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कौन जिम्मेदार?

टिप्पणी
आई.आई.टी. में पढ़ाई करना युवाओं का सपना होता था, उनमें छात्रों का रुझान क्यों घट रहा है? इन सरकारी संस्थाओं की लगातार फीकी पड़ती चमक को लेकर पिछले कुछ समय से कई स्तरों पर, खासकर शिक्षाविदों में चिन्ता के स्वर उभर रहे थे। लेकिन अब जो आंकड़े सामने आए हैं, वह न केवल शिक्षा-क्षेत्र में बल्कि राज, समाज और सम्पूर्ण विद्यार्थी जगत के लिए चेतावनी की घंटी है। मानव संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों में बताया गया है कि वर्ष 2010 में आई.आई.टी. में 769 छात्रों ने प्रवेश लेने से इनकार कर दिया। हालांकि, दावा किया जा रहा है कि बाद में स्थिति में कुछ सुधार हुआ है। लेकिन अभी भी कई सीटें खाली पड़ी हैं—यह आई.आई.टी. से जुड़े प्रशासनिक पक्ष स्वीकार कर रहे हैं।
 आखिर आई.आई.टी. जैसी नामी संस्थाओं को विद्यार्थियों का टोटा क्यों पड़ रहा है? कई कारण बताए जा रहे हैं। एक कारण इंजीनियरिंग सेक्टर में नौकरियों की कमी को माना जा रहा है। अन्य क्षेत्रों में बढ़ते अवसरों को भी इन संस्थानों से छात्रों के मोहभंग का कारण बताया जा रहा है। यह भी माना जा रहा है कि आई.आई.टी. में अच्छे शिक्षकों की लगातार कमी होती जा रही है। एक कारण सरकार की दोषपूर्ण नीतियों को भी माना जा रहा है। जिसके तहत ज्यादातर संस्थानों में अनेक आरक्षित सीटें खाली रह जाती हैं। ये सीटें जरूरतमंद छात्रों से भरी जा सकती हैं, लेकिन नियम और कानून आड़े आ जाते हैं। रिसर्च पर ध्यान घटता जा रहा है। नतीजा यह है कि प्रौद्योगिकी शिक्षा में ठहराव आ गया है। नवाचार के अभाव में कोर्स नीरस होते जा रहे हैं। कोई दो राय नहीं देश के आई.आई.टी. संस्थानों में छात्रों के घटते रुझाान के ये महत्वपूर्ण कारण है।
रिजर्व सीटों के आंकड़े ज्यादा चौंकाने वाले हैं। प्राय: हर जगह भारी संख्या में सीटें खाली रह जाती है। सवाल है सरकार का इन सीटों पर करोड़ों रुपए खर्च होने के बावजूद कोई
ध्यान क्यों नहीं जाता? क्या संसद में आंकड़े पेश कर देना ही काफी है?
आरक्षित सीटें परिवर्तित नहीं की जा सकती। अदालत के आदेश है। लेकिन सरकार वस्तुस्थिति बताकर अदालत से पुनर्विचार की दरख्वास्त क्यों नहीं कर सकती? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम केवल यह ढोल पीट रहे हैं कि छात्रों का आई.आई.टी. में रुझाान कम हो रहा है, जबकि दूसरी ओर सैकड़ों छात्र प्रवेश से वंचित कर दिए जाते हैं। यह विकट स्थिति है जिसके लिए सरकार जिम्मेदार है। खाली रहने वाली रिजर्व सीटों को भरने की वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं होनी चाहिए? सरकारी नीतियों की विसंगतियां तो हैं ही, शैक्षणिक विसंगतियां भी कम नहीं हैं।
एक समय था जब भारत में आई.आई.टी. से निकले छात्रों को विदेशों में हाथों-हाथ नौकरी मिल जाती थी। देश में तो उसके लिए अवसरों की कोई कमी ही नहीं थी। लेकिन अब जो हालात बनते जा रहे हैं, वे हमारी शैक्षणिक दुरावस्था की ओर स्पष्ट इशारा है। हम केवल औसत इंजीनियर पैदा कर रहे हैं। इंजीनियरिंग के श्रेष्ठ अध्यापक नहीं। सरकार के नीति-निर्माताओं और शिक्षाविदों के लिए यह बड़ी चुनौती है कि वे इन संस्थानों को श्रेष्ठतम फैकल्टीज उपलब्ध कराएं। ऐसा वातावरण दें जिसमें शोध, नवाचार और प्रौद्योगिकी शिक्षा में भी छात्रों का रुझाान बढ़े। आई.आई.टी. ही नहीं, एन.आई.टी. तथा दूसरे उच्च शिक्षण संस्थानों के भी कमोवेश यही हालात हैं। उच्च शिक्षा के प्रति हमारी यह बेरुखी हमें बहुत महंगी पड़ेगी।

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कथनी और करनी का फर्क

उस दिन अखबारों में भ्रष्टाचार सम्बन्धी दो खबरें छपी थीं। पहली थी—भ्रष्टाचार पर रोक लगाने वाले ऐतिहासिक लोकपाल बिल के पास होने की खबर। खबर महत्त्वपूर्ण थी, लिहाजा सुर्खियों में थीं। दूसरी थी—मुम्बई के आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के कुख्यात घोटाले से जुड़ी खबर। यह सामान्य खबर की तरह लगभग सभी अखबारों में हाशिये पर छपी थी। 45 साल से जो बिल लटका हुआ था, वह राज्यसभा के बाद लोकसभा में भी सिर्फ 40 मिनट में पास हो गया था। बड़ी कामयाबी थी। अन्ना हजारे ने अनशन समाप्त कर दिया था। यूपीए सरकार, खासकर पांच राज्यों के चुनाव परिणाम से मायूस कांग्रेस नेताओं की आवाज फिर गले से निकलने लगी थी। लोकपाल की बधाइयां ली जा रही थी। दावे किए जा रहे थे—आर.टी.आई. भी हम लेकर आए थे और अब लोकपाल भी आखिरकार हम लेकर आए।
और इधर महाराष्ट्र में क्या हो रहा था, जहां कांग्रेस-राकांपा की गठबंधन सरकार है। आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाले को दफन किया जा रहा था। उस घोटाले को जिसकी जांच रिपोर्ट में कांग्रेस के चार मुख्यमंत्रियों के नाम हैं। लोकपाल वाले दिन ही महाराष्ट्र के राज्यपाल के. शंकरनारायणन ने सी.बी.आई. की पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण पर मुकदमा चलाने की अर्जी नामंजूर कर दी थी। यही खबर उस दिन अखबारों में हाशिये पर थी। शायद देश को मिले पहली बार लोकपाल के जश्न में यह बड़ी खबर ओझाल हो गई थी। आदर्श घोटाला उजागर होने के बाद महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक राव चव्हाण ने 9 नवम्बर 2010 को पद से इस्तीफा दे दिया था। वे इस घोटाले के 13 आरोपियों में शामिल थे। आपको याद होगा, मुम्बई में आदर्श हाउसिंग सोसाइटी की विवादास्पद 31 मंजिला बिल्डिंग का निर्माण करगिल शहीदों के परिजनों को घर देने के लिए किया गया था। लेकिन तत्कालीन राजस्व मंत्री पद पर रहते हुए अशोक चव्हाण ने 40 फीसदी घर अन्य लोगों को दे दिए थे। इसमें उनके कुछ करीबी रिश्तेदार भी शामिल थे। बाद में अशोक चव्हाण मुख्यमंत्री बन गए। उन्होंने सी.बी.आई. के आरोप-पत्र में खुद का नाम शामिल किए जाने को चुनौती देते हुए दलील दी कि उन पर मुकदमे के लिए राज्यपाल से अनुमति नहीं ली गई। इस दौरान हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जे.ए. पाटिल के नेतृत्व में दो सदस्यीय जांच आयोग बनाया गया। आयोग का निष्कर्ष था— 'यह घोटाला नियमों को तोडऩे वाली एक शर्मनाक कहानी है जिसमें लालच, पक्षपात और भाई-भतीजावाद जमकर हुआ।' इस आयोग ने आदर्श सोसाइटी के 102 में से 44सदस्यों को घर आवंटित करने में घोटाला पाया। इसके लिए आयोग ने अशोक चव्हाण सहित पूर्व मुख्यमंत्रियों सुशील कुमार शिन्दे, विलासराव देशमुख तथा शिवाजीराव निलंगेकर को भी जिम्मेदार माना। कंडक्टर और ड्राइवर के नाम पर भी फ्लैट आवंटित थे। जबकि फ्लैट की कीमत लाखों रुपए थी।
चव्हाण के एतराज के बाद में सी.बी.आई. राज्यपाल के पास मुकदमे की मंजूरी के लिए गई। राज्यपाल की नामंजूरी के दो दिन बाद ही अखबारों में फिर खबर आई— 'महाराष्ट्र सरकार ने चर्चित आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाले की जांच-रिपोर्ट खारिज कर दी।' यानी जिस रिपोर्ट ने इस घोटाले को 'एक शर्मनाक कहानी' बताया उसे पृथ्वीराज चव्हाण की सरकार ने खारिज कर दिया। रिपोर्ट क्यों खारिज की गई, सरकार ने इसका कोई खुलासा नहीं किया। अलबत्ता किसी अधिकारी के हवाले से यह जरूर कहा गया कि जांच आयोग के निष्कर्षं से सरकार संतुष्ट नहीं है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट अप्रेल में ही सरकार को सौंप दी थी, लेकिन उसके निष्कर्षों से असंतुष्ट होने में सरकार को आठ माह लग गए। मौका भी कब चुना, जब भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए उसी दल की सरकार केन्द्र में लोकपाल बिल पास कराने का श्रेय ले रही है।
आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला लम्बे समय तक मीडिया में छाया रहा था। यह एक संवेदनशील मुद्दा बन गया था, क्योंकि सोसाइटी करगिल के शहीदों के परिवारों के लिए बनी थी। हालांकि आयोग ने रिपोर्ट में इसे शहीद परिवारों की योजना नहीं माना। लेकिन आरोपों में एक बिन्दु यह भी था कि शहीद परिवारों के नाम से योजना पास कराने के बाद इसे राजनीतिक संरक्षण में बदल दिया गया था। सोसाइटी से जुड़ी फाइलें महाराष्ट्र के शहरी विकास विभाग, यहां तक कि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय तक से गायब हो गई जिसकी पुलिस में रिपोर्ट दर्ज हुई थी। हाईकोर्ट के निर्देश पर इसकी जांच भी सी.बी.आई. को दी गई। इतना ही नहीं सोसाइटी के नक्शे तक गायब कर दिए गए। आरोप था कि मुम्बई में बिल्डरों और नेताओं का गठजोड़ इतना ताकतवर है कि पूरे मामले को सरकारी संरक्षण देकर योजना को वैधता प्रदान की गई। लिहाजा यह मामला देश के चर्चित घोटालों में शुमार हो गया था। संवेदनशीलता का एक कारण और था। मुम्बई के जिस इलाके में आदर्श हाउसिंग सोसाइटी की यह इमारत खड़ी की गई, वह सेना की इंजीनियरिंग ट्रांसपोर्ट फेसिलिटी से सिर्फ २७ मीटर दूरी पर स्थित है। यहां सेना के हथियारबंद वाहन पार्क किए जाते रहे हैं। सेना और नौ-सेना के डिपो, जिनसे सैनिकों को हथियारों, विस्फोटकों और संवेदनशील उपकरणों की आपूर्ति की जाती रही है, इस इमारत से सिर्फ सौ मीटर दूर हैं। कोई भी इमारत की ऊंची छत से खड़ा होकर हमारे इन प्रतिष्ठानों को आसानी से निशाना बना सकता है। २६/११ के हमले के बाद तो संवेदनशीलता और बढ़ गई थी। संभवत: इसीलिए आदर्श हाउसिंग सोसाइटी की सौ मीटर ऊंची इमारत देश में भ्रष्टाचार की सर्वाधिक कलंकित नजीर बन चुकी थी। लेकिन सत्ताधीशों की क्या कहें! कथनी कुछ और करनी कुछ और। आचरण और व्यवहार की यह असंगति ही राजनेताओं को अविश्वसनीय बनाती जा रही है। लेकिन राजनेता है कि इससे कोई सीख लेते नजर नहीं आते।

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वी.आई.पी. के ठाठ-बाट!

टिप्पणी
कोई कितना ही बड़ा अपराधी हो या फिर शातिर आरोपी, अगर वह 'वी.आई.पी'. है तो सब उसके आगे सलाम बजाते ही मिलेंगे। चाहे नेता हो या अभिनेता या फिर कथित साधु-महात्मा। जोधपुर जेल में बंद हमारे स्वनामधन्य आसाराम बापू उदाहरण हैं। उनके वी.आई.पी. ट्रीटमेंट में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही। सरकारी तंत्र में जैसे एक-दूसरे को पीछे छोडऩे की होड़ मची है। जेल-प्रशासन सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बावजूद आसाराम को वह सब सुख-सुविधाएं मुहैया कराने में दुबला हुआ जा रहा है जो एक आम आरोपी को जेल में कतई संभव नहीं है। दूसरी तरफ सरकारी वैद्यजी अन्य सारे मरीजों को छोड़कर बुधवार को अस्पताल के विशेष कक्ष में आसाराम की पंचकर्म-चिकित्सा करने में व्यस्त रहे। संभव है मेडिकल बोर्ड की सलाह पर 'बीमारÓ आसाराम को उनकी मांग पर आयुर्वेद की यह विशेष चिकित्सा सुविधा मुहैया कराई गई हो। हालांकि फोटो देखकर नहीं लगता कि वे बीमार हैं, शायद भीतर कोई गड़बड़ी हो। उनकी चिकित्सा पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन एतराज चिकित्सा के तरीके पर है। भारी पुलिस लवाजमे के साथ आसाराम को आयुर्वेद चिकित्सालय लाया गया। आगमन के साथ ही उनका विशिष्ट उपचार शुरू हो गया। ढाई घंटे तक मरीज भटकते रहे। आयुर्वेद-चिकित्सा के कई चरण हैं। इसलिए हो सकता है कि आसाराम चिकित्सालय में बार-बार लाये जाएं। और बार-बार मरीज परेशान होते रहें। आखिर यह क्या तमाशा है! जोधपुर का जेल-प्रशासन शुरू से ही आसाराम के चरणों में बिछा हुआ नजर आता है। उन्हें जब गिरफ्तार किया गया था तो पुलिस उन्हें विमान से जोधपुर लेकर आई थी। साधारण अभियुक्त की तरह आसाराम को हवालात में रखने की बजाय सुविधाजनक आर.ए.सी. मुख्यालय में रखा गया। दूध और फल पेश किए गए थे। उनकी विभिन्न फरमाइशें पूरी की गईं। आसाराम के इर्द-गिर्द भारी सुरक्षा बल तैनात किए गए। यह सब देखकर सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस जी.एस. सिंघवी व वी. गोपाल गोड़ा की पीठ ने राजस्थान सरकार की आलोचना की थी। केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने भी स्पष्ट आदेश दिया था कि आसाराम को संत नहीं सामान्य व्यक्ति माना जाए और इसी रूप में व्यवहार किया जाए। लेकिन आसाराम की आवभगत में कोई कमी न तब आई थी और न अब आई है। भले ही सरकार बदल गई। आसाराम के वी.आई.पी. ठाठ-बाट बरकरार है। जेल मैन्युअल की धज्जियां उड़ रही हैं। सवाल है आखिर जेलों में भी इन लोगों के शाही ठाठ-बाट क्यों कायम रहते हैं। पुलिस, जेल के अधिकारी तथा प्रशासन तंत्र उनके सामने घुटने टेके नजर आता है। दो दिन पहले लालू यादव जमानत पर छूट कर लाव-लश्कर के साथ घर पहुंचे। रास्ते में पुलिस के लोग उनके चरण धोते और चप्पल हाथ में उठाए देखे गए। संजय दत्त को बार-बार जेल से पेरोल मिल जाती है। जेल में उनको शराब मुहैया कराने का मामला अभी भी सुर्खियों में है। शासन-तंत्र का इस तरह वी.आई.पी. अपराधियों-आरोपियों के समक्ष समर्पण-भाव का राज क्या है— यह जनता को पता चलना चाहिए। आसाराम मामले में जोधपुर जेल प्रशासन की जांच जरूरी है। क्यों हिदायतों के बावजूद नाबालिग लड़की से दुराचार के आरोपी को लगातार विशेष सुविधाएं मुहैया कराई जा रही है। आसाराम पर और भी कई आरोप हैं। कौन-कौन अधिकारी उनके खैरख्वाह बने हुए हैं? क्यों बने हुए हैं—यह सब सामने आना चाहिए। नए डीजीपी ने बुधवार को ही जयपुर में चेताया—सुधर जाएं भ्रष्ट पुलिसकर्मी। मगर पुलिस है कि सुधरती नहीं।

