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एडवांस में नोबेल!

'गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार से वंचित करने पर कभी नोबेल समिति को खेद व्यक्त करना पड़ा था। ठीक वैसे ही बराक ओबामा को यह पुरस्कार प्रदान करने पर नोबेल समिति को भविष्य में खेद जताना नहीं पड़ जाए।'


अजमेर से डा. कर्णदेव सिंह आगे लिखते हैं- 'ऐसा पहली बार हुआ है, जब किसी व्यक्ति को उपलब्धि की वजह से नहीं बल्कि भावी संभावना की वजह से नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा विश्व को परमाणु हथियारों से मुक्त कराना चाहते हैं। ओबामा के इस दृष्टिकोण पर ही समिति मुग्ध हो गई और उन्हें 'एडवांस' में पुरस्कार दे डाला। वाह! क्या बात है। क्या नोबेल समिति ने आविष्कार की सभावना में आज तक किसी वैज्ञानिक को विज्ञान का नोबेल दिया है? या उत्कृष्टता की उम्मीद में किसी लेखक को साहित्य-सृजन से पहले ही साहित्य के नोबेल से नवाजा है?'

एक अन्य पाठक इन्द्रजित मेहता (जोधपुर) ने सवाल किया- 'क्या ओबामा के नेतृत्व में अमरीका ने अपने साढ़े पांच हजार वारहैड्स में कोई कमी की है? या फिर इराक और अफगानिस्तान से अपनी फौजें हटा ली है? या इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध का शांतिपूर्ण समाधान खोज लिया है? या फिर ग्वातनामो यातना शिविर में बंदियों को मुक्त कर दिया है? बराक महोदय ने ऐसा कौन-सा काम कर दिया जिसके लिए उन्हें शांति का सर्वोच्च पुरस्कार दिया गया।'


आर्किटेक्ट पी.सी. श्रीवास्तव, (जयपुर) के अनुसार- 'ओसामा लादेन को अभी तक पकड़ा नहीं जा सका। हिजबुल्ला, हमास, तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा जैसे तमाम संगठनों पर कोई लगाम नहीं कसी जा सकी। उल्टे आतंकवाद को पनाह देने वाले पाकिस्तान को अमरीका ने 2.8 अरब डालर की सैन्य सहायता दी जो अब तक की सर्वाधिक राशि है।'

प्रिय पाठकगण!

अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा पर दुनिया भर में प्रतिक्रिया हुई। नोबेल पुरस्कारों को लेकर विवाद और विमत के स्वर पहले भी उठते रहे हैं, लेकिन ओबामा को शांति के नोबेल पर जो बहस दुनिया भर में छिड़ी है, वह संभवत: पहली बार है जिसमें आम आदमी भी शामिल हो गया है। क्या इस पुरस्कार के लिए ओबामा का चयन गलत है या उन्हें समय से पहले पुरस्कृत करना गलत? पाठकों के दृष्टिकोण की बानगी आपने देखी। आइए, कुछ और प्रतिक्रियाएं जानें।


'पत्रिका (10 अक्टूबर) ने खबर का सही शीर्षक दिया- ओबामा को शांति नोबेल पर हैरत! खुद ओबामा को इस पुरस्कार की कतई उम्मीद नहीं रही होगी। आखिर उन्होंने अभी तक किया ही क्या है। इसी दिन प्रकाशित संपादकीय से भी मैं सहमत हूं जिसमें लिखा कि इस समय दुनिया जितनी अशांत है उतनी शायद पहले कभी नहीं रही। इसके लिए अगर कोई दोषी है तो अमरीका की विफल नीतियां। इन नीतियों में बदलाव की दिशा में ओबामा ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया है। अगर अमरीका का राष्ट्रपति होना ही योग्यता का मापदंड है तो फिर नोबेल फाउण्डेशन को एक पुरस्कार और शुरू कर देना चाहिए जो केवल अमरीकी राष्ट्रपति के लिए रिजर्व हो।' उक्त प्रतिक्रिया उदयपुर के छात्र शिवदयाल श्रीमाली ने व्यक्त की।चेन्नई से दिलीप सी। नैयर ने लिखा- 'यह सही है कि ओबामा के भाषण शांति की आशा जगाते हैं। 4 जून 2009 को मिस्र की राजधानी काहिरा में मुस्लिम जगत के लिए दिया गया उनका भाषण अभूतपूर्व था। इससे पहले पौलेण्ड की राजधानी प्राग में अपने भाषण में विश्व को परमाणु हथियारों से मुक्त करने की बात कहकर ओबामा ने खूब तालियां बटोरी थीं। जी-20 देशों की बैठक में रू स-अमरीका दोनों ने अपने परमाणु बमों की संख्या सीमित करने का वादा किया था। इससे पहले किसी अमरीकी राष्ट्रपति ने ऐसी घोषणाएं नहीं की। इन घोषणाओं को अमरीकी राष्ट्रपति वास्तविकताओं में कब बदलेंगे, इसका सबको इंतजार है। नोबेल समिति को भी इंतजार करना चाहिए था।'


