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कहां खो गया जनता का प्रहरी?

आज तो मीडिया पर ही निगरानी की ज्यादा जरूरत है। जन को छोड़कर वह तंत्र के हितों को साधने में मशगूल है।
क्या गणतंत्र के प्रहरी के रूप में मीडिया का सामथ्र्य चुक गया? या फिर खुद मीडिया ने अपनी हालत इतनी दयनीय बना ली कि प्रहरी तो दूर वह एक कमजोर चौकीदार की भूमिका भी नहीं निभा पा रहा? उस पर जनता ने लोकतंत्र के तीनों पायों की निगरानी का दायित्व सौंपा था। लेकिन वह खुद चौथा पाया बनकर भ्रष्टतंत्र में शामिल हो गया। आज तो मीडिया पर ही निगरानी की ज्यादा जरूरत है। जन को छोड़कर वह तंत्र के हितों को साधने में मशगूल है। उसके अपने हित सर्वोपरि हैं। इसलिए उसकी आवाज में न ताकत है और न लोगों का उसमें भरोसा। वह जनता से दूर चला गया। सिर्फ कारोबार बन कर रह गया।
मीडिया आज मुख्यत: दो तरह के कारोबारियों के हाथ में है। एक वे जो रियल एस्टेट, चिटफंड, खनन, ऊर्जा जैसे गैर-मीडिया कारोबारी हैं। दूसरे वे जो मीडिया कारोबारी होते हुए भी धीरे-धीरे दूसरे व्यवसाय शुरू कर देते हैं। कुछ अरसे बाद दूसरा व्यवसाय प्रमुख बन जाता है। मीडिया तो सिर्फ उसे चमकाने के काम आता है। जैसे 'पॉवर' प्राप्त करने के लिए कुछ मीडिया कंपनियां पॉवर क्षेत्र में प्रवेश कर गईं तो कुछ पॉवर कंपनियां मीडिया में घुस आईं। दोनों ही सूरत में इस्तेमाल मीडिया का किया जा रहा है। भारत में क्रॉस मीडिया ऑनरशिप पर कोई पाबंदी नहीं है। इसलिए मीडिया में गैर-मीडिया और गैर-मीडिया क्षेत्र में मीडिया का प्रवेश निर्बाध जारी है।
मनोरंजन...
मीडिया की ओर से ऐसा सुनने पर बहुत निराशा होती है। हमारा सबसे पहला काम खबर देना है और वह भी संतुलित खबर। मीडिया स्वयं को लोकतंत्र का चौथा पाया मानता है, तो उसे पूरी तरह से इस भूमिका को निभाना चाहिए और ऐसा भारतीय मीडिया ने किया भी है। आज आम आदमी की जुबान पर जो बड़े-बड़े घोटालों के नाम हैं, वे मीडिया की वजह से ही उजागर हुए हैं। जिन घोटालों या भ्रष्टाचार की शिकायत आज आम आदमी करता है, उसके पीछे मीडिया का बड़ा रोल है। लेकिन यह सही है कि मौजूदा दौर में मीडिया की चौथे पाये की भूमिका में कमी आई है, उसमें सुधार होना चाहिए। भारत ही नहीं, दुनियाभर में मीडिया आज अहम किरदार है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस देश में भी तानाशाही होती है, वहां की सरकार सबसे पहले प्रेस को बंद करती है। किसी भी लोकतंत्र को बचाए रखने के स्वतंत्र और मजबूत प्रेस का होना बहुत जरूरी है।
कमजोर...
मालिक या कम्पनी प्रबंधन की सोच तो अखबार या चैनल में मुनाफा कमाना ही रहेगी। पाठक या दर्शक को अगर उपभोक्ता की तरह देखा जाए, तो फिर नागरिकों के सशक्तीकरण और उनमें जागरूकता की बात बेमानी है।
दिखने लगा सरकार का दबाव : पांच-छह साल से पूरे विश्व में आर्थिक संकट का दौर चल रहा है। हमारे देश की अर्थव्यवस्था भी खराब हुई है। जीडीपी वृद्धि की गति कम हो गई है, इससे बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों ने विज्ञापनों पर खर्च करना कम कर दिया है। इसका मीडिया कम्पनियों पर भी असर पड़ा है। पिछले पांच-दस साल से इंटरनेट की पहुंच लोगों तक बहुत बढ़ गई है। वह मुफ्त में सूचनाएं, खबरें दे रहा है, हालांकि इसकी विश्वसनीयता पर सवाल जरूर है। आर्थिक संकट के चलते अखबारों और चैनलों में निजी संस्थाओं के विज्ञापन कम हो रहे हैं और मीडिया कम्पनियां विज्ञापन के लिए सरकार पर ज्यादा निर्भर हो गई हैं। ऐसे में सरकार विज्ञापन देगी, तो यह भी चाहेगी कि मीडिया उसके खिलाफ न जाए। यह दबाव भी मीडिया पर काम कर रहा है। इसी के चलते विश्वसनीयता खत्म हुई है।
पेड न्यूज के जरिए धोखा : इस दौर में पेड न्यूज ने पाठकों के साथ बड़ा छल किया है। विज्ञापन  को खबरों की तरह पेश किया जा रहा है। लेकिन हमारे देश का पाठक या दर्शक बेवकूफ नहीं है। वह समझाता  है कि कौन पाठकों या दर्शकों से धोखा कर रहा है। खबरों को लेकर विश्वसनीयता खत्म होगी, तो नुकसान मीडिया का ही होगा। बिजनेस मॉडल के चलते अगर सब कुछ विज्ञापन पर ही निर्भर रहेगा, तो आगे चलकर संकट पैदा हो जाएगा। मीडिया पर लगने वाले आरोपों में कुछ सच्चाई तो है। मीडिया को आत्म चिंतन करना चाहिए। जन-सरोकारों को निभाना चाहिए। जिस चौथे खम्भे का दर्जा मीडिया को मिला हुआ है, उसके हिसाब से कितना काम वह कर रहा है , आज यह सबके सामने हैं। हालांकि मीडिया का एक हिस्सा हमेशा  ऐसा रहा है, जो अपनी जिम्मेदारी निभाता रहा है, लेकिन ज्यादातर लोग ऐसा नहीं कर रहे । भारतवर्ष ही अकेला ऐसा देश है, जो खुद को लोकतंत्र कहता है, लेकिन रेडियो पर खबरें सरकार की ही आती हैं।
