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कैमरे की करामात

मीडिया में कैमरे की अहमियत एक बार फिर सामने आई है। कैमरे में कैद सच्चाई दरअसल, जनमत को ही निर्मित करती है, जिसकी अनदेखी करना आसान नहीं। दिल्ली में एसीपी बी.एस. अहलावत ने निर्ममता से किशोरी को थप्पड़ जड़े। अगर यह घटना कैमरे में कैद नहीं हुई होती तो पुलिस अफसर के खिलाफ जो त्वरित कार्रवाई हुई, वह कभी नहीं होती।


19 अप्रेल को न्यूज चैनलों पर आपने यह 'सीन' जरूर देखा होगा। दिल्ली में प्रदर्शनकारी किशोरी को बेरहमी से थप्पड़ मारता पुलिस अफसर। लड़की हतप्रभ और भयभीत। पीछे हटती हुई। लेकिन पुलिस अफसर नहीं थमा। लड़की को धक्का मारा। फिर एक जोरदार थप्पड़ और जड़ा। लड़की के कान से खून बह निकला। सरेआम पुलिस अफसर की यह गैरकानूनी हरकत मीडिया के कैमरों में कैद हो चुकी थी। फिर क्या था। चंद क्षणों में ही चैनलों पर प्रसारित होने लगी। किसी विवरण या कमेन्टरी की कोई जरूरत नहीं थी। पूरा वाकया कैमरे के जरिए जस का तस लोगों के सामने आ गया। घटना की गंभीरता और उसके संभावित परिणाम को सरकारी-तंत्र अच्छी तरह भांप चुका था। आनन-फानन में आदेश हुए—किशोरी को थप्पड़ मारने वाला पुलिस अफसर निलम्बित।
मीडिया में कैमरे की अहमियत एक बार फिर सामने आई। कोई शक नहीं, अगर यह घटना कैमरे में कैद नहीं हुई होती तो पुलिस अफसर के खिलाफ जो त्वरित कार्रवाई हुई, वह कभी नहीं होती।
बीनू रावत नामक यह किशोरी अपने साथियों के साथ विरोध का इजहार कर रही थी। विरोध पुलिस के प्रति था, जिसकी अकर्मण्यता और लापरवाही की वजह से पूर्वी दिल्ली के इलाके में पांच वर्षीय एक मासूम बालिका से नृशंसतापूर्वक दुष्कर्म किया गया था। बालिका जिन्दगी और मौत के बीच अस्पताल में जूझ रही थी। 16 दिसम्बर के दामिनी कांड के बाद देशव्यापी प्रदर्शन और फिर दुष्कर्मियों के खिलाफ सख्त कानून बनने के बावजूद घटी इस घटना के खिलाफ बीनू रावत और उसके साथियों का गुस्सा जायज था। ऐसी परिस्थिति में पुलिस से धैर्य और संयम की उम्मीद थी।
खासकर, एक जिम्मेदार पुलिस अफसर से तो यह अपेक्षा की ही जा सकती थी। लेकिन उसने अपनी असलियत दिखा दी। एसीपी बी.एस. अहलावत ने जिस निर्ममता से किशोरी को थप्पड़ जड़े, वह पुलिस की दरिन्दगी को ही दर्शाती है। पुलिस के इस रूप को सब जानते हैं। लेकिन कोई कुछ नहीं कर पाता। क्यों? क्योंकि पुलिस ताकतवर है। आम आदमी की इसके सामने कोई औकात नहीं। पुलिस ही क्यों, शक्ति और सत्ता से सम्पन्न दबंगों को सब चुपचाप बर्दाश्त करते हैं। क्योंकि वे कानून को जेब में रखते हैं। उसकी मनमानी व्याख्या कर सकते हैं। व्यक्ति या किसी कमजोर समूह के विरोध की वे परवाह नहीं करते। उन्हें थोड़ा-बहुत फर्क तभी पड़ता है, जब जनमत का दबाव उन पर पड़ता है। कैमरे में कैद सच्चाई दरअसल, जनमत को ही निर्मित करती है, जिसकी अनदेखी करना आसान नहीं। शायद इसीलिए एसीपी अहलावत को तुरत-फुरत निलंबित करना सरकार की मजबूरी बन गई।
मीडिया का कैमरा समय-समय पर अपनी करामात दिखा चुका है। सी.सी. टीवी के कैमरों का भी इसमें कम योगदान नहीं। पिछली बार दामिनी कांड के खिलाफ दिल्ली में ही प्रदर्शन के दौरान हुई सिपाही सुभाष तोमर की मृत्यु को पुलिस ने हत्या करार दिया और 8 बेकसूर प्रदर्शनकारियों को हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था। निश्चय ही पुलिस की प्रदर्शनकारियों के प्रति यह बदले की कार्रवाई थी, जो उसने खीज में आकर की। लेकिन दिल्ली मेट्रो स्टेशनों पर लगे सी.सी. टीवी के कैमरों तथा एक टीवी चैनल के कैमरे की फुटेज ने सारी पोल खोल दी। तहलका का सेना में हथियारों की खरीद में घूस कांड, सांसदों के सवाल के बदले रिश्वत तथा भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष बंगारु लक्ष्मण के मामले मीडिया कैमरों के ऐसे ही स्टिंग से सामने आए थे। हालांकि न तो रिश्वतखोरी खत्म हुई, न भ्रष्टाचार और न ही पुलिस की ज्यादतियां—फिर भी कैमरे की ये आंखें उन लोगों को सावधान तो करती ही हैं, जो अपनी जिम्मेदारियों को खूंटी पर टांग देते हैं।
