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सरकारी लोकपाल


'अगर आज देश में इन दो मुद्दों पर जनमत कराया जाए तो जनता का क्या फैसला होगा-
1. विदेशों में जमा काले धन को जब्त कर राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करना चाहिए या नहीं?
2. भ्रष्टाचार पर एक सशक्त और कारगर लोकपाल विधेयक पारित होना चाहिए या नहीं?
भोपाल से डॉ. कमलेश श्रीवास्तव आगे लिखते हैं-'अगर इन दो मुद्दों पर जनमत कराया जाए तो मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कश्मीर से कन्याकुमारी तक जनता इन मुद्दों के पक्ष में वोट देगी। इन मुद्दों पर जनमत की जरूरत इसलिए है कि आज सरकार और विभिन्न राजनीतिक दल स्वार्थ के अनुरूप काले धन व लोकपाल विधेयक की व्याख्या कर रहे हैं। जनता स्वत: ही दूध का दूध और पानी का पानी कर देगी।'
जयपुर से वैभव जैन ने लिखा- 'अगर सरकार विदेशों में जमा काले धन को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने को तैयार है तो फिर बाबा रामदेव के आन्दोलन को कुचलने की क्या जरूरत थी?'
इंदौर से सतीश निगम ने लिखा- 'सरकार अगर भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए एक सशक्त लोकपाल विधेयक बनाने को तैयार है तो उसे अन्ना हजारे की सिविल सोसाइटी के ड्राफ्ट पर ऐतराज क्यों है?'
कोटा से धर्मेश हाड़ा ने लिखा- 'सरकार अगर जनभावनाओं की कद्र करती है तो फिर वह प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल बिल के दायरे से बाहर क्यों रखना चाहती है?'
प्रिय पाठकगण! पाठकों की ये प्रतिक्रियाएं इस बहस पर प्रकाश डालती हैं जो इन दिनों मीडिया में सुर्खियों में है। सरकार का दावा है कि वह काला धन और भ्रष्टाचार खत्म करना चाहती है, परन्तु ठोस उपाय सामने नहीं आ रहे। उल्टे सरकार के क्रियाकलापों से जनता में कई सवाल उठाए जा रहे हैं-
  • क्या काले धन पर सरकार की कथनी और करनी में फर्क है?
  • क्या भ्रष्टाचार, लोकपाल विधेयक पर सरकार की नीयत साफ है?
  • क्या जन भावनाओं को भांपकर सरकार सचमुच कोई ठोस उपाय करने को मजबूर है या वह सिर्फ ढोंग कर रही है?
पाठकों की प्रतिक्रियाओं में इन प्रश्नों के उत्तर चिन्हित किए जा सकते हैं।
रायपुर से महेन्द्र साहू ने लिखा- 'लोकपाल विधेयक पर सरकार की नीयत कतई साफ नहीं है। सरकार का दोगला रवैया देखकर आश्चर्य होता है। ये वही प्रणव मुखर्जी हैं जिन्होंने 2001में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की सिफारिश की थी। मुखर्जी इस मुद्दे पर गठित समिति के अध्यक्ष थे। यानी 'उनके' प्रधानमंत्री की बात अलग थी और 'हमारे' प्रधानमंत्री की बात अलग है! क्या यही सत्ताधीशों का चरित्र है! बिल्कुल नहीं, वाजपेयीजी तो खुद मुखर्जी की सिफारिश पर सहमत थे। कुछ समय पहले तक केन्द्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली और पी. चिदम्बरम भी प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने पर सहमति जता चुके थे। और तो और बड़बोले कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह भी यही बात दोहरा चुके थे। बाद में भले ही वह पलट गए।'
अहमदाबाद से डॉ. रूपा त्रिपाठी ने लिखा- 'काले धन को सरकार राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने को तैयार है तो फिर विधेयक लाने में क्या दिक्कत है? बाबा रामदेव यही चाहते थे, जिनकी मांग को बेरहमी से ठुकरा दिया गया।'
खमनोर (राजसमंद) से शंकरलाल कागरेचा ने लिखा- 'बाबा रामदेव के अहिंसक सत्याग्रह को जिस तरह कुचला गया उसकी मिसाल अन्यत्र नहीं मिलती। किसी जायज आन्दोलन को बलपूर्वक नहीं कुचला जा सकता। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेकर सरकार से जवाब मांगा। ये संस्थाएं ही न्याय करेंगी कि सरकार ने कितनी बर्बर और अनुचित कार्रवाई की।'
ग्वालियर से अशोक लाहा ने लिखा- 'बाबा रामदेव को गिरफ्तारी से बचने के लिए आन्दोलन स्थल से भागना नहीं चाहिए था। बाबा की इसी एक चूक ने विदेशी बैंकों में जमा  70 लाख करोड़ रुपए की काली कमाई का महत्वपूर्ण मुद्दा हाथ से गंवा दिया। केन्द्र सरकार और विरोधियों को उन पर हमला करने का अवसर मिल गया।'
बेंगलूरु से डी.सी. बोथरा ने लिखा- 'सरकार की यह चाल है कि वह मुद्दों की लड़ाई को व्यक्ति पर केन्द्रित कर दे ताकि उन्हें बदनाम किया जा सके। इसलिए कभी वह बाबा रामदेव को 'ठग' बताती है तो कभी अन्ना हजारे को आरएसएस का मोहरा।'
जबलपुर से कौशल भारद्वाज ने लिखा- 'दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे दोनों एक ही मकसद के लिए लड़ने के बावजूद अलग-अलग छोर पर खड़े नजर आते हैं। दोनों एक दूसरे के कुछ मुद्दों पर सहमत हैं कुछ पर असहमत, लेकिन उन्हें सार्वजनिक तौर पर जाहिर कर दोनों अपने-अपने आन्दोलनों को कमजोर ही कर
रहे हैं।'
बीकानेर से दौलत सिंह सांखला ने लिखा- 'विदेशों में जमा काले धन पर विधेयक तथा लोकपाल बिल में प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को शामिल किए बिना काला धन और भ्रष्टाचार कभी खत्म नहीं होंगे।'
श्रीगंगानगर से कुलदीप चढ्ढा ने लिखा- 'सरकार सिविल सोसाइटी के जन लोकपाल बिल को लागू करने को तैयार नहीं थी तो संयुक्त ड्राफ्ट कमेटी गठित करने की नौटंकी करने की क्या तुक थी। सरकार वही लोकपाल बिल पारित कर देती जो उसने 1968 में पेश किया था और जिसे लोकसभा में अब तक 14 बार रखा जा चुका है।'
उज्जैन से कृपाशंकर पुरोहित ने लिखा- 'सरकार अपने मकसद में कामयाब होती नजर आ रही है। पहले बाबा रामदेव के आन्दोलन की हवा निकाली और अब सिविल सोसाइटी के ड्राफ्ट की धज्जियां उड़ा रही है। हर कोई यह बात अच्छी तरह समझाता है कि अगर ड्राफ्ट कमेटी की ओर से दो अलग-अलग ड्राफ्ट केबिनेट में गए तो सरकार कौन से ड्राफ्ट को मंजूर करेगी। एक कमजोर लोकपाल का होना न होना
बराबर है और इसी की तैयारी की जा रही है।

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