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मीडिया कठघरे में

प्रिय पाठकगण! दूसरों पर सवाल उठाने वाला मीडिया स्वयं कठघरे में है। पिछली बार 'खबरों के पैकेज' (11 जनवरी) के बहाने मीडिया के भ्रष्टाचार की चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।


'हिन्दू' ने गत महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान राजनीति और मीडिया के संयुक्त भ्रष्टाचार को लेकर कई नवीन तथ्य उजागर किए। अखबार ने पी। साईनाथ की रिपोर्टों में खुलासा किया कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने अपने चुनाव अभियान के दौरान मीडिया के लिए करोड़ों रुपए के विज्ञापन जारी किए। इन विज्ञापनों को महाराष्ट्र के प्रमुख मराठी दैनिकों में समाचार की तरह प्रकाशित किया गया। यानी अखबारों ने पाठकों को और मुख्यमंत्री ने चुनाव आयोग को भ्रमित किया। 'हिन्दू' की रिपोर्ट के अनुसार मुख्यमंत्री ने अपने चुनाव खर्च का जो अधिकृत ब्यौरा जिला निर्वाचन अधिकारी को प्रस्तुत किया, उसमें उन्होंने अखबारों का 5,379 रुपए तथा टीवी चैनलों का मात्र 6000 रुपए का विज्ञापन खर्चा दर्शाया है। 'हिन्दू' की रिपोर्ट सवाल उठाती है कि मराठी अखबारों में अशोक चव्हाण के चुनाव अभियान के बारे में पूरे-पूरे पृष्ठों की जो सामग्री कई दिन तक प्रकाशित की गई, वह अगर न्यूज कवरेज थी, तो सभी अखबारों में एक जैसी क्यों थी। रिपोर्ट में कुछ प्रमुख मराठी दैनिकों में प्रकाशित ऐसे समाचारों के कई उदाहरण हैं, जिनके शीर्षक, इंट्रो यहां तक कि एक-एक पंक्ति शब्दश: मिलती-जुलती थी। जाहिर है, न विज्ञापन देने वाले के धन का हिसाब-किताब और न लेने वाले के धन का हिसाब-किताब किसी को पता चला।


लोकसभा चुनाव के उदाहरण तो और भी संगीन हैं। करीब नौ माह पहले हुए इन चुनावों में 'पेड न्यूज' का एक ऐसा वायरस आया, जिसने भारतीय मीडिया के एक बड़े हिस्से को जकड़ लिया। सचमुच मीडिया में घुसी इस बुराई से उसकी विश्वसनीयता को जबरदस्त आघात लगा। स्व. प्रभाष जोशी के अनुसार- 'उस दौरान चुनाव सम्बंधी कोई भी खबर, फोटो या कवरेज यहां तक कि विश्लेषण भी उम्मीदवार से पैसे लिए बगैर नहीं छपा।' सम्भवत: सबसे पहले इसका खुलासा 'वॉल स्ट्रीट जनरल' की बेवसाइट पर नई दिल्ली ब्यूरो चीफ पाल बेकेट के एक लेख में किया गया। शीर्षक था- 'प्रेस कवरेज चाहिए? मुझे कुछ पैसा दो।' पाल बेकेट ने चण्डीगढ़ के एक निर्दलीय उम्मीदवार का अखबारों में नाम तक नहीं छपने का कारण बताया- कवरेज चाहिए तो पैसा दो। उस उम्मीदवार ने पाल को बताया कि अखबारों की तरफ से कई दलाल उससे मिल चुके हैं- खबरें छपवानी है तो फीस तो चुकानी पड़ेगी। कवरेज के हिसाब से उन्हें पैकेज की दरें भी बताई गईं। पाल के लेख के अनुसार निर्दलीय उम्मीदवार ने केवल परखने के उद्देश्य से अपने चुनावी दौरे की झूठ-मूठ खबर बनाकर दी तो वह अखबारों में हू-ब-हू छप गई।

