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सोशल मीडिया का बढ़ता असर

पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन के ठिकाने पर अमरीकी हेलीकॉप्टरों के हमले की सबसे पहले सूचना मीडिया को एक ट्विट से हुई थी, जिसे एक स्थानीय बाशिन्दे ने पोस्ट किया था। सोशल मीडिया के एक विशेषज्ञ ने सही लिखा, 'अब हम सिर्फ श्रोता, पाठक या दर्शक नहीं रहे। आज का आम नागरिक भी एक लेखक, पत्रकार और प्रस्तोता की तरह ही ताकतवर हो गया है।

उस दिन अखबारों में एक साथ ये दोनों खबरें छपीं। एक में प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का पहली बार फेसबुक पर आने का समाचार था, जिसमें उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए एपीजे. अब्दुल कलाम की उम्मीदवारी सुनिश्चित करने व उन्हें जिताने की अपील की।
दूसरी खबर, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के ट्विटर पर संदेश से सम्बंधित थी, जिसमें उन्होंने एपीजे. अब्दुल कलाम से राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लडऩे की अपील की। उमर ने अपने ट्विट में प्रणव मुखर्जी की उम्मीदवारी की घोषणा होने पर उन्हें बधाई भी दी।
कुछ दिन पहले लालकृष्ण आडवाणी की अपने ब्लॉग पर अपनी ही पार्टी भाजपा को लेकर की गई टिप्पणी मीडिया में सुर्खियां बनी थीं। यही नहीं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खेल, मनोरंजन व कॉरपोरेट जगत से जुड़ी हस्तियों के व्यक्त किए गए विचार, संदेश व टिप्पणियां भी मीडिया में खबरें बन रही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि डिजिटल संसार अब सोशल मीडिया की भूमिका निभा रहा है। उसकी सूचनाएं आए दिन प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरें बन रही हैं। यह सोशल मीडिया—जिसे न्यू मीडिया भी कहा जा रहा है—के बढ़ते प्रभाव का प्रमाण तो है ही, मुख्यधारा के मीडिया के साथ उसके प्रगाढ़ होते रिश्तों को भी दर्शाता है। ऐसा अकारण नहीं है। फेसबुक, ट्विटर, यू- ट्यूब, फ्लिकर, ब्लॉग्स, पॉडकास्ट्स, गूगल आदि डिजीटल माध्यमों की दिनोंदिन होती सर्वव्यापी पहुंच से इनके महत्व और उपयोग को कई नए आयाम मिले हैं। विभिन्न आयु व पेशागत वर्गों में भी ये माध्यम अपनी पैठ बढ़ाते जा रहे हैं। राजनीति में युवा उमर अब्दुल्ला ट्विटर से जुड़े हैं, तो प्रौढ़वय ममता बनर्जी भी फेसबुक का सहारा ले रही हैं। बुजुर्ग लालकृष्ण आडवाणी अपने ब्लॉग के जरिए लोगों से संवाद कायम कर रहे हैं। यानी आम और खास सभी इन डिजिटल माध्यमों से जुड़ रहे हैं।
दुनिया में करीब 2 अरब लोगों तक इन माध्यमों की पहुंच हो चुकी है। हो भी क्यों नहीं। आपका संदेश बहुत आसानी से लोगों तक जो पहुंच जाता है। मिस्र, सीरिया, लीबिया, ट्यूनीशिया, बहरीन जैसे मुल्कों में क्रान्ति का बिगुल सोशल मीडिया के मार्फत ही वहां की जनता ने बजाया। शक्तिशाली अमरीका को हिलाने वाले आक्युपाइ वॉलस्ट्रीट आंदोलन को भी इसी मीडिया ने परवान चढ़ाया। भारत में अन्ना हजारे के लोकपाल अभियान को सोशल मीडिया ने बहुत बल दिया। आज सोशल मीडिया शक्ति का एक नया केन्द्र बन चुका है, जिससे सभी