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न्याय का पक्ष

सलवा जुडूम पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से एक नई बहस छिड़ गई है। कुछ पक्षकारों की राय में यह फैसला माओवाद को बढ़ावा देगा और देश में माओवादियों को मनमानी करने की खुली छूट मिल जाएगी।
दूसरी तरफ कई जानकारों ने इस फैसले को आदिवासियों व गरीबों के हक में एक क्रांतिकारी निर्णय बताया। उनकी राय में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा प्रायोजित सलवा जुडूम गैर कानूनी ही नहीं अमानवीय व्यवस्था थी, जिसने एक आदिवासी को दूसरे आदिवासी की जान का दुश्मन बना दिया। हिंसा पर काबू पाने की बजाय राज्य सरकार ने आदिवासियों को ही हथियार थमा दिए। देश की सर्वोच्च अदालत ने राज्य सरकार की इस कार्यवाही को अपने 5 जुलाई के फैसले में असंवैधानिक करार दिया। इस पर मीडिया में कई पक्षकार, पत्रकार, कानूनविज्ञ, और विश्लेषक अपनी-अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं। पाठक इस मुद्दे पर क्या कहते हैं, आईए जानते हैं।
रायपुर से प्रवीण दुबे ने लिखा- 'सलवा जुडूम पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से सबसे ज्यादा नुकसान माओवादियों को होगा, जो यह साबित करने पर तुले थे कि यह सरकार गरीबों की सुनती नहीं है। इसलिए अब बंदूक उठा लेना ही एक मात्र रास्ता है। इसमें दो राय नहीं कि चाहे केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें- सभी गरीबों की बजाय उद्योगपतियों व कॉरपोरेट घरानों के हित साधने में जुटी हुई हैं। छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार भी इसका अपवाद नहीं। सरकार गरीबों का जितना शोषण करेगी, गरीब या आदिवासी उतने ही माओवादियों के करीब हो जाएंगे। कोर्ट का फैसला आदिवासियों के पक्ष में है।'
भिलाई से आलोक त्यागी ने लिखा- 'छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार गरीब आदिवासियों के साथ न्याय नहीं कर रही थी। बड़े-बड़े उद्योगपतियों के लिए आदिवासियों को जंगलों से बेदखल किया जा रहा था। आदिवासी विरोध करते तो पुलिस उन्हें माओवादी ठहरा देती। उन पर भयानक जुल्म ढाती। मुट्ठीभर माओवादियों को मुफ्त में प्रचार मिल रहा था। माओवादी खुश थे। आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल करने का काम आसान हो रहा था। सरकार भी खुश थी। ऐसे में इन्हें सुप्रीम कोर्ट का निर्णय भला कैसे रास आएगा। शायद इसीलिए राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट में पुनरीक्षण याचिका दायर करने जा रही है।'
इंदौर से कार्तिक गर्ग ने लिखा 'पत्रिका' में 7 जुलाई को प्रकाशित गुलाब कोठारी के विशेष सम्पादकीय 'असंवैधानिक' की इन पंक्तियों से शायद ही कोई असहमत होगा जिसमें लिखा कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के विरुद्ध चलाया गया अभियान मानवीय संवेदनाओं की सभी सीमाएं पार कर चुका था। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने इसी बात की पुष्टि की है। प्रदेश के सिर्फ एक जिले में ही 35 से ज्यादा पावर प्लान्ट बनाने के राज्य सरकार के करार से यह साफ जाहिर है कि सार्वजनिक उपयोग के नाम पर आदिवासियों की अपरिवर्तनीय भूमि को रूपान्तरित करके बड़े उद्यमियों को हस्तान्तरित किया जाएगा। राज्य सरकार सार्वजनिक हित की आड़ में पिछले कई वर्षों से यही सब तो कर रही है।'