एक उदाहरण राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के उत्तर प्रदेश के एक संस्करण का है। उसने अपना सम्पूर्ण प्रथम पृष्ठ एक उम्मीदवार के चुनाव अभियान के विज्ञापन का प्रकाशित किया। लेकिन सामग्री इस ढंग से प्रकाशित की कि वह खबरों का पृष्ठ लगे। बाकायदा लीड स्टोरी के साथ तीन कॉलम फोटो, सैकण्ड लीड, डबल कालम, तीन कालम की खबरें तथा नीचे स्टीमर (बॉटम न्यूज) आदि वैसे ही छपे थे जैसे अखबार का प्रथम पृष्ठ हो। ये सभी खबरें और फोटो एक ही उम्मीदवार से संबंधित थीं। कहीं पर भी विज्ञापन का उल्लेख नहीं था। इस पर पाठकों में हल्ला मचा तो अखबार ने अगले दिन स्पष्टीकरण प्रकाशित कर दिया कि कल प्रकाशित प्रथम पृष्ठ वास्तव में एक उम्मीदवार का चुनावी विज्ञापन था, इसका अखबार के संपादकीय विचारों से कोई तादात्म्य नहीं। सवाल है- इस स्पष्टीकरण की क्या उपयोगिता रही, खासकर तब, जब उसी दिन लोग मतदान कर रहे थे।

बात हिन्दी-अंग्रेजी के कई बड़े राष्ट्रीय दैनिकों तक सीमित नहीं थी। प्रांतीय भाषाओं के प्रमुख अखबार जिनका देश भर में विशाल पाठक-वर्ग है- भी इसी राह पर चल रहे थे। बल्कि कई तो सभी सीमाएं लांघ चुके थे।

भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य श्रीनिवास रेड्डी (द संडे एक्सप्रेस) के अनुसार- '2009 के आम चुनावों में आंध्र प्रदेश के अधिकांश स्थानीय अखबारों ने 300 करोड़ से भी ज्यादा धनराशि ऐसे तरीकों से बटोरी।'


पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि पूरे देश में चुनावों के दौरान केवल मीडिया पर ही कितना धन फूं का गया होगा! क्या यह राजनेताओं की अपनी कमाई थी? एक पाठक शिरीष चंद्रा (कोलकाता) के अनुसार- 'यह जनता का पैसा था, जो काले धन के रू प में मीडिया को इस्तेमाल करने के लिए उपयोग किया गया, लेकिन मीडिया तो खुद ही खबरों के पैकेज बनाकर तैयार खड़ा था।'

पाठकों को याद दिला दूं, साप्ताहिक अंग्रेजी पत्रिका 'आउटलुक' (21 दिसम्बर 09) ने कई नेताओं के बयान प्रकाशित किए, जिन्होंने अपने चुनाव कवरेज के लिए प्रिन्ट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पैसा दिया था या जिनसे पैसे की मांग की गई।

पाठक को सूचना और चुनावी विश्लेषण करके राजनीतिक हालात का जायजा देना मीडिया का प्राथमिक उत्तरदायित्व है। इसीलिए लोग मीडिया पर भरोसा करते हैं। 'पेड न्यूज' इस भरोसे को तोड़ती है। 'आउटलुक' के संपादक और जाने-माने पत्रकार विनोद मेहता कहते हैं- 'पेड न्यूज हमारी (मीडिया की) सामूहिक विश्वसनीयता पर एक गम्भीर खतरे के रूप में उभर रही है।'

प्रिय पाठकगण! मीडिया के एक जिम्मेदार वर्ग ने हाल में इसी खतरे को भांपकर इस मुद्दे पर सबका ध्यान खींचा है। इनमें 'पत्रिका' भी शामिल है। प्रसन्नता की बात यह है कि पाठकों की इस पर बहुत ही सकारात्मक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं।

पाठक रीडर्स एडिटर को अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-

ई-मेल: anand.joshi@epatrika.com

एसएमएस: baat 56969

फैक्स: 0141-2702418

पत्र: रीडर्स एडिटर,

राजस्थान पत्रिकाझालाना संस्थानिक क्षेत्र,

जयपुर

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खबरों के पैकेज !