देशों के राजनीतिक दल व नेता जुडऩा चाहते हैं। हाल ही फ्रांस में हुए राष्ट्रपति चुनावों के दौरान निकोलस सरकोजी और फ्रेंकोइस ओलान्द ने अपने-अपने प्रचार अभियान में सोशल मीडिया का जमकर उपयोग किया। अमरीका में जगजाहिर है, वहां चुनाव अभियानों में सोशल मीडिया की प्रमुख भूमिका रहती है। ओबामा ने युवा मतदाताओं को लुभाने के लिए इस माध्यम का खूब उपयोग किया। पाकिस्तान में इमरान खान और उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ लोगों से इसी माध्यम से संवाद कायम रखे हुए है। अनेक देशों में राजनीतिक पार्टियों की अपनी वेबसाइट्स हैं। उनके प्रवक्ता फेसबुक, ट्विटर आदि के जरिए लोगों से निरंतर संवाद रखते हैं।
अब सवाल यह है कि सोशल मीडिया की यह लोकप्रियता कहीं मुख्यधारा के मीडिया की राह में बाधक तो नहीं? सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत और प्रसार के बीच आजकल कुछ लोग अगर ऐसा सोचने लगे हैं, तो आश्चर्य नहीं। लेकिन यह सोचने से पहले हमें मीडिया के विभिन्न रूपों के विकास की प्रक्रिया व पृष्ठभूमि पर एक नजर डालने की जरूरत है। प्रिंट मीडिया के युग में सर्वप्रथम रेडियो के आगमन ने इसी तरह के संदेह व सवाल उपजाए, लेकिन क्या रेडियो अखबारों के विकास में बाधक बना? आंकड़े साक्षी हैं कि भारत में प्रिंट मीडिया का प्रसार रेडियो की मौजूदगी के बावजूद तेजी से बढ़ता गया। ये दोनों माध्यम एक-दूसरे के विकास के पूरक ही बने।
फिर टेलीविजन आया। इसमें श्रव्य और दृश्य, दोनों शक्तियां थीं। 24 घंटे अबाध रूप से चलने वाले न्यूज चैनलों के दौर के बावजूद पूर्ववर्ती मीडिया कायम रहा। यह सही है कि टेलीविजन ने एक लम्बे समय तक रेडियो की उपयोगिता को पृष्ठभूमि में धकेल दिया। लेकिन रेडियो ने अपना नया आविष्कार किया और एफएम और कम्युनिटी रेडियो के रूप में फिर एक नई पहचान कायम करके अपना अस्तित्व सिद्ध कर दिया। रंगीन टेलीविजन के युग ने अखबारों को आकर्षक कलेवर और सज्जा प्रदान की। विषयों में विस्तार हुआ। फलस्वरूप दुनिया भर में टीवी के बावजूद अखबारों की प्रसार-संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गई। आज तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी कम और पूरक ज्यादा नजर आते हैं। टीवी की खबरों का अखबारों में विश्लेषण होता है, तो अखबारों के समाचार टीवी पर चर्चा का केन्द्र बनते हैं। खबरों की विश्वसनीयता व प्रभावशीलता के स्तर को लेकर प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर जरूर बहस हो सकती है, लेकिन दोनों माध्यमों के विस्तार-विकास को सभी स्वीकार करते हैं।
इसके बाद डिजिटल युग आया। मोबाइल फोन, सोशल मीडिया, कम्युनिटी रेडियो, ई-मेल, एस.एम.