बिलासपुर से दिवाकर शर्मा ने लिखा- 'आदिवासी युवकों को सलवा जुडूम में शामिल करने के लिए एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारी) बनाने के पीछे सरकार का तर्क था कि माओवादियों की हिंसा पर लगाम लगेगी, लेकिन तथ्य यह है कि सलवा जुडूम के बाद राज्य में हिंसा 22 गुणा बढ़ गई और माओवादियों की संख्या में 125 गुणा वृद्धि हो गई। चूंकि मृतकों में अधिकांश आदिवासी शामिल हैं, इससे साफ है कि माओवादी हिंसा के मुख्य शिकार गरीब लोग हैं।'
प्रिय पाठकगण! कई पाठकों ने इन प्रतिक्रियाओं से हटकर राय व्यक्त की है। जयपुर से जितेन्द्र एस. चौहान के अनुसार- 'नक्सली हिंसा की बर्बरता को देश कई बार झेल चुका है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद या माओवाद को देश के लिए आतंककारियों से ज्यादा गंभीर समस्या बताया था। सलवा जुडूम माओवादियों से लड़ने के लिए सरकार के पास एक पुख्ता हथियार की तरह था। यह हथियार छिन जाने पर सरकार माओवादियों के समक्ष और अधिक असहज महसूस करेगी।'
उदयपुर से रजनी रमण ने लिखा- 'हमें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जो आतंककारियों और माओवादियों को मजबूत करे। क्या हम गत वर्ष दंतेवाड़ा में माओवादियों के उस सबसे बड़े हमले को भूल गए हैं जिसमें एक साथ 76 जवानों को बेदर्दी से मार दिया गया था! ये जवान अपना कर्तव्य पालन कर रहे थे। खूंखार माओवादियों के पास अत्याधुनिक हथियार कहां से आए?'
भोपाल से आशीष कुमार सिंह ने लिखा- 'अगर सरकार आदिवासियों को बंदूक थमा कर आगे कर रही है तो माओवादी भी कम नहीं हैं। वे भोले-भाले आदिवासियों को लाल क्रांति का सपना दिखाकर लुभा रहे हैं। माओवादियों ने बाकायदा वेतन देकर बेरोजगार युवकों को भर्ती कर रखा है। उनके पास धन कहां से आ रहा है?'
जबलपुर से शशि शेखर मयंक ने लिखा- 'सलवा जुडूम पर रोक से छत्तीसगढ़ में 5 हजार आदिवासी युवक बेरोजगार हो गए। मणिपुर, उड़ीसा, असम आदि राज्यों में सैकड़ों एसपीओ पर भी प्रश्न चिक्ष लग गया जो नक्सलवाद या उग्रवाद का मुकाबला करने के लिए इन राज्य सरकारों ने नियुक्त किए हैं। केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने इन पर करोड़ों रुपए खर्च कर दिए।'
सिरोही से भानु कुमार ने लिखा- 'माओवादी कभी सैद्धान्तिक लड़ाई लड़ते थे। वे सिर्फ व्यवस्था से जुड़े लोगों, जैसे पुलिस या सरकारी अफसर को निशाना बनाते थे। लेकिन अब तो वे आम जनता को निशाना बनाने से भी नहीं चूकते। झारग्राम में माओवादियों ने जिस ट्रेन को उड़ाया उसमें 140 बेकसूर रेल यात्री मारे गए थे। दंतेवाड़ा में जिस यात्री बस को बारूदी सुरंग से उड़ाया उसमें 40 नागरिक मारे गए। बेकसूर नागरिकों की फेहरिश्त बहुत लंबी है। इसलिए माओवादियों पर किसी तरह का रहम क्यों हो!'