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पाप धोने की कोशिश

 टिप्पणी
सार्वजनिक जीवन को पाक-साफ बनाने से जुड़ा लोकपाल विधेयक एक बार फिर केन्द्र की संप्रग सरकार सहित देश के तमाम राजनीतिक दलों के षड्यंत्रों का शिकार होता नजर आ रहा है। अन्ना हजारे के बार-बार हो रहे अनशन-आंदोलन और देश के चार राज्यों की ताजा करारी हार से डरी संप्रग सरकार ने भले ही रातों-रात इस विधेयक को संसद के इसी सत्र में पारित कराने की मंशा जाहिर की है। लेकिन सब जानते हैं कि राज्यसभा में संप्रग सरकार को बहुमत हासिल नहीं है। इसके बावजूद लोकपाल के प्रति सरकार का यह अचानक प्रेम क्यों उमड़ा?
सरकार का दावा है कि संशोधित विधेयक पर विपक्ष सहमत है। लेकिन अभी यह दूर की कौड़ी लगती है। भ्रष्टाचार और उसके विरोध में उबलते लोगों के गुस्से की संप्रग सरकार ने जिस कदर उपेक्षा की, शायद उसका पश्चाताप करने का यह उसे माकूल समय लग रहा है। दिल्ली में तो जो दल लोकपाल व केन्द्र सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए आन्दोलन से पैदा हुआ था उसी ने सत्तारूढ़ दल की बखिया उधेड़ दी। रही-सही कसर अन्ना हजारे ने अनशन शुरू करके पूरी कर दी। ऐसे में सरकार के पास कोई चारा नहीं था। वह इस विधेयक के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाना चाहती है ताकि लगे कि लोकपाल के लिए वह कितनी आतुर है। यह विधेयक लोकसभा में पहले ही पारित हो चुका था। इसके बाद इसमें कई संशोधन हुए। इसलिए राज्यसभा में पारित होने के बाद यह फिर लोकसभा में लाया जाएगा। इसकी असली परीक्षा तो राज्यसभा में होनी है। अगर राज्यसभा में विधेयक फिर अटक जाता है तो सरकार को अपने आपको पाक साबित करने में मुश्किल नहीं होगी। लोगों से कह सकेगी कि सरकार लोकपाल लाना चाहती है, विपक्ष आड़े आ रहा है। ठीकरा फिर दूसरे के सिर फोड़ दिया जाएगा।
यानी सरकार अब भी अवसर देखकर रंग बदलने की कोशिश कर रही है। उसके प्रयासों में ईमानदारी का अभाव स्पष्ट नजर आता है। अगर सरकार सचमुच लोकपाल के प्रति निष्ठावान होती तो मौजूदा सत्र के एजेन्डे में विधेयक को शामिल करती। राज्यसभा की प्रवर समिति ने 23 नवम्बर, 2012 को ही अपनी रिपोर्ट राज्यसभा को सौंप दी थी। इस रिपोर्ट पर सरकार सोती क्यों रही? दबाव बढ़ा तो केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने प्रवर समिति की सिफारिशों को मंजूरी दे दी। इसके बाद इसे फिर ठंडे बस्ते में डाल दिया।
कैबिनेट की मंजूरी के बाद इसे तत्काल सदन में प्रस्तुत क्यों नहीं किया गया? देखा जाए तो सरकार इस सत्र में भी यह विधेयक लाने को उत्सुक नजर नहीं थी। लेकिन 8 दिसम्बर के बाद हालात बदलते ही सरकार ने भी अपना रंग बदल लिया। अच्छा है, यह विधेयक सत्र में शुक्रवार को रखे जाने के संकेत दिए गए हैं। विधेयक में प्रवर समिति के अधिकांश सुझावों को माना गया है। विधेयक पहले से काफी मजबूत हुआ है।
जितना सच यह है कि लोकपाल विधेयक के खिलाफ कोई भी दल नहीं बोलना चाहता, उतना ही सच यह भी है कि, कोई उसे पास भी नहीं कराना चाहता। सब जनता को भरमाना चाहते हैं। लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए कि देश की जनता अब पहले सी भोली-भाली नहीं रही। वह सबको देख रही है कि, बिल पर कौन, क्या गुगली खेल रहा है। जब चार माह बाद लोकसभा के चुनाव होंगे तब वह ऐसी गुगली खेलेगी कि सबके विकेट शून्य पर
गिरते नजर आएंगे। अभी भी समय है-सरकार सहित सभी राजनीतिक दल एक संकल्प
के साथ, संसद के चालू सत्र में ही भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए प्रभावी लोकपाल कानून पास करें। शायद उनके पाप कुछ धुल जाएं।

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मतदान बाद के चुनाव-सर्वेक्षण

इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के मार्फत मतदान बाद के सर्वेक्षणों को न केवल आम जन ने बल्कि दलों ने भी अपने नजरिए से देखा। इनकी विश्वसनीयता अभी सर्व-स्वीकार्य नहीं हुई है। हम निष्कर्षों पर नजर डालें, तो कहना होगा कि ये काफी हद तक परिणामों के
करीब पहुंचे।

4 दिसम्बर की शाम जब दिल्ली में पांच राज्यों के चुनाव का अन्तिम चरण था तो परिणामों को लेकर लोगों की जिज्ञासाएं भी चरम पर थीं। इसलिए तत्काल बाद आए विभिन्न एजेन्सियों के एग्जिट पोल के निष्कर्ष मीडिया में सुर्खियां बने। इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के मार्फत मतदान बाद के इन सर्वेक्षणों को न केवल आम जन ने बल्कि राजनीतिक दलों ने भी अपने-अपने नजरिए से देखा। मतदान पूर्व और मतदान बाद के चुनाव सर्वेक्षण अक्सर विवादों में रहे हैं। कारण इनका अतीत का रिकार्ड है। कई बार सर्वेक्षणों के निष्कर्ष चुनाव परिणामों की सही तस्वीर बताने में नाकाम भी रहे। बल्कि सर्वेक्षणों के निष्कर्ष बिल्कुल उल्टे साबित हुए। इसलिए इनकी विश्वसनीयता अभी तक सर्व-स्वीकार्य नहीं हुई है। लेकिन अगर हम इस बार के चार राज्यों के एग्जिट पोल के निष्कर्षों पर नजर डालें, तो कहना होगा ये काफी हद तक चुनाव परिणामों के करीब पहुंचे। दिल्ली और राजस्थान में दलों की सीटों का आकलन ज्यादातर सर्वेक्षणों में गड़बड़ाया। लेकिन हार-जीत के नतीजे कमोबेश वही रहे। इनमें भी एक एजेन्सी का सर्वे तो चार राज्यों में बहुत करीब तक निष्कर्ष निकालने में कामयाब रहा। इन सर्वेक्षणों के आधार और आंकड़े तो विस्तृत रूप से उपलब्ध नहीं है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इनकी कवरेज ही यहां चर्चा का विषय है। आइए, एक नजर इन एग्जिट पोल पर डाल ली जाए।
मुख्य तौर पर मीडिया में पांच मतदान बाद सर्वेक्षण (एग्जिट पोल) सामने आए। इंडिया टुडे-ओर.आर.जी., टाइम्स नाउ-सी वोटर, आई.बी.एन.7-सी.एस.डी.एस., ए.बी.पी.-नीलसन और टुडेज-चाणक्य। सभी चुनावी सर्वेक्षणों में चार राज्यों में भाजपा को सबसे आगे बताया गया और कांग्रेस को नं. 2 पर बताया। केवल टुडेज चाणक्य ने दिल्ली में आप को नं. एक और भाजपा को नं.2 पर बताया। हालांकि सीटों में ज्यादा अन्तर नहीं था। चाणक्य के सर्वे में दिल्ली में किसी को स्पष्ट बहमत नहीं मिलने की बात स्पष्ट तौर पर कही गई थी। चाणक्य के एग्जिट पोल में आप को 31, भाजपा को 29 तथा कांग्रेस को 10 सीटें बताई गई थी। यानी त्रिशंकु विधानसभा। दिल्ली का परिणाम सबके सामने है।
अब जरा दिल्ली के ही दूसरे सर्वेक्षणों पर नजर डालिए। टाइम्स नाउ-सी वोटर के सर्वे में भी दिल्ली में त्रिशंकु विधानसभा की बात कही गई थी। हालांकि इसमेें कांग्रेस नं. 2 पर थी और आप को तीसरे नंबर पर बताया गया था। सीटें इस प्रकार थीं-भाजपा 31, कांग्रेस 20 तथा 15 आप। आप का आकलन करने में यह सर्वे जरूर गड़बड़ाया इसलिए कांग्रेस को लेकर भी सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा। लेकिन परिणाम के मामले में यह सर्वे भी नतीजों का संकेत करने में सफल रहा। इंडिया टुडे और एबीपी ने दिल्ली में भाजपा को स्पष्ट बहुमत बताया जो गलत साबित हुआ, लेकिन बाकी तीनों राज्यों में इनके निष्कर्ष चुनाव परिणाम के मामले में सही साबित हुए।
मध्य प्रदेश में सभी एग्जिट पोल भाजपा की सत्ता में वापसी दर्शा रहे थे। लेकिन दो-तिहाई सीटों से भाजपा की वापसी का आंकड़ा कोई नहीं छू पाया- सिवाय चाणक्य के। चाणक्य का सर्वे मध्य प्रदेश में काफी सटीक रहा। इस सर्वे में भाजपा को 161 तथा कांग्रेस को सिर्फ 62 सीटें दी गई। मध्य प्रदेश के चुनाव परिणाम रहे- भाजपा-165 तथा 58 कांग्रेस। जबकि अन्य सर्वेक्षणों में भाजपा को 128 से 138 तथा कांग्रेस को 80 से 92 तक सीटें दी गईं। अलबत्ता आई.बी.एन. 7- सी.एस.डी.एस. का सर्वे सीटों के आकलन में काफी करीब (भाजपा 146 व कांग्रेस 67) तक पहुंच पाया।
छत्तीसगढ़ में भाजपा-कांग्रेस के बीच कड़ा मुकाबला सभी पांचों सर्वेक्षणों में बताया गया था लेकिन भाजपा को स्पष्ट बहुमत सिर्फ इंडिया-टुडे- ओ.आर.जी. तथा चाणक्य के सर्वे में बताया गया। इंडिया टुडे के अनुसार भाजपा को 53 और कांग्रेस को 33 तथा चाणक्य के सर्वे मेें भाजपा को 51 तथा कांग्रेस को 39 सीटें बताई गई थी। चुनाव परिणाम रहे- भाजपा-49 तथा कांग्रेस-39। अन्य सर्वेक्षणों में भी कड़े मुकाबले के बावजूद भाजपा को बढ़त स्पष्ट तौर पर बताई गई थी।
राजस्थान के मामले में सीटों के बारे में सभी सर्वेक्षणों के निष्कर्ष नतीजों से काफी दूर रहे। कोई भी एग्जिट पोल कांग्रेस की इस कदर दुर्गति का आकलन नहीं कर पाया। हालांकि सभी सर्वेक्षण भाजपा के स्पष्ट बहुमत के आंकड़े दे रहे थे। इनमें भाजपा को 110 से लेकर 147 सीटों का अनुमान शामिल था। लेकिन कांग्रेस को मिलने वाली सीटों का औसतन अनुमान 50 सीटों के आसपास जाकर ठहरता था। कहना होगा राजस्थान के मामले में भी नतीजों को लेकर सर्वेक्षणों के अनुमान सटीक थे, लेकिन सीटों की संख्या का हिसाब सभी में गड़बड़ा गया था। राजस्थान में भाजपा को 162 और कांग्रेस को सिर्फ 21सीटें मिली। कहा जा रहा है चार राज्यों में भाजपा की लहर थी। चारों में से दो राज्यों-छत्तीसगढ़ और दिल्ली के परिणाम इसकी तथ्यात्मक पुष्टि नहीं करते। लेकिन राजस्थान की लहर का कोई भी सर्वेक्षण सटीक अनुमान नहीं लगा पाया, यह स्पष्ट है। इसके बावजूद चारों राज्यों (दिल्ली,मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान) के मतदान बाद के सर्वे चुनाव-नतीजों का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह बताने में काफी हद तक कामयाब रहे। संदेह नहीं मतदान पूर्व और पश्चात किए जाने वाले सर्वेक्षणों का एक वैज्ञानिक आधार है, जिन्हें अपने तय मापदंडों पर किया जाए तो वे नतीजों का पूर्वाभास देने में काफी हद तक सफल हो सकते हैं।
मिजोरम की उपेक्षा
मीडिया ने उत्तर-पूर्व में स्थित हमारे एक छोटे-से मगर खूबसूरत राज्य मिजोरम की चुनाव सर्वेक्षणों में जमकर उपेक्षा की। जैसे यह राज्य भारत का हिस्सा ही न हो। 4 दिसंबर की शाम को जब एग्जिट पोल सामने आए तो किसी में भी मिजोरम का जिक्र तक न था।
गौर करने वाली बात यह है कि मिजोरम के लोगों ने बाकी चारों राज्यों में सबसे ज्यादा (82 फीसदी) मतदान में हिस्सा लिया था। मिजोरम की 40 सीटों की विधानसभा के चुनाव भी इसी दौरान हुए थे और जिसके परिणाम भी आ चुके हैं।

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तहलका पर कालिख के छींटे

तहलका के रिपोर्टरों और पत्रकारों ने ये उपलब्धियां जिसके नेतृत्व में अर्जित की, उसी की मूर्ति खंडित हो गई। गोवा की घटना केवल एक सम्पादक-पत्रकार के पतन की घटना मात्र नहीं है, यह तहलका के पतन की भी घोषणा है। निश्चय ही मीडिया-जगत के लिए यह अफसोसजनक है।

अपनी शुरुआत से ही तहलका साहसी और तीखी पत्रकारिता के अपने संकल्प पर कायम रहा है। यह उन कुछ संस्थानों में से एक है, जो अपने मूल्यों से कभी समझाौता नहीं करते।'
ये शब्द फिल्मकार अभिनेता आमिर खान के हैं, जिनका इस्तेमाल तहलका संस्थान अपनी प्रचार सामग्री में अक्सर करता है, लेकिन अब ये शब्द बहुत अटपटे लगेंगे। गोवा की घटना ने तरुण तेजपाल के साथ ही तहलका की साख भी चौपट कर दी। इस घटना का एक दुखद और चिन्तनीय पहलू यह भी है कि जिस संस्थान ने देश की खोजी पत्रकारिता में एक नई जान फूंकी, वह आज शर्मनाक मोड़ पर आ खड़ा है। तरुण तेजपाल की हरकत ने अपने साथ ही संस्थान को भी गर्त में ला दिया। आप कह सकते हैं, तरुण तेजपाल अपने में कोई सम्पूर्ण संस्थान नहीं हैं और तहलका को बनाने में समर्पित पत्रकारों की एक पूरी टीम रही है। इसमें कोई दो राय नहीं, लेकिन संस्थान के सर्वोच्च शीर्ष पर बैठे व्यक्ति पर लगी कालिख के छींटों से कोई संस्थान कैसे बचा रह सकता है? तेजपाल तो तहलका के संस्थापक भी हैं और सम्पादक भी। उनकी हरकत से सम्पादक की गरिमा और पत्रकारिता का पेशा भी शर्मसार हुआ है।
महिलाओं के यौन-उत्पीडऩ की बढ़ती घटनाओं से लोग उद्वेलित हैं। निर्भया कांड ने सबको हिलाकर रख दिया था। अनुमान था कि इस घटना के बाद लोगों के आन्दोलन व आक्रोश से एक सामाजिक दबाव बनेगा और ऐसी घटनाओं में कमी आएगी। छेड़छाड़ और यौन-उत्पीडऩ के वाकिये कम होंगे। कम-से-कम कार्यस्थलों पर तो महिलाएं सुरक्षित रह सकेंगी, लेकिन जब जिम्मेदार और प्रबुद्ध कहे जाने वाले लोग ही अपने मातहतों के साथ ऐसा बर्ताव करेंगे, तो उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती। शायद इसीलिए सोशल मीडिया में तरुण तेजपाल पर लोगों का गुस्सा विस्फोटक बनकर सामने आया। गोवा की घटना भले ही तहलका के दफ्तर में नहीं घटी, लेकिन यह कार्यस्थल पर घटी घटना मानी जाएगी। गोवा में 8 से 10 नवम्बर को तहलका का सालाना कार्यक्रम 'थिंक' आयोजित था। पीडि़त पत्रकार अपनी ड्यूटी निभा रही थी। आयोजन में देश-विदेश की कई जानी-मानी हस्तियां आमंत्रित की गई थीं। इन मेहमानों की देखभाल की जिम्मेदारी तहलका स्टाफ पर थी। इसी दौरान तहलका के सम्पादक तरुण तेजपाल ने अपनी स्टाफ सदस्य के साथ दुराचार किया। लगातार दो बार। दो अलग-अलग दिनों में होटल की लिफ्ट के भीतर। पीडि़त पत्रकार ने इस घटनाक्रम का जो विवरण तहलका की प्रबंध सम्पादक शोमा चौधरी को लिखा उससे साफ है कि तरुण तेजपाल ने संस्थान में अपनी हैसियत का बेजा फायदा उठाते हुए अपनी बेटी की उम्र की मातहत कर्मचारी के साथ यौन-दुराचार किया।
यह स्पष्टत: सुप्रीम कोर्ट की विशाखा गाइड लाइन की धज्जियां उड़ाने वाली घटना थी। इस घटना ने मीडिया संस्थानों में कार्यरत व अन्य महिला कर्मियों में भी वरिष्ठ पुरुष कर्मियों के प्रति विश्वास को ठेस पहुंचाई है। कार्यालय में जिसकी संरक्षक की भूमिका थी, उसी ने भक्षक का रूप धारण कर लिया।
घटना से निपटने की जिस तरह 'आन्तरिक' कोशिश हुई, वह भी कम निराशाजनक नहीं। अभियुक्त ने माफी मांग ली और पश्चाताप स्वरूप छह माह के लिए स्वयं को पद से अलग भी कर लिया। वाह क्या न्याय है! कोई भी पीडि़ता इससे कैसे संतुष्ट हो सकती थी? यही वजह रही कि घटना सार्वजनिक हो गई और मामले पर तहलका प्रबंधन के परदा डालने के प्रयास बेनकाब हो गए। इस घटना से चुपचाप निपटने की कोशिश से जाहिर होता है कि महिला यौन-उत्पीडऩ के मामले किस तरह दबाये जाते हैं। पीडि़त पत्रकार अगर साहसी और सजग ना होती, तो लोगों को घटना की भनक तक नहीं पड़ती। यौन-उत्पीडऩ की ज्यादातर घटनाएं शायद इसी तरह दबा दी जाती हैं। दुर्भाग्य से अधिकतर महिलाएं भी साहस नहीं जुटा पातीं। सबसे स्याह पहलू यह है कि यह सब एक ऐसे मीडिया-संस्थान में घटित हुआ, जो न केवल महिला-अधिकारों की पैरवी करता रहा है, बल्कि उनके हर तरह के उत्पीडऩ के खिलाफ मजबूती से खड़ा नजर आता है। छत्तीसगढ़ में पुलिस हिरासत के दौरान सोनी सोरी के साथ रौंगटे खड़े कर देने वाली यौनिक यातनाओं का खुलासा पढ़कर हर कोई दंग रह गया था। आज वही तहलका स्त्री, वह भी एक सहकर्मी स्त्री के यौन-उत्पीडऩ के प्रति ऐसा ठंडा रवैया अख्तियार करता है, तो मायूसी होती है। निराश होने का कारण यह भी है कि तहलका के जिस प्रबंधन ने इसे आन्तरिक मामला बताया, उसकी कमान एक महिला के हाथ में है।
गोवा की घटना को कुछ देर के लिए तहलका का आन्तरिक मामला भी मान लें, तो क्या फर्क पड़ेगा? तहलका को नुकसान तो होना ही था। हालांकि तहलका के भीतर से कुछ प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं, जिनके अनुसार, तहलका पर कोई संकट नहीं है। तहलका के पत्रकार अपना काम कर रहे हैं। जिसने बुरा किया वही भुगतेगा भी। तहलका पर कोई आंच नहीं है। कई दूसरे लोगों का भी मानना है कि तरुण तेजपाल का मतलब 'तहलका' संस्थान नहीं है। तरुण तेजपाल के पश्चाताप का सन्देश स्टाफ कर्मियों में बंट चुका था। सभी स्टाफकर्मी इस पश्चाताप से संतुष्ट नहीं थे, यह बाद की घटनाओं से भी स्पष्ट हो गया।
तहलका के रिपोर्टरों ने कई उत्कृष्ट रिपोर्टें लिखीं। इन पर तहलका को कई पुरस्कार भी मिले। तहलका ने मीडिया की दुनिया में 'स्टिंग्स' को एक नया आयाम दिया। राजनीति से लेकर नौकरशाही, पुलिस-तंत्र और खेल-जगत में व्याप्त भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ किया। देश के रक्षा सौदे किस तरह रिश्वतखोरी पर टिके हैं, और भद्रजनों का खेल क्रिकेट मैच फिक्सिंग के जाल में किस हद तक फंस चुका है, यह सब तहलका ने बताया। तहलका के रिपोर्टरों और पत्रकारों ने ये उपलब्धियां जिसके नेतृत्व में अर्जित की, उसी की मूर्ति जब खंडित हो जाए, तो उनके पास ऐसी कौन-सी नैतिक शक्ति बचेगी कि वे संस्थान को ऊंचे पायदानों पर पहुंचाते जाएं। सचमुच गोवा की घटना केवल एक सम्पादक-पत्रकार के पतन की घटना मात्र नहीं है, यह तहलका के पतन की भी घोषणा है। निश्चय ही मीडिया-जगत के लिए यह अफसोसजनक और दुखद है। खासकर इसलिए भी कि 'पेड न्यूज', 'राडिया टेप' और 'जिन्दल जी न्यूज' जैसे प्रकरणों में मीडिया की विश्वसनीयता पहले से ही सवालों से घिरी हुई है।

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क्यों हो जनमत सर्वे पर रोक?