इसके विपरीत डा. जयन्ती पाराशर (कोटा) का मत है- 'ओबामा अन्य अमरीकी राष्ट्रपतियों से बिलकुल अलग हैं। वे साहसी हैं और बेबाकी से अपनी बात कहने की कूवत रखते हैं। उनमें भविष्य की अपार संभावनाएं हैं। नोबेल समिति ने उनका चयन करके इन संभावनाओं को मान्यता दी है।'


'दस माह के कार्यकाल में ओबामा ने वादे ही वादे किए हैं। वे अच्छा भाषण देते हैं। लेकिन उनकी कथनी और करनी में अन्तर दिखाई पड़ता है। तभी तो गैलप के हाल एक सर्वेषण में ओबामा की लोकप्रियता सम्बन्धी रेटिंग में 10 अंकों की गिरावट आई है।' यह प्रतिक्रिया बिजनेसमैन आर।के. माहेश्वरी (जयपुर) ने व्यक्त की।


अलवर से आशुतोष वैष्णव ने लिखा- 'ओबामा का रवैया निष्पक्ष नहीं है। वे पाकिस्तान को सैन्य मदद करते हैं और मुंबई हमलों पर चुप्पी साध लेते हैं। चीन की घुसपैठ पर भी वे कुछ नहीं बोलते।'


पाठकों की प्रतिक्रियाओं का सार है कि नोबेल शांति पुरस्कार के लिए ओबामा के चयन में जल्दबाजी की गई है। अभी ओबामा को और अवसर दिया जाना चाहिए और यह देखना चाहिए कि वे अपनी घोषणाओं में कितने खरे उतरते हैं। वे सत्ता के सर्वोच्च सिंहासन पर हैं। शक्ति, साधन और सामथ्र्य की उनके पास कोई कमी नहीं। इसलिए अपने इरादों को जमीनी हकीकत में बदलने के लिए उनके सामने कोई बाधा नहीं होनी चाहिए।

पाठक रीडर्स एडिटर को अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-
ई-मेल: anand.joshi@epatrika.com
एसएमएस: baat 56969
फैक्स: ०१४१-2702418
पत्र: रीडर्स एडिटर,
राजस्थान पत्रिकाझालाना संस्थानिक क्षेत्र,
जयपुर

