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दागी 'माननीयों' का बचाव

 







बड़ा सवाल यह है कि आखिर दागी नेताओं को बचाने की जरूरत क्या है? क्या इसलिए कि ऊपरी अदालत से निर्दोष साबित होने पर सांसदों-विधायकों को उनकी वंचित सदस्यता फिर से नहीं लौटाई जा सकती? सही है। जब तक ऊपरी अदालत का फैसला आएगा, उसकी पांच साल की सदस्यता अवधि खत्म हो चुकी होगी। पर यही अंत नहीं है। चुनाव में दुबारा जाने का अवसर थोड़े ही खत्म होगा।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटकर दागी नेताओं को बचाने की जिद पर क्या सरकार अड़ी रहेगी या राहुल गांधी के बयान के बाद अध्यादेश को वापस लेगी? या फिर विपक्ष के आगे झाुकते हुए विधेयक का रास्ता अपनाएगी अथवा थक-हार कर सर्वोच्च अदालत का फैसला मान लेगी?
इन सवालों के जवाब आने वाले दिनों में मिल जाएंगे, लेकिन दागी सांसदों-विधायकों को बचाने की सरकार की जुगत देश को इतनी भारी पड़ेगी कि नतीजे लम्बे समय तक भुगतने पड़ेंगे।
आम जन दागी नेताओं से छुटकारा पाना चाहता है। वह सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को एक बेहतरीन अवसर मानता है। राजनीति को साफ-सुथरी करने का सरकार को दुर्लभ मौका मिला था। अदालत के फैसले को पूरा देश सराह रहा था। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया पर लोगों की उम्मीदें परवान चढ़ी थी। लेकिन सरकार ने आंखों पर पट्टी बांध ली। सरकार ही क्यों, सारे राजनीतिक दल जनता की उम्मीदों पर पानी फेरने को तैयार थे। आखिरकार अदालत का फैसला पलट दिया गया। फैसला चाहे अध्यादेश से पलटे या विधेयक से- क्या फर्क पड़ता है। जनता की उम्मीदें तो दोनों से टूटेंगी।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला जस का तस मान लिया जाएगा, इसकी उम्मीद बिलकुल नहीं है। फैसला आने के बाद सरकार ने जो कवायदें की, वे गवाह हैं। सबसे पहले कानून की उन धाराओं को ही बदलने का निश्चय किया, जिनके तहत अदालत का फैसला आया। गौरतलब है, 10 जुलाई को अदालत ने दो फैसले किए थे। एक में कहा था कि जो जेल में बंद हैं, वे चुनाव नहीं लड़ सकते और न ही मतदान कर सकते हैं। दूसरे फैसले में कहा कि सांसद या विधायक को किसी आपराधिक मामले में दो साल से ज्यादा की सजा हो तो उसकी सदन से सदस्यता खत्म हो जाएग। जेल से चुनाव नहीं लडऩे की पाबंदी जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा 62(2) तथा सजायाफ्ता होने पर सदस्यता से वंचित करना धारा 8(4) से सम्बंधित हैं। राजनीतिक दलों को अदालत के ये दोनों फैसले मान्य नहीं थे। लिहाजा सरकार ने दोनों धाराओं को बदलकर लोकसभा में संशोधन विधेयक पेश कर दिया। इसमें सभी दलों की सहमति थी। विधेयक लोकसभा से पारित हो गया। लेकिन राज्यसभा में भाजपा और बीजद की कुछ आपत्तियों के चलते अटक गया। 