किसी राजनीतिक दल को लेकर जनता का एक समूह क्या विचार रखता है, उसको व्यक्त करने से रोकना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करना ही माना जाएगा। जनमत सर्वेक्षण एक रैण्डम पद्धति है। यह सारी दुनिया में 'सेफोलॉजी' के रूप में मान्य है।

  वर्ष 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ओपिनियन पोल्स (जनमत सर्वेक्षणों) पर रोक लगाना चाहती थी। बाकायदा अध्यादेश लाने की तैयारी हो चुकी थी। लेकिन अटार्नी जनरल सोली सोराबजी की राय के बाद सरकार ने अपना इरादा त्याग दिया। सोली सोराबजी ने जनमत सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध के खिलाफ राय व्यक्त की थी।
वर्ष 2009 में मनमोहन सिंह सरकार एग्जिट पोल के साथ ही ओपिनियन पोल पर भी प्रतिबंध लगाने की इच्छुक थी। लेकिन अटार्नी जनरल मिलन बनर्जी ने सरकार को सलाह दी कि अगर ओपिनियन पोल्स प्रतिबंधित किए गए तो सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर देगा। क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा। सीधे तौर पर यह संविधान की धारा 19 (1) ए का उल्लंघन माना जाएगा। इसके विपरीत वर्ष 2013 में अटार्नी जनरल जी.ई. वाहनवती ने केन्द्र सरकार को जनमत सर्वेक्षणों पर रोक लगाने की सलाह दी। चुनाव आयोग पहले से ही यह मांग करता रहा है। यूपीए सरकार को भी इस बार जनमत सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध अपने अनुकूल लग रहा है। लिहाजा चुनाव-पूर्व जनमत सर्वेक्षणों पर रोक को लेकर जी-तोड़ कवायद की जा रही है। इसी के चलते चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों से इस बारे में राय मांगी। मुख्यत: कांग्रेस प्रतिबंध के पक्ष में और भाजपा प्रतिबंध के खिलाफ है। कई अन्य छोटे दल तथा प्रादेशिक पार्टियां जनमत सर्वेक्षणों के पक्ष और खिलाफत में अपनी-अपनी राय व्यक्त कर चुकी हैं।
इसका मतलब यह नहीं है कि जो दल प्रतिबंध का समर्थन कर रहे हैं, वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ हैं। जो विरोध कर रहे हैं वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार हैं। दलों का समर्थन या विरोध राजनीतिक कारणों से है तथा अवसरवादिता के अलावा कुछ नहीं है। लेकिन यह मुद्दा केवल मीडिया के लिए ही नहीं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से सरोकार रखने वाली सभी संस्थाओं और व्यक्तियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस पर गंभीरता से चर्चा की जरूरत है। जो सवाल सीधे तौर पर उठते हैं, वे हैं—
क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में ओपिनियन पोल्स पर प्रतिबंध लगना चाहिए?
क्या जनमत सर्वेक्षण मतदाताओं की स्वतंत्र राय को प्रभावित करते हैं?
क्या जनमत सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध का मतलब सीधे तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक है?
पहली बात, जनमत सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध क्यों लगे? क्या दुनिया में किसी भी देश में जनमत सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध है? सिर्फ फ्रांस में चुनाव से24 घंटे पहले जनमत सर्वे पर रोक है। यदि वहां कोई मीडिया संस्थान सर्वे के निष्कर्ष प्रकाशित ही करना चाहता है तो उसे सर्वे के नमूने और आंकड़ों की विश्लेषण पद्धति का खुलासा करके इजाजत लेनी होती है। अलबत्ता, यह जरूर कह सकते हैं कि भारत जैसे विशाल और विविध दलीय देश में जनमत सर्वेक्षण अभी उतने सटीक नहीं है। लेकिन क्या इन्हें अपनी त्रुटियों से सीखकर निखरने, अधिक वैज्ञानिक और तार्किक होने का अवसर नहीं मिलना चाहिए?
दूसरी बात, क्या जनमत सर्वेक्षण सचमुच मतदाताओं की स्वतंत्र राय को प्रभावित करते हैं। व्यवहार में तो ऐसा नहीं देखा गया। बल्कि कई बार तो उल्टा ही देखा गया है। सबको मालूम है ,2004 में जब सारे जनमत सर्वेक्षण एन.डी.ए. सरकार की वापसी का संकेत कर रहे थे तब यू.पी.ए. की सरकार सत्ता में आई। शायद ही कोई सर्वे एजेन्सी ऐसी होगी, जिसका कोई भी निष्कर्ष हमेशा शत-प्रतिशत सही साबित हुआ है। साफ है, जिसको जिसे वोट देना है वह उसी को देगा। मतदाता कई कारणों को आधार बना कर मतदान करता है। उस पर अकेले सर्वे का असर नहीं पड़ता। थोड़ा बहुत पड़ता भी है तो इतना कम कि उससे मतदान परिणाम प्रभावित नहीं होता।
तीसरी बात, जनमत सर्वेक्षणों पर रोक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देखा जाना चाहिए या नहीं। क्यों नहीं। सोली सोराबजी और मिलन बनर्जी जैसे दिग्गज कानून विशेषज्ञों ने यूं ही सरकार को राय नहीं दी थी। 1999 में चुनाव आयोग ने कुछ दिशा-निर्देश तय करके जनमत सर्वे को प्रतिबंधित कर दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में मामला चला गया। कोर्ट ने कहा, आयोग को प्रतिबंध लगाने का हक नहीं। वह सिर्फ संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनावों पर नियंत्रण या देखरेख की शक्ति रखता है। किसी राजनीतिक दल को लेकर जनता का एक समूह क्या विचार रखता है, उसको व्यक्त करने से रोकना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करना ही माना जाएगा। तर्क दिया जाता है कि किसी क्षेत्र के लाखों लोग क्या सोचते हैं, यह सर्वेक्षणों में चंद लोगों की राय से कैसे जान सकते हैं। जनमत सर्वेक्षण एक रैण्डम पद्धति है। यह सारी दुनिया में 'सेफोलॉजी' के रूप में मान्य है। सभी देशों में इसी विधि से सर्वेक्षण किए जाते हैं। ऐसे में सर्वेक्षणों को प्रतिबंधित करना जनता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करना है।
महत्त्वपूर्ण बात यह कि क्या यह प्रतिबंध जनमत सर्वे तक ही सीमित रहेगा? इस बात की क्या गारण्टी कि अखबारों में छपने वाले चुनाव-विश्लेषण, रिपोर्टें, समीक्षाएं और सम्पादकीयों पर भी प्रतिबंध की गाज नहीं गिरेगी? जब बात मतदाताओं को प्रभावित करने की ही हो तो मीडिया पर प्रतिबंध की सूची में सबसे पहले आने का खतरा होगा। जिस दल या नेता के खिलाफ रिपोर्टिंग होगी, वही मीडिया के खिलाफ हो जाएगा और प्रतिबंध की मांग करेगा।
जनमत सर्वेक्षणों पर रोक का  मजबूत तर्क यह है 'पेड न्यूज' की तरह 'पेड ओपिनियन पोल' पर भी रोक लगनी चाहिए। जिस तरह 'पेड न्यूज' पर रोक का आशय 'न्यूज' पर रोक नहीं है, उसी तरह 'पेड ओपिनियन पोल' पर प्रतिबंध का आशय भी 'ओपिनियन पोल' पर प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। दोनों में फर्क जरूरी है। 'पेड ओपिनियन पोल' या स्पॉन्सर्ड ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध का शायद ही कोई विरोध करेगा। जनमत सर्वेक्षणों के सर्वमान्य मापदंड बनाए जा सकते हैं, जिनका पालन जरूरी हो, तो भी स्वीकार्य होगा। लेकिन स्वतंत्र 'ओपिनियन पोल' पर प्रतिबंध लगाना स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर रोक लगाने के समान ही खतरनाक साबित होगा।

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गांधी मैदान की 'लाइव' कवरेज

आयोजकों के कुशल प्रबंधन और देरी से ही सही सतर्क हुई पुलिस व्यवस्था के चलते धमाकों के बीच पटना रैली नियोजित ढंग से सम्पन्न हो गई। न्यूज चैनल वालों ने भी अपने को संयत कर लिया था। शुरुआती विचलन के बाद वे संभल गए थे। रिपोर्टरों और कैमरामैन ने बहुत शानदार तरीके से मोर्चा संभाला। वे दो टीमों में बंटकर दायित्व निभा रहे थे।

रविवार को जो भी टीवी न्यूज चैनल देख रहा था, हतप्रभ था। पटना के गांधी मैदान में लाखों लोग जमा थे। मंच से उद्घोषणाएं हो रही थीं। नरेन्द्र मोदी सहित भाजपा के बड़े नेताओं के पहुंचने का इंतजार था। वे साढ़े बारह बजे सभा-स्थल पर पहुंचेंगे। अभी आधा घंटा बाकी था। मैदान में भीड़ लगातार बढ़ रही थी। सुबह साढ़े नौ बजे पटना रेलवे स्टेशन पर दो धमाके हुए थे। उस वक्त रैली में आने वालों की विशेष रेलगाडिय़ां पटना स्टेशन पर पहुंच रही थीं। जबरदस्त भीड़-भड़क्का था। धमाके मामूली बताए गए। कोई जान-माल के नुकसान की खबर नहीं थी। स्टेशन पर किसी तरह की अफरा-तफरी की खबर भी नहीं थी। लेकिन चैनलों पर कयासबाजी शुरू हो चुकी थी। रैली की सुरक्षा को लेकर अटकलें लगाने और टिप्पणियां करने से टीवी एंकर बाज नहीं आ रहे थे। लग रहा था इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कहीं पटरी से उतर कर कुछ अनहोनी का बायस नहीं बन जाए। प्रशासन और सुरक्षा एजेन्सियों के लोग साफ कर रहे थे कि धमाके बहुत मामूली थे। एक अधिकारी ने डींग हांकी—रैली से इन धमाकों का कोई 'कनेक्शन' (सम्बन्ध) नहीं है। लाइव रिपोर्टिंग से ही मालूम चला कि धमाकों से बेखबर लोग गांधी मैदान में जुट रहे थे। लोगों के आने का सिलसिला थमा नहीं था। स्थानीय नेताओं की भाषणबाजी चल रही थी।
अचानक पौने बारह बजे मैदान के पूर्वी छोर पर एक धमाका हुआ। रेलवे स्टेशन के बाद मैदान के पास यह पहला धमाका था। फिर क्या था। टीवी चैनलों के कैमरों का रुख पलट गया। रैली की बजाय इस धमाके पर फोकस होने लगा। एकबारगी तो लगा, लाइव कवरेज कर रहा सारा मीडिया इधर ही न उमड़ पड़े और सभा कहीं उखड़ न पड़े। इसी बीच मैदान के दूसरे छोर पर एक और धमाका हुआ। मंच से फिर घोषणा हुई—कृपया पटाखे न फोड़ें। कवरेज बता रही थी कि स्थानीय नेताओं के भाषण सुन रहे लोग अविचलित डटे रहे। मानों सचमुच पटाखे ही फूट रहे हैं। सिलसिला शुरू हो गया था। एक के बाद एक धमाके। बीस मिनटों में कुल छह धमाके। किसी को पता नहीं, क्या हो रहा है। स्टूडियो में बैठी एक न्यूज चैनल की एंकर चीख रही थी। उसे कुछ समझ नहीं पड़ रहा था। कभी वह रिपोर्टर से पूछती, कभी खुद ही बड़बड़ाती। सचमुच हतप्रभ करने वाले क्षण थे वे।
लाइव रिपोर्टिंग में प्राय: ऐसा ही होता है। घटनाएं हमारे आंखों के सामने घटती हैं। जो दिखाई देता है, वही सच लगता है। लाखों लोगों की भीड़ एकत्रित थी। महज एक अफवाह या गलतफहमी पूरे परिदृश्य को बदल कर रख सकती थी। उस वक्त देश भर में अनेक लोग न्यूज चैनलों को देख रहे होंगे। धुएं का उठता गुबार। भागते-बचते लोग। कुछ लोग घायलों की मदद करते हुए भी। सुरक्षाकर्मियों की घेराबंदी। चीख-पुकार। अफरा-तफरी। मैदान के जिस हिस्से में घटना घटी, बस वहीं तक यह सब सीमित। शायद तब तक दूसरी तरफ  कैमरे गए न हों। मुख्य मैदान में जमी भीड़ को जैसे मालूम ही न हो, मैदान में सीरियल ब्लास्ट हो रहे हैं। ऐसा पहली बार था। टीवी देखने वाले कयास लगा रहे थे, रैली रद्द होगी या नहीं। मुख्य वक्ता भाषण देने आएं या न आएं। मगर मुख्य वक्ता आए। भाषण भी हुए। लोग सुनते रहे और बाद में शान्ति से लौट भी गए।
कह सकते हैं कि रैली के आयोजकों के कुशल प्रबंधन और देरी से ही सही सतर्क हुई पुलिस व्यवस्था के चलते धमाकों के बीच एक बड़ी रैली नियोजित ढंग से सम्पन्न हो गई। लेकिन इतना ही नहीं था। न्यूज चैनल वालों ने भी अपने को संयत कर लिया था। शुरुआती विचलन के बाद वे संभल गए थे। रिपोर्टरों और कैमरामैन ने बहुत शानदार तरीके से मोर्चा संभाला। वे दो टीमों में बंटकर दायित्व निभा रहे थे। एक टीम मुख्य मैदान में स्थित घटना से अनभिज्ञ भीड़ और मंच पर केन्द्रित रही। दूसरी टीम मैदान के सिरों पर डंटी रही। जहां घटना घटती, दौड़कर वहीं पहुंच जाते। वे जानकारियों को संतुलित ढंग से दर्शकों तक पहुंचा रहे थे। स्टूडियो में बैठे एंकरों के हवाई सवालों को दरकिनार भी कर रहे थे। बीच-बीच में धमाकों की असरहीनता भी बता रहे थे, इससे 'पेनिक' नहीं फैला। हालांकि धमाकों में छह लोग मारे गए। कई घायल हुए। मगर सूचनाओं के संतुलन ने लोगों के मिजाज को सामान्य बनाए रखने में खासी भूमिका निभाई। आधी-अधूरी जानकारियां ऐसे वक्त पर लोगों के मिजाज को कैसे गर्मा देती है, यह हम मुजफ्फरनगर के दंगों में देख चुके हैं। अभी कुछ दिन पहले मीडिया, खासकर हिन्दी चैनलों ने किले के नीचे गड़े खजाने को लेकर जैसा 'महाअभियान' चलाया था, उससे उनकी काफी फजीहत हुई थी। देश में ही नहीं विदेशी समाचार जगत में भी उनकी हंसी उड़ी थी। इस पृष्ठभूमि में पटना के गांधी मैदान की रिपोर्टिंग कुछ आश्वस्त करती नजर आई।
ऑनलाइन पत्रकारिता
गत 19 अक्टूबर को ऑनलाइन न्यूज एसोसिएशन (ओ.एन.एस.) की ओर से प्रतिवर्ष दिए जाने वाले ऑनलाइन पत्रकारिता पुरस्कारों की घोषणा की गई। इस अवसर पर ब्रिटेन के 'द गार्जियन' को ऑनलाइन पत्रकारिता के दो पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 'द गार्जियन' को रचनात्मक खोजी पत्रकारिता के लिए अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी की पूर्व खुफिया अधिकारी एडवर्ड स्नोडेन द्वारा लीक की गई जानकारियों को उजागर करने के लिए पुरस्कृत किया गया।  'द न्यूयार्क टाइम्स डाट कॉम' और 'द बोस्टन ग्लोब डाट काम' को भी पुरस्कारों के लिए चुना गया। न्यूयार्क टाइम्स अखबार को भी 'स्नोफाल' नामक फीचर रिपोर्टिंग के लिए चयनित किया गया। 'द बोस्टन ग्लोब' की वेबसाइट को ब्रेकिंग न्यूज श्रेणी में तथा अखबार को '68 ब्लाक्स' कार्यक्रम के लिए पुरस्कृत किया गया। 'वाशिंगटन पोस्ट' की 'एजरा क्लेन' तथा न्यूजीलैण्ड के 'स्टफ नेशन' को भी ऑनलाइन कमेन्टरी के लिए पुरस्कृत किया गया। रेडियो कनाडा को श्रोताओं से संवाद के एक कार्यक्रम के लिए पुरस्कृत किया गया।

