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एम.वी. कामथ का जाना

कामथ साहब ने आजीवन जो पत्रकारिता की वह कम गंभीर नहीं थी। वे जहां भी रहे अपने काम की गहराई और गंभीर विवेचना के लिए पहचाने गए। दरअसल, उनका आशय यह था कि एक युवा पत्रकार अपने पेशे पर ध्यान केन्द्रित रखे। पेशेगत जरूरतों और सच्चाइयों को समझे तथा लगातार सक्रिय रहते हुए अपनी योग्यता में निखार लाए।

गत सप्ताह मीडिया-जगत को बड़ी क्षति हुई। पत्रकारिता को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में जिस शख्सियत का नाम अदब से लिया जाता है, वह हमारे बीच नहीं रहे। ९३ वर्षीय माधव विट्ठल कामथ एम.वी. कामथ के नाम से मशहूर थे। उनका सम्पूर्ण जीवन सक्रियता की मिसाल था। आधी सदी से भी अधिक वर्षों तक उन्होंने पत्रकारिता की। लेखन-कर्म तो वे अंतिम समय तक करते रहे। उन्होंने करीब 40 पुस्तकें लिखीं। इनमें नरेन्द्र मोदी पर 'द आर्किटेक्ट आफ ए माडर्न स्टेट' पुस्तक भी शामिल है। उनके लेखन की चर्चा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर की जाती है। जीवन के 30 वर्ष उन्होंने विभिन्न देशों में गुजारे और पेरिस, जिनेवा, न्यूयार्क, ब्रूसेल्स, वाशिंगटन, लंदन जैसे शहरों से भारत के लिए पत्रकारिता की। उनके अनुभवों का दायरा व्यापक था। इसलिए वे पत्रकारिता को भी व्यापक नजरिए से देखते थे। अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के बावजूद वे मानते थे कि पत्रकारीय-कर्म विशुद्ध पेशेवर होना चाहिए। एक पत्रकार को सिर्फ एक अच्छा पत्रकार बनने की कोशिश करनी चाहिए और सदैव पाठकों को जेहन में रखना चाहिए। पत्रकार को अपने व्यक्तिगत आग्रह-दुराग्रह से ऊपर उठना चाहिए और अपनी क्षमता, विवेक और समझादारी को लगातार विकसित करना चाहिए। वे एक पत्रकार और समाजोत्थान के लिए कार्य करने वाले कार्यकर्ता के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खींचते थे। उनका यह दृष्टिकोण एक युवा पत्रकार को इंटरव्यू के दौरान स्पष्ट होता है। वे उसकी शंकाओं का समाधान करते हुए कहते हैं- अगर आप एक पेशेवर पत्रकार हैं तो यह मत समझिाए कि आपका काम क्रान्ति लाना है या आप इस दुनिया को बदल कर रख देंगे। यह काम आप क्रान्तिकारियों पर छोड़ दीजिए। विनोद में वे यह भी कह जाते हैं- खुद को इतनी गंभीरता से मत लो बिरादर! लेकिन सचमुच विनोद में ही। वरना कामथ साहब ने आजीवन जो पत्रकारिता की वह कम गंभीर नहीं थी। वे जहां भी रहे अपने काम की
गहराई और गंभीर विवेचना के लिए पहचाने गए। दरअसल, उनका आशय यह था कि एक युवा पत्रकार अपने पेशे पर ध्यान केन्द्रित रखे। पेशेगत जरूरतों और सच्चाइयों को समझो तथा लगातार सक्रिय रहते हुए अपनी योग्यता में निखार लाए। इधर-उधर ध्यान बांटने पर भटकाव होता है। एक अच्छा पत्रकार समाज को बहुत कुछ दे सकता है। यही कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा- मेरे गुरु एस. सदानन्द जो शीर्षस्थ पत्रकार रहे, कहते थे, आप पत्रकारिता में गंभीर काम करके
बताइए परन्तु अपने आप पर गंभीरता मत लादिए। साफ है, एम.वी. कामथ ने जो पत्रकारिता की, उसे उन्होंने बुलंदियों पर पहुंचाया लेकिन खुद जमीन से
जुड़े रहे।
वे कहते थे, अगर आप पत्रकार हैं तो आपको लगातार काम करते रहना होगा, तभी आपकी पहचान बनेगी। कभी-कभार कोई बड़ी 'स्टोरी' करके बैठ जाने से काम नहीं चलेगा। आपको हमेशा अपने प्रदर्शन से स्वयं को सिद्ध करते रहना पड़ेगा। क्योंकि आप जब अच्छा काम करते हैं तो पाठक की आपसे अपेक्षाएं भी बढ़ जाती हैं। वे कहते थे, लोग आप पर भरोसा करते हैं। उनके भरोसे को कायम रखना आपकी जिम्मेदारी है। कभी-कभार एक पत्रकार वह लिख देता है, जो उसे कभी नहीं लिखना चाहिए। इसके चलते लोगों का भरोसा टूटता है। वह फिर हासिल नहीं होता। पत्रकारिता में यह बहुत खतरनाक स्थिति होती है। इसलिए वे मानते थे- जो आप
लिखते हैं उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण वह है, जो आप नहीं लिखते। उनके सोचने का यह अपना अंदाज था और यही अंदाज उन्होंने अपने जीवन में भी लागू किया। वे उत्कृष्ट पत्रकार थे। इसका प्रमाण उनकी अनेक रिपोर्टें हैं जो उन्होंने लिखी। भारत के उत्तरी-पूर्वी राज्यों का दौरा करके उन्होंने एक विस्तृत रिपोर्ट लिखी जो 'इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया' में 'सेवन सिस्टर्स' शीर्षक से प्रकाशित हुई। ७० के दशक की इस रिपोर्ट को आज भी कई पत्रकार याद करते हैं। कश्मीर पर भी उन्होंने निर्भीकता से लिखा। शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के दौरान उन्होंने श्रीनगर में रहकर जो रिपोर्टिंग की वह जोखिम भरी थी लेकिन उन्होंने परवाह नहीं की।
कामथ साहब का सुदीर्घ जीवन निरन्तर सक्रियता और उपलब्धियों से परिपूर्ण रहा। लेखन से उन्हें जबरदस्त लगाव था। ९० वर्ष की आयु तक वे करीब-करीब रोजाना लिखते रहे। यह संयोग ही कहा जाएगा कि वे आजीवन प्रिंट मीडिया से जुड़े रहे मगर उम्र के आखिरी पड़ाव के दौर में इलेक्ट्रानिक मीडिया से संबद्ध प्रसार भारती के अध्यक्ष बने। देश को आजादी मिलने से पूर्व १९४६ में उन्होंने अपने पत्रकारीय जीवन की शुरुआत मुम्बई में 'फ्री प्रेस जनरल' से की। वे संडे टाइम्स के सम्पादक रहे। विदेशों से उन्होंने 'टाइम्स आफ इंडिया' के लिए रिपोर्टिंग की।' इलेस्ट्रेटेड वीकली' साप्ताहिक पत्रिका के सम्पादक के रूप में उन्होंने इसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। वे मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ कम्यूनिकेशन के अध्यक्ष भी रहे। पत्रकारिता, इतिहास, पर्यावरण, राजनीति सहित विभिन्न विषयों पर लिखी उनकी पुस्तकों की लम्बी सूची है जिनमें भारतीय विद्या भवन से प्रकाशित 'रिपोर्टर एट लार्ज' के अलावा 'गांधी, ए स्प्रीचुअल जर्नी', 'ऑन मीडिया, पालिटिक्स एंड लिटरेचर', 'द परसूइट ऑफ एक्सीलेस' की विशेष चर्चा की जाती है। वे 'पद्मभूषण' से नवाजे गए और अनेक मान-सम्मान और पुरस्कार उनके नाम रहे।
कामथ साहब में जो अपने पेशे के प्रति लगाव, अनुशासनप्रियता, निरन्तर लेखन और अध्ययनशीलता थी वह आज के पत्रकारों के लिए एक प्रेरक मिसाल है। उनका जाना अपूरणीय क्षति है। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!

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अमरीका में मोदी और मीडिया

मोदी अपने भाषण में क्या बोलेंगे, किस अंदाज में बोलेंगे, भाषण का क्या असर पड़ेगा- कयासबाजी की ऐसी खबरें भी चैनलों के 'प्राइम टाइम' का हिस्सा बनी। मोदी की ड्रेस, उनकी स्टाइल, उनके नवरात्रि व्रत और खान-पान की आदतें भी चर्चा के विषय बनाए गए। मेडिसन स्क्वायर गार्डन के आयोजन से पहले मीडिया में एक पूरा माहौल रचा जा चुका था। 
      क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमरीका यात्रा अभूतपूर्व रही? अगर इस सवाल का राजनीतिक विश्लेषण छोड़ दें और बात केवल मीडिया कवरेज की करें तो जवाब 'हां' होगा। भारत के टीवी चैनलों के पत्रकारों का अमरीका में जमावड़ा मोदी की यात्रा से कई दिन पहले ही शुरू हो गया था। अखबारों ने भी कवरेज के विशेष इंतजाम किए। इससे पूर्व शायद ही किसी भारतीय प्रधानमंत्री की यात्रा से पहले अमरीका जाकर वहां के गली-मोहल्लों, बाजार-चौराहों, मंदिर-गुरुद्वारों, सड़क, पार्क और होटल तक में जाकर मीडिया कवरेज की गई। अमरीका में बसे भारतीयों ने भी पहले कभी किसी भारतीय प्रधानमंत्री का ऐसा भव्य स्वागत नहीं किया होगा। मीडिया और प्रवासी भारतीयों ने मिलकर जो माहौल रचा उससे अमरीका तो नहीं, मगर न्यूयार्क शहर जरूर 'नमोमय' हो गया था। खासकर २८ सितम्बर को, जब वहां के प्रसिद्ध मेडिसन स्क्वायर गार्डन में हजारों लोगों को मोदी ने संबोधित किया। अमरीकी मीडिया शुरू में मोदी की यात्रा को लेकर जरूर उदासीन दिखा लेकिन बाद में उसने दिलचस्पी दिखाई। अलबत्ता, भारतीय मीडिया की तरह उसने इकतरफा मुग्धभाव तो नहीं दर्शाया फिर भी संयुक्त राष्ट्र महासभा में भाग लेने आए अन्य राष्ट्राध्यक्षों के मुकाबले भारतीय प्रधानमंत्री की यात्रा को ज्यादा महत्त्व दिया।
भारत के टीवी चैनलों ने मंगलयान के तत्काल बाद मोदी की अमरीकी यात्रा पर माहौल बनाना शुरू कर दिया था। सबसे पहले नेटवर्क १८ ने अपने चार प्रमुख न्यूज चैनलों के पत्रकारों की टीम भेजी। इसके बाद होड़ मच गई। एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में एक-एक करके लगभग सभी प्रमुख चैनलों ने अपने संवाददाता और कैमरामैन मोदी की यात्रा से चार-पांच दिन पहले ही अमरीका भेज दिए। सीएनएन-आईबीएन, आईबीएन-७, टीवी टुडे ग्रुप, इंडिया न्यूज, जी न्यूज, एबीपी न्यूज, एनडीटीवी, इंडिया टीवी आदि समाचार चैनलों के संवाददाताओं ने घूम-घूमकर स्टोरी तैयार की और लाइव रिपोर्टिंग की। मोदी की यात्रा को लेकर तैयारियां, भारतीय मूल के अमरीकी नागरिकों की उल्लास भरी प्रतिक्रियाएं, मेडिसन स्क्वायर गार्डन का विशेष आयोजन, मोदी समर्थकों का गरबा-नृत्य और राह चलते अमरीकी नागरिकों के इंटरव्यू तक चैनलों ने दिखाए।
न्यूयार्क  के कई महत्त्वपूर्ण स्थानों से एक साथ एक ही चैनल के अलग-अलग संवाददाताओं की 'लाइव रिपोर्टिंग' ने माहौल को 'मोदीमय' बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। चैनलों में कवरेज के लिए नए-नए ढंग अपनाने की होड़ मची रही। मोदी के हर कार्यक्रम की विस्तार से चर्चा की गई। मोदी अपने भाषण में क्या बोलेंगे, किस अंदाज में बोलेंगे, भाषण का क्या असर पड़ेगा- कयासबाजी की ऐसी खबरें भी चैनलों के 'प्राइम टाइम' का हिस्सा बनी। मोदी की ड्रेस, उनकी स्टाइल, उनके नवरात्रि व्रत और खान-पान की आदतें भी चर्चा के विषय बनाए गए। मेडिसन स्क्वायर गार्डन के आयोजन से पहले मीडिया में एक पूरा माहौल रचा जा चुका था। हालांकि यह मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि मोदी के प्रति अमरीका में रह रहे भारतीयों के जोश-खरोश ने इस आयोजन को विशिष्टता प्रदान की, पर साथ ही यह भी एक सच्चाई थी कि मीडिया ने जो माहौल रचा, आयोजन को यादगार बनाने में उसकी भूमिका भी कम न थी। देखा जाए तो इस आयोजन के बाद ही अमरीकी मीडिया सक्रिय हुआ। इससे पहले 'न्यूयार्क  टाइम्स' तथा 'वाशिंगटन पोस्ट' जैसे नाम छोड़ दें तो वहां के नामी अखबार और चैनल मोदी की यात्रा को लेकर उदासीन बने रहे। 'द वाल स्ट्रीट जनरल' 'यूएसए टुडे', 'लॉस एंजिल्स टाइम्स', 'डेली न्यूज' आदि अखबार मोदी की अमरीका यात्रा पर प्राय: चुप्पी साधे रहे।
भारत-अमरीकी द्विपक्षी सम्बंधों पर गहन विश्लेषण तो बहुत दूर की बात थी। मेडिसन स्क्वायर गार्डन के आयोजन में करीब 20 हजार लोगों की जोशीली उपस्थिति और मोदी के प्रभावशाली भाषण के बाद वहां के मीडिया में कुछ हलचल हुई।
सीएनएन टीवी ने अपने पोर्टल पर लिखा- 'पिछले सप्ताह करीब १३० देशों के प्रमुख यूएन की बैठक में हिस्सा लेने के लिए न्यूयार्क  आ चुके हैं। जिस तरह का स्वागत भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का किया गया, किसी और देश के समुदाय ने अपने प्रधानमंत्री का वैसा स्वागत नहीं किया।'
'डेली न्यूज' अखबार ने लिखा- 'नरेन्द्र मोदी का अमरीका में जो स्वागत-सत्कार हो रहा है, वह भारत में व्यापार के बारे में उनके अच्छे नेतृत्व के कारण है।' बराक ओबामा से वाशिंगटन में मोदी की मुलाकात से पहले अखबार 'वाशिंगटन पोस्ट' ने लिखा- 'सफल भारतीय मूल के अमरीकियों के बड़े समूह के हीरो नरेन्द्र मोदी सोमवार को वाशिंगटन पहुंचेंगे तो उन्हें भारत के अल्पसंख्यक समूहों के विरोध का भी सामना करना पड़ेगा।' 'न्यूयार्क  टाइम्स' ने लिखा- 'राष्ट्रपति ओबामा से मुलाकात से पहले मेडिसन स्क्वायर पर उनके भाषण से यह पता चला कि वह अमरीका से आखिर क्या चाहते हैं।' इन अखबारों में विश्लेषण भी प्रकाशित हुए।'द वाल स्ट्रीट जनरल' ने  जो अब तक खामोश था, मोदी पर विस्तृत समाचार प्रकाशित किया।
कुछ अमरीकी अखबार और न्यूज एजेन्सियों ने मोदी के खिलाफ किए गए प्रदर्शन और ज्ञापनों को खास तवज्जो दी तो कुछ ने मोदी की यात्रा को हल्के-फुल्के और मजाकिया अंदाज में भी प्रस्तुत किया। यूएसए टुडे ने लिखा- 'मोदी ने रॉकस्टार का दर्जा हासिल कर लिया है।' अमरीका की न्यूज एजेन्सी एसोसिएट प्रेस ने मेडिसन स्क्वायर गार्डन आयोजन पर लिखा- 'घूमते हुए स्टेडियम में बॉक्सिंग चैम्पियन की तरह स्पॉटलाइट से मोदी ने भाषण दिया। बॉलीवुड स्टाइल में डांसर्स ने उनके आने से पहले परफोर्मेंस दी।'
अमरीका और भारतीय मीडिया के स्वर भले ही अलग-अलग रहे हों लेकिन दोनों देशों के मीडिया ने खासकर भारतीय टीवी चैनलों ने मोदी की
यात्रा को लेकर जो कवरेज की वह अभूतपूर्व कही जाएगी। इससे पहले किसी भारतीय प्रधानमंत्री की अमरीका यात्रा को मीडिया ने इतना तूल नहीं दिया था। इससे पहले अमरीकी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री ने साझाा लेख भी नहीं लिखा जो इस बार ओबामा और मोदी ने लिखा है।

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कुदरत का कहर : मीडिया का भेदभाव!