'माननीयों' का बचाव करने में सरकार इतनी जल्दी में थी कि तुरत-फुरत अध्यादेश लेकर आ गई। इस बीच उसने एक कोशिश और की और अदालत में पुनर्विचार याचिका का दांव आजमाया। सर्वोच्च अदालत ने यह याचिका भी खारिज कर दी। विधेयक अब भी राज्यसभा के पटल पर है। एक बार पटल पर रखे जाने के बाद वह सदन की सम्पत्ति बन जाता है। इसके बावजूद सरकार ने न्यायपालिका के बाद विधायिका की भी सर्वोपरिता की अनदेखी करते हुए कार्यपालिका का आसरा लिया और अध्यादेश पेश कर दिया। यह अध्यादेश राष्ट्रपति की मुहर के बाद कानून बन जाएगा। फिलहाल तो राष्ट्रपति ने इस पर सवाल-जवाब करके सरकार को मुश्किल में डाल दिया। रही-सही कसर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पूरी कर दी। सरकार की हालत सांप-छछूंदर जैसी है। न उगलते बन रहा है, न निगलते। हो सकता है वह कोई बेहतर फैसला ले, लेकिन इस पूरी कवायद में उसकी भारी किरकिरी हो चुकी है।
बड़ा सवाल यह है कि आखिर दागी नेताओं को बचाने की जरूरत क्या है? क्या इसलिए कि ऊपरी अदालत से निर्दोष साबित होने पर सांसदों-विधायकों को उनकी वंचित सदस्यता फिर से नहीं लौटाई जा सकती? सही है। जब तक ऊपरी अदालत का फैसला आएगा, उसकी पांच साल की सदस्यता अवधि खत्म हो चुकी होगी। पर यही अंत नहीं है। चुनाव में दुबारा जाने का अवसर थोड़े ही खत्म होगा। बल्कि बेदाग होकर दुबारा चुने जाने के अवसर ज्यादा मजबूत होंगे—ज्यादा जन-समर्थन के साथ। अदालतों के दो फैसलों के परिणाम भिन्न हो सकते हैं। वे अभियुक्त के अनुकूल भी जा सकते हैं और प्रतिकूल भी। न्यायिक प्रक्रिया की यह स्वाभाविक प्रकृति है, जो देश के प्रत्येक नागरिक पर लागू होती है। तो फिर माननीय सांसदों-विधायकों पर क्यों नहीं? यही वो सवाल है जिसका जवाब आम जन राजनीतिक दलों से जानना चाहता है। जो चुनकर भेजता है वही जब कानून के समक्ष समान है तो जो चुनकर जाता है उसे खास दर्जा क्यों? वह भी आपराधिक मामलों में? दागी नेताओं को बचाने की एक आड़ और ली जाती है। वह यह कि नेताओं को राजनीतिक कारणों से झाूठे मामलों में फंसा लिया जाता है। इसलिए उनके लिए कानूनी सुरक्षा-कवच जरूरी है। कौन फंसाता है नेताओं को? पुलिस? अफसर? आम आदमी? अक्सर नेताओं पर मामले उनके प्रतिद्वंद्वी ही प्रत्यक्ष या परोक्षत: दर्ज कराते देखे गए हैं। यह राजनीति की भीतरी बुराई है। इसका दोष दूसरों पर क्यों मढ़ा जाए? अगर दागियों को बचाने की कोशिशें यूं ही चलती रही, तो राजनीति कभी साफ-सुथरी नहीं हो सकती। बगैर साफ-सुथरी राजनीति के लोकतंत्र मजबूत नहीं रह सकता। जिसकी आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी जैसी बुराइयों से उबरने के लिए सख्त जरूरत है।
'इमोशनल' बनाम 'आइडियोलॉजिकल'
लालू यादव को चारा घोटाले में जेल भेजा गया है, लेकिन लगता है राजनेता कोई सबक नहीं सीख रहे हैं। राजद के एक नेता लालू की गिरफ्तारी के तुरन्त बाद टीवी पर बयान दे रहे थे, 'लालू और मजबूत होंगे, फिर चुनाव जीतेंगे। बिहार में उनके लाखों 'इमोशनल सपोर्टर्स' हैं। वे कोई 'आइडियोलॉजिकल सपोर्टर्स' नहीं हैं कि जेल जाने पर लालू का समर्थन बंद कर देंगे, बल्कि जेल जाने पर लालू के साथ उनकी सहानुभूति पैदा होगी और वे लालू का साथ ज्यादा मजबूती से देंगे। देख लेना।'
राजनेता गण जन भावनाओं को समझाने में गलती कर रहे हैं या जमीनी हकीकत बयान कर रहे हैं, इसका फैसला पाठक ही बेहतर कर सकते हैं।