कहां...
क्रॉस मीडिया ऑनरशिप के दो रूप प्रचलित हैं। पहला, जब एक मीडिया- कंपनी मीडिया-क्षेत्र यानी टीवी, अखबार, रेडियो आदि में ही निवेश करे तो यह 'वर्टिकल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' है। दूसरा, जब एक मीडिया-कंपनी मीडिया से बाहर के क्षेत्र में निवेश करे तो यह 'हारिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' है। अमरीका तथा ज्यादातर यूरोपीय देशों में हॉरिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप पर पाबन्दी है। भारत में ऐसी कोई रोक नहीं होने से मीडिया में घालमेल का कारोबार पनप गया। मीडिया को भ्रष्ट करने में इसकी बड़ी भूमिका है। इसके सूत्र देश के दो सबसे बड़े 2जी स्पैक्ट्रम और कोयला ब्लॉक आवंटन घोटालों में आसानी से देखे जा सकते हैं। 2जी स्पैक्ट्रम के लिए गैर मीडिया कंपनियों ने किस तरह लॉबिंग की और किस तरह लॉबिस्ट नीरा राडिया की मार्फत भ्रष्ट नेताओं, उद्योगपतियों और नामी-गिरामी पत्रकारों में सांठगांठ हुई, यह सबके सामने है। ये तो कुछ टेपों के ही खुलासे थे। अगर 5800 टेपों के राज खुल गए तो पता नहीं किस किसकी पोल खुलेगी। कोयला ब्लॉक्स घोटाले में कुछ मीडिया कंपनियों की भागीदारी सीधे तौर पर सामने आई। कुछ परोक्ष तौर पर जिम्मेदार रहीं। नवीन जिन्दल-जी न्यूज प्रकरण इसका उदाहरण है। देश में जब इतने बड़े घपले-घोटाले हों तो मीडिया की जिम्मेदारी थी कि वह इन्हें उजागर करता। लेकिन खुद मीडिया के हित जुड़े हों तो कौन यह काम करता। देश के बड़े घोटाले कैग, सीवीसी जैसी संस्थाएं सामने लेकर आईं।
मीडिया को एक और प्रवृत्ति ने ठेस पहुंचाई। यह है राजनेताओं का मीडिया कारोबार में प्रवेश। आज कई प्रान्तीय अखबार और न्यूज चैनलों पर राजनेताओं का मालिकाना हक है। मीडिया के जरिए गैर-मीडिया कारोबारों की तरह राजनीति को भी चमकाया जा रहा है। जैसे महाराष्ट्र में 'लोकमत', छत्तीसगढ़ में 'हरिभूमि', झारखंड में 'प्रभात खबर' जैसे अखबारों के खनन अथवा बिजली उत्पादन के गैर-मीडिया कारोबार हैं। कई राज्यों से प्रकाशित 'दैनिक भास्कर' के बिजली उत्पादन, खनन, रियल एस्टेट, खाद्य तेल रिफाइनिंग, कपड़ा उद्योग आदि कई गैर-मीडिया कारोबार हैं। इसी तरह राजनेताओं ने भी मीडिया को गैर-मीडिया कारोबार में तब्दील कर दिया। कहने को उनके न्यूज चैनल या अखबार जनता के लिए है, लेकिन असल हित राजनीति के साधे जाते हैं। दक्षिण भारत में यह प्रवृत्ति पहले से थी, अब पूरे देश में फैल गई है। हरियाणा में पूर्व केन्द्रीय मंत्री विनोद शर्मा का 'इंडिया न्यूज चैनल', सांसद के.डी. सिंह का 'तहलका एवन', राज्य के पूर्व गृहमंत्री और गीतिका कांड के आरोपी गोपाल कांडा का 'हरियाणा न्यूज' चैनल व 'आज समाज' अखबार, नवीन जिन्दल का 'फोकस टीवी' है। पंजाब में अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल का 'पीटीसी न्यूज'  चैनल, प.बंगाल में माकपा के अवीक दत्ता का 'आकाश बांग्ला' व '२४ घंटा' टीवी चैनल है। आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी का 'साक्षी टीवी', के.चन्द्रशेखर राव का टी.न्यूज, तमिलनाडु में जयललिता का 'जया टीवी', कलानिधि मारन का 'सन टीवी', कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी की पत्नी अनिता कुमार स्वामी का 'कस्तूरी टीवी', कांग्रेस के राजीव शुक्ला का 'न्यूज 24' है जो जनता के साथ-साथ राजनीति की सेवा भी कर रहे हैं।
पेड न्यूज का रोग भी मीडिया को खोखला कर रहा है। इसका सबसे पहले खुलासा 'वाल स्ट्रीट जनरल' के नई दिल्ली ब्यूरो चीफ पाल बैकेट के एक लेख में किया गया था। शीर्षक था-'प्रेस कवरेज चाहिए, मुझो पैसे दो।' इसमें चंडीगढ के एक निर्दलीय उम्मीदवार की व्यथा बयान की गई थी। 2009के आम चुनावों में पेड न्यूज एक महारोग के रूप में उभरा। प्रेस परिषद की समिति की रिपोर्ट में बड़े-बड़े अखबार और मीडिया घरानों (पत्रिका शामिल नहीं) के नाम सामने आए। कहने की जरूरत नहीं पेड न्यूज ने मीडिया की नैतिक शक्ति को कुंद कर डाला। देश के सारे मीडिया घराने और पत्रकार इन बुराइयों में डूबे हैं-यह सच नहीं है। अभी कुछ बचे हुए हैं। लेकिन इनकी तादाद इतनी कम है कि वे अकेले मीडिया की गिरती हुई साख को नहीं बचा सकते। अलबत्ता, इस कलुषित माहौल में वे अपने आपको साफ-सफ्फाक रखे हुए हैं यही कम बात नहीं है। वे बचे भी हैं और अपना काम भी बखूबी कर रहे हैं। इससे साबित है कि बिना भ्रष्ट हुए भी मीडिया जीवित रह सकता है।