जम्मू-कश्मीर की बाढ़ को लेकर मीडिया ने जो संवेदनशीलता दिखाई वह देश के उत्तर-पूर्व (असम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश) में आई बाढ़ में कहीं नजर नहीं आई। जबकि बाढ़ का कहर और उससे प्रभावितों की त्रासदी किसी भी तरह कमतर नहीं थी।
क्या मीडिया ने देश के दो अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ की कवरेज में भेदभाव बरता? निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर में पिछले 60 वर्षों की यह सबसे भीषण बाढ़ थी। वहां के लोगों ने झोलम का ऐसा रूप पहले कभी नहीं देखा था। राज्य के ढाई हजार से अधिक गांवों में बाढ़ ने कहर बरपाया। 300 से अधिक लोगों की जान चली गई। 10 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी तत्परता से बाढ़ प्रभावित इलाकों का हवाई सर्वेक्षण करने के बाद कहा- 'यह राष्ट्रीय स्तर की आपदा है।' उन्होंने एक हजार करोड़ रुपए की बाढ़ पीडि़तों की सहायता की घोषणा की। सरकारी तंत्र ने सक्रियता दिखाई। सेना के बचाव व राहत कार्य तेजी से शुरू हुए।
शायद इसीलिए राष्ट्रीय मीडिया ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लगातार दस दिन तक जम्मू-कश्मीर की बाढ़ सुर्खियों में रही। 'जन्नत' कहे जाने वाले कश्मीर में कुदरत का कहर कयामत बनकर किस तरह टूटा, इसकी हकीकत मीडिया ने देश को बताई।
लाइव रिपोर्टिंग, जलप्लावन की दर्दनाक तस्वीरें, पीडि़तों की आप-बीती तथा मानवीय संवेदनाओं को छूने वाले वृत्तांत मीडिया के जरिए ही देश के लोगों ने पढ़े, सुने और देखे। पीडि़त परिवारों के बिछुड़े लोगों को मिलाने और उनके बारे में जानकारियां देने में मीडिया की अहम भूमिका सामने आई। लोगों ने यह भी देखा कि घाटी में आम दिनों में सेना पर पत्थर बरसाने वालों ने किस तरह सेना की रहनुमाई में बाढ़ से अपनी जान बचाई।
सही है, जब देश के किसी हिस्से में तबाही मची हो तो राष्ट्रीय मीडिया उसकी अनदेखी कैसे कर सकता है। आपको याद होगा, पिछले साल उत्तराखंड में बाढ़ ने भयानक कहर बरपाया था। 6 हजार लोगों की जानें चली गईं। ४ हजार से ज्यादा गांव जलमग्न हो गए। उत्तराखंड की त्रासदी भीषणतम त्रासदियों में से एक थी। उस दौरान राष्ट्रीय मीडिया जिस तरह तत्पर हुआ, उसी तरह कश्मीर में भी हुआ। हां, तब 24 घंटे चलने वाले चैनलों ने जरूर अति कर दी थी। उसकी आलोचना भी की गई थी लेकिन उस वक्त मीडिया, खासकर चौबीस घंटे चलने वाले न्यूज चैनलों की पेशेगत जिम्मेदारी को लेकर इंसानी भेदभाव और अनदेखी का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता था। मगर यह आरोप इस बार कश्मीर की बाढ़ के दौरान मीडिया कवरेज खासकर न्यूज चैनलों पर की गई रिपोर्टिंग को लेकर अवश्य लग चुका है। इसे अगर और स्पष्ट कहूं तो यह कि जम्मू-कश्मीर की बाढ़ को लेकर मीडिया ने जो संवेदनशीलता दिखाई वह देश के उत्तर-पूर्व (असम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश) में आई बाढ़ में कहीं नजर नहीं आई। जबकि बाढ़ का कहर और उससे प्रभावितों की त्रासदी किसी भी तरह कमतर नहीं थी।
जम्मू-कश्मीर की तरह ही उत्तर-पूर्वी राज्यों का एक बड़ा हिस्सा भीषण बाढ़ की तबाही से जूझा रहा था। कश्मीर में बाढ़ से सिर्फ एक सप्ताह पहले तक ब्रह्मपुत्र ने झोलम से भी अधिक रौद्र रूप धारण कर रखा था। उत्तर-पूर्व के राज्यों में बाढ़ की क्या स्थिति है और वहां के लोग किन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं इसकी एक झालक भी चौबीस घंटे चलने वाले हमारे इन राष्ट्रीय कहे जाने वाले चैनलों में दिखाई नहीं पड़ी। जो थोड़ी बहुत सूचनात्मक तौर पर जानकारियां सामने आईं वह भी प्रिंट मीडिया के जरिए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को हत्या, बलात्कार, गॉसिप या फिर मनोरंजन परक कथा-कहानियों से ही फुरसत नहीं थी। केन्द्र सरकार ने तो उत्तर-पूर्वी राज्यों की बाढ़ को बहुत हल्के में लिया ही, मीडिया ने भी यही किया। मानों टीवी चैनल्स सरकार का अनुसरण करने में लगे हों। उत्तर-पूर्व के राज्यों में कुल मिलाकर २० लाख से भी अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हुए थे। अकेले असम के १६ जिलों में १२ लाख लोग बाढ़ से बुरी तरह पीडि़त थे। (पत्रिका: २८ अगस्त) जबकि सिर्फ डेढ़-पौने दो लाख पीडि़तों को ही सरकारी राहत शिविरों में शरण दी जा सकी थी। ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों ने असम में लगातार हुई बारिश से भारी तबाही मचा रखी थी। दो हजार से अधिक गांव पूरी तरह जलमग्न थे। दूर-दराज के ग्रामीण इलाके हर तरह के सम्पर्क  से कटे हुए थे। कच्चे झाोंपड़ों में रहने वाली गरीब ग्रामीण आबादी को अस्तित्व का संघर्ष करते हुए देखा जा सकता था। लोग पेड़ के डंठल की नावें बनाकर खतरनाक ढंग से उफनते पानी को पार कर रहे थे। ये हालात कुछ प्रेस एजेन्सियों के हवाई सर्वेक्षणों और तस्वीरों में कुछ राष्ट्रीय अखबारों के जरिए सामने आए। अगर असम सहित उत्तर-पूर्वी राज्यों में बाढ़ की विभीषिका की आपको वास्तविक थाह लेनी है तो गूगल सर्च करके देखिए।  प्रेस एजेन्सियों के फोटोग्राफ्स और विवरण सारी स्थिति बयां कर देंगे। मेघालय में जिंजिरम नदी के कारण काफी तबाही हुई। करीब सवा लाख लोग बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुए। मणिपुर के लाम्फेलपेट इलाके के कई हिस्सों में नाम्बुल नदी के उफान ने बरबादी मचाई। अरुणाचल प्रदेश में लगातार बारिश तथा सियांग और संबासिरी नदियों में उफान से जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा। प्रदेश का पूर्वी सियांग और लोहित जिला अन्य हिस्सों से कट गया था। छितरी आबादी और विकट क्षेत्र के कारण बाढ़ प्रभावितों की वहां कोई मदद करने वाला नहीं था लेकिन केन्द्र सरकार ने अनदेखी की तो मीडिया भी सोया रहा। सरकार का असम की बाढ़ के प्रति नजरिया केन्द्रीय मंत्री वी.के. सिंह के बयान से ही स्पष्ट था। वी.के. सिंह 'डेवलपमेंट ऑफ नॉर्थ-इस्टर्न रीजन' (डीओएनईआर) के प्रभारी मंत्री हैं। प्रेट्र के संवाददाता ने जब उनसे असम में बाढ़ के हालात के बारे में पूछा तो उनका जवाब था- 'असम में बाढ़ कोई नई बात नहीं है।' असम सहित उत्तर-पूर्व के ज्यादातर राज्य हर वर्ष बाढ़ की विभीषिका से जूझाते हैं, यह वहां के निवासियों का जज्बा है लेकिन क्या इसीलिए हमें उनकी पीड़ा से कोई सरोकार नहीं? यह कैसी संवेदनहीनता है? देश के नागरिकों के बीच भेदभाव करने की यह कैसी मानसिकता है? इन स्थितियों में जम्मू-कश्मीर में अगर सरकार की तत्परता तथा असम में उदासीनता को जम्मू-कश्मीर राज्य में आसन्न चुनाव से जोड़कर देखा जाए तो क्या गलत है? खैर, सरकार और विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने राजनीतिक कारणों से यह विभेद करते हैं लेकिन मीडिया भी यही करे तो यह गंभीर चिन्ता का विषय होना चाहिए। उत्तर-पूर्व के लोगों में यह भावना और मजबूत होगी कि सरकार तो है ही देश का मीडिया भी उनकी समस्याओं को लेकर संवेदनहीन है। मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हाल ही देश के दो अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ को लेकर जो रवैया अपनाया, उससे तो यह प्रमाणित भी हुआ है

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मीडिया में 'ट्राई' की सिफारिशें

चाहे किसी भी दल की सरकार हो, बातें तो सभी मीडिया की स्वतंत्रता की करती हैं लेकिन कोई भी सरकार मीडिया को पूरी तरह स्वतंत्रता देना चाहती नहीं। स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र का रक्षक तो हो सकता है लेकिन सरकार का रक्षक भी हो, यह जरूरी नहीं।

'ट्राई' (टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी आफ इंडिया) ने एक बार फिर भारतीय मीडिया को सरकारी दखल और बड़ी कंपनियों के बढ़ते एकाधिकार के खतरों से आगाह किया है। हालांकि 'ट्राई' ने पांच वर्ष पूर्व अपनी विस्तृत रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी लेकिन इतना समय बीत जाने के बाद भी सरकार ने कुछ नहीं किया। इस स्थिति पर चिन्ता जाहिर करते हुए 'ट्राई' ने हाल ही अपनी ताजा सिफारिशें सरकार को भेजी हैं। इन सिफारिशों में कहा गया है कि न केवल सरकार को मीडिया में हस्तक्षेप करने से दूर रहना चाहिए, बल्कि मीडिया में पूंजी के माध्यम से स्थापित किए जा रहे एकाधिकार व वर्चस्व के खतरों को रोकने का भी प्रयास करना चाहिए।
'ट्राई' ने और भी कई सिफारिशें की हैं जिनका सम्बन्ध इलेक्ट्रॉनिक ही नहीं, प्रिंट मीडिया से भी है। 'ट्राई' के पास प्रसारण नियमन का ही अधिकार है। शायद इसीलिए उसकी सिफारिशें और उन्हें जारी करने के अधिकार को लेकर प्रिंट मीडिया में कुछ लोगों ने एतराज जताया है। सवाल किया जा रहा है कि मीडिया-उद्योग ने आज जो स्वरूप धारण कर लिया है, वह बिना विशाल पूंजी के कैसे टिक पाएगा? सवाल अपनी जगह सही है। इसका समाधान मुश्किल मगर असंभव नहीं है। लेकिन इसकी आड़ में मीडिया से जुड़े बुनियादी मुद्दों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। 'ट्राई' की सिफारिशों को इसी दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। 'ट्राई' की बुनियादी दो सिफारिशों पर ही गौर करें तो उनमें आपत्ति की कोई बात नजर नहीं आती।
 मीडिया में सरकारी दखलंदाजी को लेकर देश में एक पाखंड साफ तौर पर देखा जा सकता है। चाहे किसी भी दल की सरकार हो, सभी बातें तो मीडिया की स्वतंत्रता की करती हैं लेकिन कोई भी सरकार मीडिया को पूरी तरह स्वतंत्रता देना चाहती नहीं। स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र का रक्षक तो हो सकता है लेकिन सरकार का रक्षक भी हो, यह जरूरी नहीं। सरकार के घपले घोटाले और शासन की विसंगतियों को लोगों के सामने लाना मीडिया का काम है। सरकार को यही रास नहीं आता और वह मीडिया को काबू में करने के प्रत्यक्ष व परोक्ष हथकंडे अपनाने लगती है। सरकार नियंत्रित या निर्देशित मीडिया कभी अपनी भूमिका को सही ढंग से नहीं निभा सकता। उसका पतन अवश्यंभावी है। ऐसे में अगर 'ट्राई' मीडिया को सरकार की दखलंदाजी से बचाने की सिफारिश करता है तो इसमें गलत क्या है।
 इसी तरह एकाधिकार भी किसी उद्योग के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। खासकर मुक्त अर्थव्यवस्था में तो यह एक गंभीर रोग से कम नहीं। भारतीय मीडिया में एकाधिकार की चर्चा ने पिछले दिनों तब जोर पकड़ा जब रिलायंस इंडस्ट्रीज ने नेटवर्क-१८ को खरीद लिया जिसके तहत कई न्यूज चैनल और वेब पोर्टल्स संचालित होते हैं। 'ट्राई' ने अपनी सिफारिशों में न केवल एकाधिकार को मीडिया उद्योग के लिए घातक बताया है बल्कि मीडिया में मालिकाना हक और नियंत्रण के अन्तर को भी स्पष्ट किया है। 'ट्राई' के अनुसार बिना बहुलांश हिस्सेदारी के भी मीडिया इकाइयों पर नियन्त्रण किया जा सकता है। नियंत्रण' को 'ट्राई' ने विस्तृत परिभाषित किया है। मीडिया के विकास में 'ट्राई' ने बड़ी कंपनियों के एकाधिकार और नियंत्रण दोनों को एक बुराई मानते हुए अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य एच.एच.आई. (हरफिंडाल हर्शमैन इंडेक्स) पद्धति की सिफारिश की है। साथ ही मीडिया में होल्डिंग और क्रॉस होल्डिंग की समीक्षा के लिए सुझााव दिया है कि ऐसे पूंजी निवेश की हर तीन साल में समीक्षा होनी चाहिए।  भारत में मीडिया में मालिकाना हक को लेकर 'क्रास मीडिया ऑनरशिप' पर कोई पाबंदी नहीं है। इससे काफी घालमेल हुआ है। मीडिया में क्रॉस ऑनरशिप के प्रचलित दोनों रूपों पर भारत में कोई प्रतिबंध नहीं है, जबकि अमरीका और कई यूरोपीय देशों में 'हारिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' प्रतिबंधित है।
जब एक मीडिया-कंपनी मीडिया से इतर दूसरे क्षेत्र में निवेश करे तो इसे 'हारिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' कहा जाता है। मीडिया में कई ऐसी कंपनियां या घराने प्रवेश कर चुके हैं जो अपना कारोबार चमकाने के लिए मीडिया को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। मीडिया के नियम और मूल्यों से उनका कोई सरोकार नहीं। भारतीय मीडिया-उद्योग में यह प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ती जा रही है, जो मीडिया में कई बुराइयों को जन्म दे रही है। इसलिए अगर 'ट्राई' ने मीडिया में ऐसे पूंजी निवेश की निरन्तर समीक्षा की बात कही है और एच.एच.आई. पद्धति लागू करने की सिफारिश की है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। प्रिन्ट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया- राजनेताओं के स्वामित्व वाली अधिकतर मीडिया इकाइयों में खबरों को किस तरह राजनीतिक रंग दिया जाता है यह सर्वविदित है। शायद इसीलिए 'ट्राई' ने राजनीतिक संगठनों को भी मीडिया-उद्योग में निवेश और हस्तक्षेप से रोके जाने की सिफारिश
की है।
 'ट्राई' ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में मीडिया पर निगरानी के लिए एक स्वतंत्र प्राधिकरण का गठन करने की जो सिफारिश की है, उस पर विचार-विमर्श की जरूरत है। मीडिया के स्वतंत्र विकास के लिए मीडिया के भीतर ही नियामक संस्था होनी चाहिए- इसे लेकर मीडिया से जुड़े ज्यादातर पक्ष एकमत हैं। किसी बाहरी संस्था के माध्यम से मीडिया पर निगरानी की कोई भी नियामक संस्था सार्थक भूमिका निभा पाएगी, इसमें संदेह है। फिर भी 'ट्राई' की दोनों बुनियादी सिफारिशें निर्विवाद हैं जिन्हें मानने में सरकार और मीडिया-उद्योग को भी कोई परहेज नहीं होना चाहिए।