मीडिया को ऐतराज
दिल्ली की रैली में नरेन्द्र मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री को 'देहाती औरत' बताने पर नवाज शरीफ के साथ ही उस भारतीय पत्रकार को भी घसीट लिया, जो वार्ता में शामिल थी। हालांकि उस पत्रकार ने प्रधानमंत्री को अपमानित करने के वाकिये का खंडन किया, लेकिन मोदी की टिप्पणी को 'ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन' ने आपत्तिजनक माना है। पत्रकार पर मोदी के बयान को मीडिया के खिलाफ बताया और कहा कि ऐसे बयानों का उद्देश्य भारतीय मीडिया को बदनाम करना है, जो लोकतंत्र की एक मुख्य संस्था है। बी.इ.ए. ने कहा, भारतीय मीडिया अपनी जिम्मेदारी और आचरण को बखूबी समझता है। मोदी ने पूरे तथ्य जाने बगैर ही पत्रकार पर टिप्पणी कर दी।

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असली और नकली वीडियो

किसी पुराने वीडियो या फोटो को नई घटना से जोड़कर अपलोड कर देना और फोटो तकनीक के जरिए फर्जी दृश्य गढ़ देना, ये तरीके भ्रम पैदा करते हैं। यह बहुत खतरनाक है। इससे बचने के उपाय जरूरी है। कानूनी उपाय पर्याप्त नहीं हैं। तकनीकी और वैज्ञानिक तरीकों की ज्यादा जरूरत है। हमें ऐसे तरीके खोजने होंगे जो आम जन को आगाह कर सके।

जैसे-जैसे सोशल मीडिया ताकतवर बनता जा रहा है, इसके दुरुपयोग की घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं। इसमें शब्द और चित्र दोनों रूप शामिल हैं। चूंकि चित्र ज्यादा असरकारी हैं, इसलिए ज्यादा दुरुपयोग भी चित्रों का ही किया जा रहा है। यह दो तरह से देखने में आता है। पहला, किसी पुराने वीडियो या फोटो को नई घटना से जोड़कर अपलोड कर देना और दूसरा, फोटो तकनीक के जरिए फर्जी दृश्य गढ़ देना। ये दोनों तरीके भ्रम पैदा करते हैं। शरारती व असामाजिक तत्त्व मौका देखकर इनका दुरुपयोग कर डालते हैं।
गत दिनों मुजफ्फरनगर के दंगों को भड़काने में एक ऐसे ही फर्जी वीडियो की अहम भूमिका मानी जा रही है। वीडियो में दो लड़कों की कुछ लोग हत्या करते हुए दिखाए गए थे। कट्टरपंथी तत्त्वों ने इस वीडियो को मुजफ्फरनगर के कंवल गांव की उस घटना से जोड़कर यू-ट्यूब पर अपलोड कर दिया, जहां झागड़े की शुरुआत हुई थी। जाहिर है, यह वीडियो एक समुदाय के लोगों को भड़काने के उद्देश्य से अपलोड किया गया था। बाद में पूरे जिले में हिंसा फैल गई, लोग मारे गए। वहां हिंसा के और भी कारण रहे होंगे, लेकिन जातीय तनाव और परस्पर नफरत पैदा करने में इस वीडियो की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। हकीकत यह थी कि यह वीडियो कंवल गांव का था ही नहीं। यह वीडियो तो दो वर्ष पहले पाकिस्तान में बनाया गया था, जिसमें आतंकियों द्वारा दो लड़कों को नृशंसतापूर्वक मारा जा रहा था। कंवल गांव की घटना शरारती तत्त्वों के लिए एक अवसर बन गई, जिन्होंने इस वीडियो का जमकर दुरुपयोग किया। तकनीकी तौर पर वीडियो असली था, लेकिन संदर्भ बदलकर प्रचारित करने से यह फर्जी ही कहा जाएगा।