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नक्सली हैं या आतंकी

जयपुर से हरीश मित्तल ने लिखा- 'सचमुच विचलित कर देने वाली फोटो (पत्रिका, 8 अक्टूबर) थी वह! सम्पादकीय पेज पर झारखंड के पुलिस इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदूवार की सिर कटी खून से लथपथ लाश का चित्र देखकर कौन विचलित नहीं हुआ होगा। माओवादी नक्सलियों ने इंस्पेक्टर का अपहरण करके बड़ी बेरहमी से उनका गला रेत दिया था। नक्सली विचार धारा का वैसे तो मानवता से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन यह तो हैवानियत की हद है।'
सेवा निवृत्त सिविल इंजीनियर गंगाधर शर्मा (जयपुर) ने लिखा- 'क्या हत्यारे नक्सलियों को इंस्पेक्टर की पत्नी सुनीता इंदूवार का करुण क्रन्दन सुनाई पड़ेगा? या फिर वे 14 वर्षीय उस बालक का आक्रोश सुनेंगे जिसने रोते हुए कहा- 'उन्होंने मेरे पापा को मारा, मैं भी बड़ा होकर उन्हें मारूंगा। या फिर गढ़चिरौली में 18 शहीद पुलिसकर्मियों की विधवाओं, बच्चों और परिजनों का आर्तनाद सुनेंगे, जिन्हें नक्सलियों ने गोलियों से भून दिया था। आखिर निर्दोष व्यक्तियों की हत्याएं करके नक्सली संगठन भारतीय व्यवस्था में कैसा बदलाव लाना चाहते हैं। क्या नक्सलियों और खूंखार आतंककारियों में कोई फर्क है?'
प्रिय पाठकगण!
झारखंड में इंस्पेक्टर इंदूवार की हत्या के दो दिन बाद ही महाराष्ट्र में नक्सलियों ने एक साथ 18 पुलिकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। देश के कई हिस्सों में पिछले दिनों नक्सलियों की खूनी वारदातें बढ़ रही हैं। पाठकों की राय में सरकार की ढुलमुल नीति के कारण ही नक्सलियों के हौसले बढ़ते जा रहे हैं। गृहमंत्री पी। चिदम्बरम ने इंदूवार की हत्या के तुरन्त बाद बयान दिया कि हम अपने ही लोगों (नक्सलियों) से युद्ध नहीं कर सकते। नक्सलियों ने गृहमंत्री की इस उदारता का जवाब अगले ही दिन 18 पुलिसकर्मियों की हत्या करके दिया। पाठकों का दृष्टिïकोण है कि केन्द्र सरकार व राज्य सरकारें और कितने बेकसूरों की हत्याओं का इंतजार कर रही हैं।

जोधपुर से गोपाल अरोड़ा ने लिखा- 'झारखंड और महाराष्टï्र में दो दिन के भीतर नक्सलियों के हमले में 19 पुलिसकर्मी शहीद हो गए। पिछले दस वर्र्षों में छह हजार से अधिक लोग नक्सली हमलों का शिकार हो चुके हैं। 15 राज्यों के 150 जिले इनके खौफ से भयभीत हैं। नक्सली भारत में नासूर बन चुके हैं। अगर अब भी सरकार नहीं चेती तो पड़ोसी देश में तालिबानियों ने जिस तरह अपना वर्चस्व स्थापित किया, नक्सलवादी पूरे भारत में अपना वर्चस्व कायम कर सकते हैं।'

अजमेर से दयानंद विश्वविद्यालय की छात्रा कु। प्रियंका माथुर के अनुसार- 'यह सही है कि नक्सली आमतौर पर पुलिसकर्मियों पर ही हमला बोलते हैं, लेकिन पुलिसवाले इनसान नहीं हैं क्या? उनके भी बीवी-बच्चे हैं।

पाली से रूपनारायण सोनी ने लिखा- 'नक्सली किसी के सगे नहीं है। वे दावा तो गरीबों की हिमायत का करते हैं, लेकिन उनके मकसद में जो भी बाधक होता है वे उसे रास्ते से हटा देते हैं।'
हनुमानगढ़ से दीपक बंसल ने लिखा- 'माओवादी नक्सलवादी संगठन अपनी राह से पूरी तरह से भटक गए हैं।' चेन्नई से मोहन एस। राघवन ने लिखा- 'हिंसा की बुनियाद पर बने किसी भी संगठन का लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई स्थान नहीं हो सकता। नक्सलियों को हिंसा के अलावा कुछ नहीं सूझता। वे मानवता के दुश्मन हैं।'

प्रिय पाठकगण! सही कहा है। हिंसा अपने आप में सबसे बड़ा गुनाह है। इसलिए हिंसा की राह पर चलने वाले संगठन और व्यक्तियों के प्रति सरकार को कोई नरमी नहीं बरतनी चाहिए- भले ही वे अपने देश के ही क्यों न हों।
रुखसाना को सलाम

29 सितंबर के अंक में प्रकाशित समाचार 'साहस नारी का' पर पाठकों के अनेक पत्र मिले हैं। जम्मू-कश्मीर के राजौरी जिले में लश्कर-ए-तैयबा के तीन दुर्दान्त आतंककारी एक घर में घुस आए थे। उनके हाथों में बंदूकें थी और वे परिवार के सदस्यों को ललकार रहे थे। इसी बीच 22 वर्षीय युवती रुखसाना ने अप्रतिम साहस का परिचय देते हुए आतंककारियों पर हमला बोल दिया। एक आतंककारी को रुखसाना ने कुल्हाड़ी के वार से मार गिराया। दो आतंककारी उल्टे पांव भाग छूटे। पूरे परिवार ने राहत की सांस ली।