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सरकार का ट्विटर पर चहकना


आजकल ट्विटर पर अभिनेता से लेकर राजनेता तक सभी चहकते (ट्विट करते) हैं। शायद इसीलिए पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने पेट्रोल में कीमतों की कमी की घोषणा अपने ट्विटर अकाउंट पर की। यह पहला अवसर है, जब किसी महत्वपूर्ण निर्णय की जानकारी सरकार ने औपचारिक प्रेस-विज्ञप्ति या प्रेस कान्फे्रन्स की बजाय सोशल नेटवर्किंग के जरिए दी। वह भी पेट्रोल में कीमतों की कमी की तिथि से पूरे चौबीस घंटे पहले। मीडिया को यह खबर ट्विटर से मिली और आम जनता के लिए सार्वजनिक हुई। वैसे कह सकते हैं कि मंत्री ने जब पेट्रोल की कीमत घटाने की जानकारी अपने ट्विटर अकाउंट पर दी तभी यह सूचना सार्वजनिक हो गई थी, लेकिन भारत जैसे देश में ट्विटर पर या मंत्री को फोलो करने वाले लोगों की सीमित तादाद है। सही मायने में आम लोगों के हित की यह सूचना मीडिया के जरिए ही लोगों तक पहुंच पाई।
ऐसे में यह स्वाभाविक सवाल है कि सरकार को अपने महत्वपूर्ण निर्णयों की जानकारी 'ट्विटर', 'फेसबुक' आदि सोशल नेटवर्किंग माध्यमों से देनी चाहिए या मीडिया के मार्फत आम जन तक पहुंचानी चाहिए? प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने अपने मंत्रियों और अफसरों को सोशल मीडिया से जुड़ने के निर्देश दिए थे। स्वयं प्रधानमंत्री भी ट्विटर के जरिए लोगों तक संदेश पहुंचाते हैं। जनता के वोटों से चुनी हुई सरकार जनता से सतत संवाद के लिए इन माध्यमों का उपयोग करे तो शायद किसी को भी एतराज नहीं होगा। अनेक राजनेता 'ट्विटर', 'फेसबुक' आदि माध्यमों पर मौजूद हैं और समय-समय पर अपने प्रशंसकों-मित्रों-शुभचिन्तकों आदि से संवाद करते हैं। विभिन्न मुद्दों पर उनकी राय, सम्मति, प्रतिक्रियाएं मीडिया में सुर्खियां भी बनती हैं। लेकिन सरकार का कोई महत्वपूर्ण निर्णय, वह भी ऐसा जो सीधे जनता से जुड़ा हो- अगर उसे मंत्रीजी अपने 'ट्विटर' अकाउंट पर डालकर इतिश्री कर ले तो इसे क्या कहना चाहिए। सरकार के महत्वपूर्ण व नीतिगत निर्णयों की सूचनाओं-घोषणाओं के लिए सोशल नेटवर्किंग पर निर्भरता सही नहीं मानी जा सकती। बल्कि कई विश्लेषकों की राय में तो यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है। भाजपा के पूर्व नेता गोविन्दाचार्य तो इसे पब्लिक रिकार्ड एक्ट का उल्लंघन मानते हैं और अदालत में जनहित याचिका दायर कर चुके हैं। अगर समय रहते सोशल मीडिया-प्रेमी सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया तो उसके नतीजे भी भुगतने पड़ सकते हैं।
सोशल मीडिया के दुरुपयोग और उसके दुष्परिणाम के विश्व में सैकड़ों उदाहरण हैं। इसमें जितना खुलापन है, उतनी अराजकता भी। किसी भी तरह के नियन्त्रण और नियमन से मुक्त यह माध्यम कई बार सरकारों की फांस बन चुका है। इसका मतलब यह भी नहीं कि सोशल मीडिया की सकारात्मक भूमिका नगण्य है। लेकिन यह एक दुधारी तलवार है। मौजूदा केन्द्र सरकार सोशल मीडिया की शक्ति और कमजोरियों से नावाकिफ होगी, यह सोचना नादानी होगी। सरकार में आने से पहले भाजपा के कई नेता सोशल नेटवर्किंग पर सक्रिय रहे हैं। नरेन्द्र मोदी तो काफी पहले ही सोशल नेटवर्क पर लोकप्रिय राजनेता का खिताब हासिल कर चुके थे। ऐसे में मौजूदा केन्द्र सरकार की सोशल मीडिया पर निर्भरता को सहज ही समझाा जा सकता है। दरअसल, सोशल मीडिया और मुख्य मीडिया के मूलभूत स्वरूप और उनमें परस्पर भिन्नता है।
सोशल मीडिया एक निरपेक्ष माध्यम है। इसमें आप इकतरफा संवाद लम्बे समय तक कायम रख सकते हैं। आप जानते हैं लोग आपके 'फॉलोवर' या दूसरे शब्दों में आपके 'समर्थक' होते हैं। वे आपके शब्दों की प्रतीक्षा करते हैं और जब आप उन्हें व्यक्त कर देते हैं तो वे आपकी तारीफ करते हैं। कई तो प्रशंसा के पुल बांध देते हैं। कुछ आलोचक भी होते हैं, लेकिन दिखावे के। वास्तविक आलोचक या विश्लेषकों को कोई पसंद नहीं करता और उन्हें आमतौर पर प्रतिबंधित (ब्लॉक) कर दिया जाता है। अव्वल तो कोई असुविधाजनक सवाल आपसे करता ही नहीं। किसी ने कर भी दिया तो आप उसकी आसानी से अनदेखी कर सकते हैं। 'ट्विटर' में तो वैसे भी १४० अक्षरों की सीमा बंधी है। यानी एक सुविधाजनक परिस्थिति आपको सोशल मीडिया पर उपलब्ध है। इसका सबसे ज्यादा फायदा राजनेता उठा रहे हैं। प्रचार का प्रचार और जवाबदेही नगण्य। सरकार में बैठे नेता के लिए तो यह और भी मुफीद है। मंत्री का सोशल मीडिया के जरिए लोगों से संवाद बुरी चीज नहीं है, लेकिन इसे राजनीतिक सुविधा का माध्यम बना देना अनुचित है।
यह सुविधा मुख्य मीडिया में सहज उपलब्ध नहीं है। हालांकि मीडिया के जो मौजूदा हालात हैं उनमें राजनेता, राजनीतिक दल और सरकार ही नहीं, पहुंचवाला कोई भी व्यक्ति मीडिया से अनुकूल सुविधाएं हासिल कर लेता है। लेकिन मुख्यधारा का मीडिया अपने स्वरूप में ही सोशल मीडिया से इतना भिन्न है कि वह कहीं न कहीं या किसी न किसी स्तर पर आपको जवाबदेही के लिए मजबूर कर सकता है।
मीडिया की इसी शक्ति ने उसे अनेक विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कायम रखा है। मीडिया 'ट्विटर' की तरह निरपेक्ष नहीं है। न ही वह 'फेसबुक' की तरह किसी एक कंपनी या व्यक्ति द्वारा संचालित है। सोशल मीडिया में कुछ नियम और विधियां तय हैं जो निरपेक्ष भाव से स्वत: काम करती रहती है। उसका यह तंत्र अच्छे और बुरे की पहचान नहीं कर सकता। इसके विपरीत मीडिया एक जीवन्त माध्यम है। उसके संचालक ही नहीं, उसमें कार्यरत मीडियाकर्मी भी हर क्षण चौकन्ने रहते हैं। उनमें परस्पर कड़ी प्रतिस्पद्र्र्धा है। वह अलग-अलग रूपों और नामों में मौजूद है। कहीं वह प्रिंट मीडिया है तो कहीं वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। प्रिंट में भी दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक कई स्तर हैं तो इलेक्ट्रॉनिक में भी दृश्य और श्रव्य दोनों माध्यम हैं। न्यूज चैनलों की पूरी शृंखला है। ऐसे में लोगों के प्रति जवाबदेही से बचना मुश्किल है, खासकर किसी सरकारी प्रतिनिधि का। यही बंदिश शायद सरकार को रास नहीं आ रही है और उसने एक सुविधाजनक रास्ता अख्तियार कर लिया है। लेकिन अगर सरकार ने यही राह अपनाने का फैसला कर लिया है तो माना जाएगा कि वह मुख्यधारा के मीडिया की तो अनदेखी कर ही रही है, बल्कि जनता के प्रति जवाबदेही का भी अनादर कर रही है।

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मीडिया का मित्र सोशल वीडियो

कैमरे ने सब कुछ बयान कर दिया और दोषियों को सींखचों के पीछे पहुंचा दिया।  कल्पना कीजिए पीडि़त बच्चों के माता-पिता कैमरे के फुटेज लेकर सीधे कानून का दरवाजा खटखटाते तो क्या होता। बहुत संभव है, पुलिस उन्हें टरका देती। मामला ही दर्ज नहीं करती। जैसा कि अक्सर होता है।

कुछ दिनों पहले यह खबर आपने पढ़ी होगी जिसमें कुछ वीडियो-चित्र भी छपे थे। इन चित्रों में आन्ध्र प्रदेश के एक स्कूल का प्रधानाचार्य तीन नेत्रहीन बच्चों को बेरहमी से पीट रहा था। बच्चे दर्द से चिल्ला रहे थे और रहम की गुजारिश कर रहे थे। मगर प्रधानाचार्य इन बच्चों को बेदर्दी से छड़ी लेकर पीटे जा रहा था। सभी बच्चे दस साल से भी कम उम्र के थे। खास बात यह कि प्रधानाचार्य स्वयं नेत्रहीन था। स्कूल के किसी कर्मचारी ने इस घटना की वीडियो रिकार्डिंग कर ली। वीडियो यू-ट्यूब पर साझाा हुआ तो लोगों को इस घटना का पता चला। प्रधानाचार्य और उसका साथ देने वाले स्कूल के सचिव को गिरफ्तार कर लिया गया।
इसी तरह कोलकाता के एक घर में महिला ट्यूटर ने तीन साल के मासूम बच्चे को बुरी तरह पीटकर जख्मी कर दिया। फिर बच्चे की मां को धमकाया कि पुलिस में शिकायत करने की गलती मत करना लेकिन जब कैमरे के चित्र मीडिया में प्रकाशित हुए तो ट्यूटर के होश ठिकाने आ गए। गिड़गिड़ाई, खूब माफी मांगी। मामला पुलिस में दर्ज हो गया। दरअसल, ट्यूटर की सारी करतूत घर में लगे सीसी टीवी कैमरे में कैद हो गई थी। एक तरफ केन्द्र सरकार बच्चों को पीटने वालों के खिलाफ कानून को कड़ा बनाने की तैयारी कर रही है वहीं दूसरी तरफ ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी बेहद दुखद है।
  कहने की जरूरत नहीं, अगर उपरोक्त घटनाओं के वीडियो या सीसी टीवी चित्र नहीं होते तो इन घटनाओं की किसी को भनक तक नहीं लगती। मीडिया को भी नहीं। न जाने कब से नेत्रहीन बच्चे प्रधानाचार्य के जुल्म सह रहे थे। तीन साल का मासूम भी ट्यूटर का जुल्म बयान करने में सक्षम नहीं था। कैमरे ने सब कुछ बयान कर दिया और दोषियों को सींखचों के पीछे पहुंचा दिया। सवाल है क्या अकेले कैमरे ने? क्या कैमरे में कैद केवल तस्वीरें ही पीडि़तों को न्याय दिलाने में पर्याप्त थी? या इन तस्वीरों के सार्वजनीकरण ने भी यह काम किया? कल्पना कीजिए पीडि़त बच्चों के माता-पिता कैमरे के फुटेज लेकर सीधे कानून का दरवाजा खटखटाते तो क्या होता। बहुत संभव है, पुलिस उन्हें टरका देती। मामला ही दर्ज नहीं करती। जैसा कि अक्सर होता है। पीडि़त ही बार-बार चक्कर काटते, परेशान होते। कई तरह के सवाल-जवाब उन्हीं से किए जाते। अपराधियों का बाल तक बांका नहीं होता। इन परेशानियों की कल्पना करके ही अनेक पीडि़त चुप लगाकर बैठ जाने में ही अपना भला समझाते हैं। भले ही उनके पास प्रामाणिक सबूत हों। शायद इन्हीं परिस्थितियों ने सोशल नेटवर्किंग को बहुत मजबूत कर दिया है। और कुछ नहीं तो आम जन तक तो उनकी शिकायत पहुंच ही जाएगी, यही सोच ऐसी कई घटनाओं को प्रामाणिक तौर पर सामने ला रही है जो पहले संभव नहीं थी, या बहुत मुश्किल थी।
  इसीलिए पिछले कुछ वर्षों में वीडियो या सीसी टीवी कैमरों का प्रचलन तेजी से बढ़ा है। सीसी टीवी का इस्तेमाल जहां आम तौर पर प्रतिष्ठानों, दुकान-शोरूम तथा महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्थलों पर अधिक है वहीं वीडियो कैमरे का इस्तेमाल आम हो चला है। मोबाइल फोन में वीडियो बनाने की सुविधा के कारण हर कोई वीडियो शूट कर लेता है। सामान्य श्रेणी के वीडियो भी घटनाओं की त्वरित रिकार्डिंग में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा जाते हैं। शौकिया तौर पर की गई वीडियोग्राफी और उसे सोशल नेटवर्किंग पर साझाा करने का प्रचलन लोकप्रियता की हदें छू रहा है। वीडियो रिकार्डिंग करके उसे मोबाइल फोन के जरिए आसानी से यू-ट्यूब पर साझाा किया जा सकता है। इसलिए केवल भारत में लाखों वीडियो रोजाना अपलोड किए जा रहे हैं। यू-ट्यूब पर दुनिया में हर मिनट लगभग सौ घंटे से भी अधिक समय के वीडियो साझाा किए जा रहे हैं। इनमें अनेक वीडियो अभिव्यक्ति और सूचनाओं का मजबूत माध्यम बनते जा रहे हैं। यह मुख्यधारा के मीडिया के लिए मित्रवत और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। दिल्ली में चलती मेट्रो ट्रेन के खुले दरवाजे का वीडियो इसी का परिणाम है। मुम्बई में पहली बारिश में रिलायंस की मेट्रो में पानी टपकने का वीडियो भी पिछले दिनों राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खी बना था। ऐसी कई घटनाएं मीडिया में प्रकाशित और चर्चित हुई हैं जो किसी पत्रकार या मीडिया फोटोग्राफर की बजाय आम जन से सीधे या सोशल नेटवर्किंग के जरिए सामने आईं। मुख्य धारा के मीडिया के लिए यह शुभ संकेत है। इससे सूचनाओं के स्रोत का दायरा विस्तृत हो गया है। जो व्यक्ति पाठक या दर्शक है वही व्यक्ति पत्रकार भी हो सकता है। 'सिटीजन जर्नलिज्म' की अवधारणा यही है जो मीडिया को एक नई पहचान दिलाती है। मगर एक दूसरा पहलू भी है। सोशल नेटवर्किंग पर रोजाना लाखों की तादाद में वीडियो साझाा किए जा रहे हैं। कौन प्रामाणिक है और कौन नहीं, यह फैसला करना बहुत मुश्किल है। कई वीडियो अपरिपक्व व आधी-अधूरी सूचनाओं पर भी आधारित होते हैं। ऐसे में तथ्यों की प्रामाणिकता की जांच जरूरी है। मीडिया कर्मियों को इस संबंध में सचेत रहने की आवश्यकता है। हालांकि ऐसी तकनीकों पर दुनिया भर में काम चल रहा है जिनसे असली व नकली वीडियो की पहचान हो सकेगी। मानव अधिकारों के लिए कार्य करने वाली संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने सिटीजन एविडेंस लैब नामक एक वेबसाइट शुरू की है। इस वेबसाइट के जरिए इंटरनेट पर उपलब्ध वीडियो की प्रामाणिकता को जांचा जा सकेगा। अभी यह शुरुआती चरण में है। इसे कितनी सफलता मिलेगी, कहा नहीं जा सकता। फिर भी इंटरनेट के मायाजाल में तैरती करोड़ों वीडियो फिल्मों की सत्यता जानने की दिशा में यह एक स्वागत योग्य प्रयास है। ऐसे प्रयास जब तक पूरी तरह सफल न हों, तब तक सोशल नेटवर्किंग के जरिए मीडिया में फुटेज का उपयोग करते समय सावधानी तो बरतनी ही होगी।

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रोबोट और सॉफ्टवेयर पत्रकारिता

तो क्या रिपोर्टर के रूप में मानव पत्रकार की भूमिका खत्म हो जाएगी? आंकड़े, तथ्य, सूचनाओं आदि का जाल तो ठीक, भावनाओं और संवेदनाओं का क्या होगा? क्या विज्ञान, तकनीक, कम्प्यूटर, सॉफ्टवेयर का मायाजाल पत्रकारिता की नई परिभाषा गढ़ेगा?