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कैसे हो साफ-सुथरी राजनीति

राजा भैया केवल सपा की सरकार में ही मंत्री बने हों, ऐसी बात नहीं। भाजपा के कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के समय में भी वे मंत्रिमंडल में शामिल रहे हैं। बाहुबलियों का आसरा सभी दल प्राप्त करते रहे हैं। कोई प्रत्यक्ष तो कोई परोक्ष। इस मामले में सारे दलों में समानता है। यही पाखंड से भरी राजनीति कही जाएगी, जिसके चलते देश में शायद ही कभी साफ-सुथरी राजनीति की बात सोची जा सकती है।
 राजनीतिक सुधारों पर राजनीति ही किस तरह निर्लज्जता से प्रहार करती है, यह ज्वलन्त उदाहरण है। देश में आपराधिक रिकार्ड वाले नेताओं के खिलाफ एक वातावरण बन रहा था। केन्द्र सरकार विवादास्पद अध्यादेश वापस लेने को मजबूर हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को पलटने की राजनीतिक दलों की मंशा नाकाम रही थी। चुनाव आयोग ने मतदाताओं को 'नोटा' का विकल्प देकर एक शुरुआत कर दी थी। निष्कर्ष यह कि विभिन्न दलों और सरकारों पर दागियों-अपराधियों को लेकर थोड़ा नैतिक दबाव बन रहा था।
अचानक अखिलेश यादव की सरकार ने इसकी धज्जियां उड़ा दी— बाहुबली नेता राजा भैया को फिर मंत्री बना कर। गत शुक्रवार को लखनऊ के राज भवन में मंत्रिमंडल विस्तार का समारोह आयोजित हुआ। कई आपराधिक मामलों में लिप्त राजा भैया को राजभवन के गांधी सभागार में मंत्री-पद की शपथ दिलाई गई। वह भी अकेले। सिर्फ पांच मिनट में शपथ ग्रहण समारोह सम्पन्न हो गया। राजा भैया फिर से कैबिनेट मंत्री बन गए। समर्थकों ने जयघोष किया— 'राजा भैया जिन्दाबाद! जिन्दाबाद! जिन्दाबाद!!'
यू.पी. के निर्वाचन क्षेत्र कुंडा के निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह को आप जानते हों या नहीं, लेकिन राजा भैया का नाम बखूबी जानते होंगे। आप ही क्यों, उन्हें पूरा देश जानता है। अपने आपराधिक कारनामों से वे मीडिया में अक्सर सुर्खियों में रहते हैं। इस वर्ष मार्च में वे फिर सुर्खियों में आए। जब उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी जिया-उल-हक की पत्नी ने पति की हत्या का उन पर आरोप लगाया। उन्हें मंत्रिमंडल से हटा दिया गया। उनके खिलाफ सी.बी.आई. ने जांच की। जांच के बाद सी.बी.आई. ने उन्हें क्लीन चिट दे दी। हालांकि अदालत में अभी मामला लंबित है। पर रघुराज प्रतापसिंह उर्फ राजा भैया फिर कैबिनेट मंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए।
ध्यान देने की बात यह है कि राजा भैया न तो सत्तारूढ़ दल के विधायक हैं और न ही अखिलेश सरकार को सत्ता में रहने के लिए किसी निर्दलीय विधायक के समर्थन की वैधानिक आवश्यकता है। विधानसभा चुनाव में जनता ने युवा नेता अखिलेश को भरपूर समर्थन दिया था। इसलिए एक बाहुबली नेता को सरकार में शामिल करने की क्या मजबूरी थी, यह सवाल हर किसी के जेहन में था। हत्या के आरोप में इस्तीफा देने के बाद तो सरकार से हर कोई यही उम्मीद कर रहा था कि राजा भैया की मंत्रिमंडल में वापसी संभव नहीं होगी। आखिर कोई सरकार राह चलते बदनामी क्यों मोल ले? खासकर तब, जब देश भर में अपराधियों-दागियों के खिलाफ वातावरण बन रहा हो। लेकिन जिस तरह आनन-फानन में राजा भैया को मंत्रिमंडल में पुन: शामिल किया गया उससे साफ हो गया, उत्तर प्रदेश सरकार को न जनमत की परवाह है और न ही अदालत, चुनाव आयोग जैसी वैधानिक संस्थाओं की। आड़ ली गई सी.बी.आई. की। इस सरकारी संस्था ने राजा भैया को पुलिस अधिकारी की हत्या के आरोप से मुक्त कर दिया। इसलिए राजा भैया निष्कलंक और साफ-सुथरे हैं।
यह बिलकुल संभव है कि राजा भैया इस मामले में निर्दोष हों, लेकिन उनकी जो छवि है, उससे राज्य सरकार क्यों बावस्ता रहना चाहती है? खासकर तब, जबकि राजा भैया आठ अन्य आपराधिक मामलों में भी फंसे हुए हैं। और वे इनमें से किसी में भी दोषमुक्त नहीं हुए हैं। एक मामला तो खुद सी.बी.आई. ही देख रही है। मुद्दा यह नहीं है कि एक दागी और विवादास्पद व्यक्ति को मंत्री बनाया गया, महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे समय में बनाया गया, जब राजनीति में सफाई अभियान की कोशिशें शुरू हुई हैं। संवैधानिक संस्थाएं ही क्यों, राजनीतिक संस्थाएं भी इसके लिए प्रतिबद्ध होनी चाहिए। जिस व्यापक बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश की जनता ने समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंपी उससे तो राजनीतिक शुचिता के लिए उसकी जिम्मेदारी अधिक बढ़ जानी चाहिए थी। लेकिन अफसोस की बात है कि जब राहुल गांधी के बयान के बाद विवादास्पद विधेयक वापस लेने के कयास लगाये जा रहे थे तो सबसे पहले समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने ही विरोध किया। एक ऐसा राज्य जिसकी देश के प्रधानमंत्री के चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका मानी जाती है, उस राज्य के राजनीतिक कर्ता-धर्ताओं का यह रवैया दुर्भाग्यपूर्ण है। राजा भैया केवल समाजवादी पार्टी की सरकार में ही मंत्री बने हों, ऐसी बात नहीं। भाजपा के कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के समय में भी वे मंत्रिमंडल में शामिल रहे हैं। बाहुबलियों का आसरा सभी दल प्राप्त करते रहे हैं। कोई प्रत्यक्ष तो कोई परोक्ष। इस मामले में सारे दलों में समानता है। यही पाखंड से भरी राजनीति कही जाएगी, जिसके चलते देश में शायद ही कभी साफ-सुथरी राजनीति की बात सोची जा सकती है। तो क्या दागी, अपराधी, बाहुबली नेता जनता पर इसी तरह राज करते रहेंगे? मीडिया में सुर्खियां बनती रहेंगी?
मीडिया और विदेशी पूंजी
एक समय था जब मीडिया में विदेशी पूंजी निवेश को लेकर सख्त विरोध था। तर्क था कि समाचार-पत्र जनमत निर्मित करते हैं। विदेशी पूंजी निवेश से जनमत पर असर पड़ सकता है। इसलिए मीडिया को विदेशी पूंजी निवेश से दूर ही रखा जाए। लेकिन धीरे-धीरे यह विचार ढीला पड़ गया। पहले 26 फीसदी विदेशी पूंजी निवेश आया और अब 49 प्रतिशत की तैयारी शुरू कर दी गई है। भारत में अखबारों की प्रतिनिधि संस्था इंडियन न्यूज पेपर सोसाइटी ने गत दिनों सूचना प्रसारण मंत्रालय को एफ.डी.आई. संबंधी अपनी सहमति भेज दी है। इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर 49 प्रतिशत पर सहमति जताई गई है। यह सहमति केन्द्र सरकार की ओर से विदेशी निवेश की समीक्षा के लिए बनाई गई मायाराम समिति द्वारा मांगे गए सुझाावों पर दी गई। प्रस्ताव को अंतिम रूप देने की कार्रवाई चल रही है।
पत्रकार बने अभिनेता
मीडिया और फिल्म उद्योग के अन्तर्संबंधों की पोल खोलती एक लघु फिल्म में मीडिया कर्मियों ने ही विभिन्न किरदार निभाए हैं। आई.आई.एम.सी. के छात्र रह चुके मयंक सिंह फिल्म के निर्देशक हैं तथा पी.टी.आई., यू.एन.आई., दैनिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, पांचजन्य आदि से जुड़े युवा पत्रकारों ने भूमिकाएं अभिनीत की हैं। खास बात यह है कि 'जम के रखना कदम' नामक इस लघु फिल्म को हाल ही अन्तरराष्ट्रीय लघु फिल्म समारोह के लिए नामित किया गया है, जिसमें अन्य 12 देशों की 25 सर्वोत्तम लघु फिल्में चुनी गई हैं।

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दागी 'माननीयों' का बचाव

 







बड़ा सवाल यह है कि आखिर दागी नेताओं को बचाने की जरूरत क्या है? क्या इसलिए कि ऊपरी अदालत से निर्दोष साबित होने पर सांसदों-विधायकों को उनकी वंचित सदस्यता फिर से नहीं लौटाई जा सकती? सही है। जब तक ऊपरी अदालत का फैसला आएगा, उसकी पांच साल की सदस्यता अवधि खत्म हो चुकी होगी। पर यही अंत नहीं है। चुनाव में दुबारा जाने का अवसर थोड़े ही खत्म होगा।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटकर दागी नेताओं को बचाने की जिद पर क्या सरकार अड़ी रहेगी या राहुल गांधी के बयान के बाद अध्यादेश को वापस लेगी? या फिर विपक्ष के आगे झाुकते हुए विधेयक का रास्ता अपनाएगी अथवा थक-हार कर सर्वोच्च अदालत का फैसला मान लेगी?
इन सवालों के जवाब आने वाले दिनों में मिल जाएंगे, लेकिन दागी सांसदों-विधायकों को बचाने की सरकार की जुगत देश को इतनी भारी पड़ेगी कि नतीजे लम्बे समय तक भुगतने पड़ेंगे।
आम जन दागी नेताओं से छुटकारा पाना चाहता है। वह सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को एक बेहतरीन अवसर मानता है। राजनीति को साफ-सुथरी करने का सरकार को दुर्लभ मौका मिला था। अदालत के फैसले को पूरा देश सराह रहा था। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया पर लोगों की उम्मीदें परवान चढ़ी थी। लेकिन सरकार ने आंखों पर पट्टी बांध ली। सरकार ही क्यों, सारे राजनीतिक दल जनता की उम्मीदों पर पानी फेरने को तैयार थे। आखिरकार अदालत का फैसला पलट दिया गया। फैसला चाहे अध्यादेश से पलटे या विधेयक से- क्या फर्क पड़ता है। जनता की उम्मीदें तो दोनों से टूटेंगी।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला जस का तस मान लिया जाएगा, इसकी उम्मीद बिलकुल नहीं है। फैसला आने के बाद सरकार ने जो कवायदें की, वे गवाह हैं। सबसे पहले कानून की उन धाराओं को ही बदलने का निश्चय किया, जिनके तहत अदालत का फैसला आया। गौरतलब है, 10 जुलाई को अदालत ने दो फैसले किए थे। एक में कहा था कि जो जेल में बंद हैं, वे चुनाव नहीं लड़ सकते और न ही मतदान कर सकते हैं। दूसरे फैसले में कहा कि सांसद या विधायक को किसी आपराधिक मामले में दो साल से ज्यादा की सजा हो तो उसकी सदन से सदस्यता खत्म हो जाएग। जेल से चुनाव नहीं लडऩे की पाबंदी जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा 62(2) तथा सजायाफ्ता होने पर सदस्यता से वंचित करना धारा 8(4) से सम्बंधित हैं। राजनीतिक दलों को अदालत के ये दोनों फैसले मान्य नहीं थे। लिहाजा सरकार ने दोनों धाराओं को बदलकर लोकसभा में संशोधन विधेयक पेश कर दिया। इसमें सभी दलों की सहमति थी। विधेयक लोकसभा से पारित हो गया। लेकिन राज्यसभा में भाजपा और बीजद की कुछ आपत्तियों के चलते अटक गया। 'माननीयों' का बचाव करने में सरकार इतनी जल्दी में थी कि तुरत-फुरत अध्यादेश लेकर आ गई। इस बीच उसने एक कोशिश और की और अदालत में पुनर्विचार याचिका का दांव आजमाया। सर्वोच्च अदालत ने यह याचिका भी खारिज कर दी। विधेयक अब भी राज्यसभा के पटल पर है। एक बार पटल पर रखे जाने के बाद वह सदन की सम्पत्ति बन जाता है। इसके बावजूद सरकार ने न्यायपालिका के बाद विधायिका की भी सर्वोपरिता की अनदेखी करते हुए कार्यपालिका का आसरा लिया और अध्यादेश पेश कर दिया। यह अध्यादेश राष्ट्रपति की मुहर के बाद कानून बन जाएगा। फिलहाल तो राष्ट्रपति ने इस पर सवाल-जवाब करके सरकार को मुश्किल में डाल दिया। रही-सही कसर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पूरी कर दी। सरकार की हालत सांप-छछूंदर जैसी है। न उगलते बन रहा है, न निगलते। हो सकता है वह कोई बेहतर फैसला ले, लेकिन इस पूरी कवायद में उसकी भारी किरकिरी हो चुकी है।
बड़ा सवाल यह है कि आखिर दागी नेताओं को बचाने की जरूरत क्या है? क्या इसलिए कि ऊपरी अदालत से निर्दोष साबित होने पर सांसदों-विधायकों को उनकी वंचित सदस्यता फिर से नहीं लौटाई जा सकती? सही है। जब तक ऊपरी अदालत का फैसला आएगा, उसकी पांच साल की सदस्यता अवधि खत्म हो चुकी होगी। पर यही अंत नहीं है। चुनाव में दुबारा जाने का अवसर थोड़े ही खत्म होगा। बल्कि बेदाग होकर दुबारा चुने जाने के अवसर ज्यादा मजबूत होंगे—ज्यादा जन-समर्थन के साथ। अदालतों के दो फैसलों के परिणाम भिन्न हो सकते हैं। वे अभियुक्त के अनुकूल भी जा सकते हैं और प्रतिकूल भी। न्यायिक प्रक्रिया की यह स्वाभाविक प्रकृति है, जो देश के प्रत्येक नागरिक पर लागू होती है। तो फिर माननीय सांसदों-विधायकों पर क्यों नहीं? यही वो सवाल है जिसका जवाब आम जन राजनीतिक दलों से जानना चाहता है। जो चुनकर भेजता है वही जब कानून के समक्ष समान है तो जो चुनकर जाता है उसे खास दर्जा क्यों? वह भी आपराधिक मामलों में? दागी नेताओं को बचाने की एक आड़ और ली जाती है। वह यह कि नेताओं को राजनीतिक कारणों से झाूठे मामलों में फंसा लिया जाता है। इसलिए उनके लिए कानूनी सुरक्षा-कवच जरूरी है। कौन फंसाता है नेताओं को? पुलिस? अफसर? आम आदमी? अक्सर नेताओं पर मामले उनके प्रतिद्वंद्वी ही प्रत्यक्ष या परोक्षत: दर्ज कराते देखे गए हैं। यह राजनीति की भीतरी बुराई है। इसका दोष दूसरों पर क्यों मढ़ा जाए? अगर दागियों को बचाने की कोशिशें यूं ही चलती रही, तो राजनीति कभी साफ-सुथरी नहीं हो सकती। बगैर साफ-सुथरी राजनीति के लोकतंत्र मजबूत नहीं रह सकता। जिसकी आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी जैसी बुराइयों से उबरने के लिए सख्त जरूरत है।
'इमोशनल' बनाम 'आइडियोलॉजिकल'
लालू यादव को चारा घोटाले में जेल भेजा गया है, लेकिन लगता है राजनेता कोई सबक नहीं सीख रहे हैं। राजद के एक नेता लालू की गिरफ्तारी के तुरन्त बाद टीवी पर बयान दे रहे थे, 'लालू और मजबूत होंगे, फिर चुनाव जीतेंगे। बिहार में उनके लाखों 'इमोशनल सपोर्टर्स' हैं। वे कोई 'आइडियोलॉजिकल सपोर्टर्स' नहीं हैं कि जेल जाने पर लालू का समर्थन बंद कर देंगे, बल्कि जेल जाने पर लालू के साथ उनकी सहानुभूति पैदा होगी और वे लालू का साथ ज्यादा मजबूती से देंगे। देख लेना।'
राजनेता गण जन भावनाओं को समझाने में गलती कर रहे हैं या जमीनी हकीकत बयान कर रहे हैं, इसका फैसला पाठक ही बेहतर कर सकते हैं।
मीडिया को ऐतराज
दिल्ली की रैली में नरेन्द्र मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री को 'देहाती औरत' बताने पर नवाज शरीफ के साथ ही उस भारतीय पत्रकार को भी घसीट लिया, जो वार्ता में शामिल थी। हालांकि उस पत्रकार ने प्रधानमंत्री को अपमानित करने के वाकिये का खंडन किया, लेकिन मोदी की टिप्पणी को 'ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन' ने आपत्तिजनक माना है। पत्रकार पर मोदी के बयान को मीडिया के खिलाफ बताया और कहा कि ऐसे बयानों का उद्देश्य भारतीय मीडिया को बदनाम करना है, जो लोकतंत्र की एक मुख्य संस्था है। बी.इ.ए. ने कहा, भारतीय मीडिया अपनी जिम्मेदारी और आचरण को बखूबी समझता है। मोदी ने पूरे तथ्य जाने बगैर ही पत्रकार पर टिप्पणी कर दी।

