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राजनीति बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

साभार: द हिंदू
  • यह सम्पूर्ण घटनाक्रम एक शर्मनाक अध्याय के रूप में इतिहास में दर्ज हो चुका है। इस कार्टून पर न बाबा साहब को ऐतराज था, न नेहरू जी को, न दलित समुदाय को और न उस समय के राजनीतिक दलों को। अगर इसमें कोई आपत्तिजनक बात होती, तो विशेषज्ञों का पैनल एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्य-पुस्तक के लिए इस कार्टून का चयन ही क्यों करता? पुस्तक बाकायदा कठिन चयन प्रक्रिया से गुजरी थी।
अखबार में जो महत्त्व खबर का है, वही कार्टून का भी है। बल्कि एक अच्छा कार्टून कई बार खबर पर भारी पड़ता है। कभी-कभी जो बात खबर में खबरनवीस नहीं कह पाता, वह कार्टून में कार्टूनिस्ट कह जाता है। शायद इसीलिए पूरी दुनिया के अखबारों में कार्टून को खास विशिष्टता हासिल है। अनेक प्रतिष्ठित अखबारों में रोजाना पहले पन्ने पर प्रकाशित होने वाला पॉकेट कार्टून इस बात का प्रमाण है। यह 'पत्रिका' के पाठक भी देखते ही होंगे। वर्ष 2006 में जब पत्रिका ने अपनी स्थापना की स्वर्ण जयन्ती मनाई, उस समय पिछले 50 वर्षों के दौरान 'पत्रिका' में प्रकाशित महत्वपूर्ण कार्टूनों की एक पुस्तक भी प्रकाशित की गई थी- कार्टून यात्रा। यह अखबार की यात्रा में कार्टून के योगदान को दर्शाती है।
दरअसल, अखबारों में कार्टून का हास्य-बोध लोगों को गुदगुदाता है। शंकर पिल्लई, आर.के. लक्ष्मण, अबू, सुधीर दर, रंगा, कांजीलाल जैसे भारतीय कार्टूनिस्टों का अप्रतिम योगदान रहा है। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया में भी कार्टून कला का उपयोग किया जा रहा है। एनिमेशन के जरिए कार्टून-फिल्में भी दर्शकों में लोकप्रिय हैं। कार्टूनों पर आधारित कॉमिक्स बच्चों में चाव से पढ़े जाते हैं। फिर भी अखबार में छपे कार्टून का अलग ही स्थान है। हम रोज अखबार पढ़ते हैं और रोज नई-नई समस्याओं से रूबरू होते हैं। रोज घटित होने वाली राजनीतिक हलचलें, देश-विदेश का दैनिक घटनाक्रम और तात्कालिक तौर पर उठने वाले सामाजिक मुद्दे कार्टून में एक नया आयाम पा जाते हैं। कार्टून में हल्के-फुल्के अंदाज में किया गया कटाक्ष गंभीर बात को भी सहजता से कह जाता है। अखबार में कार्टून आम आदमी की रोजमर्रा की इच्छा और तकलीफों की सहज व सशक्त अभिव्यक्ति है। इसलिए आमतौर पर पाठक अखबार में सर्वप्रथम कार्टून पर उत्सुकतापूर्वक नजर डालते हैं। कार्टून-कला और अखबार की यह जुगलबंदी काफी लोकप्रिय रही है। इसलिए कार्टून-कला पर जब-जब भी हमला हुआ, यों तो समूचे मीडिया में इसकी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन अखबार-जगत में सर्वाधिक तीखी प्रतिक्रिया हुई।
ग्यारहवीं कक्षा की जिस पुस्तक पर हाल ही में केन्द्र सरकार ने रोक लगाई, उसकी वजह भी एक कार्टून है। यह कार्टून 63 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था। यह कार्टून भी उस वक्त की तात्कालिक परिस्थिति को दर्शाता है। देश की आजादी के बाद भारत के संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी। उस दौरान संविधान बनने की धीमी गति पर जन मानस की सोच को अभिव्यक्ति देते हुए इस कार्टून में कटाक्ष किया गया था। चंद राजनेताओं द्वारा विवादित बना दिया गया यह कार्टून न तो किसी व्यक्ति विशेष को निशाना बनाता है और न किसी वर्ग विशेष को।
