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कोख में कत्ल




जयपुर से कुमारी सुष्मिता ने लिखा- 'जनगणना- 2011 के आंकड़ों ने मुझे शर्मसार कर दिया। इन आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में छह साल उम्र की बालिकाएं घट गई हैं। यानी बाल लिंगानुपात लड़कों के मुकाबले और ज्यादा गिर गया है। शिक्षा के प्रसार और कन्या-भ्रूण हत्या के खिलाफ लगातार सामाजिक-सरकारी अभियानों के बावजूद यह क्या हो रहा है? क्या हम पढ़े-लिखे सभ्य समाज कहलाने के हकदार हैं? जो आंकड़े प्रकाशित हुए हैं (पत्रिका: 1 व 5 अप्रेल) उनसे साफ जाहिर है कि लड़कियों की संख्या घटने का एकमात्र कारण कोख में ही उनका कत्ल कर देना है। पहले हम रूढि़यों, अंधविश्वास और अशिक्षा को दोषी मानकर खासकर, ग्रामीण समाज को कोसते थे, लेकिन अब? पढ़ा-लिखा शहरी समाज गर्भ में लिंग का पता लगा कन्याओं का खात्मा कर रहा है। मुझे बहुत ही मानसिक कष्ट हुआ जब एक तरफ पत्रिका में लिंगानुपात के आंकड़े प्रकाशित थे तो बगल में यह खबर भी छपी थी जिसमें उसी दिन जयपुर में दो नवजात कन्याओं की हत्या की गई थी। एक स्थान पर कोई नवजात कन्या का शव फेंक गया था तो दूसरी जगह नाले में कन्या-भ्रूण पॉलिथिन बैग में लिपटा मिला। क्या यह सब हमारे सभ्य-समाज के मुंह पर कालिख नहीं है?'
डी.के. शर्मा (कोटा) ने लिखा- '...तो ढूंढे नहीं मिलेगी दुल्हन' शीर्षक समाचार का निष्कर्ष चेतावनी की घंटी है। अगर अनसुनी की तो लड़के आने वाले वर्षों में दुल्हनों के लिए तरस जाएंगे। आबादी का संतुलन गड़बड़ाने से सब कुछ गड़बड़ा जाएगा। हमारे परिवारिक और सामाजिक रिश्तों का ताना-बाना बिखर जाएगा।'
प्रिय पाठकगण! जनगणना- 2011 के आंकड़ों में एक हजार पुरुषों की आबादी पर महिलाओं की संख्या में थोड़ी बढ़ोतरी को जहां कई पाठकों ने अच्छा संकेत माना है, वहीं बाल लिंगानुपात घटने पर गहरी चिन्ता प्रकट की है। शायद आपको यह विरोधाभास लगे कि वर्तमान में कन्या-भ्रूण हत्याओं के लिए पढ़े-लिखे शहरी समाज को ज्यादा दोषी माना जा रहा है, वहीं शहरी समाज से ही इस बुराई के खिलाफ आवाज भी उठ रही है। पाठकों की ये प्रतिक्रियाएं इसकी बानगी भर हैं।
ग्वालियर से दिग्विजय सिंह ने लिखा- 'पूरे देश में कन्या-भ्रूण हत्या के आंकड़े भयावह हैं। अनुमान लगाया गया है कि पिछले 50 वर्षों में भारत में 1.50 करोड़ नवजात कन्याओं की हत्या की जा चुकी है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के भारतीय प्रतिनिधि के अनुसार 2001 से 2007 के बीच लिंग परीक्षण के कारण प्रसव पूर्व ही 6 लाख लड़कियां प्रतिवर्ष नहीं जन्मी। यानी रोजाना 1600 लड़कियों की गर्भ में ही हत्या कर दी गई। वर्ष में औसतन 28  से 30  लाख भ्रूण परीक्षण होते हैं। सरकारी एजेंसियां सोई हुई हैं। पुलिस और चिकित्सा महकमों की हालत का पता इसी से चलता है कि मार्च-2011 तक देश के विभिन्न राज्यों में जन्म से पूर्व लिंग परीक्षण करने वालों के खिलाफ सिर्फ 805 मामले दर्ज हुए और इनमें भी मात्र 55 मामलों में कार्रवाई हुई। मध्य प्रदेश में दर्ज 70 मामलों में तो एक पर भी कार्रवाई नहीं हुई।'
ज्योति शर्मा (धौलपुर) ने लिखा- 'कन्या-भ्रूण हत्या रुके भी तो कैसे? सरकारी मशीनरी का इस बुराई को रोकने में कोई रोल ही नजर नहीं आता। प्रदेश में पीसीपीएनडीटी एक्ट-1994 के तहत कन्या-भ्रूण हत्या रोकने के उद्देश्य से एक विशेष टीम गठित की गई थी जिसका मुखिया डिप्टी एसपी स्तर का अधिकारी था, लेकिन इस विशेष टीम ने आज तक कुछ नहीं किया सिवाय कागजी कार्रवाई के। उल्टे लिंग परीक्षण करने वाले दोषी डॉक्टरों और सोनोग्राफी सेन्टरों को खुली छूट मिल गई।'
अहमदाबाद से अलका जोशी ने लिखा-'देश के 17  राज्यों में लिंगानुपात घटने पर केन्द्र सरकार केवल घडि़याली आंसू बहा रही है। (पत्रिका: 22 अप्रेल) हाल ही उन सभी राज्यों के स्वास्थ अधिकारियों के साथ केन्द्रीय सचिव की बैठक में निर्णय तो लंबे-चौड़े किए गए हैं, लेकिन ऐसे निर्णय बाद में ठंडे बस्ते में चले जाते हैं। अगर सरकार सचमुच गंभीर है तो कन्या-भ्रूण हत्या में दोषियों के लिए मौत की सजा का प्रावधान करना चाहिए।'
भोपाल से ओमप्रकाश सिंघल ने लिखा- 'समझ में नहीं आता एक मां अपनी पुत्री की हत्या के लिए कैसे तैयार हो जाती है? अगर मां चाहे तो कोई ताकत कन्या-भ्रूण या नवजात कन्या की हत्या नहीं कर सकती।'
इंदौर से सुभाष अग्निहोत्री ने लिखा- 'गर्भवती महिला को लिंग परीक्षण के लिए परिवार के लोग ही बाध्य करते हैं। यदि उसकी इच्छा पूछी जाए तो एक मां कभी भी अपने जिगर के टुकड़े को खत्म नहीं करेगी।'
बैंगलूरुसे नरेन्द्र भंसाली ने लिखा- 'कन्या-भ्रूण हत्या पर हम जितना शोर मचाते हैं उतना ही अगर नारी अत्याचार पर मचाएं तो कन्या-भ्रूण हत्या की नौबत ही नहीं आएगी।'
अजमेर से लालचंद 'भारती' ने लिखा- 'आज देश की राष्ट्रपति नारी है। लोकसभा अध्यक्ष नारी है। देश के मुख्य सत्ताधारी दल की मुखिया भी नारी है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिसमें स्त्री-शक्ति ने मौजूदगी दर्ज नहीं कराई हो। मीडिया ने कन्या-भ्रूण हत्या के खिलाफ वातावरण बनाने में काफी मदद की है 'पत्रिका' की 'एकल पुत्री जयते' और 'अपनी पुत्री जयते' जैसे अभियान ने अनुकूल वातावरण बनाया है। कई सामाजिक संस्थाएं इस क्षेत्र में अनूठा कार्य कर रही हैं। हमें उम्मीद करनी चाहिए लोग बेटियों की कद्र करना सीखेंगे।'

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