इसी दौरान फेसबुक पर उप्र के एक लोकप्रिय हिन्दी अखबार की चार कॉलम में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित खबर अपलोड की गई। खबर का शीर्षक था— 'दंगाइयों को गोली मारने के आदेश'। लेकिन शरारती तत्त्वों ने फोटोशॉप की मदद से शीर्षक बदलकर उसे अत्यन्त भड़काऊ बना दिया। कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने नफरत फैलाने वाली इस फर्जी खबर की पोल खोली और अखबार की असली कटिंग चस्पां की।
इसी तरह एक फर्जी फोटो का इस्तेमाल असम में भड़की हिंसा तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोगों का देश के विभिन्न हिस्सों से पलायन के दौरान किया गया था। शुरुआत पड़ोसी देश म्यांमार में भड़की जातीय हिंसा से हुई, जिसमें अनेक लोग मारे गए थे। इसे फेसबुक पर बयान करते हुए एक फोटो अपलोड की गई। फोटो में एक स्थान पर कई शव दिखाए गए थे। इन्हें म्यांमार में हिंसा में मारे गए एक समुदाय के लोगों के शव बताया गया था। जबकि यह फोटो म्यांमार की न होकर इंडोनेशिया की थी। फोटो में जो शव जातीय हिंसा में मारे गए लोगों के बताए गए थे, दरअसल वे समुद्री तूफान 'सुनामी' में मारे गए लोगों के थे। यह फोटो अंतरराष्ट्रीय फोटो एजेन्सी एपी द्वारा सन् २००४ में जारी की गई थी, जो कई अखबारों में छपी थी। फोटो में मारे गए लोगों के शव समुद्र किनारे बहकर आए एक ढेर के रूप में पड़े थे, जो इस प्राकृतिक आपदा की विभीषिका को बयान कर रहे थे। कट्टरपंथियों ने इसे म्यांमार की हिंसा से जोड़ कर प्रचारित किया। फोटो असली थी, लेकिन इस्तेमाल 'नकली' था।
अभी उत्तर प्रदेश के एक हिन्दी अखबार की खबर की चर्चा की गई। शीर्षक बदलकर उसका दुरुपयोग किया गया। ठीक ऐसे ही गत दिनों कुछ फोटो और वीडियो फुटेज का इस्तेमाल करके फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन का फेक वीडियो 'यू-ट्यूब' पर डाल दिया गया। अमिताभ वीडियो में नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री के तौर पर पैरवी करते हुए बताए गए थे। खुद अमिताभ के तीखे विरोध के बाद राजकोट का एक व्यक्ति सामने आया और उसने अभिनेता से माफी मांगी। इस व्यक्ति का कहना था कि उसने यह वीडियो सिर्फ अपलोड किया था, बनाया नहीं। जाहिर है, तकनीक का इस्तेमाल करते हुए किसी ने तो यह वीडियो बनाया ही था। 'फेक वीडियो' के शिकार तो रूस के प्रधानमंत्री ब्लादीमिर पुतिन भी हो चुके। वर्ष 2010 में उन्हें 'यू ट्यूब' पर अपलोड की गई एक वीडियो फिल्म में सलाखों के पीछे बंदी के रूप में दिखाया गया था। जबकि हकीकत में यह वीडियो रूस के एक बड़े तेल व्यापारी मिखाइल खोदोर्कोवस्की के मुकदमे की सुनवाई का था। वीडियो में सलाखों के पीछे खड़े खोदोर्कोवस्की को हटाकर पुतिन के वीडियो फुटेज इस तरह से चस्पां कर दिए थे कि असली जैसे दिखें। इस वीडियो को रूस में सिर्फ ३ दिन में ही तीस लाख लोगों ने देखा।
जाहिर है, भ्रमित करने, अफवाहें फैलाने, परस्पर नफरत पैदा करने, हिंसा भड़काने के लिए कट्टरपंथी ताकतें और असामाजिक तत्त्व सोशल मीडिया का दुरुपयोग कर रहे हैं। यह बहुत खतरनाक है। इससे बचने के उपाय जरूरी है। कानूनी उपाय पर्याप्त नहीं हैं। तकनीकी और वैज्ञानिक तरीकों की ज्यादा जरूरत है। हमें ऐसे तरीके खोजने होंगे जो आम जन को आगाह कर सके ताकि वे असली और नकली का भेद समझा सकें।