प्रिय पाठकगण! सर्वोच्च न्यायालय का फैसला न तो माओवादियों के पक्ष में है और न ही आदिवासियों के खिलाफ। यह फैसला संविधान और न्याय के पक्ष में है। नागरिकों को संगठित हिंसा से बचाने का उत्तरदायित्व सरकार पर है। उसके पास पुलिस बल है जिसमें लोगों की नियुक्तियां एक निश्चित शैक्षणिक योग्यता, प्रशिक्षण और पात्रता के आधार पर दी जाती है। अगर सरकार आदिवासी युवकों को पुलिस में शामिल करना चाहती है तो उसे इस निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना होगा। अन्यथा उसकी कार्रवाई गैर कानूनी होगी। सलवा जुडूम राज्य सरकार की एक ऐसी ही असंवैधानिक कार्यवाही थी जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगाई है। न्यायालय ने माओवादियों की हिंसा से निपटने के लिए राज्य सरकार के प्रयासों पर रोक नहीं लगाई है।

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चीन की चाल

'ना-ना करते आखिर चीन ने यह मंजूर कर लिया कि वह ब्रह्मपुत्र नदी पर एक अरब 20  करोड़ डॉलर की लागत से विश्व का सबसे बड़ा बांध बनाने जा रहा है।'
जबलपुर से डॉ. पी.के. वाजपेयी आगे लिखते हैं- 'पांच साल पहले खुफिया सैटेलाइट के आधार पर सबसे पहले अमरीका ने बताया कि चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बना रहा है। इस पर भारत सरकार ने विरोध जताया तो चीन ने भरोसा दिलाया कि वह कोई बांध नहीं बना रहा। उल्टे अमरीका की इस सूचना को दुष्प्रचार बताया, लेकिन धीरे-धीरे छनकर जब सारी जानकारियां विश्व के सामने आ गईं तो अब चीन निर्लज्जतापूर्वक यह स्वीकार कर रहा है कि हां वह ब्रह्मपुत्र पर बांध बना रहा है। चीन विश्वसनीय देश न कभी था न कभी रहेगा। कम से कम भारत के संदर्भ में यह निष्कर्ष सौ फीसदी सही है।'
कोटा से योगेश गोयल ने लिखा- 'पत्रिका के 24 जून के अंक में अफसर करीम ने सही लिखा (चीन का हथियार पानी) कि ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन द्वारा बड़ा बांध बनाने से भारत और बांग्लादेश में नदी के प्रवाह पर विपरीत असर पड़ेगा। यह नदी दोनों देशों की अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा स्रोत है। नदी का प्रवाह बाधित होने से दोनों देशों के नागरिकों की रोजमर्रा की जिन्दगी पर असर पड़ेगा। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने केन्द्र सरकार से अनुरोध किया कि वह दोनों देशों के बीच जल संसाधनों के मुद्दे पर नदी-जल संधि पर दस्तखत करें क्योंकि ब्रह्मपुत्र पर बांध बनाने से असम समेत उत्तर पूर्व के राज्यों में पानी की उपलब्धता पर विपरीत असर पड़ेगा।'
जयपुर से प्रसून श्रीवास्तव के अनुसार 'एक तरफ ब्रह्मपुत्र नदी में जल- उपलब्धता को लेकर भारत में विभिन्न स्तरों पर चिन्ता व्यक्त की जा रही है, दूसरी तरफ हमारे विदेश मंत्री हैं जो चैन की बंसी बजा रहे हैं। विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा का कहना है कि हमने अपने सूत्रों से पता लगा लिया कि चीन की इस हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजना से नदी का प्रवाह नहीं रुकेगा। मेरा विश्वास है कि तुरन्त खतरे का कोई कारण नहीं है। मैं विदेश मंत्रीजी से यह जानना चाहता हूं, उनके विश्वास का आधार क्या है? बीसियों बार हम चीन से धोखा खा चुके हैं। वह कभी हमारा विश्वसनीय दोस्त नहीं रहा। हमारे ही रक्षा मंत्रालय ने अपनी रिपोर्ट (पत्रिका 29 जून) में साफ कहा कि हमारे लिए पाकिस्तान नहीं, चीन सबसे बड़ा खतरा है। फिर हमारे विदेश मंत्री किस खामख्याली में हैं।'