अजमेर से जावेद खान, शमीम अख्तर, जयपुर से रक्षिता वर्मा, तन्वी जैन, रूपनारायण, अहमदाबाद से संतोष पारेख, श्रीगंगानगर से देवकीनंदन बंसल, उदयपुर से देवेन्द्र उपाध्याय के पत्रों का सार है कि अगर कश्मीर सहित देश के नागरिक रुखसाना जैसा हौसला अख्तियार कर ले तो देश में आतंकवाद का नामो-निशान नहीं बचेगा। कश्मीर की आम जनता अलगाववादियों और आतंकी संगठनों को पूरी तरह नकार चुकी है- यह बात तो विधानसभा चुनाव में कश्मीरी जनता की रिकॉर्ड भागीदारी से ही सिद्ध हो चुकी थी। लेकिन कश्मीर के लोग अब आतंककारियों को उनकी भाषा में ही जवाब देने लगे हैं- यह रुखसाना ने साबित कर दिया।
रुखसाना के साहस को पूरे देश का सलाम!

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चीन से सावधान!


चीन की ताजा घुसपैठ की घटना (पत्रिका 7 सितंबर) पर अनेक पाठकों की तीखी प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं। पाठकों ने चीन की भत्र्सना करते हुए भारत को उससे सावधान रहने की सलाह दी है। पाठकों के अनुसार चीनी घुसपैठ की घटनाओं को भारत सरकार हल्के में न लें तथा पूरी ताकत से जवाब दे।

प्रो। एस।सी। भटनागर (जयपुर) ने लिखा- 'चीन भारत की सीमा में दो कि.मी. भीतर घुस आया, लेकिन विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने कहा- घुसपैठ से चिन्तित होने की जरूरत नहीं। सरकारी रिपोर्ट खुलासा कर रही है (14 सितंबर अंक) कि चीन इंच-दर-इंच भारत की भूमि पर कब्जा कर रहा है, लेकिन राष्टï्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन इसे खतरा मानने की बजाय चीनी घुसपैठ को मीडिया में तूल देने को बड़ा खतरा बता रहे हैं। (20 सितंबर) चीन ने इस वर्ष अब तक पांचवीं बार सीमा का उल्लंघन किया है लेकिन विदेश सचिव निरुपमा राव चीनी घुसपैठ की घटनाओं में वृद्धि से इनकार कर रही हैं। आखिर ये क्या हो रहा है? क्या देश के नागरिक इतने नादान हैं कि वे पड़ोसी देश की गुस्ताखियों से अनभिज्ञ हैं! भारत से ज्यादा चीन को भला और कौन जानता है। हमारे शासक लीपापोती करने की बजाय चीन को कड़ा संदेश दे।'
राजस्थान विश्वविद्यालय के शोधार्थी राजेश श्रीवास्तव के अनुसार- 'भारत को अगर दुनिया में किसी से खतरा है तो वह चीन है। क्योंकि चीन अमरीका की जगह लेना चाहता है। इसमें वह भारत को अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानता है। भारत की विशाल जनसंख्या और भूभाग चीन के लिए चुनौती है। इसलिए वह ऐसी करतूतें करता रहता है जिससे भारत पर दबाव बना रहे।'

डॉ। धमेन्द्र चौधरी (अजमेर) के अनुसार- 'चीन का एजेण्डा सन्' 2050 तक अमरीका को पछाड़कर 'सुपर पावर' बनना है। इस रणनीति के तहत वह धीरे-धीरे कूटनीतिक तरीके से आगे बढ़ रहा है। हाल ही भारत के तवांग क्षेत्र में घुसपैठ चीन की इसी रणनीति का हिस्सा है।'

अहमदाबाद से दिव्या पुरोहित ने लिखा- 'चीन ने भारत की 43 हजार वर्ग किमी। जमीन पर कब्जा कर रखा है। सीमा के पास भारत की प्रहारक दूरी पर लगभग ढाई लाख सैनिक तैनात कर रखे हैं। हमारे अरुणाचल प्रदेश को वह भारत का हिस्सा मानने से इन्कार करता रहा है।'