देश के जाने-माने कार्टूनिस्ट शंकर पिल्लई ने यह कार्टून बनाया था। तब शंकर के अन्य कार्टूनों की तरह लोगों ने इसे सहजता से लिया था। इस पर किसी ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई थी। आज के पाठक भी इस कार्टून के बारे में अच्छी तरह जान गए हैं। इसमें एक घोंघे पर बैठे हुए बाबा साहब अंबेडकर को दर्शाया गया है, जो संविधान निर्माण की सुस्त गति पर कटाक्ष है। पास में पंडित जवाहर लाल नेहरू हाथ में चाबुक लिए फटकार रहे हैं। स्वयं बाबा साहब के हाथ में भी चाबुक है। स्वयं बाबा साहब को इस कार्टून पर कोई आपत्ति नहीं थी। उनके पौत्र प्रकाश अंबेडकर के शब्दों में - यह कार्टून बाबा साहब के सामने बना था। उन्हें इस पर कोई ऐतराज नहीं था।
अफसोस! अचानक 63 साल बाद इस कार्टून पर ऐतराज सामने आया। दलों और नेताओं के राजनीतिक स्वार्थ इतने हावी हो गए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुचल दी गई। शायद राजनीतिक कारणों से यह भ्रम फैला दिया गया कि पंडित नेहरू संविधान लेखन में देरी के कारण अंबेडकर यानी एक दलित पर चाबुक बरसा रहे हैं। कुछ दिन पहले जो राजनेता पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को कार्टून विरोधी रुख के कारण कोस रहे थे और तृणमूल सरकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुचलने के लिए दोषी ठहरा रहे थे, वे ही अंबेडकर वाले कार्टून ही नहीं, बल्कि उस सम्पूर्ण पुस्तक को प्रतिबंधित करने की मांग कर रहे थे। और दुखद माजरा देखिए केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने आनन-फानन में न केवल माफी मांगी, बल्कि केन्द्र सरकार ने राजनीति शास्त्र की यह पुस्तक ही वापस लेने की घोषणा कर दी।
इस कार्टून पर न बाबा साहब को ऐतराज था, न नेहरू जी को, न दलित समुदाय को और न उस समय के राजनीतिक दलों को। अगर इसमें कोई आपत्तिजनक बात होती, तो विशेषज्ञों का पैनल एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्य- पुस्तक के लिए इस कार्टून का चयन ही क्यों करता? पुस्तक बाकायदा कठिन चयन प्रक्रिया से गुजरी थी। पुस्तक की विषय सामग्री पर निगरानी दो-दो मॉनिटरिंग कमेटियों के जरिए की गई थी। इन कमेटियों में प्रो. मृणाल मिरी, जी.पी. देशपांडे, प्रो. गोपाल गुरु, प्रो. जोया हसन, सहित प्रो. सुहास पलसीकर और योगेन्द्र यादव जिन्होंने बाद में एन.सी.ई.आर.टी के सलाहकार बोर्ड से इस्तीफा दे दिया- जैसे जाने-माने शिक्षाविद् और विद्वान शामिल रहे। पलसीकर और यादव तो दलितों के उत्थान में योगदान के लिए जाने-जाते हैं, लेकिन दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले दलों और नेताओं ने उन्हें भी नहीं बख्शा। पुणे में प्रो. पलसीकर के दफ्तर पर कथित तौर पर रामदास अठावले के समर्थकों का हमला केवल एक प्रोफेसर पर हमला नहीं था, बल्कि कार्टून-कला और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला था। यह सम्पूर्ण घटनाक्रम एक शर्मनाक अध्याय के रूप में इतिहास में दर्ज हो चुका है। भावी पीढ़ी जब इन पृष्ठों को पढ़ेगी तो हमारी राजनीति की तुच्छता को कोसेगी।
डॉ. अंबेडकर के कार्टून को प्रतिबंधित करने की मांग के पीछे सांसदों का तर्क था कि इससे दलितों की भावना आहत हुई है। निश्चय ही किसी समूह या वर्ग विशेष ही क्यों किसी व्यक्ति विशेष की भी भावना या आस्था को ठेस पहुंचाना किसी कला-विधा का उद्देश्य नहीं हो सकता। कला और अभिव्यक्ति के नाम पर जब भी ऐसी कोशिशें हुई हैं, उनका जन समुदाय में विरोध हुआ है। लेकिन जिस कार्टून को प्रतिबंधित किया गया उसे लेकर आम दलितों में ऐसी कोई प्रतिक्रिया देखने में नहीं आई। यह स्पष्ट रूप से उस वर्ग