मीडिया में 'पेड न्यूज' का मुद्दा चर्चा में है। चुनावों के दौरान पैसा लेकर खबरें छापने और प्रसारित करने पर हाल ही मीडिया- खासकर, प्रिन्ट मीडिया में गम्भीर चर्चा हुई है। मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित पी. साईनाथ और स्व. प्रभाष जोशी जैसे प्रतिष्ठित पत्रकारों ने इस मुद्दे को उठाया और राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान केन्द्रित किया। जयपुर में झाबरमल्ल शर्मा स्मृति व्याख्यान के दौरान भी यह मुद्दा उठा। खास बात यह है कि मीडिया में आई इस बुराई को मीडिया ने उठाया। अब आमजन और पाठक भी इस मुद्दे पर मुखर होने लगे हैं।

जयपुर से विजय श्रीमाली ने लिखा, 'चुनाव में पैसे लेकर खबरें छापने का आरोप पत्रकारों और अखबारों पर पहले भी लगते रहे हैं। लेकिन पिछले दिनों राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के समक्ष अनेक अखबारों और न्यूज चैनलों ने चुनाव कवरेज के लिए जिस तरह खबरों के पैकेज रखे- कुछ ने तो बाकायदा रेट कार्ड छपवाए- वह भारतीय मीडिया-जगत की अपूर्व घटना है। अपूर्व और शर्मनाक! सम्भवत: इसीलिए मीडिया के एक जिम्मेदार वर्ग में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। मुझे यह सुखद लगा कि पिछले दिनों इस मुद्दे को कुछ अखबारों ने जोर-शोर से उठाकर जनता को जागरू क करने की कोशिश की है। मीडिया के भ्रष्टाचार को अगर मीडिया का ही एक जागरू क तबका उजागर करने को कटिबद्ध है, तो मुझे पूरी उम्मीद है कि भ्रष्ट मीडिया को जनता सबक सिखाकर मानेगी।'

भोपाल से सुभाष रघुवंशी ने लिखा- 'विज्ञापन और खबर में रात-दिन का अंतर होता है। लेकिन कई अखबारों ने चुनाव अभियान के विज्ञापनों को खबरों की तरह प्रकाशित किया। ऐसी सामग्री में ्रष्ठङ्कञ्ज यानी 'विज्ञापन' लिखने की सामान्य परिपाटी है, जिसका उल्लंघन किया गया। इससे विज्ञापन और खबर का भेद मिट गया। पाठक भ्रमित हुए।'

उदयपुर से डॉ. एस.सी. मेहता के अनुसार- 'मीडिया की पहचान और अस्तित्व खबरों पर टिके हैं। खबरों में मिलावट करके तो वह अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी मार रहा है।'

प्रिय पाठकगण! बात अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने तक सीमित नहीं है। यह लोकतंत्र के चौथे पाये की विश्वसनीयता का गम्भीर मुद्दा है। इसमें काला धन, भ्रष्टाचार और राजनीतिक गठजोड़ के अनैतिक और अवैधानिक पहलू जुड़े हैं। स्व। प्रभाष जोशी के अनुसार मीडिया का काम जनता की चौकीदारी करना है। लेकिन चौकीदार की अगर चोर से ही मिली-भगत हो, तो जनता का क्या होगा।

लिहाजा जनता को जागरूक करने की मीडिया के उस वर्ग की चिन्ता जायज है जो 'पेड न्यूज' या 'पैकेज जर्नलिज्म' को अनैतिक मानता है। ध्यान रहे, 'पेड न्यूज' और विज्ञापन में अन्तर स्पष्ट है। जाने-माने पत्रकार राजदीप सरदेसाई के अनुसार- 'अगर एक राजनेता या कारपोरेट घराना अखबार में संपादकीय जगह या टीवी पर एयर टाइम खरीदना चाहता है तो वह ऐसा कर सकता है। लेकिन उसे नियमानुसार इसकी घोषणा करनी होगी।' राजदीप आगे लिखते हैं- 'जब राजनीतिक/ व्यावसायिक ब्राण्ड गैर पारदर्शी ढंग से घुसा दिया जाता है, जब विज्ञापन फार्म या कंटेट में साफ फर्क के बगैर खबर के रू प में पाठक या दर्शक के सामने आता है, तब वह खबरों की शुचिता का उल्लंघन है।'