अगर आपको कहें कि यूक्रेन में मलेशियाई विमान को मार गिराने की खबर सबसे पहले एक रोबोट ने 'ब्रेक' की तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? यकीनन आप चौंक उठेंगे। हालांकि यह हकीकत नहीं सिर्फ कल्पना है दोस्तो लेकिन यह कल्पना आने वाले दिनों में शीघ्र हकीकत में बदल जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। विकसित देशों में रोबोट पत्रकारिता तेजी से बढ़ती जा रही है। अभी इसका उपयोग कारपोरेट कंपनियों से संबंधित आर्थिक खबरों में ही ज्यादातर किया जा रहा है लेकिन अन्य खबरों में भी जिस तरह रोबोट के प्रयोग किए गए हैं, उससे भविष्य की तस्वीर का अनुमान लगाया जा सकता है। रोबोट पत्रकारिता दुनिया भर के 'न्यूज रूम' में बढ़ रही है। विभिन्न विषयों के सॉफ्टवेयर तैयार किए जा रहे हैं। इन्हें पहले से तैयार डाटा टैम्पलेट में डालकर रोबोट के जरिए पेश किया जा रहा है।
रोबोट की दैत्याकार कार्य-क्षमता के सामने इन्सान बौना है। रोबोट सैकण्ड से भी कम समय में एक सम्पूर्ण न्यूज स्टोरी तैयार कर सकता है। विमान कहां गिरा, कितने बजे हादसा हुआ? घटना स्थल की लोकेशन क्या है, विभिन्न देशों से कितनी दूरी पर है। इसी क्षेत्र में पहले कितने विमान हादसे हुए। दुनिया भर में कब-कब, कहां-कहां यात्री विमानों पर हमले हुए- सब कुछ पलक झपकते तैयार। खबर की यह रफ्तार हो तो फिर रिपोर्टर की क्या जरूरत! घटना घटित होने पर जानकारी मिलते ही पूरा समाचार तैयार। शायद इसीलिए रोबोट को भविष्य का पत्रकार कहा जा रहा है।
 तो क्या रिपोर्टर के रूप में मानव पत्रकार की भूमिका खत्म हो जाएगी? आंकड़े, तथ्य, सूचनाओं आदि का जाल तो ठीक, भावनाओं और संवेदनाओं का क्या होगा? क्या विज्ञान, तकनीक, कम्प्यूटर, सॉफ्टवेयर का मायाजाल पत्रकारिता की नई परिभाषा गढ़ेगा? रोबोट पत्रकारिता के प्रवेश के साथ ही ये सवाल भी उठ रहे हैं।
रोबोट पत्रकारिता की वास्तविक शुरुआत इस वर्ष मार्च में अमरीकी अखबार 'द लॉस एंजलिस टाइम्स' ने की, जब उसने रोबोट की लिखी भूकम्प पर पहली खबर प्रकाशित की। रोबोट ने भूकम्प के दौरान तुरन्त स्वचलित रूप से एक छोटी-सी रिपोर्ट तैयार कर दी। करीब सौ-सवा सौ शब्दों की इस खबर की शुरुआत रोबोट ने इस तरह की- 'सोमवार की सुबह 6.25 बजे कैलिफोर्निया के वेस्टवुड से 5 मील दूर हल्का भूकम्प आया जिसकी तीव्रता 4.7 थी...' इस समाचार में सभी आवश्यक जानकारियां थीं। यहां तक कि समाचार स्रोत के तौर पर अमरीका के ज्योलॉजिकल सर्वे विभाग का हवाला भी दिया गया था। पत्रकार और प्रोग्रामर केन श्वेन्के के अनुसार यह खबर मात्र तीन मिनट में वेबसाइट पर प्रकाशित हो गई थी। श्वेन्के ने ही यह प्रोग्राम विकसित किया जो भूकंप के दौरान रोबोट को तत्काल सक्रिय कर देता है। भूकम्प के अलावा यह प्रोग्राम शहर में होने वाले अपराध की खबरों को भी तैयार करता है। श्वेन्के कहते हैं- रोबोट काफी समय बचाता है। कुछ खास तरह की खबरों के लिए यह उतनी ही अच्छी तरह सूचनाएं जुटाता है जैसे कि दुनिया में कोई और जुटाएगा।
  रोबोट और सॉफ्टवेयर पत्रकारिता की धारणा को कुछ सर्वेक्षणों ने और भी बल प्रदान कर दिया है। कुछ माह पूर्व 'जर्नलिज्म प्रैक्टिस' नामक एक जर्नल ने सॉफ्टवेयर पत्रकारिता पर एक अध्ययन जारी किया। इसमें एक ही विषय पर लिखी गई दो अलग-अलग खबरों की तुलना की गई थी। पहली खबर मानव-पत्रकार ने लिखी और दूसरी खबर सॉफ्टवेयर द्वारा लिखी गई थी। परिणाम आश्चर्यजनक रहा। जहां पत्रकार की खबर रोचक और सुसंगत थी, वहीं सॉफ्टवेयर की लिखी खबर तुलनात्मक रूप से ज्यादा तथ्यों वाली, ज्यादा वस्तुनिष्ठ और ज्यादा विश्वसनीय थी। अमरीकी पत्रकार डेरेक मीड के अनुसार पत्रकारिता की वर्तमान दिशा तकनीक में तब्दील हो रही है। हैरत की बात यह है कि आम पाठक के लिए दोनों खबरों में अन्तर करना मुश्किल हो रहा है। यह अध्ययन स्वीडन के कार्लस्टेड विश्वविद्यालय के क्रिस्टर क्लेरवाल द्वारा किया गया था।
  सॉफ्टवेयर पर पत्रकारिता की निर्भरता निरन्तर बढ़ रही है। हाल ही में एसोशिएटेड प्रेस ने घोषणा की कि वह 'वर्डस्मिथ' नामक स्वचलित सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करेगी। इस अन्तरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी के अनुसार वह प्रत्येक तिमाही में रोबोट लिखित 4,440 खबरें जारी करेगी। यह संख्या मानव पत्रकार लिखित खबरों से दस गुणा अधिक है। यह प्रारंभिक स्थिति है। पूरी क्षमता से जब रोबोट काम करेगा तो उसकी गति कई गुणा बढ़ जाएगी। फिलहाल ये खबरें कारपोरेट कंपनियों से संबंधित आर्थिक रिपोर्टें होंगी।
  इससे पूर्व याहू एक एप्प तैयार कर चुका है जिसका नाम है- समली। समली मूल पाठ को स्वत: ही संक्षिप्त अथवा सम्पादित करके उसमें खास बिन्दुओं को जोड़ देता है। यह तकनीक भी कई तरह की खबरों में मददगार है।
द लॉस एंजिलिस टाइम्स, एसोशिएटेड प्रेस, याहू जैसे दिग्गजों का सॉफ्टवेयर तथा रोबोट पत्रकारिता में प्रवेश तथा 'द गार्जियन', 'फोब्र्स' एवं कई अन्य मीडिया कंपनियों का इस क्षेत्र में प्रायोगिक परीक्षण और दिलचस्पी इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भविष्य की पत्रकारिता किस दिशा में जा रही है। शायद इसीलिए यह सवाल किया जा रहा है कि क्या रोबोट पत्रकार मानव पत्रकार से श्रेष्ठ साबित होंगे? साथ ही यह भी कि क्या रोबोट हमारी नौकरियां छीन लेंगे? प्रोग्रामर केन श्वेन्के कहते हैं- रोबोट की बनाई खबरें असली पत्रकारों की जगह नहीं लेंगी। रोबोट केवल उपलब्ध डाटा को जल्दी से जल्दी एकत्रित करने और उसे प्रसारित करने में मदद करेंगे। वे कहते हैं- 'मेरी नजर में रोबोट किसी की नौकरी नहीं लेगा बल्कि यह हर किसी की नौकरी को रुचिकर बनाएगा।' तकनीकी विषयों के वरिष्ठ लेखक विल ओरेमस के अनुसार- 'रोबोट अपनी खबरों में 'कौन', 'कहां', 'क्या', 'कब' जैसे सवालों के जवाब तो दे सकता है मगर 'क्यों' का जवाब सिर्फ मानव-पत्रकार के पास ही मिल सकता है। जाहिर है, जब तक 'क्यों' का जवाब नहीं मिल जाता तब तक लेखन अधूरा है। पाठक या दर्शक का जिज्ञासु मन कई प्रश्न को जन्म देता है जिनका जवाब देने की क्षमता सिर्फ मानव में है, कम्प्यूटर या किसी रोबोट में नहीं। रोबोट के लिए 'वर्डस्मिथ' सॉफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी 'ऑटेमेटेड इनसाइट्स' के मुख्य कार्यकारी अधिकारी रोबी एलन के अनुसार 'हमारी तकनीक किसी डाटा विश्लेषक का अनुकरण तो कर सकती है लेकिन यह किसी पत्रकार का अनुकरण नहीं कर सकती। इसलिए मुझे पत्रकारों के भविष्य को लेकर कोई संशय नहीं है।' रोबोट पत्रकारिता पर जाने-माने अमरीकी लेखक केविन रूज का तो यहां तक कहना है कि अगर हम अपने जीवन में लगातार एक जैसी चीजों को दोहराना चाहते हैं जिसमें दिमाग लगाने की कोई जरूरत नहीं तो हमें भी रोबोट बन जाना चाहिए।
साफ है तकनीक अभी तक इन्सान का कोई विकल्प नहीं खोज पाई है।

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सोशल मीडिया बनाम सरकार

 कोई शक नहीं सोशल मीडिया का उपयोग करने वाले बढ़े हैं, तो वैसे ही इसका दुरुपयोग करने वाले भी बढ़े हैं। सवाल है कि क्या इसका एक मात्र उपाय 'बैन' लगाना है? विशेषज्ञों ने जो उपाय खोज निकाले हैं उनकी तरफ सरकार का ध्यान होना चाहिए।

  महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजित पवार ने विधानसभा में कहा कि सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगना चाहिए, क्योंकि सोशल मीडिया नफरत फैलाने का जरिया बन चुका है। फेसबुक पर आपत्तिजनक पोस्ट के मामले में गत दिनों पुणे के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की हत्या कर दी गई थी। उप मुख्यमंत्री ने इसी संदर्भ में अपनी यह मांग केन्द्र सरकार के समक्ष रखी है।
इसमें दो राय नहीं कि धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने अथवा नफरत और हिंसा फैलाने के उद्देश्य से सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने वालों पर रोक लगनी चाहिए। ऐसे असामाजिक तत्त्वों की पहचान करके उन्हें सजा भी मिलनी चाहिए। लेकिन अफसोस की बात है कि जब भी ऐसी कोई घटना घटित होती है, सत्ताधीश सोशल मीडिया पर बैन लगाने की मांग कर डालते हैं। मानों सोशल मीडिया के दुरुपयोग का एक ही रामबाण उपाय है कि उसे प्रतिबंधित कर दो। दो साल पहले उत्तर-पूर्व राज्यों के लोगों का देश के विभिन्न हिस्सों से पलायन की घटनाओं के बाद भी संसद में कुछ सांसदों ने सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाने की मांग की थी। पूर्व केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की अच्छी-खासी तैयारी कर चुके थे। परन्तु इसके विरोध के उठते स्वरों में उन्हें अपने कदम पीछे की ओर खींचने पड़े। सिब्बल ने कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं के खिलाफ सोशल नेटवर्किंग पर की गई विपरीत टिप्पणियों के चलते यह प्रयास किया था। यानी हिंसा और नफरत की आपराधिक घटनाओं से ही नहीं, राजनीतिक कारणों से भी सोशल मीडिया के पर कतरने की कोशिशें होती रही हैं।
कोई शक नहीं जैसे सोशल मीडिया का उपयोग करने वाले बढ़े हैं, वैसे ही इसका दुरुपयोग करने वाले भी बढ़े हैं। सवाल है कि क्या इसका एक मात्र उपाय 'बैन' लगाना है? कानूनी और इससे भी बढ़कर तकनीकी उपायों पर गंभीरता से बात क्यों नहीं की जाती है? जहां तक कानूनी उपाय की बात है, उसके लिए सूचना तकनीक कानून की धारा ६६-ए मौजूद है। पर यह भी सच्चाई है कि शासन ने अब तक इस कानून का दुरुपयोग ही अधिक किया है।
आपको कई घटनाएं याद होंगी। कैसे महाराष्ट्र में ठाणे की पुलिस ने दो निर्दोष लड़कियों को रात में घर से उठाकर थाने में बंद कर दिया था। इनमें एक लड़की ने बाल ठाकरे के निधन पर मुम्बई बंद पर फेसबुक पर अपनी राय जाहिर की थी और दूसरी लड़की ने उसे 'लाइक' किया था। प. बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का उदाहरण भी आपको याद होगा। जाधवपुर यूनिवर्सिटी के दो प्रोफेसरों को सिर्फ इसलिए जेल भेज दिया था कि उन्होंने मुख्यमंत्री का कार्टून बनाकर फेसबुक पर डाल दिया था। कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी में भी धारा ६६-ए का दुरुपयोग किया गया था। बाद में इस धारा के इस्तेमाल पर पुलिस के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिशा-निर्देश भी तय किए। इससे सायबर अपराधों पर अंकुश लगाने में कुछ हद तक मदद मिली है। फिर भी सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने में सूचना तकनीक कानून अपर्याप्त है। इसका मतलब यह भी नहीं कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग केवल 'बैन' लगाकर ही रोका जा सकता है। सरकारों को यही एक मात्र उपाय क्यों सूझता है? उनका ध्यान पता नहीं उन उपायों पर क्यों नहीं जाता जो सायबर विशेषज्ञ सुझाते रहे हैं। इन उपायों से गलत सूचनाएं देने वाले असामाजिक तत्त्वों की कुछ हद तक पहचान की जा सकती है। हालांकि अभी विस्तृत अनुसंधान और शोध कार्य बाकी है। लेकिन फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग पर झाूठ को पकड़ने के लिए यूरोपीय देशों में लाइ डिटेक्टर पर काम किया जा रहा है। इस प्रणाली से यह विश्लेषण किया जा सकेगा कि ऑनलाइन पोस्ट सत्य है या असत्य। यह भी पता चलेगा कि जिस अकाउंट से पोस्ट किया गया है, कहीं वो गलत सूचनाएं फैलाने के लिए तो नहीं बनाया गया है।
 कहा जा रहा है कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने वालों पर प्रभावी जवाबी कार्यवाही के लिए सरकारों व पुलिस-प्रशासन की मदद करने के उद्देश्य से यह प्रणाली विकसित की जा रही है। इस अनुसंधान से यूरोपीय देशों के पांच विश्वविद्यालय जुड़े हैं। इनमें ब्रिटेन के शेफील्ड विश्वविद्यालय की मुख्य शोधकर्ता डा. कैलिना बोनशेवा के अनुसार यह लाइ डिटेक्टर सूचनाओं के स्रोत को वर्गीकृत करेगा जिससे उनके सच को जांचा-परखा जा सके। डा. कैलिना के अनुसार इस सिस्टम के खोज के परिणाम एक विजुअल डैशबोर्ड पर दिखाई देंगे ताकि यूजर जान सके कि कहीं यह अफवाह तो नहीं। सच-झाूठ को पकड़ने या अफवाह फैलाने वालों की पहचान करने में यह प्रणाली सफल होगी- यह भरोसा खोजकर्ताओं को है। एकबारगी इसमें अंदेशा भी हो तो भी सरकारों के लिए यह अच्छी खबर है। खासकर, उनके लिए जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में भरोसा रखती हैं।
सायबर विशेषज्ञों ने अब तक जो उपाय खोज निकाले हैं उनकी तरफ सरकार का ध्यान होना चाहिए। इस क्षेत्र में जो अनुसंधान हो रहे हैं उसमें भी दिलचस्पी रखी जानी चाहिए। सरकारों को सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकने के वैकल्पिक उपायों पर ज्यादा जोर देना चाहिए न कि उस पर बैन लगाने के। केन्द्र की नई सरकार सोशल मीडिया समर्थक बताई जाती है। इसलिए उससे ऐसी उम्मीद करना बेमानी नहीं।
नेता का मुखौटा
टीवी पर 'लाइव' बहस के दौरान कई बार राजनेताओं की समझदारी का मुखौटा उतर जाता है। बात भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी की है। ए.बी.पी. न्यूज पर 'आप' पार्टी के प्रतिनिधि पर वे ऐसे उखड़े कि भाषा और तहजीब की मर्यादाएं भूल गए। आप प्रतिनिधि ने भ्रष्टाचार के किसी मामले में अरुण जेटली की चुप्पी पर नकवी से सवाल पूछा। नकवी उस पर स्क्रीन पर ही बरस पड़े- जेटली तुम्हारे बाप के नौकर नहीं हैं। एंकर की टोकाटोकी के बीच नकवी बोलते ही चले गए और यह वाक्य दोहराते रहे। यही नहीं उन्होंने आप के पेनलिस्ट को 'बेइमान' और 'बदतमीज' के विशेषणों से भी अलंकृत कर डाला।

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हिन्दी मीडिया के लिए खास दिन