पत्रकार पर हमला
जैसे, कैमरा झाूठ नहीं बोलता, वैसे ही कलम भी सच्चाई को छिपा नहीं सकती। शायद इसीलिए पत्रकारों और लेखकों को सबसे ज्यादा उत्पीडऩ का शिकार होना पड़ता है। ताजा मामला पत्रिका के छत्तीसगढ़ संस्करण के रायगढ़ ब्यूरो प्रमुख प्रवीण त्रिपाठी का है। प्रवीण ने भाजपा पार्षद आशीष ताम्रकार के खिलाफ लिखने की जुर्रत की तो उन्हें पार्षद और उसके गिरोह के लोगों के जानलेवा हमले का शिकार होना पड़ा। प्रवीण गंभीर रूप से घायल हैं और अस्पताल में भरती हैं। दुआ करें कि वे जल्दी ठीक हों और सच्चाई की लड़ाई को और भी मजबूती से लडऩे में सक्षम हों।
पार्षद ताम्रकार ने योजनाबद्ध ढंग से पत्रिका ब्यूरो प्रमुख को एक स्थान पर बुलाया और अपने 15 साथियों के साथ उन्हें हॉकी-लाठियों से बुरी तरह से पीटा। घटना के बाद पार्षद फरार है। उसके खिलाफ हत्या के प्रयास का मामला दर्ज है, लेकिन पुलिस उसे गिरफ्तार नहीं कर सकी है। स्वाभाविक है, छत्तीसगढ़ के पत्रकारों में इस घटना को लेकर गहरा आक्रोश है। आखिर पार्षद ने पत्रकार पर हमला क्यों किया? कोयले के अवैध खनन को लेकर 'पत्रिका' में खबरें छपी थीं। छत्तीसगढ़ में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किस तरह राजनीतिक संरक्षण के तहत हो रहा है तथा पार्षद की उसमें क्या भूमिका है, यही सच्चाई बयान की थी प्रवीण त्रिपाठी ने अपनी रिपोर्ट में। यही नहीं, फर्जी राशन कार्ड बनवाने में भी पार्षद की भूमिका को उजागर किया था। भला भाजपा पार्षद को यह सब कैसे बर्दाश्त होता। राज्य में उसकी पार्टी की सरकार है।
शर्मनाक बात तो यह कि सरकार और पार्टी के जिम्मेदार लोग घटना पर चुप्पी साधे हुए हैं। मानो पार्षद के कृत्य में उनका परोक्ष समर्थन हो। ऐसा व्यक्ति तो पार्षद बनने के लायक तक नहीं है। यह स्थिति अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता में विश्वास करने वाले सभी लोगों के लिए बेहद चिन्तनीय है। वैसे भी दुनिया में प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में भारत की गिनती फिसड्डी देशों में होती है। वर्ष 2013 में जारी रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 179 देशों की सूची में भारत का 140वां स्थान है। गत वर्ष भारत 131वें स्थान पर था। ऐसी घटनाएं प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित ही करती हैं। खासकर तब, जब पत्रकारों या मीडिया संस्थानों पर हमलों की घटनाओं पर सरकार चुप्पी साधे रहती है।
अपना कर्तव्य निभा रहे पत्रकार पर हमले के खिलाफ राज्य सरकार की खामोशी कई सवाल पैदा करती है। प्रेस परिषद को ऐसे मामलों में तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिए। मीडिया से असहमति या शिकायत दर्ज करने के वैधानिक उपायों को छोड़कर हिंसक करतूतों को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। पार्षद को सजा तो मिलनी ही चाहिए पार्टी से भी  उसका निष्कासन होना चाहिए।

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खोजी पत्रकारिता की मिसाल