प्रिय पाठकगण! पी. साईनाथ ने पिछले दिनों 'हिन्दू' में प्रकाशित अपनी खोजपूर्ण रिपोर्टों में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों के दौरान कुछ प्रमुख मराठी दैनिकों में खबरों की इसी शुचिता के उल्लंघन को तथ्यों के साथ उजागर किया है। मराठी ही क्यों अन्य कई भाषाई अखबार हिन्दी और अंग्रेजी के राष्ट्रीय दैनिक भी कठघरे में हैं। (पाठकों को बता दूं इसमें 'पत्रिका' शामिल नहीं है।) गत वर्ष लोकसभा और कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान खबरों की इस अनैतिक बिक्री पर हाल ही देश के प्रिन्ट मीडिया ने अनेक तथ्य प्रकाशित किए हैं। बड़े-बड़े राजनेताओं के हवाले से लिखा है कि कौन-कौन से अखबारों ने चुनाव प्रचार के बदले धन की मांग की। आंखें खोल देने वाली ये रिपोर्टें 'हिन्दू', 'इण्डियन एक्सप्रेस', 'आउट लुक' (अंग्रेजी साप्ताहिक) में प्रमुखता से प्रकाशित हुई हैं। हिन्दी दैनिक 'जनसत्ता' में स्व. प्रभाष जोशी ने इस मुद्दे को सबसे पहले उठाया। निश्चय ही यह संपूर्ण भारतीय मीडिया-जगत का सर्वाधिक चिन्तनीय मुद्दा है, जिस पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए।

अहमदाबाद के एक पाठक एच.सी. जैन ने लिखा- 'मीडिया की बदौलत रुचिका गिरहोत्रा का मामला राष्ट्रीय सुर्खियों में आया और हरियाणा के पूर्व पुलिस अफसर राठौड़ पर शिकंजा कसा। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, नीतिश कटारा जैसे प्रकरणों में प्रभावशाली-शक्तिशाली अभियुक्त तमाम दबावों के बावजूद बच नहीं सके। अनेक बड़े राजनेताओं के भ्रष्टाचार को मीडिया ने उजागर किया। मधु कोड़ा के भ्रष्टाचार का मामला सबसे पहले झारखण्ड के एक हिन्दी अखबार 'प्रभात खबर' ने उजागर किया। जाहिर है, मीडिया जनता की आवाज है। जनता उसे अपना दोस्त और संरक्षक मानती है। ऐसे में अगर मीडिया खुद भ्रष्टाचार में लिप्त होगा, तो वह अन्याय के खिलाफ कैसे लड़ेगा।'

जयपुर से विमल पारीक ने लिखा- 'भ्रष्टाचार में लिप्त होकर मीडिया अपनी ताकत और प्रभाव खो रहा है। झाबरमल्ल शर्मा स्मृति व्याख्यान के दौरान 'पत्रिका' समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी ने सही कहा- (पत्रिका 5 जनवरी) 'लोकतंत्र को बचाना है तो मीडिया का इलाज करना जरूरी है। मीडिया के कमजोर होने के कारण लोकतंत्र के अन्य तीन स्तम्भ शिथिल हो गए हैं।'

प्रिय पाठकगण! मीडिया की कमजोरी और शिथिलता की चर्चा अभी अधूरी है। पिछले दिनों प्रिन्ट मीडिया ने इस मुद्दे पर क्या तथ्य देश की जनता के सामने रखे। खबरों के पैकेज क्या हैं। इसमें राजनीतिक उम्मीदवार, दल, अखबार और टीवी चैनलों की क्या भूमिका रही। पाठक इन मुद्दों पर और क्या कहते हैं? इन पर चर्चा अगली बार।
पाठक रीडर्स एडिटर को अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-
एसएमएस: baat 56969
फैक्स: ०१४१-2702418
पत्र: रीडर्स एडिटर,
राजस्थान पत्रिकाझालाना संस्थानिक क्षेत्र,
जयपुर