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खोदा पहाड़ निकली चुहिया!

टिप्पणी
राजस्थान में नई सरकार बनने के बाद घोषणा हुई थी कि शीघ्र ही सरकारी विभागों से जुड़ी 60  दिवसीय कार्ययोजना पेश की जाएगी। सुनकर थोड़ी हैरत हुई थी। सिर्फ 60  दिवसीय ही क्यों? पूरे पांच साल की क्यों नहीं? फिर लगा सरकार जनता से जुड़े कुछ ऐसे महत्वपूर्ण कार्यों की प्राथमिकता तय करना चाहती होगी जो एक निश्चित समय-सीमा के भीतर पूरे हो जाने चाहिए। जनता के भारी ऐतिहासिक समर्थन से चुनी गई सरकार को भी लगा होगा कि उसे जनता का कर्ज लौटाने के लिए कुछ ऐसे काम करने चाहिए जो एक छोटी टाइम लाइन में बंधे हों। यह बात भी रही होगी कि दो माह बाद लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लग जाएगी। शुरू के दो माह आमतौर पर 'हनीमून पीरियड' के निकल जाते हैं। यानी सरकार बनने के चार-पांच माह बाद भी अगर वह कुछ काम न कर पाई तो जनता में बुरा संदेश जाएगा।
सरकार ने सही दिशा में सोचा। लेकिन माह भर इंतजार के बाद सामने आई साठ दिवसीय कार्ययोजना को जब देखा तो सब काफूर हो गया। खोदा पहाड़ और निकली चुहिया! यह कैसी कार्ययोजना। जिसमें न तो कोई प्राथमिकता है और न ही कोई जरूरी-गैर जरूरी कार्यों का विभाजन। 'गैर जरूरी' इस अर्थ में कि इन कार्यों की 60 दिन में क्रियान्विति की न तो कोई जरूरत है और न ही वह संभव है। विभागों ने सतही तौर पर जैसे एक सूची तैयार कर दी, जिसमें बिन्दुवार काम गिना दिए गए हैं। ऐसे-ऐसे काम हैं जिन्हें देखकर साफ है कि इनकी क्रियान्विति तो कोई लक्ष्य ही नहीं है। समय-सीमा के भीतर तो कतई नहीं।
क्या प्रदेश भर में 56 हजार किलोमीटर लंबी सड़कों की मरम्मत 60 दिवस में की जा सकेगी? राज्य में साढ़े चार हजार कम्प्यूटर लैब पांच साल में लगनी हैं तो दो हजार लैब फरवरी तक कैसे स्थापित होंगी! विभागों की कार्य सूची में ऐसे कई कार्य हैं जिन्हें पूरा करने के लिए कुछ साल चाहिए। तो कुछ कार्य ऐसे भी हैं जो 60 मिनट में किए जा सकते हैं। क्या तीन विश्वविद्यालयों के नाम परिवर्तन के लिए भी 60 दिन चाहिए? साफ-सफाई के रूटीन के काम भी शामिल करने की क्या तुक है! सबसे बड़ी बात यह है कि 60 दिन में काम पूरे नहीं हुए तो कौन जिम्मेदार होगा? इस पर खामोशी है।
कार्यों की सूची से साफ है कि नौकरशाही ने अपनी बला टाली है। सरकार का हुकुम था, इसलिए बजा दिया। लगता है इन कार्यों को तय करते समय 4 नामी-गिरामी मंत्रियों की समिति ने कुछ ध्यान ही  नहीं दिया। अफसरों ने जो परोसा वह पेश कर दिया। अफसरशाही की हठधर्मिता तो देखिए कि विभागों को योजना में संशोधन के लिए कहा भी गया तो अफसरों ने सुनी-अनसुनी कर दी।
परिणाम सामने है। जो कार्ययोजना आई है उससे जनता के न हित सधने वाले हैं और न ही उनकी आकांक्षाएं पूरी होंगी। उल्टे सरकार की छवि खराब होगी।

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सोशल मीडिया : छवि बनाने का छल