एस. आदि ने न केवल सूचना के त्वरित सम्प्रेषण को मजबूत किया, बल्कि लोकतंत्र और जनता की आवाज को भी मजबूती प्रदान की। ये सभी माध्यम आज मुख्यधारा के मीडिया के लिए प्रतिस्पर्धी कम और प्रतिपूरक ज्यादा हैं। राजनेताओं और विभिन्न क्षेत्र के प्रसिद्ध व्यक्तियों के फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग आदि पर व्यक्त किए गए विचार व संदेश मुख्यधारा के मीडिया के लिए समाचार बन जाते हैं। वहीं मुख्यधारा के मीडिया में प्रकाशित-प्रसारित समाचार और वक्तव्य सोशल मीडिया में बहस-चर्चा का केन्द्र बन जाते हैं। शशि थरूर से लेकर ममता बनर्जी के उदाहरण इसके प्रमाण हैं। एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्य पुस्तक में अम्बेडकर का कार्टून विवाद मुख्यधारा के मीडिया से होकर ही सोशल मीडिया में चर्चा का व्यापक मुद्दा बना। उल्लेखनीय बात यह है कि आज सोशल मीडिया के जरिए हर व्यक्ति सूचना का एक स्रोत बन गया है। पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन के ठिकाने पर अमरीकी हेलीकॉप्टरों के हमले की सबसे पहले सूचना मीडिया को एक ट्विट से हुई थी, जिसे एक स्थानीय बाशिन्दे ने पोस्ट किया था। सोशल मीडिया के एक विशेषज्ञ ने सही लिखा, 'अब हम सिर्फ श्रोता, पाठक या दर्शक नहीं रहे। आज का आम नागरिक एक लेखक, पत्रकार और प्रस्तोता की तरह ही ताकतवर हो गया है। और यह सब किया है, आज की डिजिटल दुनिया ने—सोशल या न्यू मीडिया ने। इससे मुख्यधारा का मीडिया समृद्ध ही हुआ है। उसके सूचना के स्रोत का विस्तार हुआ है। प्राकृतिक आपदा या किसी आपातकालीन परिस्थितियों में सोशल मीडिया से प्राप्त संदेश व सूचनाएं प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सुर्खियां बनी हैं। जापान में भूकम्प के दौरान यह हम देख चुके है। इसमें दो राय नहीं कि डिजिटल क्रांति ने व्यक्ति की निजता को प्रभावित किया है। और यह भी कि सोशल मीडिया सही अर्थों में पत्रकारिता नहीं है और न ही यह एक सम्पूर्ण मीडिया की भूमिका निभा सकता है, (इस पर चर्चा फिर कभी) इसके बावजूद इसकी ताकत और असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।





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निशाने पर विकीलीक्स!

विश्व राजनीति के इतिहास में इतने बड़े स्तर पर सरकारी राज खोलने का श्रेय 'विकीलीक्स' और इसके संस्थापक जूलियन असांजे को है। इसलिए असांजे के साथ पिछले दो वर्षों से घटित घटनाओं पर न केवल उनके लाखों प्रशंसकों की नजर है, बल्कि कई देश भी जिज्ञासापूर्वक घटनाओं को देख रहे हैं। असांजे के समर्थकों का आरोप है कि उन पर यौन शोषण के आरोप एक गहरी साजिश के तहत लगे हैं।

अपनी वेबसाइट 'विकीलीक्स' के जरिए अमरीकी सरकार के कई महत्वपूर्ण राज उजागर कर अमरीका को पूरी दुनिया के सामने मुश्किल में डालने वाले खोजी पत्रकार जूलियन असांजे इन दिनों खुद मुश्किल में हैं। आखिर ब्रिटेन की सर्वोच्च अदालत ने उन्हें स्वीडन को प्रत्यर्पित करने का आदेश सुना दिया। हालांकि अदालत ने फैसले को चुनौती देने के लिए उन्हें 13 जून तक समय दिया है, लेकिन माना जा रहा है कि असांजे को स्वीडन भेजने की पूरी तैयारी की जा चुकी है।
असांजे स्वीडन जाने का विरोध कर रहे हैं। उनका आरोप है कि स्वीडन में उनके खिलाफ मुकदमा तो एक बहाना है। स्वीडन सरकार उन्हें अमरीका को सौंप देगी। दोनों देशों के बीच यह गुप्त 'डील' हुई है। असांजे किसी सूरत में अमरीका नहीं जाना चाहते। अमरीका उन्हें जानी-दुश्मन समझाता है। अमरीका के हाथ लगे, तो वे जीवित नहीं बचेंगे, ऐसी उन्हें आशंका है।