से मांग उठी, जो अपनी राजनीति चमकाना चाहता है। एक नेता ने मांग उठाई तो दो-चार नेता और साथ हो गए। फिर होड़ मची कि कौन किससे आगे रहे। दलितों के वोट बटोरने में सभी दल एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए बेचैन हो उठे। यह बेचैनी सचमुच दलितोत्थान को लेकर होती, तो कोई बात न थी। बल्कि इसे सराहा ही जाता, लेकिन राजनीतिक स्वार्थों के चलते एक ऐसा तुच्छ निर्णय लिया गया, जो अभिव्यक्ति का गला घोंटने के लिए तो याद किया जाएगा ही, साथ ही छात्र-छात्राओं को रचनात्मक तरीके से पढ़ने के अनुभव से वंचित रखने के लिए भी जाना जाएगा। दुनिया भर की शिक्षा प्रणालियों में नवाचार को बढ़ावा दिया जा रहा है। नए-नए प्रयोग और रचनात्मक तरीके खोजे जा रहे हैं। स्वयं भारत सरकार भी इस पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। प्रतिष्ठित शिक्षाविदों ने राजनीति विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए भारत के जिन मशहूर कार्टूनिस्टों के बनाये कार्टूनों का सहारा लिया और अध्ययन को आसान बनाया, उस पर सरकार ने ही पानी फेर दिया है।

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प्रेस परिषद ने निराश ही किया

भारतीय प्रेस परिषद अपनी भूमिका नहीं निभा पा रही थी, इसीलिए मीडिया जगत में उसे एक निष्प्रभावी संस्था के तौर पर देखा जाता रहा है। अलबत्ता न्यायमूर्ति काटजू ने उम्मीद जगाई थी कि परिषद लीक से हटकर कुछ कर पाएगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। यह निराशाजनक है। भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जे.एस. वर्मा के अनुसार, प्रेस परिषद एक निष्प्रभावी संस्था है, जिसे बंद कर दिया जाना चाहिए।



भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष बनने के तुरन्त बाद न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू ने प्रेस परिषद को अधिकार-सम्पन्न बनाने की बात कही थी। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को लिखे पत्र में काटजू ने कहा कि कानून की धारा 14 (1) के तहत परिषद को प्राप्त अधिकार नाकाफी है। इसके चलते प्रेस परिषद अपना कार्य प्रभावी तरीके से नहीं कर पा रही है। अपने बयानों और भाषणों में उन्होंने यही दोहराया— भय बिनु होई न प्रीति। ऐसे में उनसे उम्मीद थी कि वे प्रेस परिषद को एक ताकतवर संस्था बना पाएंगे। उनके आक्रामक तेवर और अंदाज से लगा कि वे जरूर कुछ करेंगे। लेकिन भारतीय प्रेस परिषद की अब तक की कार्यशैली ने ऐसा कुछ नहीं जताया, जैसा काटजू कहते रहे हैं।
प्रेस परिषद अपने ढर्रे से कुछ भी अलग करती नजर नहीं आ रही है। बल्कि यह कहूं कि प्राप्त अधिकारों का भी पूरी तरह इस्तेमाल नहीं कर पा रही, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रेस परिषद पूर्व की भांति ही एक निष्प्रभावी संस्था बनी हुई है। वह न तो प्रेस की स्वतंत्रता में बाधक बनने वाली राज्य सरकारों के खिलाफ कुछ कर पा रही है और न ही आदर्श आचरण संहिता का उल्लंघन करने वाले अखबारों-पत्रकारों के खिलाफ कोई ठोस कदम उठा पा रही है। पत्रकारों पर हमले और उत्पीडऩ को रोकने में भी इसकी कोई कारगर भूमिका नजर नहीं आ रही है। हो सकता है, प्रेस परिषद के वर्तमान अध्यक्ष यह तर्क दें कि जब तक केन्द्र सरकार परिषद को शक्तियां नहीं देती, तब तक परिषद प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाएगी। लेकिन फिलहाल बड़ा सवाल यह है कि प्रेस परिषद अपने मौजूदा अधिकारों का ही इस्तेमाल नहीं कर पा रही हो, तो क्या कहा जाए?