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कुशवाहाजी यादें



बात सत्तर के दशक की है। वे रोजाना शाम को पत्रिका कार्यालय में आते और चुपचाप काम करने बैठ जाते थे। मुश्किल से उन्हें आधा घंटा भी नहीं लगता था। काम खत्म करके उसी तरह चुपचाप लौट जाते थे। इस आधे घंटे में वे कलम और कूंची की वह दुनिया रच जाते, जिसके प्रशंसक पत्रिका के लाखों पाठक थे। अपने विद्यार्थी जीवन से ही मैं राजस्थान की लोककथाओं पर आधारित उनकी चित्रकथाओं का नियमित पाठक था। इसलिए स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद अस्सी के दशक में मैंने जयपुर में पत्रिका ज्वॉइन की, तो केसरगढ़ में अनंत कुशवाहा जी को अपने इतने समीप काम करते हुए देखना मुझे बहुत आह्लादित करता था। मैं साप्ताहिक इतवारी पत्रिका में था। कुशवाहा जी पत्रिका के मैगजीन विभाग (उस वक्त रविवारीय परिशिष्ट) में आकर बैठते और अपना काम करके चले जाते थे। कई दिनों बाद पता चला कि ये अनंत कुशवाहा जी हैं।

इतनी खामोशी और सादगी से काम करने वाला शख्स मैंने पहले नहीं देखा था। उन्हें अपनी लोकप्रियता का कोई गुमान नहीं था। उन दिनों विजयदान देथा और रानी लक्ष्मी कुमारी चूंडावत की लोककथाओं पर आधारित उनकी चित्रकथाओं की शृंखला पत्रिका के जरिए घर-घर पहुंचती थी। पत्रिका के ऐसे पाठकों की संख्या लाखों में रही होगी, जो अखबार हाथ में आते ही पहले-पहल चित्रकथा पढ़ते थे।

कुशवाहा जी के हुनर को स्व। कुलिशजी ने पहचाना। कुशवाहा जी उन दिनों जयपुर में राजकीय सेवा में थे और उत्तर प्रदेश के कुछ अखबारों में छिटपुट सामग्री भेजते थे। कुलिशजी राजस्थान की लोककथाओं पर कुछ विशेष कार्य करना चाहते थे। इसका दायित्व उन्होंने कुशवाहा जी को सौंपा। यह अवसर बाद में न केवल कुशवाहा जी के लिए वरदान साबित हुआ, बल्कि राजस्थानी लोककथाओं को भी एक नया आयाम मिला। कुशवाहा जी ने चुन-चुन कर लोककथाओं का बेहतरीन चित्रांकन किया और उन्हें दैनिक अखबार का विषय बनाया। मुझे याद है बीकानेर के डूंगर कॉलेज के पुस्तकालय में सबसे पहले पत्रिका में चित्रकथा का पन्ना खोलने वाले मेरे कई विद्यार्थी मित्र थे। कुशवाहा जी एक बेहतरीन चित्रकार होने के साथ-साथ अच्छे शब्द शिल्पी भी थे। इसलिए भाषा और चित्रांकन की प्रस्तुति का तालमेल बेहतरीन रहता था। उनका लाइन-वर्क बहुत मजबूत था, इसलिए पाठक को चित्रकथा रोचक लगती थी। वह उससे बंध जाता था।

बाद में तो वे पत्रिका से औपचारिक रूप से जुड़ गए। सरकारी सेवा छोड़कर पूरी तरह साहित्य और चित्रांकन की दुनिया में रच-बस गए। उन्हें पत्रिका के नए प्रकाशन 'बालहंस' का संपादक नियुक्त किया गया। यह बच्चों की पाक्षिक पत्रिका थी। कुशवाहा जी ने न केवल इसका कुशलता से संपादन किया, बल्कि अनेक नवोदित बाल साहित्यकार, कवि, लेखक और चित्रकारों को अवसर दिया। जल्दी ही बालहंस पूरे उत्तर भारत की हिंदी की एक लोकप्रिय बाल पत्रिका बन गई। देश में बाल साहित्य पर आयोजित होने वाली गोष्ठियों/ सेमिनारों में बालहंस का जिक्र जरूर होता था। अनेक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित लेखक बालहंस से जुड़े। आज 'बालहंस' देश की प्रतिष्ठित बाल पत्रिका है, जिसमें कुशवाहा जी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है।

