आ चुका था। अगर सरकारी एजेन्सियों ने उस वक्त इस रिपोर्ट पर ध्यान दिया होता तो 8 साल तक यह मामला सरकारी फाइलों में दबा नहीं रहता। कॉमनवेल्थ खेल घोटाले को लेकर भी खबरें छप रही थीं, लेकिन सुनने-देखने वाले आंख कान बंद थे। 2 जी स्पैक्ट्रम और पाम ऑयल घोटाले में सरकार का यही रवैया रहा, जो बाद में गलत निकला। भंवरी देवी अपहरण कांड में शुरू से मंत्री और विधायक का नाम सामने आ रहा था, लेकिन राजस्थान सरकार ने उनके खिलाफ कार्रवाई कोर्ट की दखल के बाद ही की। सरकारों का यह रवैया मीडिया के प्रति उसके रुख को स्पष्ट करता है।

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आप कैसा अखबार पसंद करेंगे?

अंग्रेजी के दो भारतीय अखबारों के बीच ब्रांड की दिलचस्प जंग छिड़ी हुई है। यह जंग यू-ट्यूब, फेसबुक सहित कई सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इन दिनों यूजर्स में चर्चा का विषय बनी हुई हैं। इस विवरण का उद्देश्य सिर्फ यह है कि पाठक जान सकें कि वर्तमान में खबरों की प्रकृति और गुणवत्ता को लेकर क्या चल रहा है। वास्तविक निर्णायक तो पाठक ही हैं कि अखबार का आदर्श रूप कैसा हो खासकर, विशाल युवा पाठक वर्ग।