कई विश्लेषक यह मानने लगे हैं कि आगामी आम चुनावों में प्रमुख राजनीतिक दलों और नेताओं की जीत-हार में सोशल मीडिया की मुख्य भूमिका होगी। युवाओं की एक बहुत बड़ी फौज है जो सोशल मीडिया से प्रभावित है। सोशल मीडिया एक दुधारी तलवार है। यह नकारात्मक व सकारात्मक दोनों लक्ष्य साधता है।
अपने पिछले स्तंभ (7 जनवरी) में मैंने भारत में सोशल मीडिया को लेकर किए गए एक अध्ययन का जिक्र किया था। इसमें लिखा था कि सोशल मीडिया को राजनीति के एक सशक्त औजार के रूप में देखा जाने लगा है। अध्ययन की रिपोर्ट इसी बात की पुष्टि करती है। इसके मुताबिक वर्ष 2014 के आम चुनावों में 543 में से 160 सीटों के नतीजों को सोशल मीडिया प्रभावित कर सकता है। हालांकि अध्ययन साल भर पहले किया गया था, लेकिन गत दिनों दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) को मिले जन समर्थन के बाद सबका ध्यान इस अध्ययन पर गया। कारण साफ था।
'आप' का उदय जिस आन्दोलन से हुआ वह सोशल मीडिया के जरिए ही उभरा था। 'आप' ने एक राजनीतिक दल के तौर पर सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया। 'आप' की सफलता ने दूसरे राजनीतिक दलों और नेताओं को भी सोशल मीडिया के प्रति अपने रवैये को बदलने के लिए मजबूर किया। आज तो हर कोई दल और राजनेता सोशल मीडिया की इस ताकत को स्वीकारता है और इसके राजनीतिक इस्तेमाल के लिए उत्सुक दिखाई पड़ता है। शायद इसीलिए कई विश्लेषक भी यह मानने लगे हैं कि आगामी आम चुनावों में प्रमुख राजनीतिक दलों और नेताओं की जीत-हार में सोशल मीडिया की मुख्य भूमिका होगी।
अगर सचमुच ऐसा है तो हमें सावधान रहने की जरूरत है। खासकर, इसलिए कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग करना बहुत आसान हो गया है। पिछले कुछ अरसे में सोशल मीडिया के दुरुपयोग के कई प्रामाणिक मामले सामने आ चुके हैं। बेंगलुरु से उत्तर-पूर्व के लोगों के घर-बार छोड़कर भागने की घटना हमने देखी है, जो इसी सोशल मीडिया पर फैलाई अफवाहों के कारण घटी। पिछले साल मुजफ्फरनगर में एक सामान्य झागड़े को व्यापक दंगों में तब्दील करने में भी सोशल मीडिया की भूमिका सामने आई। हाल ही भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े की अमरीका में निर्वस्त्र तलाशी का फर्जी वीडियो सोशल मीडिया के जरिए ही प्रचारित-प्रसारित किया गया था। ये उदाहरण सोशल मीडिया में सक्रिय किन्हीं शरारती तत्त्वों की कारस्तानी माने जा सकते हैं। लेकिन सोशल मीडिया के दुरुपयोग के कुछ ऐसे उदाहरण भी सामने आए हैं जो और भी गंभीर हैं। ये बाकायदा आई.टी. कंपनियों द्वारा सोशल मीडिया के दुरुपयोग से जुड़े हैं। राजनीति में इसका इस्तेमाल एक खतरनाक प्रवृत्ति का संकेत है।
कुछ समय पूर्व कोबरा पोस्ट ने 'ऑपरेशन ब्लू वायरस' नाम से अपने एक स्टिंग के जरिए देश में फैली ऐसी दर्जनों आई.टी. कंपनियों का पर्दाफाश किया था जो किसी भी नेता या राजनीतिक दल की छवि बनाने या बिगाडऩे में माहिर हैं। इसकी एवज में ये कंपनियां अपने 'ग्राहक' से भारी रकम वसूल करती हैं। ये कंपनियां सोशल मीडिया पर किसी एक दल के प्रचार-प्रसार और छवि निर्माण का कृत्रिम वातावरण तैयार करती हैं। किसी नेता की लोकप्रियता को भी गढ़ती हैं और उसकी महानता का इन्द्रजाल भी बुनती हैं।
इतना ही नहीं ग्राहक के लिए उसके प्रतिस्पर्धी या विरोधी का खेल बिगाडऩे का काम बड़े करीने से किया जाता है। प्रतिस्पर्धी नेता या दल को नकारात्मक प्रचार के जरिए ध्वस्त करने की तिकड़में आजमाई जाती हैं। इन कंपनियों द्वारा मोटा धन वसूल करके अपने ग्राहक के लिए दी जाने वाली सेवाओं के कुछ प्रस्ताव जो कोबरा पोस्ट के कैमरे में कैद किए गए उन्हें जानकर किसी को भी हैरत होगी। जैसे—फेस बुक पेज पर ग्राहक नेता या राजनीतिक दल के चहेतों का अम्बार लगा देना। यानी फेक खाते बनाकर उनके पेज 'लाइक्स' कराए जाते हैं। जरूरत पडऩे पर ये कंपनियां ग्राहक के लिए 'लाइक्स' खरीदती भी हैं। इसी तरह प्रतिस्पर्धी के खिलाफ भ्रामक और नकारात्मक प्रचार कराया जाता है ताकि विरोधी की छवि खराब की जा सके। ट्विटर पर फालो करने वालों की नकली सेना बनाने का काम भी प्रस्तावित सेवाओं में शामिल है। प्रचार के लिए वीडियो को वायरल बना कर यू-ट्यूब पर फैला देना भी इनकी सेवाओं में शामिल है। चोरी पकड़ में न आए इसके लिए कंपनियों ने तकनीकी रास्ते भी खोज निकाले हैं। ट्रेसिंग से बचने के लिए ऑफशोर आईपी और सर्वर का प्रयोग किया जाता है।
विरोधी की छवि खराब करने के लिए दूसरों के कम्प्यूटर हैक करने तथा अपनी लोकेशन हर घंटे बदलते रहने के लिए कम्प्यूटर पर प्रॉक्सी कोड का इस्तेमाल करने की जुगत की जाती है। कैमरे पर कुछ आई.टी. पेशेवरों के इंटरव्यू हैं जो पैसा लेकर ये सब काम करना न केवल कबूल करते हैं, बल्कि आगे के लिए भी अपनी सेवाएं देने को तत्पर हैं। हालांकि कोबरा पोस्ट के स्टिंग में जो कंपनियां पकड़ी गईं, वे आई.टी. क्षेत्र में कोई बड़ी या नामधारी कंपनियां नहीं मानी जाती, लेकिन इनके कारनामों का खुलासा तो होता ही है जो हमें सचेत करने के लिए काफी है। खासकर इस पृष्ठभूमि में कि सोशल मीडिया एक सशक्त राजनीतिक औजार है जिसका इस्तेमाल आगामी आम चुनावों के दौरान व्यापक स्तर पर किया जाएगा।
युवाओं की एक बहुत बड़ी फौज है जो सोशल मीडिया से प्रभावित है। सोशल मीडिया एक दुधारी तलवार है। यह नकारात्मक व सकारात्मक दोनों लक्ष्य साधता है। अगर लालची आई.टी. कंपनियां और सत्ता के लोभी नेता व दल आगामी आम चुनावों में सोशल मीडिया के जरिए अपना 'इन्द्रजाल' रचने में थोड़े कामयाब भी हो गए तो यह लोकतंत्र की बड़ी हार होगी। इन्हें कैसे रोका जा सकता है, कहना मुश्किल है। 'ट्राई' की नियमावली और सायबर कानून इनके समक्ष बौने नजर आते हैं। आई.टी. दिग्गज ही शायद कोई रास्ता निकाल सके। इसके लिए न केवल चुनाव आयोग बल्कि केन्द्र के स्तर पर भी खास उपायों की जरूरत पड़ेगी।
माफ करें...
ज्यादातर न्यूज चैनल उस रात राहुल गांधी पर चर्चा कर रहे थे। विशेषज्ञों का पैनल बहस में मशगूल था। दिन में हुई एआईसीसी की बैठक के दौरान राहुल के भाषण का सभी अपने-अपने ढंग से विश्लेषण कर रहे थे। राहुल के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की औपचारिक घोषणा न होने का चुनाव अभियान पर क्या असर पड़ेगा। इसी बीच सुनन्दा पुष्कर की मौत का 'फ्लेश' चमका। एंकरों ने चर्चा रोक कर घोषित किया— 'माफ करें, एक महत्त्वपूर्ण खबर आ रही है। हम फिर लौटेंगे, चर्चा जारी रहेगी।' लेकिन इसके बाद सभी चैनलों के कैमरे होटल लीला पर केन्द्रित हो गए। लाइव कवरेज की होड़ मच गई। चर्चा वाले एंकर फिर लौट कर नहीं आए।