असांजे ने विकीलीक्स के जरिए और भी कई देशों की सरकारों की पोल खोली है, लेकिन अमरीका उनके खास निशाने पर रहा है। उन्होंने इंटरनेट पर अमरीकी शासन के लाखों गोपनीय संदेश, हजारों खुफिया दस्तावेज और अमरीका को मित्र व शत्रु देशों के समक्ष शर्मिन्दा करने वाले अनेक राज उजागर किए हैं। 'विकीलीक्स' के खुलासों को दुनिया के लगभग सभी प्रमुख अखबारों और न्यूज चैनलों ने अपनी सुर्खियों में स्थान दिया। आज भी 'विकीलीक्स' के खुलासों की विश्व मीडिया-जगत में उत्सुकता से प्रतीक्षा की जाती है। इन खुलासों की वजह से अमरीका असांजे से नाराज है। मित्र देशों में उसकी छवि को 'विकीलीक्स' ने खासा बट्टा लगाया। विकीलीक्स पर रोक के अमरीका ने कई प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रयास किए। इसलिए असांजे की आशंका गलत नहीं लगती कि अमरीका में उन्हें सजा-ए-मौत दी जाएगी। 'विकीलीक्स' के पोल खोलने वाले खुलासों के बाद उनके विरुद्ध गतिविधियों पर एक नजर डालना ठीक होगा।
आस्ट्रेलिया के निवासी जूलियन असांजे ने वर्ष 2006 में विकीलीक्स की नींव रखी। शुरुआत में वे इसका कामकाज जमाने में लगे रहे। चर्चा में वे तब आए, जब उन्होंने 'विकीलीक्स' के जरिए 2010 में एक वीडियो जारी किया। इस वीडियो में एक अमरीकी हेलीकॉप्टर को अफगानिस्तान में हमला करते हुए दिखाया गया जिसमें कई लोग मारे गए थे। जाहिर है, इससे अमरीका काफी नाराज हुआ। लेकिन 'विकीलीक्स' ने अपना अभियान जारी रखा। जुलाई 2010 में उसने एक साथ 91 हजार दस्तावेज साइट पर डालकर खलबली मचा दी। इसमें ज्यादातर अमरीकी सेना के गुप्त दस्तावेज थे। अफगान युद्ध से जुड़े इन दस्तावेजों से जाहिर हुआ कि इस युद्ध में अमरीकी शासकों की वास्तविक मंशा क्या थी।
इसके बाद के घटनाक्रम पर गौर करें। जुलाई में 'विकीलीक्स' ने दस्तावेज जारी किए और एक माह बाद असांजे को स्वीडन की एक महिला ने उनके भाषणों का कार्यक्रम तय किया। असांजे 11अगस्त 2010  को स्वीडन पहुंचे। 14 अगस्त 2010 को असांजे ने कथित तौर पर इस महिला से शारीरिक सम्पर्क कायम किया। 17 अगस्त को असांजे ने एक अन्य महिला से कथित रूप से शारीरिक सम्पर्क बनाया, जो उनसे 14 अगस्त के भाषण कार्यक्रम में मिली थी। 18 अगस्त को असांजे ने स्वीडन में रहकर अपनी वेबसाइट विकीलीक्स का आगे का काम जारी रखने के लिए सरकार से इजाजत मांगी। 20 अगस्त 2010 को असांजे के खिलाफ स्वीडन में वारण्ट जारी हो गए। दोनों महिलाओं ने शिकायत की कि असांजे ने उनके साथ बलात्कार किया। दोनों महिलाओं का कहना था कि असांजे के साथ उनके सम्बन्ध आपसी सहमति से शुरू हुए थे, जो बाद में असहमति में तब्दील हो गए। असांजे ने इन आरोपों को बेबुनियाद बताया। आखिरकार 18 नवम्बर 2010 को स्वीडन की अदालत ने असांजे की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए। तब तक असांजे स्वीडन से लौट चुके थे। इस बीच असांजे का विकीलीक्स पर अमरीका के खिलाफ अभियान जारी रहा। 22 अक्टूबर 2010 में विकीलीक्स ने अमरीकी सेना की कोई 4 लाख फाइलें जारी की, जो इराक युद्ध से जुड़ी थी। इतना ही नहीं, विकीलीक्स ने अनेक संवेदनशील सूचनाएं जारी कर दी, जो अमरीकी कूटनीति से संबद्ध थी। इससे अमरीका की काफी बदनामी हुई। बार-बार शर्मिन्दगी से अमरीका काफी परेशान था। 