क्या आप ऐसा अखबार चाहते हैं जिसे पढ़ते हुए आप ऊंघने लगें और सो जाएं? या फिर ऐसा अखबार पढ़ना पसन्द करेंगे जो प्रतियोगिता के युग में आपको पीछे रखे और बुद्धू साबित कर दे?
प्रिय पाठकगण! ये सवाल मेरे नहीं हैं। ये सवाल अंग्रेजी के दो अखबारों के हैं, जो उन्होंने एक दूसरे के खिलाफ अपने विज्ञापन अभियान में उठाये हैं। इन दोनों भारतीय अखबारों के बीच ब्रांड की दिलचस्प जंग छिड़ी हुई है। यह जंग यू-ट्यूब, फेसबुक सहित कई सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इन दिनों यूजर्स में चर्चा का विषय बनी हुई हैं। आइए देखें माजरा क्या है।
पहला अखबार अपनी विज्ञापन फिल्म में सफेद वस्त्रधारी एक ऐसे व्यक्ति को दिखाता है जो हर परिस्थिति में सोता हुआ ही नजर आता है। आप पूछेंगे कौन है यह व्यक्ति? यह व्यक्ति प्रतिस्पर्धी अखबार का पाठक है। इसके हाथ या बगल में वही अखबार सिमटा है।
दृश्य देखिए- विजेता ट्रॉफी के साथ पूरी टीम फोटो खिंचवा रही है। सभी खिलाड़ी चुस्त मुस्कान के साथ गर्व से तने हैं। तभी कैमरे का फोकस इस व्यक्ति पर पड़ता है जो ग्रुप फोटो के दौरान लापरवाही से खर्राटे भरता नजर आता है। पृष्ठभूमि में बजता हुआ मजेदार दक्षिण भारतीय संगीत, इस दृश्य को भरपूर मनोरंजक बना देता है।
दूसरा दृश्य। सार्वजनिक वितरण के लिए पानी का टैंकर खड़ा है। उस पर बेशुमार प्लास्टिक के पाइप लटके हैं। जल संकट के दौर में बस्तीवासियों में पानी भरने की होड़ मची है। लेकिन यह व्यक्ति खाली बरतन के साथ चैन से ऊंघ रहा है। जाहिर है वह सोता रहेगा और खाली हाथ घर लौटेगा। पृष्ठभूमि में वही मजेदार संगीत।
एक और दृश्य देखिए। आतंककारी गोलियां बरसा रहा है। चारों तरफ अफरा-तफरी है। तभी कैमरे का फोकस गली के एक कोने में उभरता है। यह व्यक्ति यहां भी नींद निकाल रहा है। गोली कभी भी इसकी खोपड़ी के आर-पार हो सकती है। लेकिन इसे तो नींद से ही फुरसत नहीं।
ऐसे और भी कई दृश्य हैं। विपरीत, डरावने व चुनौतीपूर्ण हालात में भी यह व्यक्ति सोता रहता है। आखिर करे भी तो क्या। नींद है ही ऐसी चीज! तभी अंग्रेजी में स्लोगन दिखाया जाता है- 'क्या आप ऐसी खबरों से चिपके हैं जिन्हें पढ़कर आपको नींद आती है?' साथ ही मशीन पर धड़ाधड़ छपते हुए पहला अखबार अपना विज्ञापन दिखाता है और 'जागो चेन्नई' का नारा देता है। मानो कहता है 'वह' नहीं 'यह' अखबार पढि़ए। यही है आपको जगाये रखने वाला समाचार-पत्र!!
सहज जिज्ञासा होती है, अब दूसरा अखबार क्या करेगा? दूसरा अखबार भी कम नहीं। उक्त विज्ञापन का करारा जवाब देता है। खास बात यह कि दूसरा अखबार युवा-वर्ग के बहाने प्रतिस्पर्धी अखबार पर निशाना साधता है जो सटीक मार करता है।
देखिए -
एक कॉलेज परिसर में छात्र-छात्राओं पर प्रश्नों की बौछार की जाती है। मानों उनका सामान्य ज्ञान परखा जा रहा हो। प्रश्नकर्ता पूछता है- भारत का उपराष्ट्रपति कौन है? जवाब आते हैं- प्रतिभा पाटिल....आर.आर.पाटिल.......एपीजे अब्दुल कलाम ....(कुछ छात्र सिर खुजलाते हैं, कुछ होंठ चबाते हैं।) दूसरा सवाल पूछा जाता है- हैरी पॉटर शृंखला किसने लिखी? जवाब- जूलियस सीजर...(ज्यादातर छात्र-छात्राएं जवाब ही नहीं दे पाते)। तीसरा सवाल- बिजनेस टायकून रतन टाटा का उत्तराधिकारी कौन है? ज्यादातर छात्रों के जवाब आते हैं- उनका बेटा....रतन टाटा का सन.....एक छात्र नाम बोलता है- मुकेश अंबानी...यानी रतन टाटा का बेटा मुकेश अंबानी!... अगला सवाल- एटीएम का फुल फार्म क्या है? जवाब- एनी टाइम मशीन......ऑल टाइम मशीन... (कुछ छात्र निरुत्तर। खिसियाई हंसी हंसते हैं)। मेजर ध्यानचंद कौनसा खेल खेलते थे? कोई जवाब नहीं दे पाता। लगता है किसी ने उनका नाम ही नहीं सुना। ये सभी युवा बुद्धू साबित होते हैं।
इसके बाद प्रश्नकर्ता उनसे बॉलीवुड सितारों के बारे में सवाल पूछता है। कौनसी हीरोइन का नाम जीरो साइज से जुड़ा है? करीना....करीना...करीना। इस बार जवाबों से परिसर गूंज उठता है। अगला सवाल: रितिक रोशन का उप नाम क्या है? डुगू...डुगू....डुगू... ऐश्वर्या के लड़का हुआ या लड़की? फिर सभी धड़ाधड़ जवाब देते हैं- लड़की...लड़की...!
और फिर आखिरी सवाल। कौन-सा अखबार पढ़ते हैं आप? सभी छात्र एक अखबार का नाम दोहराते हैं जो बीप की ध्वनि में खो जाता है। लेकिन होठों की आकृति से साफ पता चलता है कि वे विपक्षी अखबार का नाम ले रहे हैं। इसी के साथ दूसरा अखबार भी अपना विज्ञापन दिखाता है और स्लोगन देता है- उस अखबार से आपको आगे रखे। युवा वर्ग को लक्ष्य करके किए गए इस प्रहार का जवाब पहला अखबार फिर देता है। इस बार उसके विज्ञापन का केन्द्र भी युवा है। वह उनमें जोश जगाता है- पलक पकड़कर उठो और हवा पकड़कर चलो...तुम चलो तो हिन्दुस्तान चले...चलो अकड़कर चलो।
इस विस्तारपूर्वक विवरण का उद्देश्य सिर्फ यह है कि पाठक जान सकें कि वर्तमान में खबरों की प्रकृति और गुणवत्ता को लेकर मीडिया में क्या चल रहा है। वास्तविक निर्णायक तो पाठक ही हैं कि अखबार का आदर्श रूप कैसा हो खासकर, विशाल युवा पाठक वर्ग। जिसके बारे में विज्ञापन में आंशिक सचाई ही बताई गई। इस वर्ग के बारे में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के एक बड़े हिस्से का खयाल है कि युवा सिर्फ मनोरंजन और फैशन जैसे विषयों को ही पसंद करता है। यही अधूरी सोच आज के मीडिया को भटका रहा है और वह तरह-तरह की बेतुकी सामग्री परोस रहा है। भारत में भ्रष्टाचार को लेकर चले सबसे बड़े आन्दोलन में अन्ना हजारे का साथ देने वालों में  80 फीसदी युवा थे। हरेक सही मुद्दे के साथ आज का युवा खड़ा है। बशर्त है उसे सही नीयत से उठाया जाए। उसे न पाखंड पसन्द है, न बेईमानी। वह पूरी तरह पारदर्शी है। यही आज के आम युवा भारतीय की तस्वीर है। इसे पत्रिका जैसे कुछ अखबारों ने ही समझा है। तभी तो वे विशाल पाठक-वर्ग में पढ़े और सराहे जाते हैं।

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