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मनमानी के स्कूल

टिप्पणी
 नन्हे-मुन्नों को स्कूल में दाखिले की समस्या घर-घर की है। कम-से-कम मध्यमवर्गीय हर शहरी परिवार का तो यही दुखड़ा है। अपने बच्चे का निजी स्कूल में नर्सरी दाखिले की खातिर उनके पसीने छूट जाते हैं। एक स्कूल से दूसरे स्कूल, दूसरे से तीसरे स्कूल...। भटकते-भटकते सांस फूल जाती है। स्कूल संचालकों का रवैया हैरान कर देता है। एडमिशन फॉर्म नदारद। कहीं उपलब्ध तो फॉर्म का शुल्क भारी-भरकम! कहीं जबरदस्ती थोपे गए कायदे। शुल्क अदा करके फॉर्म भरो तब तक एडमिशन फुल! पिछला दरवाजा हरदम खुला है।
एडमिशन के क्या नियम-कायदे- कोई बताने वाला नहीं। कुल कितनी सीटें थीं, कितनी भरी गई—कोई पारदर्शिता नहीं। कोई नियम-कायदे स्पष्ट नहीं। सब-कुछ गोलमोल। और इसमें चक्करघिन्नी बने बेचारे अभिभावक। राज्य सरकार उन्हें पूरी तरह इन निजी स्कूल संचालकों के हवाले छोड़ कर चैन की नींद सो रही है। जयपुर सहित राज्यभर में ज्यादातर निजी स्कूलों के यही हालात हैं। भोपाल, इंदौर, रायपुर जैसे बड़े शहरों के हालात भी कमोवेश यही हैं। अभिभावकों की कोई सुनने वाला नहीं। भले ही इनकी तादाद लाखों में है। दिल्ली में सरकार ने सुध ली तो इस बार पासा ही पलट गया। अभिभावकों की बजाय निजी स्कूल संचालकों के पसीने छूट गए। सरकार के खिलाफ सारे निजी स्कूल लामबंद हो गए। खूब चीख-पुकार मचाई। हाईकोर्ट गए, लेकिन दाल नहीं गली। जब भी निजी स्कूलों पर शिकंजा कसने की बात आती है—स्कूलें स्वायत्तता का रोना रोने लगती है। सरकारी दखलंदाजी का शोर मचाती है। यही नहीं शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट की चेतावनी दे डालती है। कौन नहीं जानता दुकानों की तरह खुली हुई ज्यादातर निजी स्कूलों को न स्वायत्तता की चिन्ता है और न ही शिक्षा की गुणवत्ता की। हर कोई जानता है उनकी वास्तविक चिन्ता कहां अटकी और भटकी रहती है। हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार है। नर्सरी या प्री प्राइमरी दाखिला शिशु-शिक्षा की नींव है। नींव को मजबूती देने का दायित्व जितना अभिभावकों का है उतना ही स्कूल संचालकों का भी है। अगर ये संचालक अपना दायित्व नहीं समझते तो सरकार को अपनी भूमिका निभानी होगी। दिल्ली सरकार की तरह ही शिकंजा कसना होगा तथा नर्सरी दाखिले के लिए सख्त नियम-कानून तय करने होंगे। सख्ती करते ही स्कूल संचालक लामबंद होंगे। दिल्ली की तरह ही तर्क देंगे कि सरकार को उनकी स्वायत्तता में दखल का कोई अधिकार नहीं। क्यों नहीं है? सरकार से सस्ती जमीन लेते समय उन्हें यह याद क्यों नहीं आता? सरकार को अधिकार है—पूरा अधिकार है।
केवल अल्पसंख्यक स्कूलों को ही संवैधानिक कवच प्राप्त है। सभी स्कूलों को मनमानी करने की छूट नहीं दी जा सकती। आखिर क्यों अभिभावकों को अपने नन्हे-मुन्नों के लिए दर-दर भटकना पड़े। इन स्कूलों को प्रवेश के नियम, तारीख, समय-सीमा, सीटों की संख्या, फीस का ढांचा सब कुछ पारदर्शी रखना होगा। आखिर ये स्कूलें शिक्षा के ज्ञान-केन्द्र के तौर पर खुली हैं। इसी रूप में इनकी मान्यता है न कि उपभोक्ता सामग्री बेचने वाली दुकान के रूप में। अगर इन्हें दुकानदारी ही करनी है तो कोई दूसरा धंधा अपनाएं। स्कूलों को शिक्षा और शिक्षार्थी के प्रति ही समर्पित होना होगा—चाहे वह सरकारी सहायता  प्राप्त निजी स्कूल हो या गैर सहायता प्राप्त।