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असली और नकली वीडियो

किसी पुराने वीडियो या फोटो को नई घटना से जोड़कर अपलोड कर देना और फोटो तकनीक के जरिए फर्जी दृश्य गढ़ देना, ये तरीके भ्रम पैदा करते हैं। यह बहुत खतरनाक है। इससे बचने के उपाय जरूरी है। कानूनी उपाय पर्याप्त नहीं हैं। तकनीकी और वैज्ञानिक तरीकों की ज्यादा जरूरत है। हमें ऐसे तरीके खोजने होंगे जो आम जन को आगाह कर सके।

जैसे-जैसे सोशल मीडिया ताकतवर बनता जा रहा है, इसके दुरुपयोग की घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं। इसमें शब्द और चित्र दोनों रूप शामिल हैं। चूंकि चित्र ज्यादा असरकारी हैं, इसलिए ज्यादा दुरुपयोग भी चित्रों का ही किया जा रहा है। यह दो तरह से देखने में आता है। पहला, किसी पुराने वीडियो या फोटो को नई घटना से जोड़कर अपलोड कर देना और दूसरा, फोटो तकनीक के जरिए फर्जी दृश्य गढ़ देना। ये दोनों तरीके भ्रम पैदा करते हैं। शरारती व असामाजिक तत्त्व मौका देखकर इनका दुरुपयोग कर डालते हैं।
गत दिनों मुजफ्फरनगर के दंगों को भड़काने में एक ऐसे ही फर्जी वीडियो की अहम भूमिका मानी जा रही है। वीडियो में दो लड़कों की कुछ लोग हत्या करते हुए दिखाए गए थे। कट्टरपंथी तत्त्वों ने इस वीडियो को मुजफ्फरनगर के कंवल गांव की उस घटना से जोड़कर यू-ट्यूब पर अपलोड कर दिया, जहां झागड़े की शुरुआत हुई थी। जाहिर है, यह वीडियो एक समुदाय के लोगों को भड़काने के उद्देश्य से अपलोड किया गया था। बाद में पूरे जिले में हिंसा फैल गई, लोग मारे गए। वहां हिंसा के और भी कारण रहे होंगे, लेकिन जातीय तनाव और परस्पर नफरत पैदा करने में इस वीडियो की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। हकीकत यह थी कि यह वीडियो कंवल गांव का था ही नहीं। यह वीडियो तो दो वर्ष पहले पाकिस्तान में बनाया गया था, जिसमें आतंकियों द्वारा दो लड़कों को नृशंसतापूर्वक मारा जा रहा था। कंवल गांव की घटना शरारती तत्त्वों के लिए एक अवसर बन गई, जिन्होंने इस वीडियो का जमकर दुरुपयोग किया। तकनीकी तौर पर वीडियो असली था, लेकिन संदर्भ बदलकर प्रचारित करने से यह फर्जी ही कहा जाएगा।
इसी दौरान फेसबुक पर उप्र के एक लोकप्रिय हिन्दी अखबार की चार कॉलम में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित खबर अपलोड की गई। खबर का शीर्षक था— 'दंगाइयों को गोली मारने के आदेश'। लेकिन शरारती तत्त्वों ने फोटोशॉप की मदद से शीर्षक बदलकर उसे अत्यन्त भड़काऊ बना दिया। कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने नफरत फैलाने वाली इस फर्जी खबर की पोल खोली और अखबार की असली कटिंग चस्पां की।
इसी तरह एक फर्जी फोटो का इस्तेमाल असम में भड़की हिंसा तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोगों का देश के विभिन्न हिस्सों से पलायन के दौरान किया गया था। शुरुआत पड़ोसी देश म्यांमार में भड़की जातीय हिंसा से हुई, जिसमें अनेक लोग मारे गए थे। इसे फेसबुक पर बयान करते हुए एक फोटो अपलोड की गई। फोटो में एक स्थान पर कई शव दिखाए गए थे। इन्हें म्यांमार में हिंसा में मारे गए एक समुदाय के लोगों के शव बताया गया था। जबकि यह फोटो म्यांमार की न होकर इंडोनेशिया की थी। फोटो में जो शव जातीय हिंसा में मारे गए लोगों के बताए गए थे, दरअसल वे समुद्री तूफान 'सुनामी' में मारे गए लोगों के थे। यह फोटो अंतरराष्ट्रीय फोटो एजेन्सी एपी द्वारा सन् २००४ में जारी की गई थी, जो कई अखबारों में छपी थी। फोटो में मारे गए लोगों के शव समुद्र किनारे बहकर आए एक ढेर के रूप में पड़े थे, जो इस प्राकृतिक आपदा की विभीषिका को बयान कर रहे थे। कट्टरपंथियों ने इसे म्यांमार की हिंसा से जोड़ कर प्रचारित किया। फोटो असली थी, लेकिन इस्तेमाल 'नकली' था।
अभी उत्तर प्रदेश के एक हिन्दी अखबार की खबर की चर्चा की गई। शीर्षक बदलकर उसका दुरुपयोग किया गया। ठीक ऐसे ही गत दिनों कुछ फोटो और वीडियो फुटेज का इस्तेमाल करके फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन का फेक वीडियो 'यू-ट्यूब' पर डाल दिया गया। अमिताभ वीडियो में नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री के तौर पर पैरवी करते हुए बताए गए थे। खुद अमिताभ के तीखे विरोध के बाद राजकोट का एक व्यक्ति सामने आया और उसने अभिनेता से माफी मांगी। इस व्यक्ति का कहना था कि उसने यह वीडियो सिर्फ अपलोड किया था, बनाया नहीं। जाहिर है, तकनीक का इस्तेमाल करते हुए किसी ने तो यह वीडियो बनाया ही था। 'फेक वीडियो' के शिकार तो रूस के प्रधानमंत्री ब्लादीमिर पुतिन भी हो चुके। वर्ष 2010 में उन्हें 'यू ट्यूब' पर अपलोड की गई एक वीडियो फिल्म में सलाखों के पीछे बंदी के रूप में दिखाया गया था। जबकि हकीकत में यह वीडियो रूस के एक बड़े तेल व्यापारी मिखाइल खोदोर्कोवस्की के मुकदमे की सुनवाई का था। वीडियो में सलाखों के पीछे खड़े खोदोर्कोवस्की को हटाकर पुतिन के वीडियो फुटेज इस तरह से चस्पां कर दिए थे कि असली जैसे दिखें। इस वीडियो को रूस में सिर्फ ३ दिन में ही तीस लाख लोगों ने देखा।
जाहिर है, भ्रमित करने, अफवाहें फैलाने, परस्पर नफरत पैदा करने, हिंसा भड़काने के लिए कट्टरपंथी ताकतें और असामाजिक तत्त्व सोशल मीडिया का दुरुपयोग कर रहे हैं। यह बहुत खतरनाक है। इससे बचने के उपाय जरूरी है। कानूनी उपाय पर्याप्त नहीं हैं। तकनीकी और वैज्ञानिक तरीकों की ज्यादा जरूरत है। हमें ऐसे तरीके खोजने होंगे जो आम जन को आगाह कर सके ताकि वे असली और नकली का भेद समझा सकें।
दामिनी दुष्कर्म के दंश
आज के हिंसा और तनाव के दौर में मीडिया से हर कोई यही अपेक्षा करेगा कि उसकी रिपोर्टिंग राहत प्रदान करे। इसके विपरीत दामिनी दुष्कर्म कांड पर न्यायालय के फैसले के बाद मीडिया रिपोर्टिंग ने निराश ही किया। खासकर, अंग्रेजी अखबारों ने मुकदमे की जो विस्तृत रिपोर्टिंग की उसने एक बार फिर 16 दिसम्बर की उस क्रूर घटना के घाव हरे कर दिए। पीडि़ता के मृत्यु पूर्व बयान, चिकित्सकों की रिपोर्ट, वकीलों के तर्क-वितर्क और फैसले में माननीय न्यायाधीश की टिप्पणियों को प्रमुखता से प्रकाशित किया गया। इन खबरों में बताया गया कि बस के भीतर किस तरह युवती से नृशंसतापूर्वक दुष्कर्म किया गया। कैसे वहशी होकर अभियुक्त युवती पर टूट पड़े थे। कैसे लोहे की छड़ उसके अंगों में घुसेड़ी गई। कैसे उसे जगह-जगह से दांतों से काटा गया और कैसे संवेदनशील अंगों को निकाल बाहर किया गया। यह सारा विवरण न केवल जुगुप्सा (घृणा) पैदा करता है, बल्कि पाठक को तनावग्रस्त भी कर देता है। अंग्रेजी के लगभग सभी प्रमुख अखबारों ने यह किया। क्या ऐसा 'विस्तृत वर्णन' जरूरी था?
भूल सुधार
प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया गलती सभी से होती है। गलती सुधार ली जाए, यही उचित है। खासकर जब गलती तथ्यात्मक हो, लेकिन पिछले दिनों बी.बी.सी. ने भूल करके भी नहीं सुधारी। 10 सितंबर को उसने एक बिजनेस रिपोर्ट दिखाई। इसमें एक महिला उद्यमी की सफलता की कहानी थी कि कैसे उसने अपने देश में ऑटो रिपेयरिंग क्षेत्र में पुरुषों के एकाधिकार को तोड़ा। एंकर ने उस उद्यमी को बांग्लादेशी बताते हुए पूरा बखान कर डाला, जबकि वह अफ्रीकी देश सेनेगल की थी।

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पत्रकारों पर बढ़ते हमले


मौजूदा दौर में पत्रकारिता-कर्म दिनोंदिन मुश्किल बनता जा रहा है।  पत्रकारों पर हमले की घटनाएं बढ़ रही हैं। दरअसल, मीडिया और पत्रकारों पर हमला वही करते हैं या फिर करवाते हैं जो बुराइयों में डूबे हुए हैं। ऐसे लोग दोहरा चरित्र जीते हैं। ऊपर से सफेदपोश और भीतर से काले-कलुषित। किसी भी घटना से कोई सबक सीखा गया हो, देखने में नहीं आया।
राष्ट्रीय न्यूज चैनल का संवाददाता घायल अवस्था में आप बीती बता रहा था। उस पर आसाराम के समर्थकों ने हमला बोल दिया था। शरीर पर जगह-जगह चोटों के निशान थे। हमलावरों ने कैमरामैन व उसके साथी को भी घायल कर दिया था। कैमरामैन खून से लथपथ था। सिर पर गहरा घाव हुआ था। न्यूज चैनल टीम सदस्यों पर हमला तब हुआ, जब वे जोधपुर के पाल गांव में आसाराम के आश्रम के बाहर रिपोर्टिंग कर रहे थे। आई.बी.एन.-7 के संवाददाता भवानी सिंह एबीपी न्यूज को बता रहे थे—अचानक आश्रम के भीतर से कुछ लोग आए और उन्होंने हम पर हमला बोल दिया। हमें लातों, घूंसों, डंडों से पीटा गया। वे बहुत उग्र थे। यह तो शुक्र था कि आसपास रहने वाले ग्रामीणों ने हमें बचा लिया, वरना हमारी जान भी जा सकती थी। भवानी सिंह ने ग्रामीणों का शुक्रिया करते हुए उनमें से कुछ को कैमरे के सामने भी पेश किया। कैमरे के सामने ही घायल मीडिया कर्मियों को जिसने भी देखा, उसने इस पेशे के मुश्किल हालात पर जरूर सोचा होगा। एक दिन पहले ही भोपाल में भी आसाराम के समर्थकों ने हमला किया था। उन्हें पत्रकारों पर हमला करके मोटर साइकिल से भागते हुए देखा गया था।
मौजूदा दौर में पत्रकारिता-कर्म दिनोंदिन मुश्किल बनता जा रहा है। जैसे-जैसे समाज में पाखंड, अत्याचार, भ्रष्टाचार, दुराचार और अपराध बढ़ रहा है, पत्रकारों पर हमले की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। दरअसल, मीडिया और पत्रकारों पर हमला वही करते हैं या फिर करवाते हैं जो इन बुराइयों में डूबे हुए हैं। ऐसे लोग दोहरा चरित्र जीते हैं। ऊपर से सफेदपोश और भीतर से काले-कलुषित। इनके धन-बल, सत्ता-बल और कथित सफल-जीवन से आम जनता चकित रहती है। वह इन्हें सिर-माथे पर बिठा लेती है। लेकिन मीडिया जब इनकी पोल खोलने लगता है तो ये बौखला जाते हैं और उन पर हमले करवाते हैं। पुलिस और शासन-तंत्र इन्हीं का साथ देते हैं। बल्कि कई बार तो मिले हुए भी नजर आते हैं। दिखावे के तौर पर जरूर मामले दर्ज कर लिये जाते हैं, लेकिन होता-हवाता कुछ नहीं। पिछले कई दिनों से आसाराम को लेकर खबरें चल रही थीं। उन पर नाबालिग लड़की के यौन शोषण के गंभीर आरोप लगे थे। इसलिए मीडिया वाले उनके इर्द-गिर्द मंडरा रहे थे। इधर उनके समर्थक लगातार उग्र होते जा रहे थे। भोपाल और इंदौर में वे मीडिया कर्मियों पर हमला कर चुके थे। आसाराम गिरफ्तार कर जोधपुर लाये जाने वाले थे। उनके आश्रम में सैकड़ों समर्थक इक_े होते जा रहे थे। ऐसे में जोधपुर पुलिस ने सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त क्यों नहीं किए? जिस वक्त मीडिया कर्मियों पर हमला हुआ, पुलिस का कोई अधिकारी वहां क्यों नहीं था? क्यों घटना के तीन घंटे बाद पुलिस हरकत में आई? ऐसे कई सवाल मीडिया कर्मियों पर हर हमलों के बाद उठते रहे हैं। लेकिन किसी भी घटना से कोई सबक सीखा गया हो, देखने में नहीं आया। साफ है पत्रकारों पर हमलों के लिए सिर्फ हमलावर ही नहीं, शासन-तंत्र भी कम जिम्मेदार नहीं है।
ये हालात चिन्ताजनक हैं। खासकर, इसलिए कि पत्रकारों की सुरक्षा के मामले में भारत विश्व के देशों में निरंतर पिछड़ता जा रहा है। दुनिया में मीडिया और पत्रकारों की सुरक्षा पर नजर रखने वाली ब्रिटेन की संस्था आई.एन.एस.आई. (इंटरनेशनल न्यूज सैफ्टी इंस्टीट्यूट) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार सूची में सबसे खराब पांच देशों में भारत पत्रकारों के लिए 'दूसरा सबसे खतरनाक' देश है। पहले नंबर पर सीरिया है। इस संस्था ने  इस वर्ष की प्रथम छमाही आंकड़े जारी किए थे। इसके अनुसार भारत में जनवरी से जून माह तक 6 पत्रकार मारे गए। सीरिया में इस दौरान 8, पाकिस्तान में 5, सोमालिया में 4 और ब्राजील में 3 पत्रकारों की हमलों में मौत हो चुकी है। गौरतलब है कि ये दो माह पुराने आंकड़े हैं। अगर इसमें उत्तर प्रदेश में पिछले दो माह में हुई ४ पत्रकारों की हत्याओं को भी जोड़ दें तो संभवत: भारत सीरिया से भी आगे निकल जाएगा। इटावा जिले में राकेश शर्मा और बुलंदशहर जिले में जकाउल्ला तथा पिछले माह बांदा जिले में शशांक शुक्ला और लखनऊ जिले में लेखराम भारती— ये चार पत्रकार मारे जा चुके हैं। पुलिस अभी तक किसी भी हमलावर को गिरफ्तार नहीं कर पाई है।
स्पष्ट है, पिछले आठ माह में ही देश में 10 पत्रकार विभिन्न हमलों में मारे जा चुके हैं। पिछले वर्ष मध्यप्रदेश के पत्रकार चन्द्रिका रॉय की परिवार सहित हत्या कर दी गई थी। पत्नी सहित उनके दो मासूम बच्चों को मौत की नींद में सुला दिया गया था। मुम्बई के खोजी पत्रकार ज्योतिर्मय डे (जेडी) की हत्या को भी भूला नहीं जा सकता, जो महाराष्ट्र के अंडरवल्र्ड सरगनाओं की सच्चाइयों को उजागर कर रहे थे। मारपीट और कैमरा तोडऩे की तो सैकड़ों घटनाएं हैं। गत वर्ष जोधपुर में ही भंवरी देवी अपहरण कांड के दौरान महिपाल मदेरणा के समर्थकों ने पत्रकारों पर हमला बोल दिया था। छत्तीसगढ़ में पत्रिका के रायगढ़ ब्यूरो प्रमुख प्रवीण त्रिपाठी पर भी पार्षद के लोगों ने जानलेवा हमला किया था। पत्रकारों से मारपीट, अपहरण और हत्याओं की पृष्ठभूमि का एक मात्र सबब यही है कि मीडिया की आवाज को दबाया जाए। निश्चय ही पत्रकार मुश्किल हालात में काम कर रहे हैं। शासन-तंत्र पत्रकारों की सुरक्षा करने में नाकाम रहा है।
फिर संवेदनहीनता!
पत्रकारों में हेकड़ी और संवेदनहीनता की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। टीवी पत्रकारों में यह खासतौर पर देखी जा रही हैं। उत्तराखंड में बाढ़ के दौरान कई घटनाएं सामने आई थीं। एक टीवी संवाददाता तो भरे पानी में बाढ़ पीडि़त एक कमजोर ग्रामीण के कंधे पर बैठकर रिपोर्टिंग करते देखा गया था। ताजा घटना दीपिका कुमारी से जुड़ी है। दीपिका ने तीरन्दाजी में भारत का नाम रोशन किया है। वे गत दिनों पोलैण्ड में सम्पन्न हुए विश्व-कप में स्वर्ण पदक जीतकर स्वदेश लौटी थीं। दीपिका से इंटरव्यू करने के लिए सारे चैनल वाले उन पर मानो टूट पड़े थे। दीपिका ने उनसे गुजारिश की कि सब एक साथ उनसे इंटरव्यू कर लें। क्योंकि वे लगातार अभ्यास, यात्रा की थकान और सो न सकने के कारण सबको अलग-अलग इंटरव्यू देने में असमर्थ हैं। लेकिन संवाददाता अड़ गए। कुछेक तो बाकायदा दीपिका पर तंज कसने लगे, जिसका सार यह था कि स्वर्ण पदक जीतते ही दीपिका आसमान में उडऩे लगी है। संवाददाताओं के कठोर बोल और तानों से आहत दीपिका कुमारी सबके सामने ही रो पड़ीं। लेकिन खबर के भूखे संवाददाताओं पर कोई असर नहीं था। क्या देश का गौरव बढ़ाने वाली एक खिलाड़ी का हम मीडिया वाले इस तरह से स्वागत करते हैं! 30 अगस्त के अंक में 'हिन्दू' ने इस पूरी घटना का विवरण प्रकाशित किया और बिलखती हुई दीपिका कुमारी का फोटो भी, जो पीटीआई ने जारी किया था। इस विवरण को पढ़कर हर कोई यही कहेगा—संवेदनहीन मीडिया!!