 हिन्दी केवल सम्प्रेषण या अभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं है। यह एक विशाल समाज की संस्कृति को जानने-समझने का महत्त्वपूर्ण जरिया भी है।
बीते माह पत्रकारिता से जुड़े दो महत्त्वपूर्ण दिवस गुजरे। माह की शुरुआत (3 मई) प्रेस स्वतंत्रता दिवस से हुई जिसकी चर्चा इस स्तंभ में की गई थी। माह का अन्त (30 मई) हिन्दी पत्रकारिता दिवस से हुआ। हालांकि दोनों अवसरों पर पत्रकारिता-जगत में कुछ खास हलचल देखने को नहीं मिली लेकिन मीडिया चाहे तो इन अवसरों का पूरा लाभ उठा सकता है। 3 मई जहां मीडिया की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी को परखने का एक वैश्विक अवसर है तो 30 मई का संबंध भी भारत में  विशाल पाठक समूह से है। इस बहाने हम हिन्दी पत्रकारिता से जुड़े विविध मसलों पर विमर्श कर सकते हैं। देखा जाए तो अपने पाठक-श्रोता-दर्शक के विराट समूह के प्रति विश्वास और प्रतिबद्धता के मूल्यांकन का यह सुनहरा अवसर हो सकता है।
यह सही है कि 30मई का सीधा संबंध हिन्दी के अखबारों से है लेकिन जिस घटना से यह प्रेरित है वह पूरे हिन्दी मीडिया जगत के लिए महत्त्वपूर्ण है। चाहे प्रिन्ट हो या इलेक्ट्रॉनिक या फिर सोशल मीडिया ही क्यों न हो! जो भी हिन्दी पत्रकारिता के दायरे में आता है, उन सबके लिए इसका महत्त्व है। 30  मई 1826  यानी 188 वर्ष पूर्व हिन्दी का पहला अखबार कोलकाता से निकला था- 'उदंत मार्तंड'। पं. जुगल किशोर शुक्ला के संपादकत्व में यह अखबार एक साल बाद बंद हो गया था लेकिन हिन्दी में पत्रकारिता की लौ प्रदीप्त कर गया। उस वक्त रेडियो, टीवी नहीं थे। लिहाजा इसे क्यों नहीं सम्पूर्ण हिन्दी पत्रकारिता का प्रस्थान बिन्दु कहा जाए? 'उदन्त मार्तंड' की प्रकाशन तिथि 30 मई हिन्दी पत्रकारिता दिवस बन गई। दुर्भाग्य से यह दिवस कुछ औपचारिक सभा-संगोष्ठियों से अधिक महत्त्व नहीं पा सका है। हिन्दी में पत्रकारिता सिखाने वाले संस्थान और विश्वविद्यालयों के विभाग भी कुछ खास नहीं कर पाए हैं। बेहतर होगा कि हिन्दी में पत्रकारिता करने वाले मीडिया के सभी रूप- जिनमें अखबार, टीवी चैनल, सामुदायिक रेडियो, सोशल मीडिया आदि शामिल हैं- मिलकर इस दिशा में प्रयास करें। अखबार और समाचार-चैनल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। देश में सबसे बड़ा पाठक-श्रोता-दर्शक समूह हिन्दी में है। हिन्दी केवल सम्प्रेषण या अभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं है। यह एक विशाल समाज की संस्कृति को जानने-समझने का महत्त्वपूर्ण जरिया भी है। इसलिए हिन्दी मीडिया यह देखे कि इस समाज की जरूरतें और आकांक्षाएं क्या हैं। उसकी मीडिया से क्या अपेक्षाएं हैं। उन अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए उसे जो कुछ करना चाहिए, क्या वह कर रहा है? खबरों की विश्वसनीयता का स्तर क्या है तथा जो सामग्री वह अपने पाठकों-श्रोताओं को दे रहा है, उसके प्रति उनका क्या नजरिया है। भाषाई मीडिया के बारे में भी उसे अपनी जानकारी पुख्ता करनी होगी। उसकी अच्छाइयों को आत्मसात करने की जरूरत है तो कमियों से सबक लेने की।
 हिन्दी मीडिया को अंग्रेजी मीडिया की पेशेगत कुशलता और गुणवत्ता से तुलनात्मक आकलन करना होगा। साथ ही उसकी बुराइयों से दूर रहना होगा। अनुकरण और अनुवाद की निर्भरता से छुटकारा पाने की जरूरत है। भाषा को लेकर हिन्दी मीडिया को स्व-मूल्यांकन करना निहायत जरूरी है। नई पीढ़ी के नाम पर जो भाषा वह परोस रहा है, उसके दीर्घकालीन परिणामों पर भी उसकी निगाह होनी चाहिए। मेधावी युवा हिन्दी मीडिया में अपना भविष्य क्यों नहीं देखता, इस पर विचार हो। हिन्दी पत्रकार को प्रशिक्षण के बेहतरीन अवसर सुलभ हों। संवाद-सम्प्रेषण के लिए उसके पास आधुनिक संसाधन हों। दरअसल, हिन्दी मीडिया के लिए करने को इतने काम हैं कि उनकी एक लम्बी सूची गिनाई जा सकती है। सवाल यह है कि सुधार और मूल्यांकन का काम साल में केवल एक विशेष दिवस पर ही क्यों हो- हर दिन क्यों न हो? ठीक बात है। स्व-मूल्यांकन निरन्तर चलने वाली एक सतत प्रक्रिया है इसके बावजूद दिवस-विशेष से इसे जोड़ कर देखना जरूरी है। ये दिवस हमें न केवल प्रेरित करते हैं बल्कि निरन्तर बेहतर करने के लिए सजग भी रखते हैं। हिन्दी पत्रकारिता दिवस एक महत्त्वपूर्ण अवसर है। हिन्दी मीडिया-जगत के लिए तो खास तौर पर। क्यों न हम इसे वर्ष का एक यादगार दिवस बना दें।
ब्रेकिंग न्यूज!
समाचार चैनल कभी-कभी बड़ी गलतियां कर जाते हैं। नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री मनोनीत होने पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि पर पुष्प अर्पित करने राजघाट गए। सभी समाचार चैनलों ने कवरेज की । हिन्दी के एक समाचार चैनल ने भी रिपोर्ट दिखाई। नरेन्द्र मोदी पुष्पांजलि अर्पित कर रहे थे। पूरे परदे पर दृश्य था। तभी बड़े-बड़े शब्दों में लिखा हुआ फोटो-शीर्षक प्रकट हुआ- मोदी की समाधि पर नरेन्द्र मोदी। यह बाकायदा 'ब्रेकिंग न्यूज' थी जो कई देर तक चली। बाद में संभवत: ठीक कर ली गई।

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एग्जिट पोल और चुनाव नतीजे

अंतिम मतदान और चुनाव परिणाम की घोषणा के बीच का अधिकांश समय मीडिया में विभिन्न एजेंसियों के एग्जिट पोल पर केन्द्रित विश्लेषणों में गुजरा। एग्जिट पोल कितने उपयोगी और खरे हैं, इस पर फिर बहस हुई।
मतदान करने के बाद हर कोई जानने को उत्सुक रहता है कि चुनाव परिणाम क्या होगा। एग्जिट पोल की संरचना शायद इसीलिए हुई होगी। १२ मई की शाम अब तक का सबसे लम्बा लोकसभा चुनाव सम्पन्न होते ही टीवी चैनलों पर एग्जिट पोल की झाड़ी लग गई। लोगों ने भी इन्हें रुचि लेकर देखा और पढ़ा। नौ चरणों के मतदान की प्रतीक्षा काफी उबाऊ हो चली थी। अंतिम मतदान के बाद सबकी नजरें चुनाव परिणामों पर टिकी थी। इसमें दो राय नहीं कि लोगों की जिज्ञासा का सम्पूर्ण समाधान १६ मई के चुनाव परिणामों से ही हुआ। इस बार देश के करीब ५५ करोड़ नागरिकों ने मतदान में हिस्सेदारी निभाई थी। अंतिम मतदान और चुनाव परिणाम की घोषणा के बीच का अधिकांश समय मीडिया में विभिन्न एजेंसियों के एग्जिट पोल पर केन्द्रित विश्लेषणों में गुजरा। एग्जिट पोल कितने उपयोगी और खरे हैं, इस पर बहस हुई। एग्जिट पोल हमेशा बहस और विवाद का विषय रहे हैं। यहां हम यह जानते हैं कि गत चार माह के दौरान देश में हुए दो चुनावों के दौरान एग्जिट पोल की भूमिका क्या रही। नवम्बर-दिसम्बर 2013 में पांच राज्यों के चुनाव के बाद अप्रेल-मई 2014 में लोकसभा चुनाव हुए। विधानसभा चुनाव के दौरान मुख्यत: पांच एग्जिट पोल सामने आए। ये थे- इंडिया टुडे- ओ.आर.जी., टाइम्स नाऊ- सी वोटर, आई.बी.एन.7- सी.एस.डी.एस., ए.बी.पी.- नीलसन और टुडेज- चाणक्य। लोकसभा चुनाव के दौरान मुख्यत: छह एग्जिट पोल रहे। ये थे- टाइम्स नाऊ-ओ.आर.जी., सी.एन.एन.आई.बी.एन.- सी.एस.डी.एस., हेडलाइन्स टुडे- सिसरो, ए.बी.पी.- नीलसन, न्यूज 24-टुडेज चाणक्य और सी वोटर-इंडिया टीवी।
लोकसभा चुनाव में सभी एग्जिट पोल में भाजपा नीत एन.डी.ए. को आगे और कांग्रेस नीत यू.पी.ए. को पीछे बताया गया। यहां तक कि सभी सर्वेक्षणों में एन.डी.ए. को पूर्ण बहुमत मिलता बताया गया। केवल टाइम्स नाऊ- ओ.आर.जी. के सर्वेक्षण ने एन.डी.ए. को पूर्ण बहुमत (272) के आंकड़े से दूर (257) रखा। हालांकि यू.पी.ए. को इसने भी काफी पीछे (135) माना। लेकिन नरेन्द्र मोदी या भाजपा के पक्ष में लहर का अनुमान कोई भी नहीं लगा पाया सिवाय एक सर्वेक्षण एजेन्सी के। न्यूज-24 टुडेज चाणक्य ने अकेले भाजपा को पूर्ण बहुमत के आंकड़े से काफी आगे (291) पहुंचा दिया जो चुनाव परिणाम (282) के करीब रहा। इसी सर्वे में एन.डी.ए. को 340 सीटें दी गईं जो अनुमान के काफी करीब 336 (चुनाव परिणाम) रही। लेकिन कांग्रेस की इतनी दुर्गति होगी, इसका अनुमान कोई नहीं लगा पाया। यू.पी.ए. के लिए सर्वाधिक उदार टाइम्स नाऊ का सर्वे रहा जिसने उसे 135 सीटें दी। लेकिन कांग्रेस को सभी ने दो अंकों में ही समेट कर रखा। जहां तक तीसरे मोर्चे या अन्य का सवाल है तो इनके हिस्से में आई सीटों 148 (चुनाव परिणाम) के आस-पास ही प्राय: सभी सर्वेक्षणों के निष्कर्ष रहे। सी.एन.एन.आई.बी.एन.- सी.एस.डी.एस. का एग्जिट पोल को ही अपवाद (170) कह सकते हैं। लोकसभा चुनाव के संदर्भ में अगर इन एग्जिट पोल का आकलन करें तो यह कहना पड़ेगा कि सोलहवीं लोकसभा की तस्वीर कैसी बनेगी, इसका काफी हद तक आभास मतदाताओं को मिल चुका था। बाद में चुनाव परिणाम ने इसकी पुष्टि भी की। यह जरूर है कि भाजपा के प्रति मतदाता ऐसा ऐतिहासिक रुझान दिखाएंगे- यह आकलन एग्जिट पोल नहीं कर सके। लेकिन यह आकलन तो कोई नहीं कर सका था।
भाजपा भी नहीं। एग्जिट पोल लोगों की जिज्ञासाओं को सहलाने का काम कर सकते हैं। शान्त करने का नहीं। एग्जिट पोल चुनाव परिणाम की दिशा बता सकते हैं। और यही एग्जिट पोल ने किया। दिसम्बर माह में हुए पांच राज्यों के चुनावों में भी यही हुआ था। एग्जिट पोल के निष्कर्ष चुनाव नतीजों के काफी करीब रहे। लगभग सभी सर्वे में बताया गया कि दिल्ली में शीला दीक्षित और राजस्थान में अशोक गहलोत की कांग्रेस सरकारें खतरे में हैं। हालांकि दिल्ली और राजस्थान में दलों की सीटों के आकलन में ज्यादातर सर्वेक्षण गड़बड़ाए लेकिन हार-जीत के नतीजे कमोबेश वही रहे जो चुनाव परिणाम में सामने आए। छत्तीसगढ़ में भाजपा-कांग्रेस के बीच कड़ा मुकाबला बताया गया। इसके बावजूद सभी सर्वेक्षणों में भाजपा को बढ़त बताई गई थी। मध्य प्रदेश में सभी एग्जिट पोल में भाजपा की सत्ता में वापसी दर्शाई गई थी। यह दूसरी बात है कि दो-तिहाई सीटों से वापसी का अनुमान सिर्फ एक सर्वे ही लगा पाया। दिल्ली में हालांकि 'आप' पार्टी को लेकर ज्यादातर सर्वेक्षण सही अनुमान नहीं लगा पाए थे लेकिन त्रिशंकु विधानसभा के संकेत जरूर दे दिए थे। राजस्थान में जिस कदर कांग्रेस की दुर्गति हुई, उसका अनुमान कोई एग्जिट पोल नहीं लगा पाया। भाजपा की वापसी के मामले में सबके निष्कर्ष समान थे।
   एक बार फिर यही कि एग्जिट पोल चुनाव परिणाम की केवल दिशा बताते हैं, नतीजे नहीं। यह सही है कि दिशा बताने में भी एग्जिट पोल पूर्व में कई बार चूके हैं इसके बावजूद लोकतांत्रिक ढांचे में इन सर्वेक्षणों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में जो उपयोगिता है, वह बनी रहेगी।

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संस्कृत को आधुनिक परिवेश से जोडऩा होगा : प्रो. शास्त्री