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पात्र जुड़ें, फर्जी रुकें

टिप्पणी
चुनावों में ज्यादा से ज्यादा लोग मतदान में हिस्सा लें —  लोकतंत्र की सफलता का यह मूलमंत्र है। हाल ही पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में लोगों ने उत्साहपूर्वक भागीदारी निभाई। मतदान के रिकॉर्ड टूटे। गड़बडिय़ां भी सामने आईं। ऐन वक्त पर कइयों के नाम मतदाता सूचियों से गायब हो गए। लेकिन कुल मिलाकर जो मतदान प्रतिशत रहा, वह उत्साहित करने वाला था। अब आम चुनाव की तैयारी है। जयपुर जिले में मतदाता सूचियों में नाम जुड़वाने वालों की भारी तादाद है। लंबी कतार देखकर थोड़ी हैरत भी होती है। अभी दो माह पहले तक मतदाता सूचियों में नाम जुड़वाने के राज्य भर में कार्यक्रम चल रहे थे। गत वर्ष यह सिलसिला लगातार चलता रहा था। ऐसे में अकेले जयपुर जिले में मतदाता सूची में नाम जुड़वाने वालों की संख्या व आंकड़े चौंकाते हैं। थोड़े से दिनों के चुनाव आयोग के कार्यक्रम में ही करीब 2 लाख लोगों ने मतदाता सूची में नाम जुड़वाने के लिए आवेदन कर दिए।
विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण नामक इस कार्यक्रम की समय सीमा 7 जनवरी तय थी, लेकिन आवेदनों को देखते हुए अगले दिन भी इन्हें जमा कराने का काम जारी रखना पड़ा। शायद कुछ दिन यह कार्यक्रम और बढ़ाना पड़े। जयपुर जिले की यह बानगी है तो पूरे राज्य की क्या तस्वीर होगी, अनुमान लगाया जा सकता है। दिसम्बर में राज्य विधानसभा चुनाव के ठीक पहले मतदाता सूचियों में नाम जुड़वाने का क्रम पूरा हुआ था। सवाल है क्या दो माह के भीतर इतनी बड़ी तादाद में नए मतदाता जुडऩे के लिए कतार में लगे हैं या फिर ये वे लोग हैं जो मतदाता सूची में नाम जुड़वाने से वंचित रह गए थे? या फिर ऐनवक्त पर सूचियों से जिनके नाम कट गए, वे लोग हैं ये? मतदाता सूची में नाम जुड़वाने के लिए 1 जनवरी तक 18 वर्ष की आयु जरूरी है।
संभव है पहली जनवरी के बाद पात्र हुए युवाओं की यह तादाद हो। लेकिन आंकड़े देखकर इसकी पुष्टि नहीं होती। जो आंकड़े सामने आए हैं, उनके अनुसार दो लाख में से 25 फीसदी आवेदक ही इस श्रेणी में है। यानी 75 फीसदी आवेदक विभिन्न आयु वर्ग के हैं। ये सभी लोग पहली बार तो आवेदन कर नहीं रहे होंगे। इनमें से कई अन्य जगहों से स्थानान्तरित होकर आए होंगे। कई वे होंगे, जिन्होंने पहले आवेदन किया था पर सूची में नाम दर्ज नहीं हुआ। ऐसे लोग भी कतार में होंगे, जिनका नाम ताजा सूची से गायब हो गया था। कई फर्जी नाम भी हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि अगर सारे लोग मतदाता सूचियों में नाम जुड़वाना चाहते हैं तो कहीं न कहीं यह चुनाव प्रबंधन की खामियों का नतीजा है। अभी राज्य भर से आंकड़े आना बाकी है।
जयपुर का उदाहरण यह दर्शाता है कि तमाम दावों के बावजूद मतदान सूची में नाम जुड़वाने की प्रक्रिया अभी कई खामियों की शिकार है। यह मानकर भी चलें कि मतदाता सूचियों में नाम जुड़वाने के लिए कोई फर्जीवाड़ा नहीं हो रहा है तो भी थोड़े से अंतराल के बाद ही अगर इतने आवेदक खड़े हो गए हों तो जरूर कहीं न कहीं गड़बड़ी है। नामों की जांच-परख अच्छी तरह से हो। बल्क में आवेदन स्वीकार न हो। 23 हजार आवेदन तो शुद्धीकरण के आए हैं। इससे साफ है सूचियों की जांच का काम लापरवाही से हुआ। इसमें दो राय नहीं कि कोई भी पात्र व्यक्ति सूची में दर्ज होने से वंचित नहीं होना चाहिए, लेकिन यह भी जरूरी है कि सूची पूरी तरह से निर्दोष और मुकम्मल हो। फर्जी नाम दर्ज न हो।