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जो आलोचना करेगा...

कँवल भारती की  फेसबुक पर प्रतिक्रियाएं यूपी सरकार को बुरी तरह खटक रही थी। उन्हें गिरफ्तार कर थाने में बिठा दिया गया। हमारी चुनी हुई सरकारें किस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट रही हैं ये हम महाराष्ट्र में अशोक राव चव्हाण और प. बंगाल में ममता बनर्जी की सरकारों में भी देख चुके हैं। यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे बढ़ती ही
जा रही है। 

फेसबुक पर मंत्री की आलोचना करके गिरफ्तारी झोल चुके दलित लेखक कँवल भारती पर अब उत्तर प्रदेश सरकार ने सूचना तकनीक कानून की धारा ६६-ए के तहत भी मुकदमा दर्ज किया है। फेसबुक पर टिप्पणी के बाद लेखक पर दो मुकदमे पहले ही दर्ज किए जा चुके थे। इस घटना की सोशल मीडिया में कड़ी निन्दा हो रही थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य सरकार को नोटिस देकर चार सप्ताह में जवाब देने को कहा है। लेखक संगठन भी भारती की गिरफ्तारी और
उन पर जबरन दर्ज मुकदमों की भत्र्सना कर रहे थे। इन सबके बीच उम्मीद तो यह थी कि राज्य सरकार शर्मिन्दा होगी और मुकदमे वापस ले लेगी। लेकिन सरकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलते हुए बेशर्मीपूर्वक भारती पर एक और मुकदमा जड़ दिया। मानो सरकार सबकी अनसुनी करते हुए लेखकों को यह सबक सिखाने पर आमादा हो— 'सावधान! जो हमारे मंत्रियों की आलोचना करेगा, उसके साथ यही सलूक होगा।' सत्ता के नशे में चूर सरकार से और उम्मीद ही क्या की जा सकती है। दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के नाम पर शासन में आई अखिलेश यादव की सरकार का एक दलित लेखक के साथ यह सलूक उसके तानाशाही चेहरे की बखिया उधेडऩे के लिए काफी है।
कँवल भारती एक प्रतिष्ठित लेखक हैं। उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। उत्तर प्रदेश सहित देश के कई विश्वविद्यालयों में उनकी पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं। हां, यह जरूर है कि वे उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार के आलोचक हैं। अपनी बात को वे अपने लेखों और फेसबुक पर प्रतिक्रिया व्यक्त करके दर्ज कराते रहे हैं। इस बार जब उन्होंने दुर्गाशक्ति नागपाल के मामले में अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की तो सरकार की भृकुटी तन गई। आप जानते हैं देश-भर में व्यापक प्रतिरोध के बावजूद दुर्गाशक्ति के मामले में राज्य सरकार टस से मस नहीं हुई। यह बात भी जग-जाहिर है कि दुर्गाशक्ति उत्तर प्रदेश में शक्तिशाली रेत माफिया की आंखों में खटक रही थी और राज्य सरकार ने साम्प्रदायिक सौहार्द बिगडऩे की आड़ लेकर उसे अपने रास्ते से हटा दिया था। कमोवेश यही कहानी लेखक कँवल भारती के मामले में दोहराई गई। कँवल भारती ने फेसबुक पर दुर्गाशक्ति के निलम्बन की आलोचना करते हुए रामपुर में हुई ऐसी ही एक कथित घटना से तुलना की थी।
भारती की प्रतिक्रिया थी कि रामपुर में भी प्रशासन ने एक प्राचीन मदरसा गिरा दिया, लेकिन सरकार ने किसी अधिकारी को निलम्बित नहीं किया। क्योंकि यहां (रामपुर में) आजम खान का राज है और उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। कँवल भारती की प्रतिक्रिया का यही वास्तविक आशय है। भारती ने यह भी लिखा—अखिलेश यादव की सरकार उत्तर प्रदेश में दुर्गाशक्ति नागपाल और आरक्षण के मामले में पूरी तरह नाकाम रही है। उत्तर प्रदेश में दरअसल चार मुख्यमंत्री हैं—अखिलेश यादव, शिवपाल सिंह यादव, आजम खान और मुलायम सिंह। राज्य में अपराधियों का बोलबाला है। जनता सरकार को कोस रही है, लेकिन ये लोग सत्ता के नशे में चूर हैं।
भारती की ये प्रतिक्रियाएं सरकार को बुरी तरह खटक रही थी। लिहाजा आड़ ली गई, वही साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाडऩे की। आनन-फानन में भारती को गिरफ्तार कर थाने में बिठा दिया गया। उन पर धारा 153-ए तथा 295-ए के तहत मुकदमे ठोंक दिए गए। भारती को संकीर्ण राजनीति के नजरिए से नहीं देखा जा सकता। उन्होंने 'कांशीराम के दो चेहरे' पुस्तक तब लिखी थी, जब उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी। वे दलित अतिवाद का भी विरोध करते रहे हैं। भारती की गिरफ्तारी और उन पर मुकदमों की चौतरफा निन्दा हुई। अभी अखिलेश सरकार को सुप्रीम कोर्ट के नोटिस का जवाब भी देना है। लेकिन हठधर्मिता देखिए। एक कदम आगे जाकर सरकार ने भारती पर हाल ही आई.टी. एक्ट के तहत भी एक मुकदमा और जड़ दिया।
 सारी कार्रवाई का उद्देश्य स्पष्ट है— लेखक को इस हद तक प्रताडि़त करना कि वह सरकार की आईन्दा आलोचना करना भूल जाए। तो यह है एक चुनी हुई सरकार का असली चेहरा, जिसका नेतृत्व एक युवा मुख्यमंत्री के हाथ में है। क्या अखिलेश यादव प्रतिरोध की हर आवाज को कुचल डालना चाहते हैं? दुर्गाशक्ति के मामले में साफ है कि कहीं कोई साम्प्रदायिक तनाव नहीं हुआ था।। हालात स्पष्ट थे कि न ही कोई ऐसी आशंका थी। दुर्गाशक्ति उन राजनेताओं की आंखों में भी खटक रही थी, जिनके हित रेत-माफियाओं से जुड़े थे।
कँवल भारती का मामला भी दीगर नहीं है। वे सरकार के कड़े आलोचक हैं। अपनी अभिव्यक्ति वे लिखकर व्यक्त करते हैं। उनका यह अधिकार संविधान-प्रदत्त है। लेकिन सरकार ने उनके इस अधिकार को साम्प्रदायिक रंग देकर कुचल दिया। यह तो दुर्गाशक्ति के मामले से भी जघन्य है। भारती के इस अधिकार को कुचलना यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कुचलना है। इसकी इजाजत किसी चुनी हुई सरकार को नहीं दी जा सकती। लेकिन हमारी चुनी हुई सरकारें किस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट रही हैं ये हम महाराष्ट्र में अशोक राव चव्हाण और प. बंगाल में ममता बनर्जी की सरकारों में भी देख चुके हैं। यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ में भी हम इसकी बानगियां देख चुके हैं। सरकारें असहमति के स्वरों को बेदर्दी से कुचलती जा रही है। न केवल सोशल मीडिया बल्कि संपूर्ण मीडिया-जगत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में भरोसा रखने वालों के लिए यह चिन्ताजनक है।
कैदी बनेंगे पत्रकार
एक तरफ सरकारें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात कर रही हैं। दूसरी ओर तिहाड़ जेल के कैदियों की रचनाधर्मिता और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए उन्हें पत्रकार बनाने की तैयारी की जा रही है। तिहाड़ जेल के कैदी जल्दी ही एक मासिक समाचार पत्रिका का संपादन करेंगे, जो जेल प्रशासन की ओर से निकाला जाएगा। इस पत्रिका के लिए रिपोर्टिंग, प्रूफ रीडिंग और ग्राफिक्स डिजायनिंग आदि सारे कार्य कैदी ही करेंगे। तिहाड़ जेल की महानिदेशक विमला मेहरा के अनुसार इस समाचार पत्रिका का प्रकाशन अगले माह शुरू कर दिया जाएगा। पहले एडिटोरियल बोर्ड का गठन होगा, जिसमें पढ़े-लिखे कैदियों को शामिल किया जाएगा। ये बुद्धिजीवी कैदी ही सम्पादकीय टीम का गठन करेंगे। पत्रिका के प्रकाशन की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। कहा जा रहा है कि अब तिहाड़ जेल के कैदी न केवल अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति को स्वर देंगे, बल्कि अपनी पीड़ा को पत्रकारिता के माध्यम से जेल अधिकारियों तक बेबाकी से पहुंचाएंगे भी। चलो, कहीं तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चिन्ता की गई।

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मीडिया से क्यों नाराज

यह शोचनीय स्थिति है—मीडिया के लिए भी और नेताओं के लिए भी, जो बिना सोचे-समझो कुछ भी बोल देते हैं। राजनेता बयान तो दे देते हैं, लेकिन जब विरोध होता है तो पलट जाते हैं या यह कहते हैं 'मेरा यह मतलब नहीं था।' इसलिए कहा जाता है, सोच-समझाकर बोलिए। सार्वजनिक जीवन में रहने वालों पर यह बात ज्यादा शिद्दत से लागू होती है।

वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह मीडिया से खफा हैं। क्योंकि सांसद मीनाक्षी नटराजन के बारे में उनके बयान को मीडिया ने गलत परिभाषित किया। दिग्विजय सिंह ही क्यों, कांग्रेस प्रवक्ता राज बब्बर, सांसद रशीद मसूद, केन्द्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला आदि राजनेता भी मीडिया से खफा होंगे, जिसने उनके सस्ते भोजन सम्बंधी बयानों को गलत परिभाषित किया। भले इन नेताओं ने दिग्विजय सिंह की तरह मीडिया पर प्रत्यक्षत: कोई दोष नहीं मंढा, मगर यह हकीकत है कि मीडिया के व्यापक विश्लेषण के चलते इन नेताओं को अपने बयानों पर खेद जताना पड़ा। रशीद मसूद अड़े रहे। इसके बावजूद कि वे दिल्ली में 5 रु. में खाना उपलब्ध होने का अपना दावा साबित नहीं कर सके। अलबत्ता, मीडिया ने पूरी दिल्ली में घूम-घूमकर यह जरूर साबित कर दिया कि भरपेट भोजन का भाव क्या है। दिग्विजय सिंह की जबान फिसल गई, लेकिन वे मानने को तैयार नहीं कि उनसे गलती हो गई। उल्टे मीडिया को ही शब्दों और मुहावरों का पाठ पढ़ा रहे हैं। दिग्विजय सिंह ने कहा, 'मीडिया टीआरपी की अंधी दौड़ में भाग रहा है। किसी व्यक्ति की प्रशंसा में इस्तेमाल किए गए एक प्रचलित मुहावरे पर भी मीडिया ने सेक्स का लेबल चस्पां कर दिया। यह बहुत शोचनीय है।'
सचमुच यह शोचनीय स्थिति है—मीडिया के लिए भी और नेताओं के लिए भी, जो बिना सोचे-समझो कुछ भी बोल देते हैं। दो राय नहीं कि मीडिया अंधी दौड़ में भाग रहा है और उसने दिग्विजय सिंह के 'सौ टंच माल' के बयान को जिस तरह लपक कर लिया इससे उसकी नीयत का खुलासा हुआ। लेकिन दिग्विजय सिंह जी! आपने भी क्या कह दिया। माना आपने बुरी नीयत से नहीं कहा। जिसके लिए कहा उसने (सांसद) भी बुरा नहीं माना। लेकिन क्या सचमुच आपने एक प्रचलित मुहावरे का इस्तेमाल किया? 'सौ टंच माल!' क्या आप जैसे वरिष्ठ राजनेता को यह जानकारी नहीं कि असली मुहावरा 'सौ टंच खरा' है न कि 'सौ टंच माल।' आप वाले 'मुहावरे' का एक स्त्री के संदर्भ में इस्तेमाल करने के क्या मायने हैं। ऐसा तो बम्बइया फिल्में करती हैं, जिसे बोलचाल में 'टपोरी' भाषा कहते हैं। आप 'सौ टंच खरा सोना' कहना चाहते होंगे। बाद में आपके बयानों से भी यह स्पष्ट हुआ। तो आप यही बोलते। जो शब्द आप बोलते हैं, उसके मायने भी वही निकाले जाएंगे, जो वास्तव में हैं। अगर आप कहते हैं पांच रु. में भरपेट भोजन। तो लोग आपसे 5 रु. में भरपेट भोजन मांगेंगे। आप गरीबों का मजाक नहीं उड़ा सकते। राजनेता बयान तो दे देते हैं, लेकिन जब विरोध होता है तो पलट जाते हैं या यह कहते हैं 'मेरा यह मतलब नहीं था।' राजबब्बर और फारुख अब्दुल्ला ने यही किया। भाजपा सांसद चंदन मित्रा ने भी अमत्र्य सेन के बारे दिए बयान के बाद यही किया। इसलिए कहा जाता है, सोच-समझकर बोलिए। सार्वजनिक जीवन में रहने वालों पर यह बात ज्यादा शिद्दत से लागू होती है।
फिर वही घोड़े, वही मैदान
हम मीडिया वालों को यह शिकायत रहती है कि जब तक कोई मामला मीडिया की सुर्खियों में रहता है, उस पर
कार्यवाही का नाटक चलता है। जांच कमेटी बिठाई जाती है। बयान होते हैं। मामला जैसे ही ठंडा पड़ा, गाड़ी पुराने ढर्रे पर लौट आती है। दोषी अफसर या नेता अपनी कुर्सी फिर संभाल लेता है।
मीडिया में भी अपवाद नहीं। हाल ही में उस न्यूज चैनल ने अपने उस रिपोर्टर को चुपचाप वापस काम पर ले लिया, जिसे गुवाहाटी यौन उत्पीडऩ की घटना के बाद हटा दिया गया था। आपको याद होगा, गत वर्ष गुवाहाटी में एक किशोरी अपने दोस्तों के साथ जन्मदिन की पार्टी के बाद रेस्तरां से लौट रही थी। कुछ लोगों ने अचानक उन्हें घेर लिया। इन लोगों ने युवाओं से बर्बरता की। किशोरी के कपड़े फाड़ डाले। स्थानीय न्यूज चैनल ने इस घटना की रिकार्डिंग प्रसारित की। बाद में राष्ट्रीय चैनलों ने भी दिखाया। देशभर में यह घटना यू-ट्यूब के माध्यम से चर्चा का विषय बनी। खूब निन्दा हुई। इस घटना में चैनल न्यूज लाइव के एक रिपोर्टर का नाम सामने आया। सामाजिक कार्यकर्ता अखिल गोगोई ने आरोप लगाया था कि इस रिपोर्टर ने एक्सक्लूसिव वीडियो शूट करने के लिए भीड़ को उकसाया, जिसके परिणामस्वरूप लड़की को बेइज्जत किया गया। हालांकि ऐसी घटनाओं में रिपोर्टर से ज्यादा चैनल दोषी होते हैं, जो टी.आर.पी. के लिए रिपोर्टरों पर दबाव बनाते हैं। लेकिन उस वक्त चौतरफा निन्दा के चलते चैनल ने रिपोर्टर को हटा दिया और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बी.इ.ए.) ने भी मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की। साल भर बाद मामला ठंडा पड़ गया और चैनल ने आरोपी रिपोर्टर को फिर काम पर रख लिया। मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के अनुसार- 'बी.इ.ए. ने अपना नाम चमकाने और न्यूज चैनल को लोगों के गुस्से से दूर रखने के अलावा किसी दूसरे उद्देश्य से इस कमेटी का गठन नहीं किया था। यह बात अब लगभग साल भर बाद स्पष्ट हो गई है।'
फेसबुक बनाम रिपलन
ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग का इस्तेमाल दुनिया में करोड़ों लोग करते हैं। लोकप्रियता के मामले में आज इनके सामने कोई दूसरी नेटवर्किंग साइट नहीं है। लेकिन 'रिपलन' का दावा है कि वह शीघ्र ही फेसबुक व ट्विटर जैसी साइट्स को पछाडऩे वाली है।
'रिपलन' की लांचिंग अमरीका के लॉस वेगास में 4 अगस्त को होने जा रही है। इंटरनेट मीडिया तकनीक के विशेषज्ञ क्रिस थॉमस के अनुसार इस साइट की खासियत यह है कि यह एक ओर फेसबुक की सभी सुविधाएं उपलब्ध कराएगी, वहीं 'एमेजोन' की तरह यूजर्स को सभी ब्रांडेड कंपनियों से भी जोड़े रखेगी। इस साइट की मदद से ऑनलाइन बिलों का भुगतान भी हो सकेगा। कंपनी का दावा तो यहां तक है कि इसके लांच होते ही विश्व के मीडिया का स्वरूप ही बदल जाएगा। 'रिपलन' ही नहीं, हरेक कंपनी लांचिंग से पहले बड़े-बड़े दावे करती ही है, उन्हें पूरा कितना कर पाती है, यह बाद में ही पता चलता है।

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साइबर, सिनेमा और मीडिया

साइबर अश्लील साहित्य पर रोक लगाने को लेकर सुझाव मांगे गए हैं। बच्चों के लिए तो ऐसा तंत्र बनाना ही होगा, जो उन्हें ऐसे अश्लील साहित्य से रोक सके। कुछ देश ऐसा कर भी रहे हैं। लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि इस समस्या का समग्र समाधान होना चाहिए। केवल साइबर साहित्य पर रोक लगाकर बच्चों व युवाओं को 'पथभ्रष्ट' होने से नहीं रोका जा सकता।