साक्षात्कार
'संस्कृत को जब तक हम आधुनिक परिवेश में नहीं देखेंगे और नए संदर्भ से नहीं जोड़ेंगे, तब तक संस्कृत का सुधार  नहीं होगा।'
यह कहना है, राष्ट्रीय संस्कृत आयोग के अध्यक्ष, जाने-माने विद्वान, संस्कृत के प्रथम भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त लेखक और पद्मभूषण  से सम्मानित प्रो. सत्यव्रत शास्त्री का।
 आम धारणा है कि सरकारी आयोग अथवा संस्थान बंधे-बंधाए ढांचे और लीक पर चलने के अभ्यस्त होते हैं। किसी नएपन की उम्मीद उनसे नहीं की जाती। प्रो. शास्त्री इससे उलट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। वे संस्कृत आयोग के कामकाज और भूमिका को प्रासंगिक बनाना चाहते हैं। इसलिए संस्कृत के महत्त्व व उपयोगिता को नए सिरे से परिभाषित करते हैं। राष्ट्रीय जन-जीवन में उपेक्षित हो चली संस्कृत की महत्ता को प्रतिष्ठापित करने के लिए वे ८४ वर्ष की आयु में भी किसी युवा की तरह संकल्पबद्ध नजर आते हैं।
हाल ही में वे जयपुर आए तो उनसे मुलाकात का सुयोग मिला। वे धाराप्रवाह बोलते हैं। उनकी स्मरण शक्ति गजब है। श्लोक, कविताएं, उद्धरण आदि उन्हें खूब याद रहते हैं। बातचीत में वे इनका भरपूर उपयोग करते हैं। वे संस्कृत के परम्परागत पंडितों से अलग दिखाई पड़ते हैं और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की गतिविधियों पर पूरी पकड़ रखते हैं। केन्द्र सरकार ने ५८ साल बाद संस्कृत आयोग का फिर से गठन किया। दिसंबर २०१३ में आयोग बनाया गया और उन्हें अध्यक्ष पद का उत्तरदायित्व सौंपा। वे बताते हैं, १९५६ में पं. जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने पहला संस्कृत आयोग गठित किया था। उस दौर का भारत अलग था। अब नया भारत है। आज की आवश्यकताएं बदल गई हैं। इसलिए आयोग को भी अपना नजरिया बदलना होगा। देश में संस्कृत की रीति-नीति निर्धारित करने का आयोग पर वृहत्तर उत्तरदायित्व है। प्रो. शास्त्री संस्कृत आयोग की भूमिका और उद्देश्य को लेकर स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हैं। वे आयोग को वैचारिक उदारता और समन्वयवादी स्वरूप देना चाहते हैं, जो आज की परिस्थितियों के अनुकूल हो। वे संस्कृत की रीति-नीति निर्धारित करने में देश में व्यापक जन-भागीदारी के समर्थक हैं। उन्होंने एक प्रश्नावली तैयार करवाई है जो देश भर में संस्कृत विद्वानों, संस्थाओं और संस्कृत में रुचि रखने वाले प्रत्येक समूह को भेजी जा रही है। वे चाहते हैं कि संस्कृत को आधुनिक संदर्भों से जोडऩे के लिए आयोग को पर्याप्त संख्या में सुझााव प्राप्त हो। उनका मानना है कि संकीर्ण और कट्टरपंथी दुराग्रहों से संस्कृत का नुकसान ही अधिक हुआ है। जब तक हम संस्कृत को आधुनिक परिवेश में नहीं देखेंगे, तब तक सुधार नहीं होगा। आज के वैश्विक युग में वही भाषा टिक सकती है जो समय की जरूरतों को पूरा करे।
तो क्या संस्कृत में आज की आवश्यकताओं को पूरा करने का सामथ्र्य है?
'बिल्कुल है। संस्कृत अत्यन्त समृद्ध भाषा है। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की ऐसी कोई शाखा-प्रशाखा नहीं है जो संस्कृत में मौजूद नहीं।' वे कहते हैं, संस्कृत में विशाल साहित्य लिखा गया है। संस्कृत में खगोल शास्त्र है, गणित है, नक्षत्रों के बारे में समृद्ध जानकारियां हैं। कृषि विज्ञान पर अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं। संस्कृत में पेड़-पौधों के बारे में इतनी विस्तृत सूचनाएं हैं जो संभवत: आज के वनस्पति शास्त्र (बोटनी) में भी नहीं होगी। संस्कृत में हवाई जहाज (विमान शास्त्र) पर सदियों पहले ग्रंथ लिखे गए हैं। चिकित्सा-विज्ञान में तो भरपूर साहित्य है। लाखों ग्रंथ पांडुलिपियों के रूप में मौजूद हैं जिनका अभी पूरी तरह से अध्ययन ही नहीं हुआ है। वे बताते हैं कि भारत सरकार के पास ५० लाख पांडुलिपियों की सूचना है जिनमें अकेले संस्कृत की ३० लाख पांडुलिपियां हैं। इनमें ज्ञान-विज्ञान की भरपूर सामग्री समाहित है।
प्रो. शास्त्री मानते हैं कि एक भाषा के रूप में संस्कृत में वे तमाम संभावनाएं हैं जिनकी आज जरूरत है। कमी इस बात की है कि हम संस्कृत में निहित शक्ति और संभावनाओं को आज के समाज के साथ जोड़ कर नहीं चल पा रहे।
'क्या इसीलिए संस्कृत समाज से कट गई है? आज का युवा संस्कृत में भविष्य और रोजगार की संभावनाएं क्यों नहीं देखता?'
'क्योंकि हमने संस्कृत को परम्परागत शिक्षण और कर्मकांड तक सीमित करके रख दिया है। या फिर संस्कृत शिक्षा को इतना दुरुह बना दिया है कि सीखने की रुचि ही खत्म हो जाए। युवा पीढ़ी संस्कृत में तब तक उदासीन रहेगी, जब तक हम संस्कृत को आज की जरूरतों और भविष्य की संभावनाओं से नहीं जोड़ देते। संस्कृत को कम्प्यूटर से जोड़ा जाए। संस्कृत का की-बोर्ड बन गया है, लेकिन उसे संचालित करने वाले ऑपरेटर नहीं है। हमें संस्कृत शिक्षा और आधुनिक सूचना तकनीक के बीच तालमेल बिठाना होगा। संस्कृत शिक्षण भी सरल बनाना होगा।' प्रो. शास्त्री का स्पष्ट मत है कि संस्कृत में रोजगार की संभावनाएं कम नहीं हैं। अगर हम उन पर विचार करें तो कई नए द्वार खुल सकते हैं। संस्कृत का एक अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप है। हम इसे पर्यटन से भी जोड़ सकते हैं। जैसे चीन, जापान और कंबोडिया, ताइवान, थाईलैंड आदि द. पूर्व एशियाई देश भारत में धार्मिक पर्यटन के लिए खूब आते हैं। वे भारत में बुद्ध से संबंधित स्थलों का भ्रमण करते हैं। इन पर्यटकों को यह कमी बहुत खलती है कि इन धर्म स्थलों की जानकारी कोई उन्हें अपनी भाषा में बताए। हम युवा पर्यटक गाइड तैयार कर सकते हैं। इसके लिए संस्कृत विद्यार्थियों को इन देशों की भाषाओं का ज्ञान कराया जाना चाहिए। संस्कृत विद्यार्थी के लिए इनकी भाषा सीखना बहुत आसान है। क्योंकि द.पूर्व एशियाई देशों की भाषा में संस्कृत के शब्द बहुतायत में है।
चीनी भाषा में संस्कृत के ३६०० शब्द हैं। संस्कृत जानने वाला थाईलैण्ड की भाषा समझा सकता है। साथ ही संस्कृत की शिक्षण प्रक्रिया भी सरल करनी होगी। हमें बच्चे की समझा और रुझाान को देखना होगा और भारी-भरकम शब्दों की बजाय सरलीकरण पर जोर देना होगा। प्रो. शास्त्री उदाहरण से समझााते हैं— 'बच्चे को संस्कृत का ज्ञान शुरू में उन शब्दों से कराएं जिनसे वह परिचित है। जैसे गौ (गाय) जंगल (वन), घास (चारा) आदि शब्दों से निर्मित वाक्य— गो जंगले घासं खादति। इस वाक्य का हर शब्द बच्चा जानता है। इसी तरह दूध के लिए संस्कृत का दुग्ध बच्चे का परिचित शब्द है। ऐसे जाने-माने शब्दों का उपयोग करके पाठ्यक्रम तैयार हो तो संस्कृत सीखना उसके लिए आसान होगा और वह सीखने में रुचि भी लेगा।'
प्रो. शास्त्री कहते हैं कि संस्कृत शिक्षा को भारतीय भाषाओं से जोड़ा जाए। प्रत्येक भारतीय इससे जुड़ेगा। संस्कृत जानने वाला अधिकांश भारतीय भाषाओं को समझा सकता है चाहे मराठी हो या तेलुगु, मलयालम हो या कन्नड़, तमिल हो या बंगाली या फिर उडिय़ा—सभी में संस्कृत की बड़ी हिस्सेदारी है। इन भाषाओं को संस्कृत परस्पर जोड़ती है। संस्कृत सारी भाषाओं की कड़ी है। इसीलिए राष्ट्रीय जन-जीवन में सर्व-स्वीकार्य है।
प्रो. शास्त्री न केवल संस्कृत आयोग अध्यक्ष के रूप में बल्कि एक विद्वान के तौर पर भी संस्कृत को आधुनिक जन-जीवन से जोडऩे के प्रबल पक्षधर हंै। २९ सितंबर १९३० को जन्मे प्रो. शास्त्री का सम्पूर्ण जीवन संस्कृत के प्रचार-प्रसार में समर्पित रहा है। उन्होंने १९५५ में दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य शुरू किया। अपने चालीस वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने विभागाध्यक्ष व कला संकायध्यक्ष का पदभार भी संभाला। वे जगन्नाथ विश्वविद्यालय, पुरी के कुलपति भी रहे। उन्होंने जर्मनी, कनाडा, बेल्जियम, फ्रांस, अमरीका, इंग्लैण्ड सहित द. पूर्वी एशियाई अनेक देशों में भ्रमण किया और संस्कृत के प्रसार में योगदान किया। उन्होंने थाईलैण्ड के राजपरिवार को संस्कृत शिक्षा से जोड़ा और वहां के शिल्पाकोर्न विश्वविद्यालय में संस्कृत अध्ययन केन्द्र खुलवाया। उनको संस्कृत सेवाओं के लिए थाईलैण्ड, इटली, रोमानिया और कनाडा के कई महत्वपूर्ण पुरस्कार मिल चुके हैं। देश में ही उनके नाम पुरस्कार और मान-सम्मान तथा अलंकरणों की एक लम्बी फेहरिस्त है। उनके नाम करीब ६५ पुरस्कार दर्ज हैं। संस्कृत साहित्य रचनाओं में उनका अविस्मरणीय योगदान है। उन्होंने संस्कृत और अंग्रेजी में गद्य और पद्य में अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उनमें सर्वाधिक चर्चित पुस्तक 'श्रीरामकीर्ति महाकाव्यम्' है जिसके लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला।
वे मानते हैं कि हमारे अतीत को समझाने के लिए ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं को जानने-समझाने के लिए भी संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। संस्कृत के जरिए ही हम कई देशों की जड़ों को पहचान सकते हैं। संस्कृत आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी सदियों पहले थी।
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प्रेस की स्वतंत्रता और हमले


प्रेस की स्वतंत्रता के कई बिन्दु हैं। स्वतंत्र अभिव्यक्ति का परिवेश, मीडिया के लिए मजबूत वैधानिक ढांचा, पारदर्शिता, पत्रकारों की सुरक्षा आदि कई पक्ष हैं जिनसे प्रेस की स्वतंत्रता का स्तर आंका जाता है। इनमें पत्रकारों की सुरक्षा काफी महत्वपूर्ण है।

हाल ही प्रेस स्वतंत्रता दिवस (3 मई) आया और चला गया।  चुनावी हलचल के बीच शायद इस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। प्रेस की स्वतंत्रता के लिए दुनिया में यह दिन खास तौर पर याद किया जाता है। यूनेस्को ने 3 मई 1991 में नामीबिया के विंडोक शहर में विश्व-सम्मेलन आयोजित किया था। सम्मेलन में शामिल सभी देशों ने मिलकर प्रेस की स्वतंत्रता के सिद्धान्त मंजूर किए थे। तब से ही विश्व भर की सरकारों को प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति वचनबद्धता की याद दिलाने के लिए 3 मई विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है। मीडिया संगठनों और पत्रकारों के लिए ही नहीं, लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति के लिए यह दिवस मायने रखता है।
प्रेस की स्वतंत्रता के कई बिन्दु हैं। स्वतंत्र अभिव्यक्ति का परिवेश, मीडिया के लिए मजबूत वैधानिक ढांचा, पारदर्शिता, पत्रकारों की सुरक्षा आदि कई पक्ष हैं जिनसे प्रेस की स्वतंत्रता का स्तर आंका जाता है। इनमें पत्रकारों की सुरक्षा काफी महत्वपूर्ण है। दुनियाभर में पत्रकारों पर बढ़ते हमलों की घटनाएं प्रेस की स्वतंत्रता की राह में सबसे बड़ी बाधा है। पिछले साल भर का रिकार्ड देखें तो पाएंगे कि विश्व में पत्रकारों पर जहां जानलेवा हमले किए गए, वहीं उन्हें जान से मारने की धमकियां भी कम नहीं मिलीं। 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' के 2014 के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के अनुसार 180 देशों में प्रेस की स्वतंत्रता के हनन के मामले साल-दर-साल बढ़ रहे हैं। मौजूदा प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 3395 से बढ़कर 3456 पर पहुंच गया है। इसका मतलब है दुनिया के विभिन्न देशों में प्रेस की स्वतंत्रता के हनन की घटनाएं1.8 फीसदी दर से बढ़ रही है। 'हफिंगटन पोस्ट' के अनुसार इस साल अब तक दुनिया के विभिन्न हिस्सों में 14 पत्रकार हमलों में मारे जा चुके हैं। जबकि पिछले वर्ष कम-से-कम 70 पत्रकारों की हत्या की गई थी। अफगानिस्तान, टर्की, और सीरिया आदि तो ऐसे देश हैं जहां पत्रकारिता करना सबसे खतरनाक पेशा बन गया है। अफगानिस्तान में गत माह ही एसोसिएट प्रेस की दो महिला पत्रकारों को गोली मार दी गई जिसमें प्रेस फोटोग्राफर एन्जा नेडरिगंस मारी गईं और केथी गेनन बुरी तरह से घायल हो गईं। सी.पी.जे. (कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स) के डिप्टी एडिटर रॉब मोने के अनुसार— 'विश्व में प्रत्येक आठ दिनों के दरम्यान कम से कम एक पत्रकार मार दिया जाता है। कई जगह  हालात इतने खतरनाक हैं कि अत्यन्त अनुभवी और दक्ष पत्रकार भी या तो मारा जाता है या फिर हमले में घायल हो जाता है, जैसा कि अफगानिस्तान में हाल ही इन दो महिला पत्रकारों के साथ हुआ।'
ताजा हमला पाकिस्तान के मशहूर पत्रकार हामिद मीर पर हुआ, जिन पर कट्टरपंथियों ने गोलियां बरसाईं। वे बुरी तरह घायल हो गए। उनका इलाज चल रहा है लेकिन तालिबानी धमकियां उन्हें अभी भी लगातार मिल रही हैं। ब्रिटेन की संस्था आई.एन.एस.आई. (इंटरनेशनल न्यूज सैफ्टी इंस्टीट्यूट) ने गत वर्ष पांच देशों की सूची में भारत को पत्रकारों के लिए दूसरा खतरनाक देश बताया था।
कुछ माह पहले देश में छत्तीसगढ़ में माओवादियों ने जाने-माने पत्रकार साईं रेड्डी की निर्मम हत्या कर दी। साईं रेड्डी रमन सिंह सरकार द्वारा प्रायोजित सलवा जुडूम तथा माओवादियों के हिंसक आन्दोलन दोनों के खिलाफ माने जाते थे। साईं रेड्डी की हत्या पर हाल ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने  बयान जारी कर कहा कि 'गलतफहमी वश' उनकी हत्या हो गई। मुम्बई के खोजी पत्रकार ज्योतिर्मय डे को अंडरवल्र्ड के माफियाओं ने मार डाला था। वहीं मध्यप्रदेश के पत्रकार चन्द्रिका राय की परिवार सहित निर्मम हत्या कर दी गई। इसी तरह उत्तर प्रदेश में राकेश शर्मा, शशांक शुक्ला, जकाउल्ला और लेखराम भारती नामक पत्रकार अलग-अलग वारदातों में मारे जा चुके। छत्तीसगढ़ में पत्रिका के रायगढ़ ब्यूरो प्रवीण त्रिपाठी पर जानलेवा हमला किया गया। ये सभी घटनाएं पिछले साल-दो-साल की हैं।
पत्रकारों पर हमलों की घटनाएं तो अनगिनत हैं जिनमें वे या तो बाल-बाल बच गए या फिर घायल हुए। इसी तरह पत्रकारों को धमकाने या परिवार को आतंकित करने की घटनाओं में भी बेशुमार वृद्धि हुई है। गत दिनों 'द ट्रिब्यून' के संवाददाता देवन्दर पॉल के घर पर पेट्रोल बम से हमला किया गया जिसमें वे बाल-बाल बच गए। इस वर्ष जनवरी माह में कोलकाता में सरकारी सचिवालय के बाहर पत्रकारों की पुलिस ने उस वक्त पिटाई कर डाली, जब वे पं. बंगाल सरकार के एक कार्यक्रम को कवर करने गए थे। पत्रकारों ने जब विरोध जताया तो उन्हें पुलिस के एक आला अधिकारी ने धमकाया— 'तुम लोग मेरा पावर नहीं जानते? हमें हर व्यक्ति को हड़काने का अधिकार है।' पुलिस अफसर ही क्यों, गृह मंत्री सुशील कुमार शिन्दे भी सोलापुर की एक सभा के दौरान सरेआम मीडिया को 'कुचलने' की धमकी दे चुके हैं। हालांकि बाद में बात बढ़ती देख वे पलट गए कि उनका मतलब सोशल मीडिया से था। लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया ने उनकी पोल खोल दी। टीवी पर कई बार उनका धमकी भरा ऑडियो-विजुअल प्रसारित किया गया। द्वारिका के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती ने एक पत्रकार को उस वक्त थप्पड़ जड़ दिया जब उसने नरेन्द्र मोदी के बारे में राजनीतिक सवाल पूछा।
इसमें दो राय नहीं अपनी साख को लेकर इस वक्त मीडिया के समक्ष सर्वाधिक चुनौती भरा दौर है। इसके बावजूद मीडिया की स्वायत्तता और सुरक्षा को लेकर कोई संशय नहीं होना चाहिए। मीडिया पर हमले अतिवादी गुटों, आतंकियों, बाहुबलियों के अलावा सरकारों द्वारा प्रायोजित व समर्थित भी होते हैं। अक्सर इनके बहुत सूक्ष्म रूप और तरीके रहते हैं। प्रेस स्वतंत्रता जैसे दिवस न केवल सरकारों को उनकी वचनबद्धता की याद कराते हैं बल्कि दुनिया भर के मीडिया संगठनों को स्वतंत्र अभिव्यक्ति के प्रति संकल्पित भी करते हैं।

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मतदान और सोशल मीडिया

सोशल मीडिया पर खासकर युवा  परिचितों और विभिन्न समूहों को मतदान के लिए प्रेरित कर रहे हैं। देखने में आ रहा है कि 40 के आस-पास की पीढ़ी भी मतदान के लिए सोशल नेटवर्किंग का भरपूर इस्तेमाल कर रही है।