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सोशल मीडिया व चुनाव-2014

कोई भी राजनीतिक दल सोशल मीडिया की अनदेखी करने की जोखिम नहीं उठा सकता। खासकर, तब जब देश में न केवल युवा बल्कि हर उम्र और वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों की सोशल मीडिया से जुडऩे की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।

आपको याद होगा। साल भर से ज्यादा पुरानी बात नहीं है। सोशल मीडिया को लेकर एक अध्ययन किया गया था। इसमें कहा गया कि 2014 के आम चुनावों में 543 लोकसभा सीटों में से 160 सीटों के नतीजों को सोशल मीडिया प्रभावित कर सकता है। सोशल मीडिया यानी फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, लिंकडिन, व्हाट्स अप आदि इंटरनेट पर उपलब्ध माध्यम देश के राजनीतिक भविष्य को तय करने का जरिया बन सकते हैं। भारत के संदर्भ में यह एक नई बात थी। इसलिए तब इसे इतनी गंभीरता से शायद ही किसी ने लिया। लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद हर कोई इस पर विचार करने को मजबूर है। आज तो सभी राजनीतिक दलों में एक बेचैनी-सी नजर आ रही है। वे अपनी रणनीति का नए सिरे से आकलन करने में जुटे हैं। विश्लेषक भी सोशल मीडिया की इस ताकत को तौल रहे हैं। साल भर के भीतर परिदृश्य बदल गया। 8 दिसंबर के बाद यह परिवर्तन मानो परवान चढ़ गया।
सवाल है, ऐसा क्या हुआ कि सोशल मीडिया को राजनीति के एक सशक्त औजार के रूप में देखा जाने लगा है। क्या सोशल मीडिया के जरिए राजनीति में धूमकेतु की तरह उभरे एक नए दल 'आप' की सफलता का यह परिणाम है या इससे अधिक कुछ और भी है?
यह अध्ययन आई.आर.आई.एस. नॉलेज फाउंडेशन और इंटरनेट एवं मोबाइल एसोसिएशन आफ इंडिया के संयुक्त तत्वावधान में किया गया था। लोकसभा की 160 सीटों के नतीजों को प्रभावित करने वाले निर्वाचन क्षेत्र वे हैं जहां कुल मतदाताओं की दस प्रतिशत आबादी सोशल मीडिया पर सक्रिय है। इसका मतलब यह है कि सोशल मीडिया उपभोक्ताओं की संख्या इन निर्वाचन क्षेत्रों में पिछले चुनाव में विजयी उम्मीदवार की जीत के अन्तर से अधिक है। ये आंकड़े करीब साल भर पुराने हैं। यानी फेसबुक और ट्विटर यूजर्स की संख्या में इस दौरान जो बढ़ोतरी हुई, वह अलग है। इस अध्ययन का दिल्ली चुनाव में एक हद तक परीक्षण हो चुका है। शायद इसीलिए आगामी आम चुनावों पर सबकी नजरें टिक गई हैं। अध्ययन में अलग-अलग राज्यों की सीटों की जो अलग-अलग संख्या बताई गई थीं उनमें दिल्ली अकेला प्रदेश था, जहां सभी 7 सीटें सोशल मीडिया के उच्च प्रभाव में मानी गई। अध्ययन में सोशल मीडिया के सीटों पर असर को चार श्रेणियों में बांटा गया था। ये थीं उच्च प्रभाव, मध्यम प्रभाव, कम प्रभाव तथा प्रभावहीन सीटें। इसमें महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, बिहार, जम्मू-कश्मीर, प. बंगाल, झारखंड आदि राज्यों की करीब 93 सीटों को उच्च प्रभाव की श्रेणी में रखा गया। 67 सीटों को मध्यम प्रभाव, 60 सीटों को कम प्रभाव तथा 256 सीटों को प्रभावहीन घोषित किया गया था। अध्ययन के ये निष्कर्ष कितने सही, कितने गलत साबित होंगे, यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि आज कोई भी राजनीतिक दल इसकी अनदेखी करने की जोखिम नहीं उठा सकता। खासकर, तब जब देश में न केवल युवा बल्कि हर उम्र और वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों की सोशल मीडिया से जुडऩे की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।
इंटरनेट के मामले में तो भारत तेजी से अन्य देशों से आगे निकलता जा रहा है। खास बात यह है कि शहरी क्षेत्र के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़त ज्यादा तेज गति से हो रही है। भारत में इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट की विकास दर 58 प्रतिशत सालाना की दर से हो रही है। ग्रामीण भारत में इस वक्त 6.8 करोड़ उपभोक्ता है। इंटरनेट उपभोक्ताओं की कुल संख्या 20 करोड़ से ऊपर पहुंच गई है। इनमें सोशल मीडिया से जुड़े उपभोक्ताओं की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। आज यह संख्या 9 से 10 करोड़ के बीच आंकी जा रही है। इतनी बड़ी आबादी की अनदेखी करना संभव नहीं है। सोशल मीडिया से जुड़े इस विशाल समुदाय का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन या निजी बातचीत तक सीमित नहीं है। सोशल नेटवर्क पर 45 प्रतिशत से अधिक लोग राजनीतिक विमर्श भी खुलकर कर रहे हैं। यह एक नए किस्म का राजनीतिक समूह है, जो सभी दलों को समझ में आ रहा है।
सवाल मत कर...!
बदलते राजनीतिक दौर में कई नेताओं को पत्रकारों द्वारा तीखे सवाल करना रास नहीं आ रहा। ऐसा ही गत दिनों हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्दर सिंह हुड्डा ने किया। एक संवाददाता ने हरियाणा सिविल सर्विस में उनके रिश्तेदार के चयन पर सवाल पूछ लिया। फिर क्या था। सी.एम. साहब आपा खो बैठे— 'तू बता कौन-सा मेरा रिश्तेदार है... या तो नाम बता या फिर सवाल मत कर।...' हुड्डा यहीं नहीं रुके। उन्होंने युवा कैमरामैन को भी नहीं बख्शा— 'कैमरा तेने ठीक से पकडऩा नी आता। सवाल कर रहा भारी-भारी... जा बेटा... जा... थोड़ा तजुर्बा ले ले...।'

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लालच की फीस!