प्रेस परिषद कानून-१९६५ के अनुसार परिषद के कार्य और उद्देश्यों में अखबारों की स्वतंत्रता कायम रखने में मदद करना तथा अखबारों-पत्रकारों के लिए आदर्श आचरण संहिता लागू करना प्रमुख रूप से शामिल है। देश में पिछले दो-तीन माह के प्रेस-जगत के घटनाक्रम के संदर्भ में अगर प्रेस परिषद की भूमिका का आकलन किया जाए, तो निराशा ही होती है।
फरवरी-मार्च में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए। कई अखबारों पर धन लेकर खबरें प्रकाशित करने (पेड न्यूज) के आरोप लगे। अखबारों की ओर से सरेआम खबरों के पैकेज निर्धारित किए गए। 'पेड न्यूज' के जरिए मतदाताओं को भ्रमित करने वाले विज्ञापन समाचारों की शक्ल में छपे। लोकतंत्र में प्रेस की भूमिका को शर्मसार करने वाली इन कारगुजारियों में कई पत्रकार भी शामिल थे। केन्द्रीय चुनाव आयोग ने तो 'पेड न्यूज' के लिए 167 उम्मीदवारों को नोटिस जारी किए। लेकिन प्रेस परिषद की ओर से न तो अखबारों और न ही पत्रकारों के खिलाफ कोई कार्रवाई सामने आई। यही नहीं गत लोकसभा चुनावों में 'पेड न्यूज' की शिकायतों की जांच के लिए प्रेस परिषद की ओर से गठित समिति की रिपोर्ट भी अब तक धूल फांक रही है। इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते से निकालने की कोई कोशिश नजर नहीं आई है। इसी तरह थल सेनाध्यक्ष की प्रधानमंत्री को लिखी गई गोपनीय चि_ी का प्रकाशन मीडिया की चौतरफा आलोचना का कारण बना था, लेकिन सनसनी फैलाने वाली खबरों का प्रकाशन करने वाले अखबारों के खिलाफ परिषद ने कुछ नहीं किया।
विभिन्न प्रदेशों में राज्य सरकारें अपने खिलाफ लिखने वाले समाचार पत्रों की आवाज को किस तरह दबाती हैं, यह किसी से छुपा नहीं है। तमिलनाडु में मनमाने तरीके से पत्रकारों के अधिस्वीकरण रद्द कर दिए जाते हैं, तो छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार अखबारों के विज्ञापन बंद कर देती है। ये हाल ही के उदाहरण हैं। पत्रिका का मामला सामने है। भ्रष्टाचार और अवैध खनन ने राज्य को खोखला कर दिया। अखबार ने जब सरकार  में उच्च स्तर पर लिप्तता को तथ्यों के साथ उजागर किया, तो भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए प्रतिबद्धता का दावा करने वाली सरकार ने अखबार के विज्ञापन ही बंद करके उसकी आवाज दबाने की कोशिश की। किस कानून के तहत राज्य सरकार ने यह दमनकारी रवैया अपनाया — कोई उससे पूछने वाला नहीं है। प्रेस परिषद भी नहीं। क्या छत्तीसगढ़ में सरकार का यह रवैया अखबार की स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर कुठाराघात नहीं है?