28 नवम्बर को फिर विकीलीक्स ने अमरीकी कूटनीति की संवेदनशील सूचनाएं जारी की। इसके बाद 7 दिसम्बर 2010 को असांजे को ब्रिटेन में स्वीडन के वारण्ट पर गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ दिनों में ब्रिटेन की अदालत ने उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया। तब से असांजे ब्रिटेन में है। उनके जुनूनी अभियान में कोई कमी नहीं आई। 'विकीलीक्स' अमरीका को निशाना बनाती रही। बीच-बीच में उसने, चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत आदि देशों को लेकर भी कई खुलासे किए, जिनसे वहां की सरकारें भी परेशान हुईं। दरअसल हर देश की सरकारें कई सूचनाएं जनता से छिपाती हैं। इनमें कुछ सूचनाएं तो राष्ट्रीय हितों को लेकर होती हैं, जिन्हें गोपनीय रखने पर शायद किसी को आपत्ति नहीं। लेकिन गोपनीयता की आड़ में वे सभी जानकारियां दबा दी जाती हैं, जो सरकार, शासन, अफसरों और नेताओं की पोल खोलती है। जनहित में होते हुए भी सूचनाओं पर पहरा लगा दिया जाता है। इसलिए जब कोई माध्यम इन सूचनाओं को जारी करने का बीड़ा उठाता है, तो उसे लोगों का समर्थन मिलता है। 'विकीलीक्स' को विश्व भर में मिले समर्थन का कारण भी यही है। एक शक्तिशाली देश की कथनी और करनी में फर्क को 'विकीलीक्स' दुनिया के सामने सप्रमाण लेकर आई। हालांकि सूचनाओं व खुलासों के प्रसंग में 'विकीलीक्स' ने कुछ मर्यादाएं भी भंग कीं, जिनका समर्थन नहीं किया जा सकता। फिर भी विश्व राजनीति के इतिहास में इतने बड़े स्तर पर सरकारी राज खोलने का श्रेय 'विकीलीक्स' और इसके संस्थापक जूलियन असांजे को है। इसलिए असांजे के साथ पिछले दो वर्षों से घटित घटनाओं पर न केवल उनके लाखों प्रशंसकों की नजर है, बल्कि कई देश भी जिज्ञासापूर्वक घटनाओं को देख रहे हैं। जूलियन असांजे पर स्वीडन में दो महिलाओं से बलात्कार के जो आरोप लगे हैं, उन पर कानूनी तौर पर कार्यवाही हो और दोषी पाए जाने पर असांजे को सजा भी हो, इस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन जिस तरह घटनाएं घटी हैं, खासकर 'विकीलीक्स' के खुलासों के बाद, उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। असांजे के समर्थकों का आरोप है कि उन पर यौन शोषण के आरोप एक गहरी साजिश के तहत लगे हैं।
असांजे कह ही चुके हैं कि उन्हें फंसाया जा रहा है। यौन शोषण का आरोप तो एक बहाना है। स्वीडन में उनके साथ क्या होगा, वे जानते हैं। इसलिए उन्होंने ब्रिटेन की अदालत में अपने प्रत्यर्पण का विरोध किया। ब्रिटिश अदालत के आदेश से असांजे संभवत: शीघ्र स्वीडन प्रत्यर्पित कर दिए जाएं, लेकिन पूरी दुनिया की उन पर नजर रहेगी कि असांजे जो आशंकाएं व्यक्त कर रहे हैं, क्या वे सच होंगी? अगर वे सच होती हैं तो यह विकीलीक्स पर निशाना साधना होगा, जो सूचना का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को शक्तिपूर्वक व योजनाबद्ध ढंग से कुचलने का प्रयास कहा जाएगा।

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