आम चुनाव का छठा चरण 24 अप्रेल को सम्पन्न होगा जिसमें 12 राज्यों के 117 सीटों पर मतदान होगा। इससे पहले (17 अप्रेल) पांचवें चरण में 121 सीटों पर मतदान के साथ ही देश की तकरीबन आधी संसदीय सीटों पर मतदान हो चुका है। मतदान के आंकड़ों को देखें, तो साफ है कि लगभग सभी राज्यों में मतदान प्रतिशत बढ़ा है। पांचवें चरण के मतदान में मणिपुर जरूर अपवाद है जहां गत बार (2009) की तुलना में तीन फीसदी वोटिंग घटी। शेष राज्यों में मतदान प्रतिशत का आंकड़ा लगातार बढ़ता हुआ दिखाई पड़ रहा है। इसमें दो राय नहीं कि लोगों में मतदान के प्रति रुझाान बढऩे के कई कारण हैं। इनमें चुनाव आयोग की सक्रियता, सामाजिक संगठनों, संस्थाओं, प्रिन्ट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का पूरा योगदान है। लेकिन विश्लेषकों के अनुसार इसमें सोशल मीडिया की सबसे बड़ी भूमिका है। अब तक के सभी चरणों के मतदान सोशल नेटवर्किंग पर छाये हुए हैं।
सोशल मीडिया पर लोग खासकर युवा फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स एप, इंस्टाग्राम, लिंक्ड इन आदि पर मित्रों, शुभचिन्तकों, परिचितों और विभिन्न समूहों को मतदान के लिए प्रेरित कर रहे हैं। देखने में आ रहा है कि 40 के आस-पास की पीढ़ी भी मतदान के लिए सोशल नेटवर्किंग का भरपूर इस्तेमाल कर रही है। लोग मतदान के बाद स्याही लगी अंगुली दिखाते हुए तस्वीरें शेयर कर रहे हैं। मतदान वाले दिन तो 'ट्विटर' पर 'आई वोटेड' टॉपिक दिनभर ट्रेंड करता है। व्हाट्स एप पर मतदान के लिए लाखों की तादाद में मैसेज शेयर किए जा रहे हैं। जब आपका कोई परिचित या प्रिय व्यक्ति फेसबुक या व्हाट्स एप पर कहता है, 'मैंने वोट डाला, आप भी डालें', तो इसका आप पर असर जरूर पड़ता है। इस तरह के संदेशों की सोशल मीडिया में जैसे बाढ़ आई हुई है।
हालांकि वर्ष 2009 में भी और कुछ माह पहले हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी सोशल मीडिया का असर देखा गया था। लेकिन आम चुनाव-2014  इस मायने में अब तक के सभी चुनावों में विशेष है। मतदान प्रतिशत बढऩे का कारण कई राजनीतिक विश्लेषक यह मानते हैं कि खास राजनेता और दल के प्रति लोगों का इस बार जबरदस्त रुझान है। कुछ हद तक वे सही हो सकते हैं। लेकिन मतदान बढऩे के पीछे सोशल मीडिया की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस बार का चुनाव अनूठा है कि वर्चुअल संसार राजनीतिक प्रचार का सशक्त माध्यम बनकर उभरा है। इसका आभास आम चुनाव-२०१४ की घोषणा से काफी पहले हो चुका था। आपको याद होगा आई.आर.आई.एस. नालेज फाउंडेशन तथा इंटरनेट एवं मोबाइल एसोसिशन ऑफ इंडिया के संयुक्त तत्वावधान में एक अध्ययन किया गया था जिसकी मीडिया में खूब चर्चा हुई थी। 'पत्रिका' के पाठक इस स्तंभ में विस्तृत रूप से    (7 जनवरी 2014) इस बारे में पढ़ चुके हैं। इस अध्ययन में कहा गया था कि 543 लोकसभा सीटों में से 160 सीटों के नतीजों को सोशल मीडिया प्रभावित कर सकता है। इस अध्ययन के बाद देश के राजनीतिक मिजाज में खासा परिवर्तन आ चुका है। हम बात चुनाव परिणामों पर प्रभाव की नहीं कर रहे। हमारा फोकस देशव्यापी मतदान प्रतिशत बढऩे पर है।
अनेक बड़े शहरों में बढ़ता हुआ मतदान का आंकड़ा इस बात का सबूत है कि पढ़ा-लिखा शहरी वर्ग भी वोटिंग के लिए बड़ी तादाद में घर से निकलकर आया है। देश में करीब 20 करोड़ इंटरनेट यूजर्स हैं। फेसबुक के मामले में भारत दुनिया का नं. 2  देश है। यहां करीब 14 करोड़ उपभोक्ता शहरी हैं। वे एक-दूसरे से मनोरंजन के साथ ही ज्वलंत मुद्दों और राजनीतिक विषयों पर खुलकर विमर्श कर रहे हैं। ऐसे में यह विशाल समूह मतदान के प्रति उदासीन रहे, यह संभव नहीं। दूसरी ओर गांवों में भी यह समूह तेजी से विस्तार पा रहा है। इंटरनेट एवं मोबाइल एसोसिएशन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की विकास दर शहरों से भी ज्यादा है, जो इस समय 58 फीसदी सालाना तक पहुंच गई है। सोशल नेटवर्किंग पर सक्रिय भारत के गांवों-शहरों में एक विशाल और नए किस्म का राजनीतिक समूह बन चुका है। यह समूह अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हुए नजर आता है।
क्या कहता है विदेशी मीडिया
चुनावों को लेकर देश के मीडिया और राजनीतिक पंडितों के अपने-अपने विश्लेषण और अनुमान है। लेकिन नौ चरणों में हो रहे हमारे इन चुनावों को विदेशी मीडिया किस नजर से देख रहा है, आइए जानें—
गार्जियन ने नरेन्द्र मोदी की चर्चा करते हुए 'मोदी नोमिक्स' यानी गुजरात पैटर्न की अर्थव्यवस्था को तेजी से विकसित जरूर बताया लेकिन अखबार के दृष्टिकोण में गुजरात मानव विकास सूचकांक के मामले में निराश करता है।
द साउथ  चाइना पोस्ट ने भारत के अगले प्रधानमंत्री को सलाह देते हुए लिखा कि उसे चीन और भारत के संदर्भ में व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। अखबार के अनुसार व्यापार और कूटनीतिक सम्बन्ध दोनों देशों के बीच सबसे उत्तम रास्ता है।
फोरेन अफेयर्स का मानना है कि भारत में कोई भी प्रधानमंत्री का पद संभाले, उसके लिए विदेश नीति में कोई नाटकीय और दूरगामी परिवर्तन करना संभव नहीं होगा।
द न्यूयार्क टाइम्स ने मौजूदा चुनावों के संदर्भ में लिखा—तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ऐसी शख्सियत हैं जो अगली किसी भी साझाा सरकार को बनाने या तोडऩे में मुख्य भूमिका अदा कर सकती हैं।

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बख्शे न जाएं अफसर!

 टिप्पणी
राज्य सरकार जयपुर के अमानीशाह नाले के बहाव क्षेत्र में आ रही जमीन का मालिकाना हक निरस्त करेगी। इस क्षेत्र में आ रही निजी खातेदारों की जमीन चिक्षित करके पहली सूची जिला कलक्टर को भेज दी गई है। अब कलक्टर यह सूची राजस्व न्यायालय में पेश करेंगे। यानी शहर से गुजर रहे 40 किमी लम्बे नाले के बहाव-क्षेत्र में अवरोधों को दूर करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। देखने पर यह सारी कार्रवाई जयपुर विकास प्राधिकरण के काबिल अफसरों की लगती है। नौकरशाही को कितनी चिन्ता है प्राकृतिक नदी-नालों की! पर्यावरण की और नगर के संतुलित विकास की! लेकिन हकीकत शायद हर शहरवासी जानता है।
राजस्थान हाईकोर्ट के सख्त आदेश और बार-बार लगाई गई फटकार के बिना क्या इन अफसरों के कानों में जूं तक रेंगती? कोर्ट की सक्रियता और अवमानना से घबराए अफसरों के पास और कोई चारा भी नहीं बचा था। शुक्र है, प्राकृतिक जलाशयों और पर्यावरण पर माननीय न्यायालय की नजर है वरना जेडीए अफसर पूरे अमानीशाह नाले को ही बेच डालते। जिस तरह भू-राजस्व कानून की धज्जियां उड़ाते हुए नाले के बहाव क्षेत्र में जमीनों के आवंटन किए गए उससे सरकारी अफसरों ने भले ही अपनी जेबें गरम कर ली, लेकिन पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य के साथ भयानक खिलवाड़ हुआ। नाले के जहरीले पानी में लगाई गई सब्जियां शहरवासियों के पेट में लम्बे समय से जहर घोल रही हैं। संभवत: इसीलिए हाईकोर्ट द्वारा नियुक्त कमिश्नरों ने भी अपनी रिपोर्ट में बहाव क्षेत्र की खातेदारी खत्म करने की जरूरत बताई। हाईकोर्ट तो बहुत पहले ही नदी-नालों, बांध, तालाब आदि सभी जलाशयों के बहाव क्षेत्रों में अतिक्रमण, अवैध निर्माण तथा 1955 के भू-राजस्व कानून के विरुद्ध किए गए आवंटनों को निरस्त करने के आदेश दे चुका है। लेकिन  संबंधित अधिकारी कानों में तेल डालकर लोगों को लूटते रहे। सरकार आंखों पर पट्टी बांधकर बैठी रही। सरकार का यही रवैया राज्य में अधिकांश प्राकृतिक जलाशयों को सूखने के कगार तक पहुंचाने के लिए जिम्मेदार है।
रामगढ़ बांध का हाल सबके सामने है। रामगढ़ ही क्यों राज्य की कई झाीलों-तालाबों का यही हाल है जो लालची अफसरों और राजनेताओं की मिलीभगत का नतीजा है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्य भी इस 'बीमारी' से मुक्त नहीं हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट तक के स्पष्ट निर्देश हैं कि जलाशयों के प्राकृतिक प्रवाह में किसी तरह का अवरोध नहीं होना चाहिए। राज्य हाईकोर्ट अपने आदेश में जलस्रोतों की जमीन का आवंटन रोकने की स्पष्ट हिदायत दे चुका है। कोर्ट यह तक कह चुका है कि अदालती आदेश के विपरीत आवंटन होने पर दोषी अधिकारी व लाभार्थी दोनों को बक्शा न जाए। ऐसे में जेडीए का जमीन आवंटन निरस्त करने का यह फैसला तब तक अधूरा है, जब तक कि अवैध आवंटन के जिम्मेदार अधिकारी को भी सजा नहीं मिले।
आवंटन निरस्त होने पर खातेदार को तो सजा मिल ही जाएगी, लेकिन अफसर खुले घूमते रहेंगे, यह नहीं चलेगा। भले ही अफसर रिटायर हो चुका हो, उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। इसलिए ऐसे सभी अफसरों की सूची सार्वजनिक की जानी चाहिए। अगर अफसर किसी नेता या मंत्री का नाम ले तो उसे भी सजा के दायरे में शामिल करना चाहिए। दो राय नहीं कि कई मामलों में नेताओं और मंत्रियों की अफसरों से मिलीभगत होगी। फिर भी आदेश करने वाला अफसर अगर सीधे जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा और उसे सजा नहीं मिलेगी तो यह घृणित गठजोड़ कभी टूट नहीं पाएगा।

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सड़कों पर बारात

  टिप्पणी
राजस्थान हाईकोर्ट ने प्रशासन को हिदायत दी है कि जयपुर में सड़कों पर बारात निकलने के दौरान लोगों की आवाजाही पर असर नहीं पडऩा चाहिए। न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के दौरान नगर निगम से कहा कि भीड़ भरी सड़कों पर क्यों नहीं लगाते बारात पर पाबंदी। न्यायालय ने जैसे ज्यादातर नागरिकों के मन की बात कह दी। भीड़ भरी सड़कों के कारण आखिर कौन है जो परेशान नहीं होता। बड़े शहरों में ही नहीं कस्बों में भी अब तो बारात के कारण घंटों-घंटों जाम में लोग फंस जाते हैं। बढ़ते वाहनों का अम्बार, साइकिल व ऑटो रिक्शा की रेलमपेल, अतिक्रमण के चलते सिकुड़ती सड़कें, बेतरतीब चौराहे और ऊपर से बारातियों का बीच सड़क पर घेरा डालकर कई-कई देर तक डांस करना राहगीरों की मुसीबत बन जाता है।
वाहनों की कतारों के बीच खतरनाक आतिशबाजी देखकर तो कई बार दिल दहल उठता है। कहीं कोई हादसा हो गया तो बच कर निकलने की कोई जगह नहीं। इन हालात से बेपरवाह बारातियों को निश्चिन्त होकर मनोरंजन में मशगूल देखकर बड़ी पीड़ा होती है। आखिर कहां गया हमारा नागरिक दायित्व-बोध? बारात के कारण जाम में फंसे लोगों में कोई गंभीर मरीज भी हो सकता है, जिसे तत्काल चिकित्सा की जरूरत है। गत दिनों ऐसे ही एक जाम में एम्बुलेंस के फंसने से मरीज की मौत हो चुकी है। हालांकि कुछ जगह बारातियों को भी व्यवस्था बनाते देखा जाता है, लेकिन ज्यादातर ऐसा देखने में नहीं आता और राह से गुजरने वाले परेशान होते रहते हैं। ऐसे लापरवाह लोगों के लिए तो यातायात पुलिस और स्थानीय प्रशासन की खास तौर पर जरूरत महसूस होती है।
किसी बड़े आदमी के यहां विवाह-समारोह हो तो पुलिस वालों की लाइन लग जाती है व्यवस्थाएं बनाने में। लेकिन आम विवाह-समारोह में बीच सड़क पर यातायात में खलल डालते समय पुलिस का कोई परिन्दा भी नजर नहीं आता। दूरस्थ कॉलोनियों का तो भगवान ही मालिक है। एक ही मुख्य सड़क पर कई 'मैरिज गार्डन्स' और आमने-सामने गुजरती बारातों की ऐसी चिल्ल-पों मचती है कि बेचारे राहगीरों का 'बाजा' बज जाता है। माना शहर की ट्रैफिक व्यवस्था केवल बारातों की वजह से नहीं बिगड़ती। यातायात पुलिस और स्थानीय निगमों की कुव्यवस्थाएं इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं।
'पीक ऑवर्स' में तो रोजाना जाम के हालात बनते हैं। ऐसे में 'बारातियों' को कोसना ठीक नहीं। विवाह एक उत्कृष्ट सामाजिक संस्कार है जिसे समारोहपूर्वक मनाने का सबको हक है। इसके बावजूद हमारा दायित्व है कि हम सड़क पर बारात के दौरान कुछ चीजों का ध्यान रखकर राहगीरों की राह आसान बना सकते हैं और विवाह-समारोह का भी भरपूर आनन्द ले सकते हैं।

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स्वतंत्र मीडिया का दमन

सरकार के सुर में सुर मिलाकर बोलने वालों को उपकृत और विरोधी सुर को तिरस्कृत किया जाता है। राज्य सरकारों की यह आम प्रवृत्ति है। पर छत्तीसगढ़ की सरकार इससे भी आगे है।
दुनिया भर में पत्रकारिता के हालात और पत्रकारों की सुरक्षा पर नजर रखने वाली अन्तरराष्ट्रीय संस्था 'रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स' की रिपोर्ट के अनुसार प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में भारत दुनिया के देशों में 140 वें पायदान पर है। यह रैंकिंग वल्र्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स-2014 में दर्ज की गई है।
हाल ही में जारी इस रिपोर्ट के अनुसार गत वर्ष भारत में पत्रकार सरकारी और गैर सरकारी दोनों स्तरों पर हिंसक निशाने पर रहे और 13 पत्रकार मारे गए। प्रेस की स्वतंत्रता का हनन और अभिव्यक्ति के दमन के मामले में भी भारत की कोई अच्छी तस्वीर प्रस्तुत नहीं की गई है। रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ और जम्मू-कश्मीर राज्यों का खासतौर पर जिक्र किया गया है, जहां प्रेस की स्वतंत्रता भारत में सर्वाधिक कुचली जा रही है। आतंककारी और अलगाववादी ताकतों के बीच जम्मू-कश्मीर में प्रेस के हालात जब-तब राष्ट्रीय सुर्खियां बनते रहे हैं।
इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी माओवादी हिंसा और पत्रकारों पर हमलों की घटनाएं राष्ट्रीय मीडिया में स्थान पा जाती हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में प्रेस के दमन और अभिव्यक्ति को कुचलने की सरकारी कारगुजारियों की शायद ही कभी चर्चा होती है। जबकि राज्य की रमन सिंह सरकार पिछले लम्बे समय से प्रेस को दबाने और कुचलने का काम कर रही है। शासन और सत्ता की शक्ति का इस्तेमाल स्वतंत्र अभिव्यक्ति को रोकने में किस तरह किया जाता है, यह छत्तीसगढ़ में साफ देखा जा सकता है। सरकार के सुर में सुर मिलाकर बोलने वालों को उपकृत और विरोधी सुर को तिरस्कृत किया जाता है। राज्य सरकारों की यह आम प्रवृत्ति है। लेकिन छत्तीसगढ़ की सरकार इससे भी एक कदम आगे है। वह विरोध में उठने वाले एक सुर को भी बर्दाश्त नहीं कर सकती। सरकारी नीतियों का जनहित में विरोध करने वाले मीडिया को वह चुन-चुन कर निशाना बनाती हैं। हालांकि ज्यादातर स्थानीय मीडिया सरकार की कारगुजारियों पर चुप रहता है। अगर कोई बोलने की हिमाकत करता है तो उसे तरह-तरह से प्रताडि़त किया जाता है। धमकियां मिलती हैं।
'पत्रिका' को इसका कड़वा अनुभव है। 'पत्रिका' ने राज्य की सम्पदा को उद्योगपतियों के हाथों बेचने की सरकारी कारगुजारियों की एक-एक करके पोल खोली। छत्तीसगढ़ में बांध, नदी, तालाब, बगीचे यहां तक कि श्मशान की जमीनें भी उद्योगपतियों को बेच दी गई। अखबार की आवाज को दबाने और कुचलने की हर संभव कोशिश की गई। अखबार निर्भीकता और निष्पक्षता से मुद्दे उठाता रहा। भ्रष्टाचार की पोल खुलने पर सरकार किस तरह बौखला जाती है, यह छत्तीसगढ़ के लोग देख चुके हैं। क्या किसी मुख्यमंत्री द्वारा प्रेस कान्फ्रेंस बुलाकर अखबार को सरेआम धमकी देने का उदाहरण कहीं देखा है? मुख्यमंत्री की धमकी के बाद पत्रिका कार्यालय पर हमला किया गया। सरकार के दबाव के आगे झाुके बिना अखबार अपनी भूमिका निभाता रहा। सरकार की ज्यादतियां भी थमी नहीं। विधानसभाध्यक्ष के माध्यम से अखबार को सदन से बाहर कर दिया गया। पत्रिका संवाददाताओं के प्रवेश पत्र निरस्त कर दिए गए। अखबार ने सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी। कोर्ट ने अखबार के हक में आदेश सुनाए। लेकिन सवाल यह है कि क्या मीडिया की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति को कुचलने के ऐसे उदाहरण मिलेंगे? सबसे दुखद तो स्वतंत्र मीडिया के हितों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार संस्थाओं का खामोश रहना है। प्रेस परिषद, एडिटर गिल्ड जैसी संस्थाओं का क्या औचित्य, जब एक सर्वसत्तावादी सरकार अपनी शक्ति का इस तरह खुला दुरुपयोग करे। मीडिया संगठनों और संस्थाओं की यह उदासीनता ही सरकारों को मीडिया की स्वतंत्रता को कुचलने की ताकत देती है।
'रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स' ने अपनी रिपोर्ट को पत्रकारों से जुड़ी हत्याओं और माओवादी हिंसा पर केन्द्रित रखा है। निश्चय ही पत्रकारों की हत्या शर्मनाक कृत्य है। माओवादियों की जितनी भत्र्सना की जाए कम है। राज्य सरकार भी उतनी ही जिम्मेदार ठहराई जानी चाहिए जो पत्रकारों की हिफाजत करने में नाकाम रही। लेकिन पत्रकारों और पत्रकारिता की सुरक्षा, स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर नजर रखने वाले मीडिया संगठनों व संस्थाओं को उन हालात पर भी गौर करना चाहिए जिनमें सरकारें मीडिया की आवाज को दबाने का दुस्साहस करती हैं।
कैमरा झूठ नहीं बोलता...
केन्द्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिन्दे ने दो दिन पहले महाराष्ट्र में युवा कांग्रेस के एक कार्यक्रम में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को जमकर कोसा। लेकिन मीडिया में उठते विरोध के बाद उन्होंने जिस तरह पलटा खाया, वह चर्चा का विषय बन गया है। शिन्दे साफ मुकर गए और कहा कि मैं तो सोशल मीडिया की बात कर रहा था। जबकि उनके भाषण में साफ तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर हमला बोला गया था। अब टीवी चैनल भाषण का वो फुटेज दिखा रहे हैं जिसमें शिन्दे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कांग्रेस पार्टी के खिलाफ नकारात्मक प्रचार करने का आरोप लगाते हुए मीडिया को हड़का रहे हैं। इसमें शिन्दे साहब जोश में मीडिया को 'कुचल' देने की धमकी तक देते हैं। अब ऑडियो-विजुअल मीडिया की क्या कहें—आदमी जो बोलता है और जो करता है उसे यह हूबहू रिकार्ड कर लेता है। क्योंकि कैमरा और माइक कभी झूठ नहीं बोलते!