राज्य सरकारें प्रेस के प्रति जहां सहिष्णुता खोती जा रही हैं, वहीं सम्पूर्ण मीडिया के प्रति तानाशाही तरीके अख्तियार कर रही है। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सरकारी पुस्तकालयों में पाठकों की मांग के अनुरूप अखबार खरीदने पर ही रोक लगा दी। अब इन पुस्तकालयों के लिए कुछ चुनींदा अखबार तय कर दिए गए हैं। पाठक चाहकर भी इन पुस्तकालयों में अपना पसंदीदा अखबार नहीं पढ़ सकता। क्या ऐसे मामलों में प्रेस परिषद की कोई भूमिका नहीं बनती है?
पत्रकारों का उत्पीडऩ और उन पर जानलेवा हमले निश्चित ही कानून व्यवस्था का मसला है, लेकिन प्रेस परिषद इन मामलों में प्रभावी हस्तक्षेप से बच नहीं सकती। देश के उत्तरी पूर्वी राज्यों, खासकर मणिपुर में पत्रकारों को किस तरह बंदूक के खौफ के साये में काम करना पड़ रहा है; इसका बयान कुछ समय पूर्व वहां के एक पत्रकार ने दिल्ली में किया था। इम्फाल फ्री प्रेस के प्रदीप फैंजोबम का 'द हिन्दू' ने साक्षात्कार प्रकाशित किया, जिसमें प्रदीप ने मणिपुर सहित उत्तर पूर्वी राज्यों में पत्रकारों के सामने पेश आ रहे कठिन हालात का ब्यौरा पेश किया था। यह उल्लेखनीय बात है कि उग्रवादी हमलों में वहां कई पत्रकार अपनी जान गंवा चुके हैं। वहां अखबारों की आवाज को खौफ और आतंक से दबाने की कोशिशें की जा रही हैं। क्या इन हालात में प्रेस परिषद की कोई भूमिका नहीं बनती है? क्या उसे खामोश रहना चाहिए? एक दुखद घटनाक्रम है, पिछले दिनों मध्य प्रदेश में खनन माफिया की पोल खोलने की कोशिशों में पत्रकार चन्द्रिका राय को जो कीमत चुकानी पड़ी, वह भयावह थी। रॉय को पूरे परिवार सहित खत्म कर दिया गया।
कह सकते हैं ये मामले कानून-व्यवस्था से जुड़े हैं और इनका प्रेस की स्वतंत्रता और नियमन से कोई सीधा वास्ता नहीं। लेकिन गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे, तो ये मामले प्रेस की आजादी से जुड़े हुए हैं। किसी भी तरह के भय व दमन तथा सरकारी पक्षपात व प्रलोभन के माहौल में स्वतंत्र प्रेस सांस नहीं ले सकती। स्वतंत्रता के बिना प्रेस पर किसी तरह के नियमन की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। भारतीय प्रेस परिषद इन मामलों में अपनी कोई भूमिका नहीं निभा पा रही थी, इसीलिए मीडिया जगत में उसे एक निष्प्रभावी संस्था के तौर पर देखा जाता रहा है। अलबत्ता न्यायमूर्ति काटजू ने उम्मीद जगाई थी कि परिषद लीक से हटकर अब कुछ कर पाएगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। यह निराशाजनक है। भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जे.एस. वर्मा के अनुसार प्रेस परिषद एक निष्प्रभावी संस्था है, जिसे बंद कर दिया जाना चाहिए। प्रेस परिषद के बारे में कई मीडिया विशेषज्ञ और जानकार भी यही राय व्यक्त कर चुके हैं। अगर भारतीय प्रेस परिषद अपनी भूमिका का सही तौर पर निर्वाह करे तो शायद ऐसी टिप्पणियों की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्योंकि मेरी राय में प्रेस परिषद का औचित्य और उपयोगिता है। प्रेस परिषद अधिकार-सम्पन्न तो हो ही, साथ ही प्राप्त अधिकारों का प्रेस के व्यापक हित में इस्तेमाल करने की इच्छाशक्ति से भी सम्पन्न हो।

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