टिप्पणी
खबर पढ़कर आप भी चौंके होंगे। जालोर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राइवेट स्कूलों की पढ़ाई शहरों से भी महंगी है। यह इसलिए ताकि गरीब बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा के बदले में ये स्कूलें सरकार से 'रीइंबर्समेंट' यानी पुनर्भरण के रूप में फीस की अधिक से अधिक राशि वसूल सके। सरकार से अधिकाधिक राशि वसूलने के लालच में ही गांवों की इन प्राइवेट स्कूलों ने अपनी फीस में जबरदस्त बढ़ोतरी की है। बात जालोर जिले तक सीमित नहीं है। जयपुर, जोधपुर, चित्तौडग़ढ़, चूरू आदि दूसरे कई जिलों के समाचार भी सामने आए हैं। राज्य भर में ही ये हालात हों तो कोई आश्चर्य नहीं सरकारी धनराशि वसूली का लालच इस कदर बढ़ गया कि गांव की इन स्कूलों ने पिछले वर्ष की तुलना में 300 फीसदी तक फीस बढ़ा डाली है। गांव ही क्यों कस्बाई और शहरी क्षेत्रों में भी प्राइवेट स्कूलों ने किस कदर लूट मचा रखी है, यह किसी से छिपा नहीं है। राज्य में ३७ हजार प्राइवेट स्कूूलें हैं। इन स्कूलों की फीस पर नियंत्रण रखने के लिए सरकार ने राज्य और जिलों में समितियां गठित कर रखी हैं। इन समितियों की सिफारिश के बाद कोई प्राइवेट स्कूल अपनी फीस तीन साल तक नहीं बदल सकता। इसमें दो राय नहीं पूर्व न्यायाधीश शिवकुमार शर्मा की अध्यक्षता में गठित राज्य स्तरीय समिति के चलते बड़े शहरों की प्राइवेट स्कूलों की फीस के ढांचे में कुछ सुधार हुआ है। लेकिन अभी चंद प्राइवेट स्कूलों पर ही मनमानी फीस वसूलने के लिए शिकंजा कसा जा सका है। बाकी  हजारों स्कूलें अभी भी अभिभावकों से मनमानी फीस वसूली कर रही है, जिस पर जिला समितियों का कोई नियंत्रण नहीं दिखाई पड़ रहा। शिक्षा का अधिकार कानून के तहत प्रत्येक प्राइवेट स्कूल को 25 फीसदी गरीब बच्चों को निशुल्क प्रवेश देना जरूरी है। इन बच्चों की पढ़ाई का खर्चा सरकार उठाती है। इसलिए प्रत्येक गरीब छात्र के हिसाब से सरकार फीस की राशि का पुनर्भरण करती है। इसके लिए स्कूलों को अपना दावा पेश करना होता है। इस वर्ष से सरकार ने गरीब बच्चों को दिए गए नि:शुल्क प्रवेश के बाद पुनर्भरण की राशि बढ़ाकर11 हजार 704 रु. प्रति छात्र कर दी है। लगता है यह राशि देखकर लालची स्कूल संचालकों का मन कुछ ज्यादा ही डोल गया है। सांभर में एक स्कूल ने 350 फीसदी तक फीस बढ़ा दी। जालोर के छोटे से गांव भड़वल की एक स्कूल ने प्रति छात्र 24 हजार 300 रु. की पुनर्भरण राशि की डिमांड कर दी। आनन-फानन फीस बढ़ाकर ये संचालक अपनी जेबें तो भर लेंगे। लेकिन बाकी 75 फीसदी उन विद्यार्थियों का क्या होगा, जिन पर इनके लालच का बोझ भारी पड़ रहा है। क्या गांव के अभिभावक इतनी भारी फीस चुका पाएंगे? गांव ही क्यों शहरी अभिभावक भी फीस का यह ढांचा झोल पाएंगे? अगर नहीं तो क्या ये प्राइवेट स्कूलें दो तरह की फीस वसूली करती है। पुनर्भरण वाले गरीब छात्रों की फीस अलग तथा सामान्य छात्रों की अलग। यानी फर्जीवाड़ा घनघोर  है। सवाल यह है कि प्राइवेट स्कूलों के फीस ढांचे को नियंत्रित करने वाली जिला समितियां क्या कर रही हैं? कहीं ऐसा तो नहीं पुनर्भरण की आड़ में एक नए तरह का शिक्षा माफिया पनप रहा है। शिक्षा निदेशालय का केवल दुगनी-चौगुनी फीस बढ़ाने वाले स्कूलों की जानकारी मांग लेना ही काफी नहीं है। ऐसी स्कूलों की पुनर्भरण राशि तो रोकी ही जानी चाहिए, साथ ही उनका पंजीकरण भी रद्द कर देना चाहिए। इतना ही नहीं राज्य के नए शिक्षा कानून के तहत मनमानी फीस वसूलने पर स्कूल संचालक के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज होना चाहिए तथा कानून में 3 साल जेल का जो प्रावधान है, उसका कठोरता से प्रयोग होना चाहिए। अन्यथा राजस्थान विद्यालय (फीस संग्रहण का विनियमन) अधिनियम 2013 कागजी बनकर रह जाएगा।

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