आ ई.सी.आई.जे. 160 खोजी पत्रकारों का अन्तरराष्ट्रीय संगठन है। ये पत्रकार 60  से अधिक देशों के बाशिन्दे हैं। वर्ष 1997 में स्थापित किए गए इस संगठन का मुख्यालय वाशिंगटन यानी उसी अमरीका में है, जो जूलियन असांजे को किसी भी कीमत पर हासिल करना चाहता है। फर्क इतना है कि असांजे अकेले थे और उनकी कार्य-प्रणाली का केन्द्र-बिन्दु अमरीका था।

आपको याद होगा, अमरीका जैसा शक्तिशाली देश एक खोजी पत्रकार जूलियन असांजे का जानी-दुश्मन बन गया था। विकीलीक्स के संस्थापक इस पत्रकार ने कई गोपनीय दस्तावेज उजागर किए थे। पूरी दुनिया में अमरीकी सरकार की कथनी व करनी की पोल खुल गई थी। पोल इतनी प्रामाणिक थी कि अमरीका से कोई जवाब देते नहीं बना। अमरीका ही नहीं, कई देशों की सरकारों, राजनेताओं, नौकरशाहों और अमीरों की पोल खोलने में जूलियन असांजे अग्रणी रहे। वे आज भी कई देशों की सरकारों की आंख की किरकिरी बने हुए हैं। विकीलीक्स का ताजा रहस्योद्घाटन राजीव गांधी और जॉर्ज फर्नांडीज को लेकर किया गया है। हालांकि कई लोग जूलियन असांजे को परम्परागत पत्रकार नहीं मानते, लेकिन असांजे ने जो काम किया, वह खोजी पत्रकारिता-जगत में मील का पत्थर बन गया।
पत्रकारिता-जगत में ऐसा ही कार्य फिर हुआ है। इस बार यह कार्य एक अकेले पत्रकार की बजाय खोजी पत्रकारों के एक अन्तरराष्ट्रीय समूह ने किया है। अगर आप आई.सी.आई.जे. (इंटरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ इन्वेस्टीगेटिव जर्नलिस्ट्स) के दावे को माने तो यह सचमुच पत्रकारिता-जगत की अद्भुत घटना है। इस समूह ने काला धन विदेश में छिपाने वाले देशों और लोगों के बारे में जो दस्तावेजी सबूत एकत्र किए हैं, वे आंख खोल देने वाले हैं। हजारों स्वयंसेवी संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आन्दोलनकारियों के प्रयासों के बावजूद सरकारों के कानों में जूं तक नहीं रेंगती। ज्यादातर देशों की सरकारें और अमीरों की मिलीभगत के चलते काले धन की समस्या का आज तक कोई समाधान नहीं हो पाया। माना जाता है कि अगर काला धन नहीं छिपाया जाए और टैक्स चोरी नहीं की जाए, तो दुनिया में गरीबी और भुखमरी खत्म हो सकती है। लेकिन इस मामले में क्या पूंजीवादी और क्या कम्युनिस्ट, सभी देशों में एक-सा हाल है। आई.सी.आई.जे. की रिपोर्ट के अनुसार विदेशों में कंपनियों और ट्रस्टों के जरिए निवेश तथा गोपनीय वित्तीय लेन-देन करने वाले 170 देशों की सूची उसके पास हैं। आंकड़ा सुनकर चौंकिएगा नहीं, 1 लाख 20 हजार कंपनियां उन देशों में खुली हुई हैं, जिन्हें 'टैक्स हैवन' देश कहा जाता है। काला धन छिपाने या उसे सफेद करने के लिए दुनिया भर के अमीरों में यह चलन किस कदर आम है, यह खोजी पत्रकारों के इस समूह की रिपोर्ट में बताया गया है। ब्रिटिश वर्जिन आइलैण्ड्स में अमरीका, कनाडा, चीन, भारत, पाकिस्तान, ईरान, थाईलैण्ड, मंगोलिया, इंडोनेशिया आदि दुनिया भर के अनेक देशों की कंपनियों और लोगों ने निवेश कर रखे हैं।
आई.सी.आई.जे. का दावा है कि उसके पास लाखों दस्तावेज हैं, जिनसे मालूम चलता है कि ऐसी कंपनियों और लोगों के बीच क्या गठजोड़ है तथा कब कितना नकद धन कहां, किसे हस्तान्तरित किया गया। समूह ने दुनिया भर के लोगों सहित ६१२ भारतीयों के नाम भी उजागर किए हैं, जिनमें ज्यादातर उद्योग-जगत के लोग हैं। इनमें सीबीआई और आयकर विभाग की जांच के दायरे में आए कई उद्यमी हैं। विदेशों में भारतीय नागरिकों के काले धन को लेकर बहुत कुछ लिखा-कहा जा चुका है। केन्द्र सरकार को सब मालूम है। वह काले धन के खिलाफ कुछ भी क्यों नहीं करना चाहती, यह भी सब जानते हैं। कमोबेश यही हालात बाकी देशों के हैं। हालांकि कुछ देशों की सरकारों ने पहल की है, लेकिन ठोस परिणाम सामने नहीं आए। कारण साफ है, काले धन का कारोबार करने वालों की ऊंची पहुंच, सत्ता में दखल, कानूनी पेचीदगियां और सरकारों के संरक्षण के चलते उनकी चोरी पकडऩा मुश्किल और चुनौती भरा काम रहा है, लेकिन सबूतों के साथ जिस व्यापक स्तर पर (25 लाख फाइलें) आई.