'बालहंस' में उन्होंने कई मौलिक चित्रकथाएं रचीं। इन कथाओं ने न केवल बाल पाठकों का भरपूर मनोरंजन किया, बल्कि बड़े पाठक भी उन्हें खूब रुचिपूर्वक पढ़ते थे। उनके रचित पात्र शैलबाला, ठोलाराम, कवि आहत आज भी पाठकों को याद हैं। शैलबाला एक साहसी लड़की का पात्र था, जिस पर उन्हें पाठकों की भरपूर प्रतिकियाएं मिलीं। 'बालहंस' में ही उनकी एक अनूठी चित्रकथा - शृंखला प्रकाशित हुई - कंू कंू। कुशवाहा जी एक प्रयोगशील रचनाकार थे। नए विचार, नई तकनीक को वे शब्द और चित्रांकन दोनों विधाओं में आजमाते थे। कूं कंू इसका सर्वाेत्कृष्ट उदाहरण था। इस चित्रकथा में एक भी शब्द का इस्तेमाल किए बिना विषयवस्तु और घटनाक्रम को पूरी रोचकता के साथ प्रस्तुत किया जाता था। कई वर्षों बाद उनके इस प्रयोग का रविवारीय परिशिष्ट में सार्थक उपयोग किया गया। मैंने परिशिष्ट विभाग का जिम्मा संभाला, तो पत्रिका के संपादक गुलाब कोठारी जी ने मुझे रविवारीय में कुछ नया करने का निर्देश दिया। उन्हीं के सुझाव पर 'आखर कोना' कॉलम शुरू किया गया, जिसे कुशवाहा जी तैयार करते थे। यह स्तंभ नव साक्षरों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। कुशवाहा जी का एक और पात्र इतवारी लाल भी बहुत लोकप्रिय हुआ। यह एक व्यंग्य चित्र शृंखला थी, जो साप्ताहिक इतवारी पत्रिका में प्रकाशित होती थी। इतवारी लाल पात्र के जरिए कुशवाहा जी ने कई सामाजिक, राजनीतिक और सामयिक विषयों पर तीखे कटाक्ष किए। कुशवाहा जी चुटकी लेने मेें माहिर थे। बातों से नहीं, अपनी व्यंग्यकारी अभिव्यक्ति से। जब उन्हें इतवारी के तत्कालीन प्रभारी ने इस शृंखला पर विराम लगाने को कहा, तो उन्होंने अंतिम किश्त बनाई। इसमें इतवारी लाल पात्र को उन्होंने एक गड्ढे में उल्टे पांव किए डूबता हुआ दिखाकर जो कटाक्ष किया, वह मुझे आज भी याद है।

वे जितने अच्छे चित्रकार थे, उतने ही श्रेष्ठ लेखक भी थे। उन्होंने भरपूर बाल साहित्य रचा। बाल कथाओं के उनके दस संग्रह हैं। वे आज के दौर में रचे जा रहे बाल साहित्य से संतुष्ट नहीं थे। भावी पीढ़ी के लिए वे बहुत चिंतित थे। इसलिए वे कहते थे कि बच्चों के लिए मौलिक सृजन की बेहद जरूरत है, जो आज इंटरनेट के दौर में खत्म होता जा रहा है। बच्चों को सूचनाएं परोसी जा रही हैं। इससे उनका एकांगी विकास ही हो रहा है।

2002 में वे सेवानिवृत्त हुए तो बोले - दैनंदिन उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो रहा हंू, लेकिन अपने सृजन कर्म से नहीं। पत्रिका ने भी उन्हें पूरा सम्मान और अवसर दिया। सेवानिवृत्ति के बाद उनके निधन के दिन (28 दिसंबर) तक उनकी चित्रकथा निरंतर प्रकाशित होती रही। पाठकों से शायद इसलिए उनका नाता कभी टूट नहीं पाएगा।

मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!

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