अध्यापक प्रकाश श्रीमाली, उदयपुर ने लिखा- 'पं। जवाहरलाल नेहरू ने 1954 में चीन से समझौत करके तिब्बत पर उसका आधिपत्य स्वीकार करने की भारी भूल की थी। नेहरू जी के हिन्दी-चीनी भाई-भाई का जवाब चीन ने 1962 में भारत पर हमले के रूप में दिया। ऐसे दगाबाज दोस्त से हमेशा सावधान रहने की जरूरत है।'

बीकानेर से गिरधारी शर्मा ने लिखा- 'चीन ने किसी देश से दोस्ती नहीं निभाई। जिस तरह चीन ने पं। नेहरू को धोखा दिया, उसी तरह उसने इंडोनेशिया के राष्टï्रपति सुकार्णो को भी दगा दिया। मलाया, फिलीपीन्स, वियतनाम, जापान कोई भी देश चीन की करतूतों से नहीं बचा।''चीन अतीत में भी भारत से दुश्मनी रखता था और आज भी दुश्मनी रखता है।' यह प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नंदकिशोर कश्यप (कोटा) ने लिखा- 'अन्तरराष्टï्रीय मुद्रा कोष से भारत ने अरुणाचल के विकास के लिए दो अरब डॉलर का ऋण मांगा तो चीन ने बैठक में आपत्ति जताकर अड़ंगा लगा दिया। एन.एस.जी. (परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह) देशों की बैठकों में भी चीन भारत को परमाणु आपूर्ति का विरोध करता रहा है। संयुक्त राष्टï्र में सुरक्षा परिषद सदस्य के रूप में भारत की दावेदारी पर चीन को सदैव खुलकर आपत्ति रही है। चीन हमारे साथ कहीं भी दोस्ती नहीं निभा रहा। फिर भारत किस बात का संकोच करे।'

गोपाल अरोड़ा (जोधपुर) ने लिखा- 'भारतीय विदेश नीति के निर्माताओं को आंखें खोल देनी चाहिए इस तथ्य को समझने के लिए कि अन्तरराष्टï्रीय संबंधों का संचालन आदर्शवादी राजनीति से नहीं, बल्कि यथार्थपरक शक्ति राजनीति से होता है।'

उदयपुर से जीवन चन्द्र 'भारती' ने लिखा- 'ओलम्पिक मशाल के समक्ष तनिक विरोध प्रदर्शन भी चीन को बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने भारतीय राजदूत के मार्फत भारत सरकार को कड़ी फटकार लगाई जिससे हड़कम्प मच गया था। लेकिन हम सीमा उल्लंघन जैसे गंभीर मसले की भी अनदेखी कर रहे हैं- यह बहुत दुख की बात है।'

बंगलुरु से दीप बोथरा ने लिखा- 'कूटनीतिक तौर पर हमें चीन को यह संदेश देना चाहिए कि सीमा उल्लंघन की मामूली घटना को भी भारत बर्दाश्त नहीं करेगा। हमारी सेना सक्षम है। जरूरत राजनेताओं को सही समय पर सही बयान देने की है। संपादकीय (9 सितंबर) में ठीक लिखा कि राजनेता अपनी कमर सीधी रखें। भारतीय सेना ने आमने-सामने कई लड़ाइयां जीती हैं।'

प्रिय पाठकगण! यह युग परस्पर तनाव और युद्ध का नहीं है। खासकर तब, जब कई देश परमाणु शक्ति से सम्पन्न हैं। इस युग में शांति और भाइचारे की बातें होनी चाहिए। लेकिन यह विचार एकतरफा कभी फलीभूत नहीं हो सकता है। इसके लिए दोनों तरफ से प्रयास होने चाहिए।

स्वाभिमान से जीने का हक सभी को है। इसे किसी को भी नहीं भूलना चाहिए।

पाठक रीडर्स एडिटर को अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-
एसएमएस: baat 56969
फैक्स: ०१४१-2702418
पत्र: रीडर्स एडिटर,
राजस्थान पत्रिकाझालाना संस्थानिक क्षेत्र,
जयपुर

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