देश के प्रमुख अखबारों में राज्य सभा सचिवालय की ओर से एक विज्ञापन छपा है। इसमें साइबर अश्लील साहित्य पर रोक लगाने सम्बन्धी एक याचिका पर लोगों के लिखित सुझाव व टिप्पणियां आदि आमंत्रित की गई हैं। राज्य सभा सांसद भगत सिंह कोश्यारी की अध्यक्षता में गठित समिति इस याचिका पर विचार कर रही है।
जैनाचार्य विजयरत्नासुन्दर सुरिजी और राज्य सभा सांसद विजय दर्डा की याचिका में कहा गया है कि भारत की दो-तिहाई जनसंख्या 35 वर्ष से कम आयु वाले व्यक्तियों की है। हमारी जनसंख्या का यह बड़ा हिस्सा, जो हमारे राष्ट्र की भविष्य की आशा है, वह साइबर अश्लील साहित्य के माध्यम से पथभ्रष्ट, विकृत और भ्रमित हो रहा है। याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि साइबर अश्लील साहित्य से किशोरों यहां तक कि वयस्कों पर भी अत्यन्त दुष्प्रभाव पड़ रहा है, जिससे मानसिक-शारीरिक प्रकृति की कई प्रकार की समस्याएं, यौन रोग, लैंगिक विकृतियां इत्यादि उत्पन्न हो रही हैं। इससे बच्चों के यौन शोषण के मामलों में भी वृद्धि हो रही है। आजकल कम्प्यूटर और टेलीविजन के अतिरिक्त मोबाइल फोन भी किशोरों के लिए इस प्रकार की अश्लील साइट्स देखने का एक आसान जरिया बन गए हैं। लिहाजा इन पर रोक लगाने के कदम उठाए जाएं।
याचिका में आई.टी. यानी सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम-2000 में संशोधन करने का आग्रह किया है ताकि कम्प्यूटर/मोबाइल पर अश्लील साहित्य को देखना एक ऐसा अपराध बनाया जा सके जिसके लिए ऐसी साइट्स के निर्माताओं, वितरकों और उसे देखने वालों के लिए कड़ी सजा का उपबंध हो।
इस याचिका का आशय स्पष्ट है, परन्तु निहित उद्देश्य अस्पष्ट है। इसमें साइबर साहित्य से बच्चों व युवाओं पर पडऩे वाले कुप्रभावों पर जो चिन्ता जाहिर की गई है वह एकांगी और अपूर्ण है। इसलिए बड़ा सवाल यह है कि याचिका से क्या हासिल होगा। मान लें राज्य सभा की याचिका समिति ने साइबर अश्लील साहित्य पर रोक लगाने की अनुशंसा कर दी तो क्या केन्द्र सरकार रोक लगा पाएगी? और मान लें कि केन्द्र सरकार ने रोक लगा दी तो क्या अकेले साइबर साहित्य पर रोक पर्याप्त होगी? अगर अश्लील साहित्य देश में किसी भी माध्यम से सुलभ है तो कोई उससे कैसे बच सकता है। सिनेमा, टीवी और मीडिया भी मौजूदा दौर में अश्लीलता के लिए काफी हद तक जिम्मेदार ठहराए जा रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि इनकी पोर्न साइट्स से तुलना नहीं की जा सकती। लेकिन बच्चों और किशोरों के कच्चे मन पर कई बार इनके कुप्रभाव भी सामने आए हैं। देश में इनकी पहुंच साइबर संसार से ज्यादा व्यापक है। ये माध्यम अलग-अलग कानून और आचार-संहिताओं के दायरे में आते हैं। ऐसे में अकेले सूचना प्रौद्योगिकी कानून-2000 में संशोधन से क्या होगा।
हाल ही में12 जुलाई को केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पोर्न साइट्स को लेकर जो दलील दी है उससे तो साफ है कि वह इन पर रोक लगाने में सक्षम ही नहीं है। इससे पहले सरकार ने 13 जून को जिन 39 वेबसाइट्स को प्रतिबंधित किया था वे ही नहीं रोकी जा सकी तो ऐसी सैकड़ों साइट्स को सरकार कैसे रोक पाएगी। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में बाकायदा शपथ-पत्र पेश कर कहा कि सभी विदेशी पोर्न साइट्स पर रोक लगाना संभव नहीं है, क्योंकि इन पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। ये ज्यादातर अमरीका या अन्य देशों से संचालित होती हैं। अमरीकी साइट्स 18 यूएससी 2257 के तहत संचालित है। इसका मतलब यह नहीं कि अश्लील साइट्स पर रोक नहीं लगानी चाहिए। खासकर, बच्चों के लिए तो ऐसा तंत्र बनाना ही होगा, जो उन्हें रोक सके। कुछ देश ऐसा कर भी रहे हैं। लेकिन महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इस समस्या का समग्र समाधान होना चाहिए। केवल साइबर साहित्य पर रोक लगाकर बच्चों व युवाओं को 'पथभ्रष्ट' होने से नहीं रोका जा सकता।
बर्दाश्त नहीं आलोचना
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं—मीडिया की तो कतई नहीं। आपको याद होगा कार्टून मसले पर दो प्रोफेसरों की गिरफ्तारी की जब देश भर के मीडिया में आलोचना हुई तो उन्होंने धमकी दे डाली कि पश्चिम बंगाल में वे सरकारी टीवी चैनल चालू करेंगी। फिर उन्होंने अखबारों पर गुस्सा निकाला। उन्होंने प. बंगाल के सभी सरकारी तथा सरकार की मदद से चलने वाले पुस्तकालयों में उन अखबारों पर रोक लगा दी, जो उनकी आलोचना करते थे। इन पुस्तकालयों को सिर्फ वे अखबार ही खरीदने की छूट है, जिनके नाम सरकार ने तय कर रखे हैं। इनमें हिन्दी का एक भी अखबार नहीं है। तेरह अखबारों की सरकारी सूची में ज्यादातर उन अल्पज्ञात अखबारों के नाम हैं जो 'दीदी' के गुणगान के लिए जाने जाते हैं।
पिछले साल जब सरकार का यह फैसला आया तो अधिवक्ता वासवी रायचौधरी ने हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर सरकार के फैसले को अनैतिक और द्वेषपूर्ण बताया। उन्होंने इस फैसले को खारिज करने की मांग की, जिस पर गत दिनों सुनवाई करते हुए कोलकाता हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के आदेश को संशोधित करने का आदेश दिया है। हाईकोर्ट ने कहा है कि लोकप्रिय और बहु-प्रसारित अखबारों को पुस्तकालयों में रखने की निषेधाज्ञा को तुरन्त खत्म कर दिया जाए। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को 17 जुलाई तक का समय दिया है। और साथ ही चेताया भी है कि अगर सरकार ऐसा स्वयं नहीं करती तो हाईकोर्ट की ओर से समुचित व्यवस्था की जाएगी।
अब देखना है कि सरकार अपना अडिय़ल रवैया छोड़कर बाकी अखबारों के पढऩे के पाठकों के अधिकार की बहाली करती है कि नहीं।
विज्ञापन बनाम खबर
विज्ञापन के बदले खबर छापने या प्रसारित करने के आरोप मीडिया पर अक्सर लगाए जाते हैं। यह उदाहरण रंगे हाथ पकड़े जाने का है। लखनऊ के एक हिन्दी दैनिक ने चार कॉलम में खबर छापी— 'डीएवी कैंट एरिया के छात्रों ने लहराया परचम'। कई छात्रों के फोटो भी थे। खबर के बीच में रंगीन बॉक्स में लिखा— 'डीएवी स्कूल अपना विज्ञापनदाता है। इस कारण कृपया इस खबर को रंगीन पेज पर सभी फोटो के साथ जगह देने की कोशिश करें...' दरअसल, ये पंक्तियां किसी सीनियर द्वारा दिया गया ऐहतियाती निर्देश था, जो कंपोज होकर हूबहू अखबार में छपा गया और पाठकों के हाथ में भी पहुंच गया।

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संवेदनहीन मीडिया!

उत्तराखंड में विभीषिका के दौरान टीवी चैनलों की रिपोर्टिंग के दृश्य एक तटस्थ दर्शक के मन में करुणा कम खीझ ज्यादा पैदा करते थे। पर यह तो कहना ही होगा कि मीडिया की रिपोर्टिंग ने सोई हुई सरकार को जगाया।  वरना पीडि़तों के लिए जितना-कुछ हुआ, वह भी शायद नहीं हो पाता। लापता लोगों की खोज-में मीडिया की भूमिका सरकार से ज्यादा नजर आती है।


उत्तराखंड में बाढ़ की विभीषिका के दौरान मीडिया कवरेज, खासकर टीवी चैनलों की रिपोर्टिंग को लेकर काफी आलोचनाएं हुईं। जिस वक्त सबसे ज्यादा आवश्यकता पीडि़तों की जान बचाना थी, उस वक्त टीवी रिपोर्टर कैमरामैन के साथ उन हेलीकॉप्टरों से जा पहुंचे, जो पीडि़तों की मदद के लिए गए थे। हेलीकॉप्टर बहुत कम थे और पीडि़त बहुत ज्यादा। हेलीकॉप्टर की एक-एक सीट बेशकीमती थी। इतनी जितना कि जीवन। मानव जीवन से ज्यादा तरजीह मीडिया रिपोर्टिंग को नहीं दी जा सकती। लेकिन रिपोर्टरों की संवेदनहीनता देखिए, रुंआसे, बदहवास लोगों से हेलीकॉप्टर में ही 'इंटरव्यू' किये जा रहे थे। हेलीकॉप्टर से बाहर भी उनका रवैया यही था। जान के लाले पड़े थे और रिपोर्टर माइक लेकर पीडि़तों के सामने सवालों की झाड़ी लगा रहे थे। अपनी रिपोर्टिंग को ज्यादा से ज्यादा भावनात्मक 'टच' देने की जुगत में वे एक-दूसरे को पछाडऩे में जुटे थे। मीलों पैदल चल कर आ रहे और दर्द से कराहते बुजुर्ग हों या रोती-बिलखती महिलाएं, यहां तक कि मासूम बच्चे भी—सभी के सामने रिपोर्टर का माइक अचानक प्रलय की तरह प्रकट हो जाता था। ऐसे दृश्य एक तटस्थ दर्शक के मन में करुणा कम खीझा ज्यादा पैदा करते थे।
राष्ट्रीय कहे जाने वाले चैनलों का यह हाल था, तो दूसरे चैनल कहां पीछे रहते! वे भी 'सबसे पहले' की होड़ में लगे थे। शिकार हुआ एक सामान्य रिपोर्टर। बेचारे नारायण वरगाही को बड़ी आलोचना झोलनी पड़ी। न्यूज एक्सप्रेस चैनल का यह संवाददाता एक बाढ़ पीडि़त ग्रामीण के कंधे पर ही जा चढ़ा और बाढ़ में डूबे गांव का आंखों देखा हाल बयान करने लगा। किसी ने इसकी रिकॉर्डिंग तुरंत फेसबुक पर डाल दी। सोशल मीडिया में रिपोर्टर व चैनल की जबरदस्त निन्दा हुई। चैनल ने रिकॉर्डिंग प्रसारित तो नहीं की, लेकिन रिपोर्टर की नौकरी जरूर छीन ली। वरगाही और उन बड़े चैनलों के रिपोर्टरों में कोई खास फर्क नहीं था, जिन्होंने पीडि़तों का हक मारकर हेलीकॉप्टरों में यात्राएं कीं।
मीडिया विशेषज्ञों का मानना है कि दरअसल, मीडिया के पास ऐसी भीषण आपदाओं की कवरेज के लिए कोई मानक कार्य-प्रणाली नहीं थी, जिसके चलते शुरू में उत्तराखंड की रिपोर्टिंग में अफरा-तफरी दिखाई दी। भविष्य में ऐसी गलतियां न दोहराई जाएं, इसके लिए न्यूज चैनलों के संपादकों की संस्था बी.ई.ए. (ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन) ने पांच सदस्यों की एक समिति गठित की है। यह समिति इस तरह की घटनाओं की कवरेज के लिए एक एस.ओ.पी. (स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) तैयार करेगी, जो न सिर्फ रिपोर्टरों के लिए, बल्कि डेस्क पर काम करने वालों के लिए भी दिशा-निर्देश का काम करेगी। एस.ओ.पी. में यह बताया जाएगा कि पीडि़तों को देखते ही उन पर टूट न पड़ें और न ही पीडि़तों की नुमाइश लगाई जाए। जरूरत पडऩे पर उनकी मदद भी की जाए।
बी.ई.ए. ने यह समिति वरिष्ठ पत्रकार कमर वहीद नकवी की अध्यक्षता में गठित की है। इस समिति में 'टाइम्स नाउ' के मुख्य संपादक अर्णब गोस्वामी, इंडिया टीवी के प्रबंध संपादक विनोद कापड़ी, 'सी.एन.एन.-आई.बी.एन' के प्रबंधक संपादक विनय तिवारी तथा 'आज तक' की प्रबंध संपादक सुप्रिया प्रसाद शामिल किए गए हैं। जिस उद्देश्य को लेकर यह एस.ओ.पी. तैयार की जा रही है, उसमें शायद ही किसी को संदेह हो, लेकिन सवाल यह है कि इसका पालन कौन करेगा। एक-दूसरे को पछाडऩे की टीवी चैनलों की अंधी होड़ में बी.ई.ए. के दिशा-निर्देश कितने टिक पाएंगे इसमें संदेह है। बी.ई.ए. के दिशा-निर्देशों का अक्सर न्यूज चैनल उल्लंघन करते रहे हैं। लेकिन कुछ नहीं होता। सवाल यह भी है कि मीडिया-कर्मियों से जिस संवेदनशीलता की उम्मीद आचरण और व्यवहार में की जाती हो, उसके लिए एस.ओ.पी. की क्या जरूरत है। यह तो अलिखित और स्वत: स्फूर्त होनी चाहिए। अगर इसके लिए भी समिति की जरूरत पड़े तो पत्रकारिता-कर्म पर ही सवाल उठ खड़े होंगे। बहरहाल, यह कहना ही होगा कि मीडिया की दिन-रात की रिपोर्टिंग ने सोई हुई सरकार को जगाया। वरना पीडि़तों के लिए 15 दिन गुजरने के बाद भी जितना-कुछ हुआ, वह शायद नहीं हो पाता। बिछुड़े हुए पीडि़तों को परिजनों से मिलवाने और लापता लोगों की खोज-खबर में आज भी सरकार से ज्यादा मीडिया की भूमिका नजर आती है।
न खंडन न मंडन
उत्तराखंड में फंसे 15 हजार गुजरातियों को नरेन्द्र मोदी द्वारा बचा कर घर भेजने की खबर पर काफी बवेला मचा था। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अनभिज्ञता जाहिर की कि यह खबर मीडिया में आई कहां से। यानी उन्होंने इसे मीडिया की गढ़ी हुई खबर बताकर ठंडे पानी के छींटे डालने की कोशिश की। लेकिन मीडिया ने उनकी यह कोशिश कामयाब नहीं होने दी। 'हिन्दू' ने अपने पहले पन्ने पर स्टोरी प्रकाशित की जिसमें उसने 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के पत्रकार आनंद सूंडास का इंटरव्यू लिया था। आनंद सूंडास ने दावा किया कि 15 हजार गुजरातियों को बचाने का समाचार हल्दवानी में भाजपा प्रवक्ता अनिल बलूनी ने किया था। जिस वक्त भाजपा प्रवक्ता से बातचीत की गई उस दौरान उत्तराखंड भाजपा के अध्यक्ष तीरथसिंह रावत भी मौजूद थे। यह खबर सबसे पहले 23 जून को 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में प्रकाशित हुई। बाद में यह खबर सभी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने प्रकाशित व प्रसारित की। दो दिन में 15 हजार लोगों को बचाकर उन्हें घर पहुंचाने का समाचार जिसने भी सुना उसे विश्वास नहीं हुआ। क्योंकि जिन परिस्थितियों में लोग फंसे थे, उन्हें केवल हेलीकॉप्टर से ही लाया जा सकता था। और मोदी अपने साथ सिर्फ 4 हेलीकॉप्टर लेकर गए थे। 'हिन्दू' की खबर का पार्टी ने अभी तक न तो खंडन किया है और न ही समर्थन।
मनमानी तो नहीं!
हाल ही में जांच के दौरान मानकों पर खरे नहीं पाए जाने पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने 61 टीवी चैनलों के लाइसेंस रद्द कर दिए। ये कौन से टीवी चैनल हैं तथा इन चैनलों ने किन मानकों का उल्लंघन किया, यह स्पष्ट नहीं किया गया है। चैनलों की जिस तरह बाढ़ आई हुई है, उसमें मानकों का उल्लंघन आश्चर्यजनक नहीं। लेकिन जांच के नाम पर सरकारी अफसरों की मनमानी भी नहीं चलनी चाहिए।
सरकार को यह देखने की जरूरत है कि जिन चैनलों के लाइसेंस रद्द किए गए उनमें क्या खामियां थीं। छोटी-मोटी कमियां बताकर उन्हें फिजूल तंग तो नहीं किया जा रहा था। आखिरकार यह अभिव्यक्ति का क्षेत्र है, कोई फैक्ट्री-कारखाना नहीं। गौरतलब है, 61 टीवी चैनलों के लाइसेंस रद्द होने के बाद अब भी 816 चैनल काम कर रहे हैं, इनमें से 398 समाचार चैनल हैं।

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आर.टी.आई से डर क्यों?