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ये कैसी ठगी!


टिप्पणी
अगर आपका ए.टी.एम. कार्ड जेब में रखा हो और आपके मोबाइल पर जानकारी मिले कि आपके खाते से रुपए निकाले गए हैं। ये रुपए आपने नहीं किसी और ने निकाले हैं और वह भी किसी दूसरे शहर के ए.टी.एम. से। जाहिर है, आप बहुत ठगा हुआ महसूस करेंगे। किसी अनाम ठग से नहीं, बल्कि बैंक नामक उस जानी-पहचानी संस्था से, जिसमें करोड़ों लोगों ने भरोसा करके अपनी संचित राशि जमा कर रखी है।
जयपुर में हाल ही ऐसी कुछ घटनाएं हुई हैं। देश के अन्य कई शहरों में भी इस तरह की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इनकी तादाद भले ही अभी बहुत बड़ी न लगती हों, लेकिन ये ही हालात रहे तो हर दिन होने वाली चोरी और ठगी की वारदात की तरह आम हो जाएंगी। ऐसी सूरत में लोगों का बैंकों की ए.टी.एम. प्रणाली से तो भरोसा उठ ही जाएगा, बैंकिंग संस्था को भी बड़ा झाटका लग जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आखिर इन घटनाओं को साइबर अपराध मानकर बैंकें अपने ग्राहकों को केवल कानून और पुलिस के भरोसे कैसे छोड़ सकती है? बैंकों को इससे ऊपर उठकर सोचने की जरूरत है। बैंकों की चिन्ता में यह प्राथमिकता से शुमार होना चाहिए कि ए.टी.एम. क्लोनिंग की समस्या से कैसे निजात मिले। इस समस्या के तकनीकी उपाय तो होंगे ही। साइबर विशेषज्ञों का मानना है कि हर साइबर समस्या का निदान साइबर-जगत में ही मौजूद है। क्यों नहीं देश की सारी बैंकें चाहे वे सरकारी हों या निजी मिलकर इस समस्या का उपाय करें। उत्कृष्ट साइबर विशेषज्ञों के जरिए ऐसा सिस्टम बने जो ए.टी.एम. कार्ड की क्लोनिंग को लॉक कर सके। या तो क्लोनिंग ही संभव न हो और अगर हो तो वह किसी भी ए.टी.एम. मशीन पर कारगर न हो। तकनीक में सब कुछ संभव है। ए.टी.एम. कार्ड की पासवर्ड प्रणाली की समीक्षा करनी होगी। पासवर्ड की बजाय थम्ब इम्प्रेशन जैसे आधुनिक विकल्प मौजूद हैं, जो ज्यादा सुरक्षित हैं। बैंकों को नेट बैंकिंग की प्रणाली को भी दुरुस्त करना पड़ेगा। इसकी खामियों का फायदा उठाकर भी साइबर ठगी की जा रही है।
कुल मिलाकर बैंकों को अपने ग्राहकों को भरोसा दिलाना होगा कि उनके ए.टी.एम. कार्ड का कोई दुरुपयोग नहीं कर सकता। आजकल हर व्यक्ति ए.टी.एम. कार्ड रखता है। बैंक स्वयं भी ग्राहकों को यह कार्ड रखने का दबाव बनाती हैं। निश्चय ही यह कार्ड ग्राहकों को एक सहूलियत प्रदान करता है। लेकिन ऐसी घटनाएं उसे यह सहूलियत त्यागने को मजबूर कर देंगी। खाताधारी की नासमझाी या गलती से उसके साथ धोखा होता है तो बात समझ में आती है, लेकिन पूरी तरह सजग होते हुए अगर वह ऐसी साइबर ठगी का शिकार होता है तो बैंकें भी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। या तो बैंकें भरपाई करें या फिर मुकदमे का सामना करें।

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इंटरनेट और आपका बच्चा

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कहां खो गया जनता का प्रहरी?

आज तो मीडिया पर ही निगरानी की ज्यादा जरूरत है। जन को छोड़कर वह तंत्र के हितों को साधने में मशगूल है।
क्या गणतंत्र के प्रहरी के रूप में मीडिया का सामथ्र्य चुक गया? या फिर खुद मीडिया ने अपनी हालत इतनी दयनीय बना ली कि प्रहरी तो दूर वह एक कमजोर चौकीदार की भूमिका भी नहीं निभा पा रहा? उस पर जनता ने लोकतंत्र के तीनों पायों की निगरानी का दायित्व सौंपा था। लेकिन वह खुद चौथा पाया बनकर भ्रष्टतंत्र में शामिल हो गया। आज तो मीडिया पर ही निगरानी की ज्यादा जरूरत है। जन को छोड़कर वह तंत्र के हितों को साधने में मशगूल है। उसके अपने हित सर्वोपरि हैं। इसलिए उसकी आवाज में न ताकत है और न लोगों का उसमें भरोसा। वह जनता से दूर चला गया। सिर्फ कारोबार बन कर रह गया।
मीडिया आज मुख्यत: दो तरह के कारोबारियों के हाथ में है। एक वे जो रियल एस्टेट, चिटफंड, खनन, ऊर्जा जैसे गैर-मीडिया कारोबारी हैं। दूसरे वे जो मीडिया कारोबारी होते हुए भी धीरे-धीरे दूसरे व्यवसाय शुरू कर देते हैं। कुछ अरसे बाद दूसरा व्यवसाय प्रमुख बन जाता है। मीडिया तो सिर्फ उसे चमकाने के काम आता है। जैसे 'पॉवर' प्राप्त करने के लिए कुछ मीडिया कंपनियां पॉवर क्षेत्र में प्रवेश कर गईं तो कुछ पॉवर कंपनियां मीडिया में घुस आईं। दोनों ही सूरत में इस्तेमाल मीडिया का किया जा रहा है। भारत में क्रॉस मीडिया ऑनरशिप पर कोई पाबंदी नहीं है। इसलिए मीडिया में गैर-मीडिया और गैर-मीडिया क्षेत्र में मीडिया का प्रवेश निर्बाध जारी है।
मनोरंजन...
मीडिया की ओर से ऐसा सुनने पर बहुत निराशा होती है। हमारा सबसे पहला काम खबर देना है और वह भी संतुलित खबर। मीडिया स्वयं को लोकतंत्र का चौथा पाया मानता है, तो उसे पूरी तरह से इस भूमिका को निभाना चाहिए और ऐसा भारतीय मीडिया ने किया भी है। आज आम आदमी की जुबान पर जो बड़े-बड़े घोटालों के नाम हैं, वे मीडिया की वजह से ही उजागर हुए हैं। जिन घोटालों या भ्रष्टाचार की शिकायत आज आम आदमी करता है, उसके पीछे मीडिया का बड़ा रोल है। लेकिन यह सही है कि मौजूदा दौर में मीडिया की चौथे पाये की भूमिका में कमी आई है, उसमें सुधार होना चाहिए। भारत ही नहीं, दुनियाभर में मीडिया आज अहम किरदार है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस देश में भी तानाशाही होती है, वहां की सरकार सबसे पहले प्रेस को बंद करती है। किसी भी लोकतंत्र को बचाए रखने के स्वतंत्र और मजबूत प्रेस का होना बहुत जरूरी है।
कमजोर...
मालिक या कम्पनी प्रबंधन की सोच तो अखबार या चैनल में मुनाफा कमाना ही रहेगी। पाठक या दर्शक को अगर उपभोक्ता की तरह देखा जाए, तो फिर नागरिकों के सशक्तीकरण और उनमें जागरूकता की बात बेमानी है।
दिखने लगा सरकार का दबाव : पांच-छह साल से पूरे विश्व में आर्थिक संकट का दौर चल रहा है। हमारे देश की अर्थव्यवस्था भी खराब हुई है। जीडीपी वृद्धि की गति कम हो गई है, इससे बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों ने विज्ञापनों पर खर्च करना कम कर दिया है। इसका मीडिया कम्पनियों पर भी असर पड़ा है। पिछले पांच-दस साल से इंटरनेट की पहुंच लोगों तक बहुत बढ़ गई है। वह मुफ्त में सूचनाएं, खबरें दे रहा है, हालांकि इसकी विश्वसनीयता पर सवाल जरूर है। आर्थिक संकट के चलते अखबारों और चैनलों में निजी संस्थाओं के विज्ञापन कम हो रहे हैं और मीडिया कम्पनियां विज्ञापन के लिए सरकार पर ज्यादा निर्भर हो गई हैं। ऐसे में सरकार विज्ञापन देगी, तो यह भी चाहेगी कि मीडिया उसके खिलाफ न जाए। यह दबाव भी मीडिया पर काम कर रहा है। इसी के चलते विश्वसनीयता खत्म हुई है।
पेड न्यूज के जरिए धोखा : इस दौर में पेड न्यूज ने पाठकों के साथ बड़ा छल किया है। विज्ञापन  को खबरों की तरह पेश किया जा रहा है। लेकिन हमारे देश का पाठक या दर्शक बेवकूफ नहीं है। वह समझाता  है कि कौन पाठकों या दर्शकों से धोखा कर रहा है। खबरों को लेकर विश्वसनीयता खत्म होगी, तो नुकसान मीडिया का ही होगा। बिजनेस मॉडल के चलते अगर सब कुछ विज्ञापन पर ही निर्भर रहेगा, तो आगे चलकर संकट पैदा हो जाएगा। मीडिया पर लगने वाले आरोपों में कुछ सच्चाई तो है। मीडिया को आत्म चिंतन करना चाहिए। जन-सरोकारों को निभाना चाहिए। जिस चौथे खम्भे का दर्जा मीडिया को मिला हुआ है, उसके हिसाब से कितना काम वह कर रहा है , आज यह सबके सामने हैं। हालांकि मीडिया का एक हिस्सा हमेशा  ऐसा रहा है, जो अपनी जिम्मेदारी निभाता रहा है, लेकिन ज्यादातर लोग ऐसा नहीं कर रहे । भारतवर्ष ही अकेला ऐसा देश है, जो खुद को लोकतंत्र कहता है, लेकिन रेडियो पर खबरें सरकार की ही आती हैं।
कहां...
क्रॉस मीडिया ऑनरशिप के दो रूप प्रचलित हैं। पहला, जब एक मीडिया- कंपनी मीडिया-क्षेत्र यानी टीवी, अखबार, रेडियो आदि में ही निवेश करे तो यह 'वर्टिकल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' है। दूसरा, जब एक मीडिया-कंपनी मीडिया से बाहर के क्षेत्र में निवेश करे तो यह 'हारिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' है। अमरीका तथा ज्यादातर यूरोपीय देशों में हॉरिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप पर पाबन्दी है। भारत में ऐसी कोई रोक नहीं होने से मीडिया में घालमेल का कारोबार पनप गया। मीडिया को भ्रष्ट करने में इसकी बड़ी भूमिका है। इसके सूत्र देश के दो सबसे बड़े 2जी स्पैक्ट्रम और कोयला ब्लॉक आवंटन घोटालों में आसानी से देखे जा सकते हैं। 2जी स्पैक्ट्रम के लिए गैर मीडिया कंपनियों ने किस तरह लॉबिंग की और किस तरह लॉबिस्ट नीरा राडिया की मार्फत भ्रष्ट नेताओं, उद्योगपतियों और नामी-गिरामी पत्रकारों में सांठगांठ हुई, यह सबके सामने है। ये तो कुछ टेपों के ही खुलासे थे। अगर 5800 टेपों के राज खुल गए तो पता नहीं किस किसकी पोल खुलेगी। कोयला ब्लॉक्स घोटाले में कुछ मीडिया कंपनियों की भागीदारी सीधे तौर पर सामने आई। कुछ परोक्ष तौर पर जिम्मेदार रहीं। नवीन जिन्दल-जी न्यूज प्रकरण इसका उदाहरण है। देश में जब इतने बड़े घपले-घोटाले हों तो मीडिया की जिम्मेदारी थी कि वह इन्हें उजागर करता। लेकिन खुद मीडिया के हित जुड़े हों तो कौन यह काम करता। देश के बड़े घोटाले कैग, सीवीसी जैसी संस्थाएं सामने लेकर आईं।
मीडिया को एक और प्रवृत्ति ने ठेस पहुंचाई। यह है राजनेताओं का मीडिया कारोबार में प्रवेश। आज कई प्रान्तीय अखबार और न्यूज चैनलों पर राजनेताओं का मालिकाना हक है। मीडिया के जरिए गैर-मीडिया कारोबारों की तरह राजनीति को भी चमकाया जा रहा है। जैसे महाराष्ट्र में 'लोकमत', छत्तीसगढ़ में 'हरिभूमि', झारखंड में 'प्रभात खबर' जैसे अखबारों के खनन अथवा बिजली उत्पादन के गैर-मीडिया कारोबार हैं। कई राज्यों से प्रकाशित 'दैनिक भास्कर' के बिजली उत्पादन, खनन, रियल एस्टेट, खाद्य तेल रिफाइनिंग, कपड़ा उद्योग आदि कई गैर-मीडिया कारोबार हैं। इसी तरह राजनेताओं ने भी मीडिया को गैर-मीडिया कारोबार में तब्दील कर दिया। कहने को उनके न्यूज चैनल या अखबार जनता के लिए है, लेकिन असल हित राजनीति के साधे जाते हैं। दक्षिण भारत में यह प्रवृत्ति पहले से थी, अब पूरे देश में फैल गई है। हरियाणा में पूर्व केन्द्रीय मंत्री विनोद शर्मा का 'इंडिया न्यूज चैनल', सांसद के.डी. सिंह का 'तहलका एवन', राज्य के पूर्व गृहमंत्री और गीतिका कांड के आरोपी गोपाल कांडा का 'हरियाणा न्यूज' चैनल व 'आज समाज' अखबार, नवीन जिन्दल का 'फोकस टीवी' है। पंजाब में अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल का 'पीटीसी न्यूज'  चैनल, प.बंगाल में माकपा के अवीक दत्ता का 'आकाश बांग्ला' व '२४ घंटा' टीवी चैनल है। आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी का 'साक्षी टीवी', के.चन्द्रशेखर राव का टी.न्यूज, तमिलनाडु में जयललिता का 'जया टीवी', कलानिधि मारन का 'सन टीवी', कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी की पत्नी अनिता कुमार स्वामी का 'कस्तूरी टीवी', कांग्रेस के राजीव शुक्ला का 'न्यूज 24' है जो जनता के साथ-साथ राजनीति की सेवा भी कर रहे हैं।
पेड न्यूज का रोग भी मीडिया को खोखला कर रहा है। इसका सबसे पहले खुलासा 'वाल स्ट्रीट जनरल' के नई दिल्ली ब्यूरो चीफ पाल बैकेट के एक लेख में किया गया था। शीर्षक था-'प्रेस कवरेज चाहिए, मुझो पैसे दो।' इसमें चंडीगढ के एक निर्दलीय उम्मीदवार की व्यथा बयान की गई थी। 2009के आम चुनावों में पेड न्यूज एक महारोग के रूप में उभरा। प्रेस परिषद की समिति की रिपोर्ट में बड़े-बड़े अखबार और मीडिया घरानों (पत्रिका शामिल नहीं) के नाम सामने आए। कहने की जरूरत नहीं पेड न्यूज ने मीडिया की नैतिक शक्ति को कुंद कर डाला। देश के सारे मीडिया घराने और पत्रकार इन बुराइयों में डूबे हैं-यह सच नहीं है। अभी कुछ बचे हुए हैं। लेकिन इनकी तादाद इतनी कम है कि वे अकेले मीडिया की गिरती हुई साख को नहीं बचा सकते। अलबत्ता, इस कलुषित माहौल में वे अपने आपको साफ-सफ्फाक रखे हुए हैं यही कम बात नहीं है। वे बचे भी हैं और अपना काम भी बखूबी कर रहे हैं। इससे साबित है कि बिना भ्रष्ट हुए भी मीडिया जीवित रह सकता है।

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