दामिनी दुष्कर्म के दंश
आज के हिंसा और तनाव के दौर में मीडिया से हर कोई यही अपेक्षा करेगा कि उसकी रिपोर्टिंग राहत प्रदान करे। इसके विपरीत दामिनी दुष्कर्म कांड पर न्यायालय के फैसले के बाद मीडिया रिपोर्टिंग ने निराश ही किया। खासकर, अंग्रेजी अखबारों ने मुकदमे की जो विस्तृत रिपोर्टिंग की उसने एक बार फिर 16 दिसम्बर की उस क्रूर घटना के घाव हरे कर दिए। पीडि़ता के मृत्यु पूर्व बयान, चिकित्सकों की रिपोर्ट, वकीलों के तर्क-वितर्क और फैसले में माननीय न्यायाधीश की टिप्पणियों को प्रमुखता से प्रकाशित किया गया। इन खबरों में बताया गया कि बस के भीतर किस तरह युवती से नृशंसतापूर्वक दुष्कर्म किया गया। कैसे वहशी होकर अभियुक्त युवती पर टूट पड़े थे। कैसे लोहे की छड़ उसके अंगों में घुसेड़ी गई। कैसे उसे जगह-जगह से दांतों से काटा गया और कैसे संवेदनशील अंगों को निकाल बाहर किया गया। यह सारा विवरण न केवल जुगुप्सा (घृणा) पैदा करता है, बल्कि पाठक को तनावग्रस्त भी कर देता है। अंग्रेजी के लगभग सभी प्रमुख अखबारों ने यह किया। क्या ऐसा 'विस्तृत वर्णन' जरूरी था?
भूल सुधार
प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया गलती सभी से होती है। गलती सुधार ली जाए, यही उचित है। खासकर जब गलती तथ्यात्मक हो, लेकिन पिछले दिनों बी.बी.सी. ने भूल करके भी नहीं सुधारी। 10 सितंबर को उसने एक बिजनेस रिपोर्ट दिखाई। इसमें एक महिला उद्यमी की सफलता की कहानी थी कि कैसे उसने अपने देश में ऑटो रिपेयरिंग क्षेत्र में पुरुषों के एकाधिकार को तोड़ा। एंकर ने उस उद्यमी को बांग्लादेशी बताते हुए पूरा बखान कर डाला, जबकि वह अफ्रीकी देश सेनेगल की थी।

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पत्रकारों पर बढ़ते हमले


मौजूदा दौर में पत्रकारिता-कर्म दिनोंदिन मुश्किल बनता जा रहा है।  पत्रकारों पर हमले की घटनाएं बढ़ रही हैं। दरअसल, मीडिया और पत्रकारों पर हमला वही करते हैं या फिर करवाते हैं जो बुराइयों में डूबे हुए हैं। ऐसे लोग दोहरा चरित्र जीते हैं। ऊपर से सफेदपोश और भीतर से काले-कलुषित। किसी भी घटना से कोई सबक सीखा गया हो, देखने में नहीं आया।
राष्ट्रीय न्यूज चैनल का संवाददाता घायल अवस्था में आप बीती बता रहा था। उस पर आसाराम के समर्थकों ने हमला बोल दिया था। शरीर पर जगह-जगह चोटों के निशान थे। हमलावरों ने कैमरामैन व उसके साथी को भी घायल कर दिया था। कैमरामैन खून से लथपथ था। सिर पर गहरा घाव हुआ था। न्यूज चैनल टीम सदस्यों पर हमला तब हुआ, जब वे जोधपुर के पाल गांव में आसाराम के आश्रम के बाहर रिपोर्टिंग कर रहे थे। आई.बी.एन.-7 के संवाददाता भवानी सिंह एबीपी न्यूज को बता रहे थे—अचानक आश्रम के भीतर से कुछ लोग आए और उन्होंने हम पर हमला बोल दिया। हमें लातों, घूंसों, डंडों से पीटा गया। वे बहुत उग्र थे। यह तो शुक्र था कि आसपास रहने वाले ग्रामीणों ने हमें बचा लिया, वरना हमारी जान भी जा सकती थी। भवानी सिंह ने ग्रामीणों का शुक्रिया करते हुए उनमें से कुछ को कैमरे के सामने भी पेश किया। कैमरे के सामने ही घायल मीडिया कर्मियों को जिसने भी देखा, उसने इस पेशे के मुश्किल हालात पर जरूर सोचा होगा। एक दिन पहले ही भोपाल में भी आसाराम के समर्थकों ने हमला किया था। उन्हें पत्रकारों पर हमला करके मोटर साइकिल से भागते हुए देखा गया था।