 दूसरों से पारदर्शिता की अपेक्षा करने वाले हमारे राजनीतिक दल खुद पारदर्शी नहीं होना चाहते। यही वजह है कि केन्द्रीय सूचना आयोग के फैसले के बाद राजनीतिक दलों में खलबली मची हुई है। जिस संसद ने देश को सूचना का अधिकार दिया, उसी संसद में बैठने वाले और उनके दल सारे मतभेद भुलाकर एक राय हैं कि राजनीतिक दल इस कानून के दायरे में नहीं आते।

अगर आप अपनी आमदनी और खर्च लोगों से छिपाते हैं तो तय मानिए आप कुछ न कुछ गड़बड़ी कर रहे हैं। खासकर, तब जब आप सार्वजनिक जीवन में कार्य कर रहे हों। यही बात राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है। बल्कि उन पर तो सबसे पहले लागू होती हैं—क्योंकि वे देश चला रहे हैं। लेकिन विसंगति देखिए, दूसरों से पारदर्शिता की अपेक्षा करने वाले हमारे राजनीतिक दल खुद पारदर्शी नहीं होना चाहते। यही वजह है कि केन्द्रीय सूचना आयोग के फैसले के बाद राजनीतिक दलों में खलबली मची हुई है। जिस संसद ने देश को सूचना का अधिकार दिया, उसी संसद में बैठने वाले और उनके दल सारे मतभेद भुलाकर एक राय हैं कि राजनीतिक दल इस कानून के दायरे में नहीं आते।
देश के दो सबसे बड़े राजनीतिक दलों—कांग्रेस और भाजपा—से पार्टी फंड में मिले चंदे और खर्च की जानकारी मांगी गई थी। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म के अनिल वैरवाल व आर.टी.आई. कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल ने सूचना के अधिकार कानून के तहत इन दलों से जानकारियां चाही थीं। लेकिन दोनों दलों ने इनकार कर दिया। मामला सूचना आयोग के पास गया और आखिरकार इस माह आयोग ने ऐतिहासिक फैसला दिया कि छह सप्ताह के भीतर राजनीतिक दल याचिकाकर्ताओं को चंदे से लेकर खर्च तक सारी जानकारियां दें। आयोग ने इन दलों का यह तर्क स्वीकार नहीं किया कि वे आर.टी.आई. कानून के दायरे में नहीं आते। आयोग के अनुसार राजनीतिक दल सरकार से सहयोग लेते हैं। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उन्हें कई तरह की छूट मिलती है, जो एक तरह से फंड लेने जैसा कार्य है। जैसे आय पर करों की छूट, पॉश इलाकों में सरकारी बंगले, रियायती दरों में भूखंड आवंटन आदि। लिहाजा राजनीतिक दल आर.टी.आई. की धारा २ (एच) के तहत आते हैं। आयोग ने छह राष्ट्रीय दलों—कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, राकांपा और बसपा—को तय समय-सीमा में सारी जानकारियां देने का आदेश दिया है।
इस आदेश के बाद राजनीतिक दल बौखलाए हुए हैं। यह उनकी प्रतिक्रियाओं से जाहिर है। विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा— 'आर.टी.आई. सूचना प्राप्त करने के लिए है। इसके जरिए किसी को उत्पात मचाने नहीं दिया जाएगा।' जनता दल (यू) की प्रतिक्रिया आई— 'राजनीतिक दल कोई परचूनी की दुकान नहीं। हम इस फैसले का विरोध करते हैं।' भाजपा के प्रकाश जावडेकर— 'जब चुनाव आयोग पार्टियों के खातों की जांच कर सकता है, तो अब सूचना आयोग क्या नया जोडऩा चाहता है।' लगभग सभी पार्टियों के सुर एक से हैं। किसी ने इस फैसले का स्वागत नहीं किया। केवल 'आप' को छोड़कर। लेकिन 'आप' अभी चुनाव मैदान में उतरे नहीं हैं। इसलिए उसकी प्रतिबद्धता का परीक्षण बाकी है। सवाल यह है कि राजनीतिक दल आर.टी.आई. से क्यों डरते हैं। अगर वे यह मानते हैं कि वे अपनी आमदनी और खर्च का पूरा ब्यौरा चुनाव आयोग और आयकर विभाग को देते रहे हैं, तो आर.टी.आई. के तहत भी देने में क्या हर्ज है? पारदर्शिता की खातिर एक तीसरी संस्था और सही। सवाल यह भी कि क्या राजनीतिक दल चंदे से मिली राशि का सम्पूर्ण ब्यौरा चुनाव आयोग को देते हैं? आंकड़ों से ही सिद्ध है कि दल केवल २० फीसदी राशि का ही ब्यौरा देते हैं। ८० फीसदी राशि किस स्रोत से आई, इस पर सारे राजनीतिक दल मौन हैं। नियमानुसार २० हजार रु. से अधिक चंदा देने वालों का नाम बताना जरूरी है। क्या कोई भरोसा करेगा कि करोड़ों रुपए की चंदा वसूली में २० हजार रु. से अधिक देने वालों का योगदान सिर्फ २० फीसदी है? आंकड़ों की बात बाद में। पहले राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाओं को देखें। सूचना के अधिकार के तहत देश में अब तक लाखों सूचनाएं दी गई हैं, क्या एक भी उदाहरण ऐसा है जिससे 'उत्पात' मच गया हो? विदेश मंत्री किस उत्पात की बात कर रहे हैं। जिस जनता ने आपको चुना, उसे ही जानकारी देने से उत्पात मचेगा या जानकारी छिपाने से? और फिर ऐसी क्या जानकारियां हैं जो लोगों से आप छिपाना चाहते हैं? जाहिर न करने वाली जानकारियां और सूचनाओं को तो आर.टी.आई. कानून के तहत पहले ही परिभाषित कर दिया गया है।
इसी तरह देश में अब तक सैकड़ों सरकारी विभागों ने आर.टी.आई. कानून के तहत पारदर्शिता और जनहित में लोगों को सूचनाएं उपलब्ध कराई हैं, क्या वे सब परचूनी की दुकान हैं? संसद में पारित एक कानून के प्रति किसी राष्ट्रीय दल की ऐसी अवमाननापूर्ण प्रतिक्रिया सचमुच शर्मनाक है।
राजधानी दिल्ली के पॉश इलाके की प्रमुख प्रॉपर्टियों में बड़े राजनीतिक दलों के विशाल दफ्तर हैं। चुनाव आयोग को दी गई सूचनाओं के अनुसार इन बड़े और भव्य बंगलों का मासिक किराया देखिए—२४ अकबर रोड पर कांग्रेस का दफ्तर, किराया ४२ हजार रु.। कांग्रेस के पास तीन दफ्तर और हैं। २६ अकबर रोड का किराया ३ हजार रु.। ५ रायसेना रोड का किराया ३४ हजार रु.। चाणक्यपुरी का किराया सिर्फ ८ हजार रु. प्रतिमाह। अशोक रोड पर भाजपा के विशाल दफ्तर का किराया ६६ हजार रु. मासिक। भाजपा के ही पंत मार्ग के दफ्तर का किराया सिर्फ १५ हजार रु.। एन.सी.पी. का डॉ. बी.डी. मार्ग के दफ्तर का किराया सिर्फ १३०० रु.। बसपा का जी.आर.जी. रोड के दफ्तर का किराया सिर्फ १३०० रु.। तीन मूर्तिलेन में माकपा दफ्तर का किराया सिर्फ १५०० रु.। कहने की जरूरत नहीं, इन बंगलों का मौजूदा किराया लाखों रु. मासिक बैठता है। इसी तरह दिल्ली में कांग्रेस को सरकार की ओर से दो भूखंड दिए गए हैं जिनका बाजार मूल्य इस समय करीब १ हजार करोड़ रु. तथा भाजपा को दिए गए दो भूखंडों का बाजार मूल्य करीब ५५० करोड़ रु. है। सरकार से आयकर छूट के वर्ष २००६-२००९ के आंकड़े देखें कांग्रेस, ३००.९२ करोड़। भाजपा, १४१.२५ करोड़। बसपा, ३९.८४ करोड़ रु.। हिसार के एक आर.टी.आई. कार्यकर्ता रमेश वर्मा के आवेदन पर मिली जानकारी के अनुसार २००७ से २०१२ के दौरान देश की दस प्रमुख पार्टियों की करमुक्त आय २,४९० करोड़ रु. थी। इसमें कांग्रेस की १,३८५.३६ करोड़ तथा भाजपा की ६८२ करोड़ रु. आय शामिल है।
इन आंकड़ों के तथ्य और सत्य हमें बहुत कुछ कह देते हैं। इन सूचनाओं से कभी कोई 'उत्पात' नहीं मचा। न ही ये सूचनाएं किसी 'परचूनी की दुकान' से आई थी। राजनीतिक दलों को यह अच्छी तरह समझा लेना चाहिए कि अगर वे सार्वजनिक जीवन में 'साफ-सफाई', 'शुचिता-स्वच्छता' के प्रति सचमुच कटिबद्ध हैं, तो उन्हें पारदर्शी होना ही पड़ेगा। 'पारदर्शिता' कोई रोग नहीं है, बल्कि रोग की दवाई है। अगर यह कड़वी भी है, तो रोगमुक्त होने के लिए पीनी पड़ेगी। राजनीतिक दलों को खुद आगे बढ़कर पहल करनी चाहिए। राजनीतिक दल ही क्यों, वे सभी संस्थान, इकाइयां, एनजीओ ट्रेड यूनियन जो सरकार से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष चंदा प्राप्त करती हैं उन्हें आर.टी.आई. के दायरे में आना चाहिए। अभी देखना यह है कि सूचना आयोग के फैसले के खिलाफ राजनीतिक दल हाईकोर्ट में जाते हैं या नहीं।

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और अब 'स्लो न्यूज!'

तेज खबर पहुंचाने की दौड़ में हर चैनल नंबर वन रहने को आमादा है। कई चैनल इन शब्दों को ब्रह्म वाक्य की तरह इस्तेमाल करते हैं— 'सबसे आगे', 'सबसे पहले' या 'सबसे तेज।' इस 'तेजस्विता' के चलते खबर की गुणवत्ता खतरे में है। ऐसे में मीडिया विशेषज्ञों की चिन्ता स्वाभाविक है। 'स्लो न्यूज' की अवधारणा संभवत: इन्हीं परिस्थितियों की उपज है।


खबरों की दुनिया में एक नया विचार सामने आया है, वह है— 'स्लो न्यूज।' 'स्लो न्यूज' का शाब्दिक अर्थ तो आप जानते होंगे, लेकिन वास्तविक अर्थ केवल 'धीमा समाचार' नहीं है। जैसे 'फास्ट फूड' के विरोध में 'स्लो फूड' आन्दोलन उभरा, वैसे ही 'फास्ट न्यूज' से हो रहे दूरगामी नुकसान की प्रतिक्रिया में 'स्लो न्यूज' के विचार ने जन्म लिया है। इसके प्रणेता टोरेन्टो विश्वविद्यालय के पत्रकारिता कार्यक्रम के निदेशक जेफ्रे ड्वोरकिन हैं।
आप जानते हैं, अखबार हों या न्यूज चैनल—खबरों को लेकर एक-दूसरे को पीछे छोडऩे की होड़ सदा मची रहती है। न्यूज चैनलों के बीच तो गलाकाट प्रतिस्पर्धा चलती है। कौन सबसे तेज यानी सबसे पहले 'ब्रेकिंग न्यूज' की पट्टी चलाता है, मानो यही सर्वोपरि है। किसी चैनल ने कोई बड़ी घटना की खबर सबसे पहले 'ब्रेक' कर दी तो वह दिन भर ढोल पीटता है— 'सबसे पहले हमने दी दर्शकों को जानकारी।' सबसे तेज खबर पहुंचाने की दौड़ में हर चैनल नंबर वन रहने को आमादा है। शायद इसीलिए कई चैनल इन शब्दों को ब्रह्म वाक्य की तरह इस्तेमाल करते हैं— 'सबसे आगे', 'सबसे पहले' या 'सबसे तेज।' सबसे तेज की यह अंधी होड़ आप दुनिया भर के मीडिया संगठनों में देख सकते हैं। इस 'तेजस्विता' के चलते खबर की गुणवत्ता खतरे में है। हड़बड़ी में कई बार तथ्यहीन, असत्य या अपरिपक्व खबरें परोस दी जाती हैं। संभव है, बाद में उस खबर का परिमार्जन या संशोधन भी हो जाए, लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है। जो नुकसान होना था, वह हो चुका होता है। प्रिंट मीडिया की स्थिति थोड़ी बेहतर है, लेकिन खबरों की हड़बड़ी वहां पर भी कम नहीं है।
ऐसे में दुनिया भर में खबर की गुणवत्ता को लेकर मीडिया विशेषज्ञों की चिन्ता स्वाभाविक है। 'स्लो न्यूज' की अवधारणा संभवत: इन्हीं परिस्थितियों की उपज है।
गत दिनों 'आर्गेनाइजेशन ऑफ न्यूज ओम्बुड्समैन' (ओ.एन.ओ.) के लॉस एंजीलिस में हुए सम्मेलन में खबरों से जुड़े कई पहलुओं पर विचार किया गया। सम्मेलन में दुनिया भर में खबरों की गुणवत्ता को लेकर पेश आ रही गंभीर चुनौतियों पर चर्चा हुई। सम्मेलन में जेफ्रे ड्वोरकिन भी शामिल थे। जेफ्रे ड्वोरकिन का विचार है कि मीडिया संगठनों को 'स्लो न्यूज' की अवधारणा पर ध्यान देना चाहिए और इसे एक आन्दोलन का रूप दिया जाना चाहिए। क्योंकि आज हमें इसकी बहुत जरूरत है। वे कहते हैं कि मीडिया संगठनों को यह समझना जरूरी है कि उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता खबरों और सूचनाओं की लालसा रखने वाली जनता है। जेफ्रे मानते हैं कि मीडिया में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बुरी नहीं है, लेकिन मीडिया संगठनों की आपसी अंधी होड़ नुकसानदायक है। वे एक-दूसरे को यहां तक कि सोशल मीडिया को भी पीछे छोडऩे की दौड़ में फंसे हुए हैं। इस प्रतिस्पर्धा ने खबर की 'शुद्धता' के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को कुंद कर दिया है। हम मिलावटी खबरें परोसने लगे हैं। संवाददाताओं के पास आधुनिकतम उपकरण हैं, लेकिन हमारी रिपोर्टिंग महज तकनीक में तब्दील होकर रह गई है। हम खबर के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। बोस्टन और सैन्डी हुक के उदाहरण हमारे सामने हैं। जनता जान गई है कि विशुद्ध खबर तक कैसे पहुंचा जाए। जनता के पास सोशल मीडिया का विकल्प भी है। हम (मीडिया) जनता तक वे ही खबरें पहुंचाएं, जो वह चाहती हैं और जिसकी उसे जरूरत है। वे कहते हैं, 'स्लो न्यूज' का विचार अपनाएं। यह हमारे लिए बहुत मददगार तरीका है। हड़बड़ी में न रहें। सुव्यवस्थित और विशुद्ध खबर ही जनता को दें। उसकी आवश्यकताओं को समझों।
जेफ्रे ड्वोरकिन अंत में सवाल उठाते हैं— 'क्या मीडिया संगठन ऐसा करने को इच्छुक हैं?'
निश्चय ही जेफ्रे ड्वोरकिन ने महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है। खासकर, उस समय जब मीडिया संगठनों में एक-दूसरे को पछाडऩे की दौड़ चरम पर है। दबाव और तनाव के बीच कई बार परस्पर विरोधी और तथ्यहीन सूचनाएं प्रसारित हो जाती हैं। पाठक या दर्शक विभ्रम में फंस जाता है। यह स्थिति दीर्घकालिक तौर पर ठीक नहीं। क्योंकि इससे खबरों की विश्वसनीयता घटती चली जाएगी और अन्ततोगत्वा समाचार मीडिया का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।
बेशकीमती जिन्दगी
हमारे एक पाठक को 'पत्रिका' सहित कुछ मीडिया संगठनों के छत्तीसगढ़ में 25 मई की घटना को 'देश का सबसे बड़ा माओवादी हमला' लिखने पर ऐतराज है। भिलाई के सत्यप्रकाश दुबे के अनुसार जिसमें सबसे ज्यादा निर्दोष लोग मारे गए वही सबसे बड़ा माओवादी हमला कहा जाए। राजनीतिक आधार पर भेदभाव करना उचित नहीं। दुबे के अनुसार 28 मई, 2010 में प. बंगाल में मिदनापुर के झाारग्राम के पास माओवादियों ने रेलवे ट्रैक उड़ा दिया था, जिसमें 140 निर्दोष लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था। घटना में रेल बोगी उड़ गई थी और लाशों के चिथड़े-चिथड़े बिखर गए थे। इस घटना से कोई 15 दिन पूर्व छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में माओवादियों ने एक यात्री बस को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया था, जिसमें 40 निर्दोष लोग मारे गए। सीआरपीएफ के जवानों को नक्सली अपना दुश्मन मानते हैं। लेकिन संख्या का आंकड़ा देखें तो 6 अप्रेल, 2010में दंतेवाड़ा में ही माओवादियों ने जवानों पर सबसे बड़ा हमला बोलते हुए एक साथ 76 जवानों को भून डाला था। क्या ये घटनाएं हाल की नक्सली हमले से छोटी थी, जिसमें कुछ राजनेताओं सहित 28 लोग मारे गए। जीवन हर व्यक्ति का बेशकीमती है, जिसे छीनने का किसी दूसरे को हक नहीं। इसलिए इन्सानी जिन्दगी में विभेद उचित नहीं। हां, राजनेताओं पर हमला होने से पूरा तंत्र जरूर हिल गया है, जो अब तक निश्चेतप्राय: था।
खोजी पत्रकार चाहिए
वाशिंगटन स्थित इंटरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ इन्वेस्टीगेशन जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) को दो खोजी पत्रकारों की जरूरत है जो अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर डाटा का विश्लेषण-अन्वेषण कर सके। इनमें एक सीनियर रिपोर्टर और दूसरे को कम-से-कम तीन वर्ष का पत्रकारीय अनुभव होना चाहिए। आईसीआईजे 60 से अधिक देशों के 160 खोजी पत्रकारों का अन्तरराष्ट्रीय समूह है। यह वही संगठन है जिसने पिछले दिनों काला धन विदेशों में छिपाने वाले देशों और लोगों के बारे में सनसनीखेज जानकारियां उजागर की थी। समूह का दावा है कि उसके पास जूलियन असांजे से भी कई गुणा ज्यादा गोपनीय दस्तावेज हैं तथा 170 देशों की सूची उसके पास है, जिन्होंने विदेशों में कंपनियों और ट्रस्टों के जरिए करोड़ों-अरबों रुपयों का निवेश और गोपनीय लेन-देन किया है।

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