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मीडिया संस्थान, पत्रकारों पर हमले

पत्रकारों से मारपीट, अपहरण से लेकर हत्याएं व मीडिया के दफ्तरों पर संगठित हमलों की पृष्ठभूमि का सबब यही है कि मीडिया की आवाज को दबाया जाए। वह आवाज जो सच्चाई सामने लाती है।

भारत के उ. पूर्वी राज्यों में मीडिया किन हालात से गुजर रहा है, इसकी एक झलक वहां के एक पत्रकार ने बयां की है। 50 वर्षीय प्रदीप फेंजौबम इम्फाल फ्री प्रेस के मालिक हैं और इसी अखबार के सम्पादक रहे हैं। हाल ही अंग्रेजी दैनिक 'द हिन्दू' में उनका इंटरव्यू प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने मणिपुर सहित उ. पूर्वी राज्यों में अखबार, टीवी चैनल्स और पत्रकारों के सामने आ रही कठिनाइयों का जिक्र किया।
प्रदीप के अनुसार क्षेत्र के पत्रकार हर समय भयपूर्ण माहौल में काम करते हैं। यहां सत्तारूढ़ दल हो, या विरोधी दल- सभी यही चाहते हैं कि उनकी भेजी हुई विज्ञप्ति अखबार में ज्यों की त्यों छपे। अगर कोई पत्रकार विज्ञप्ति से विपरीत तथ्य उजागर करता है और सच्चाई लिखता है तो उसकी खैर नहीं। या तो पत्रकार की पिटाई की जाती है या उसका अपहरण कर लिया जाता है। कई मामलों में तो पत्रकार की हत्या भी कर दी जाती है। प्रदीप के अनुसार मणिपुर में पिछले वर्षों में विभिन्न अखबारों के छह सम्पादकों का अपहरण करके हत्या की जा चुकी है। उन्होंने बताया- 'हम (पत्रकार) जिन्दगी का जोखिम उठाकर कलम चलाते हैं। स्वयं मेरे अखबार का रिपोर्टर कोन्साम रिषिकान्त 2008 में एक उग्रवादी द्वारा मारा जा चुका है। आज मणिपुर के पत्रकारों के लिए बंदूक के खौफ के साये में कलम चलाना कोई नई बात नहीं रह गई है।'
प्रिय पाठकगण! मीडिया संस्थानों और पत्रकारों पर हमले लगातार हो रहे हैं। देश में शायद ही कोई राज्य होगा, जहां पत्रकारों पर हमले नहीं किए गए हों। अलबत्ता, मणिपुर सहित उत्तरी पूर्वी राज्यों के जो हालात यहां बयां किए गए हैं, वे और भी ज्यादा खराब हैं। मीडिया पर हमले कहीं पर भी हों, किसी भी कारण से हों, गंभीर चिन्ता का विषय होना चाहिए। इसी स्तंभ में पाठक कई बार मीडिया पर हमले की विभिन्न घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर चुके हैं। शायद ही किसी पाठक ने मीडिया पर हमलों की पैरवी की होगी। मीडिया वास्तविक हालात की तस्वीर जनता के सामने रखता है, जबकि ऊंचे पदों पर बैठे लोग और निहित स्वार्थी तत्व हमेशा सच्चाई को छुपाना चाहते हैं। सच्चाई उजागर होने पर जनता के सामने उनकी पोल खुल जाती है। लिहाजा वे पत्रकारों और मीडिया संस्थानों पर हमले करवाते हैं। अफसोस की बात है कि मीडिया की आवाज को खामोश करने की कोशिशों का अभी तक कोई माकूल उपाय नहीं किया जा सका है।