प्रिय पाठकगण! भारत की सीमा के निकट तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन एक विशालकाय बांध का निर्माण कर रहा है। ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत से होकर भारत में प्रवेश करती है। शुरू में इनकार के बाद चीन ने अब स्वीकार कर लिया है कि वह इस पर बांध बना रहा है और भारत को इससे घबराने की आवश्यकता नहीं है। चीन का तर्क है कि यह महज एक 'रन ऑफ द रीवर' योजना है जिसके तहत पानी को रोककर बिजली उत्पादित की जाएगी और बाद में पानी को पुन: नदी में छोड़ दिया जाएगा। भारत सरकार चीन के इस तर्क से आश्वस्त है, लेकिन पाठक नहीं। ज्यादातर पाठकों का कहना है कि चीन भरोसे लायक नहीं है।
भिलाई से देशराज गुप्ता ने लिखा- 'चीन की नीयत पर शक करना इसलिए जायज है कि अगर वह ब्रह्मपुत्र पर बांध बना रहा था तो इस तथ्य को छुपाता क्यों रहा? और अब जब सारे तथ्य नेशनल रिमोट सेन्सिंग एजेंसी ने कमेटी ऑफ सिक्रेटरीज के सामने रख दिए हैं तब भी चीन बांध को लेकर सारी सूचनाएं जाहिर नहीं कर रहा। इसके विपरीत वह भारत को बरगलाने की कोशिश कर रहा है। चीन का कहना है कि इस परियोजना का उद्देश्य सिर्फ बिजली उत्पादन करना है, जबकि कई विशेषज्ञों का मानना है कि चीन बिजली परियोजना की आड़ में ब्रह्मपुत्र की धारा को मोड़कर उत्तरी चीन में ले जाना चाहता है। उसका उद्देश्य ब्रह्मपुत्र के पानी को पम्प कर उत्तरी चीन की पूरी तरह सूख चुकी हुआंग हो नदी को पुनर्जीवित करना है। ऐसा कर वह अपने शिजियांग के रेगिस्तानी इलाके को भी सर-सब्ज कर लेगा।'
इंदौर से आशीष पंवार ने लिखा- 'चीन के लिए अपने राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हैं- यहां तक तो किसी को ऐतराज नहीं हो सकता, लेकिन वह दूसरे देशों के राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करे- यह हमें मंजूर नहीं। चीन को ब्रह्मपुत्र की धारा मोड़ने का कोई अधिकार नहीं है। हमें उसकी बिजली परियोजना पर नजर रखनी होगी। हमारे हिस्से के पानी पर आंच नहीं आए, इसकी पुख्ता व्यवस्था अभी से कर ली जाए।'
भोपाल से सुभाष तोमर ने लिखा- 'चीन की यह परियोजना उसके उस अभियान का एक हिस्सा भर है, जो वह तिब्बत के विशाल जल भंडारों पर नियंत्रण करने के लिए पूरा करना चाहता है। चीन ने तिब्बत में मेकांग नदी पर बड़े-बड़े बांध बनाकर सारा पानी निचोड़ लिया। अगर चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह दक्षिण-पूर्व एशिया के कई राष्ट्रों के हितों को प्रभावित कर सकता है। इसलिए भारत को चीन से कूटनीतिक स्तर पर भी निपटना होगा। हमें नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश, थाइलैंड, कंबोडिया, वियतनाम, लाओस आदि देशों को अपने साथ लेना होगा।'
उदयपुर से कल्याण चन्द्र शर्मा ने लिखा- 'चीन की इस परियोजना को अब तक गुप्त रखने से उसकी बदनीयती साफ झलकती है। वह पानी को भारत के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकता है। ब्रह्मपुत्र के पानी को रोककर सूखे के हालात पैदा कर सकता है तो अचानक पानी छोड़कर बाढ़ की स्थिति पैदा कर सकता है।'
जोधपुर से विक्रम पुरोहित ने लिखा- 'यह सही है कि आज बाजार का युग है, इसलिए हमें सामरिक मसलों में उलझने की बजाय आर्थिक और विकास के मुद्दों पर सहयोग की बात करनी चाहिए, लेकिन बात जब राष्ट्रीय हितों की हो तो हमें भी चीन की तरह सर्वोपरिता का सिद्धान्त अपनाना चाहिए। आखिर ब्रह्मपुत्र हमारी न केवल अर्थ-तंत्र की बल्कि सभ्यता और सांस्कृतिक तंत्र की भी रीढ़ है। अरुणाचल पर नजर गड़ाते हुए अब चीन की नजर ब्रह्मपुत्र के पानी पर भी पड़ना हमारे लिए शुभ संकेत नहीं है।'

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