सी.आई.जे. ने दस्तावेज एकत्र किए हैं, उन्हें झाुठलाना किसी के लिए भी आसान नहीं है। आई.सी.आई.जे.160 खोजी पत्रकारों का अन्तरराष्ट्रीय संगठन है। ये पत्रकार 60 से अधिक देशों के बाशिन्दे हैं। वर्ष 1997 में स्थापित किए गए इस संगठन का मुख्यालय वाशिंगटन यानी उसी अमरीका में है, जो जूलियन असांजे को किसी भी कीमत पर हासिल करना चाहता है। फर्क इतना है कि असांजे अकेले थे और उनकी कार्य-प्रणाली का केन्द्र-बिन्दु अमरीका था। इसके उलट आई.सी.आई.जे. एक अन्तरराष्ट्रीय समूह है, जिसमें दुनिया के कई जाने-माने खोजी पत्रकार शामिल हैं। साथ ही इस समूह की कार्यप्रणाली का केन्द्र कोई एक राष्ट्र न होकर समूची दुनिया है। यही वजह है कि इस समूह का दायरा तेजी से बढ़ रहा है। वैश्विक स्तर पर भी इसने अपनी साख कायम की है। आई.सी.आई.जे. के सलाहकार मंडल में  बिल कोवाश, रोजनल कैमन एल्वीस, फिलिप नाइटले, ग्वेन लिस्टर, ब्रांट हस्टन जैसे पत्रकार हैं। आस्ट्रेलियन पत्रकार गेराल्ड रील समूह के डायरेक्टर तथा अर्जेन्टाइना की मरिना वाकर ग्वारा डिप्टी डायरेक्टर हैं। रील को खोजी पत्रकारिता करते हुए रिपोर्टर और सम्पादक के तौर पर २६ वर्षों का अनुभव है। उन्होंने 'सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड' तथा 'द एज' जैसे अखबारों में काम किया। आई.सी.आई.जे. का उद्देश्य खोजी पत्रकारिता के जरिए बेहतर दुनिया के निर्माण में योगदान करना है। समूह राष्ट्रीय सीमाओं में बंधकर कार्य करने की बजाय वैश्विक दृष्टिकोण अपनाता है। उसका कार्य क्षेत्र सीमा पार की आपराधिक गतिविधियों, भ्रष्टाचार और सत्ता-शक्ति को उत्तरदायित्वपूर्ण बनाने पर केन्द्रित है। समूह का मानना है कि विकास और अंतरराष्ट्रीयकरण से मानव समाज पर कई तरह के दबाव बढ़ गए हैं। शक्ति-सम्पन्न लोग सत्ता और बाजार पर काबिज होकर जन हित की अनदेखी कर रहे हैं। ऐसे हालात में जब पत्रकारिता को अपनी आंख और कान खुले रखने हैं और खोजी पत्रकारिता की दुनिया को सबसे अधिक जरूरत है, तब आई.सी.आई.जे. जैसे समूह संगठन की भूमिका और अधिक बढ़ जाती है। इस समूह में पत्रकारों के अलावा अनेक देशों के मीडिया संस्थान भी सम्बद्ध हैं। इनमें प्रमुख हैं— बीबीसी वल्र्ड सर्विस, द इंटरनेशनल हेराल्ड ट्रिब्यून, ला मोन्डे (फ्रांस), अल मुन्डो (स्पैन), 'त्राऊ' (नीदरलैण्ड्स), फोहा दे साओ पालो (ब्राजील), ला सोइन (बैल्जियम), नोवाया गजेटा (रूस), द साउथ चाइना मोर्निंग पोस्ट (हांगकांग), द गार्जियन (ब्रिटेन), द संडे टाइम्स (ब्रिटेन), द हफिंग्टन पोस्ट (अमरीका), द एज (आस्ट्रेलिया), द इंडियन एक्सप्रेस (भारत)। आई.सी.आई.जे. हर दो साल बाद खोजी पत्रकारिता के लिए एक अन्तरराष्ट्रीय स्पर्धा प्रायोजित करता है, जिसके तहत चयनित पत्रकार को डेनियल पर्ल अवार्ड से नवाजा जाता है। बहरहाल, इस पत्रकार समूह ने गोपनीय निवेश और काले धन को लेकर जो तथ्य उजागर किए हैं, वह अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर खोजी पत्रकारिता का बेहतरीन उदाहरण है।

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