पिछले माह मध्य प्रदेश के एक पत्रकार चन्द्रिका रॉय की परिवार सहित हत्या कर दी गई। पत्नी सहित उनके दो मासूम बच्चों को भी मौत की नींद में सुला दिया गया। वास्तविक स्थिति का खुलासा होना अभी बाकी है। मध्य प्रदेश में प्रतिपक्ष के नेता अजय सिंह का आरोप है कि चन्द्रिका रॉय अवैध खनन माफिया की आंख की किरकिरी बने हुए थे।
पाठकों को यह याद होगा, इन्दौर में दो वर्ष पहले पत्रिका पर सुनियोजित हमले किए गए थे, जब अखबार ने भूमाफियाओं की पोल खोलनी शुरू की। हॉकरों-वितरकों से पत्रिका के बंडल छीनकर उनकी क्रूरतापूर्वक पिटाई की गई। पाठकों में  इसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई और लोकसभा में भी मामला गूंजा।
इसी माह की शुरुआत में बेंगलुरु में वकीलों के एक समूह ने पत्रकारों पर हमला बोल दिया। पत्रकार अदालत में कर्नाटक के पूर्व मंत्री जी.जनार्दन रेड्डी के खिलाफ अवैध खनन के मुकदमे की कवरेज करने गए थे। वकीलों का समूह इस बात को लेकर पत्रकारों से खफा था कि पिछले माह जब वे ऐसा ही उग्र प्रदर्शन कर रहे थे, तो मीडिया ने उनकी नेगेटिव कवरेज की। भंवरी अपहरण कांड की कवरेज कर रहे पत्रकारों पर जोधपुर में अभियुक्तों के रिश्तेदारों और समर्थकों ने हमला बोल दिया था।
मुम्बई के खोजी पत्रकार ज्योतिर्मय डे (जेडी) की हत्या को भी पाठक भूले नहीं होंगे, जो महाराष्ट्र के अंडर वल्र्ड सरगनाओं की सच्चाइयों को उजागर कर रहे थे। महाराष्ट्र में ही रेव पार्टी की कवरेज करने गए पत्रकारों पर समाजकंटकों का हमला सुर्खियां बना था। शिव सेना से जुड़े कार्यकर्ताओं द्वारा टीवी चैनलों और अखबार के दफ्तरों में तोड़-फोड़ की घटनाएं कई बार दोहराई जा चुकी हैं। कश्मीर, उड़ीसा, तमिलनाडू, बंगाल, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में भी पत्रकार राजनीतिक दलों, अपराध समूहों, उग्रवादी संगठनों, कट्टरपंथियों के हमलों का शिकार होते रहे हैं।
पत्रकारों से मारपीट, अपहरण से लेकर हत्याएं तथा मीडिया के दफ्तरों पर संगठित हमलों की पृष्ठभूमि का एकमात्र सबब यही है कि मीडिया की आवाज को दबाया जाए। लोकतंत्र में असहमति जताने का हक सभी को है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी। दोनों की अपनी-अपनी मर्यादाएं हैं। लेकिन मीडिया से असहमति या शिकायतें दर्ज करने के वैधानिक तरीकों को छोड़कर हिंसक करतूतों को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
मीडिया की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है, जिसकी रक्षा हर कीमत पर ही जानी चाहिए, लेकिन इस स्थिति का गंभीर पहलू यह है कि न तो राज्य सरकारें और न केन्द्र सरकार लोकतंत्र के चौथे पाये के महत्व और उपयोगिता को लेकर फिक्रमंद नजर आती हैं। सरकार चाहे किसी भी दल की हो। उल्टे मीडिया संस्थानों पर हमलों में कई बार उनकी कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष भूमिका स्पष्ट नजर आती है। यह इस समस्या का सर्वाधिक भयावह पक्ष है।

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पेड न्यूज : दोषी मीडिया पर कार्रवाई हो

पांच राज्यों में चुनाव परिणाम की तस्वीर आज साफ हो जाएगी, लेकिन उन अखबारों और टीवी चैनलों के नाम कब सामने आएंगे, जिन्होंने उम्मीदवारों के पक्ष में पैसे लेकर खबरें प्रकाशित कीं?
यह सवाल कई पाठकों के जेहन में उठ रहा होगा। खासकर, तब जब चुनाव आयोग द्वारा 167 उम्मीदवारों को पेड न्यूज के लिए नोटिस जारी किये गए । तीन मार्च को अंतिम चरण का मतदान संपन्न होने से पहले ये नोटिस जारी किये गये थे। इसलिए संभव है पेड न्यूज के आरोपी उम्मीदवारों की संख्या और बढ़ जाए। पाठकों को बता दूं कि इन चुनावों में खड़े करीब 7 हजार उम्मीदवारों में से एक हजार से भी अधिक उम्मीदवारों पर पेड न्यूज के आरोप लगाए गए थे। यह स्थिति सात चरणों में हुई मतदान प्रक्रिया के बीच के दिनों की है। चुनाव संपन्न होने तक यह आंकड़ा कहां तक पहुंचा होगा, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। जितने ज्यादा उम्मीदवार, उतनी ही ज्यादा पेड न्यूज की शिकायतें। आयोग ने चुनिंदा शिकायतों पर ही नोटिस जारी किये। लेकिन यह स्पष्ट है कि तमाम प्रयासों के बावजूद पेड न्यूज नामक मर्ज बढ़ता जा रहा है।
सवाल है-आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। कौन है इसके लिए जिम्मेदार ? क्या इस मर्ज का कोई इलाज नहीं ? बड़ा सवाल यह है कि मीडिया संस्थानों के नाम सामने आ जाएंगे, तब भी क्या उनका कुछ बिगड़ पाएगा, पिछली बार की तरह? यह बात तो सभी जानते हैं कि आज के अधिकांश नेता और राजनीतिक दलों की साख जनता की नजर में काफी गिर चुकी है। शायद ही किसी को अपनी जीत का पक्का भरोसा हो। हर कोई वे सारे हथकंडे आजमाना चाहता है, जिनसे जीत सुनिश्चित हो सके। उन्हीं में से एक हथकंडा पेड न्यूज है। उम्मीदवार अपने पक्ष में एक कृत्रिम माहौल मीडिया के जरिए पैदा करना चाहता है। वह अपने प्रचारकों द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर तैयार की गई खबरों का प्रकाशन व प्रसारण कराता है। इसके लिए वह मीडिया संस्थानों को अनाप-शनाप भुगतान करता है।
इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए जन प्रतिनिधि, राजनीतिक दल और मीडिया तीनों ही जिम्मेदार हैं। यह सही है कि मीडिया का एक हिस्सा इस अनैतिक गठबंधन से खुद को बचाए हुए है। इनमें पत्रिका समूह का नाम प्रमुख है। भारतीय प्रेस परिषद की सूची में पेड न्यूज के लिए पत्रिका को छोड़कर कई बड़े अखबारों के नाम दर्ज हैं। दरअसल, जिस तेजी से पेड न्यूज का महारोग बढ़ता जा रहा है, उससे कुछेक मीडिया संस्थानों का बचे रहना किसी चमत्कार से कम नहीं। शायद पाठकों में अटूट विश्वास ही उनकी शक्ति का वास्तविक आधार बना हुआ है।
सवाल फिर भी शेष है। आखिर क्या है पेड न्यूज नामक इस मर्ज का इलाज? भारतीय प्रेस परिषद ने पिछले आम चुनावों में पेड न्यूज की हकीकत जानने के लिए एक समिति गठित की थी। समिति ने पूरी छानबीन के बाद अपनी रिपोर्ट परिषद को सौंप दी। समिति के एक सदस्य वरिष्ठ पत्रकार परंजाय गुहा ठाकुरता के अनुसार- ' पेड न्यूज संबंधी रिपोर्ट में इन सभी अखबारों और मीडिया संस्थानों क ा जिक्र किया गया, जिन्होंने पैसे लेकर खबरें छापी थीं। हमने उन सभी संस्थानों को अपना पक्ष रखने का मौका दिया, लेकिन दोषी अखबारों और मीडिया संस्थानों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। '
परिणाम सामने है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान अखबार फिर पैकेज लेकर उम्मीदवारों के पास पहुंच गए। हालांकि अधिकांश अखबार क्षेत्रीय, भाषाई व स्थानीय हैं, पर यह स्पष्ट है कि इन मीडिया संगठनों को किसी का खौफ नहीं था। पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता ने आरोप लगाया कि कुछ अखबारों ने उनके मुख्य उम्मीदवारों की पच्चीस दिन तक कवरेज के लिए दो करोड़ रुपए पैकेज की मांग रखी। जाहिर है, दोषी पाये जाने के बावजूद पिछली बार किसी अखबार के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने से हौसले बढ़ गए।
दूसरी तरफ पेड न्यूज मामले में दोष सिद्ध होने पर चुनाव आयोग ने बीस अक्टूबर 2011 को उत्तरप्रदेश की बिसौली विधानसभा सदस्य उमिलेश यादव की सदस्यता खत्म कर दी थी। पेड न्यूज में यह पहली सजा थी। 167 उम्मीदवारों पर भी चुनाव आयोग की तलवार लटक रही है। ऐसे में मीडिया कब तक बचा रहेगा। उस पर लोगों की उंगलियां उठना स्वाभाविक है। आज उम्मीदवार और दलों की तरह मीडिया की साख भी खतरे में है।
भाजपा की चुनाव प्रक्रिया सुधार समिति के अध्यक्ष किरीट सोमैया के अनुसार-अगले चुनावों में पेड न्यूज साबित होने पर अखबार व टीवी चैनल मालिक व पत्रकारों पर आपराधिक मामले दर्ज किए जाएंगे। गत वर्ष जब वे जयपुर आए तो उनका दावा था कि उनकी समिति ने ही ऐसा सुझााव दिया था, जिसे केंद्रीय चुनाव आयोग ने मंजूर कर लिया और अगले चुनावों से इस पर अमल हो सकता है। निश्चय ही अगर ऐसा होता है तो चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया को जमीनी सच्चाई का पता चल जाएगा। जनता और सत्ता के बीच सेतु की विनम्र भूमिका निभाने वाले मीडिया के उस वर्ग के लिए यह चुनौती होगी कि वह मीडिया में घुस आए इस महारोग का जड़ से खात्मा कब और कैसे कर पाएगा? जब तक पेड न्यूज खत्म नहीं होगी, इसके अपराध की काली छाया संपूर्ण मीडिया जगत पर मंडराती रहेगी।

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