मौजूदा दौर में पत्रकारिता-कर्म दिनोंदिन मुश्किल बनता जा रहा है। जैसे-जैसे समाज में पाखंड, अत्याचार, भ्रष्टाचार, दुराचार और अपराध बढ़ रहा है, पत्रकारों पर हमले की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। दरअसल, मीडिया और पत्रकारों पर हमला वही करते हैं या फिर करवाते हैं जो इन बुराइयों में डूबे हुए हैं। ऐसे लोग दोहरा चरित्र जीते हैं। ऊपर से सफेदपोश और भीतर से काले-कलुषित। इनके धन-बल, सत्ता-बल और कथित सफल-जीवन से आम जनता चकित रहती है। वह इन्हें सिर-माथे पर बिठा लेती है। लेकिन मीडिया जब इनकी पोल खोलने लगता है तो ये बौखला जाते हैं और उन पर हमले करवाते हैं। पुलिस और शासन-तंत्र इन्हीं का साथ देते हैं। बल्कि कई बार तो मिले हुए भी नजर आते हैं। दिखावे के तौर पर जरूर मामले दर्ज कर लिये जाते हैं, लेकिन होता-हवाता कुछ नहीं। पिछले कई दिनों से आसाराम को लेकर खबरें चल रही थीं। उन पर नाबालिग लड़की के यौन शोषण के गंभीर आरोप लगे थे। इसलिए मीडिया वाले उनके इर्द-गिर्द मंडरा रहे थे। इधर उनके समर्थक लगातार उग्र होते जा रहे थे। भोपाल और इंदौर में वे मीडिया कर्मियों पर हमला कर चुके थे। आसाराम गिरफ्तार कर जोधपुर लाये जाने वाले थे। उनके आश्रम में सैकड़ों समर्थक इक_े होते जा रहे थे। ऐसे में जोधपुर पुलिस ने सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त क्यों नहीं किए? जिस वक्त मीडिया कर्मियों पर हमला हुआ, पुलिस का कोई अधिकारी वहां क्यों नहीं था? क्यों घटना के तीन घंटे बाद पुलिस हरकत में आई? ऐसे कई सवाल मीडिया कर्मियों पर हर हमलों के बाद उठते रहे हैं। लेकिन किसी भी घटना से कोई सबक सीखा गया हो, देखने में नहीं आया। साफ है पत्रकारों पर हमलों के लिए सिर्फ हमलावर ही नहीं, शासन-तंत्र भी कम जिम्मेदार नहीं है।
ये हालात चिन्ताजनक हैं। खासकर, इसलिए कि पत्रकारों की सुरक्षा के मामले में भारत विश्व के देशों में निरंतर पिछड़ता जा रहा है। दुनिया में मीडिया और पत्रकारों की सुरक्षा पर नजर रखने वाली ब्रिटेन की संस्था आई.एन.एस.आई. (इंटरनेशनल न्यूज सैफ्टी इंस्टीट्यूट) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार सूची में सबसे खराब पांच देशों में भारत पत्रकारों के लिए 'दूसरा सबसे खतरनाक' देश है। पहले नंबर पर सीरिया है। इस संस्था ने  इस वर्ष की प्रथम छमाही आंकड़े जारी किए थे। इसके अनुसार भारत में जनवरी से जून माह तक 6 पत्रकार मारे गए। सीरिया में इस दौरान 8, पाकिस्तान में 5, सोमालिया में 4 और ब्राजील में 3 पत्रकारों की हमलों में मौत हो चुकी है। गौरतलब है कि ये दो माह पुराने आंकड़े हैं। अगर इसमें उत्तर प्रदेश में पिछले दो माह में हुई ४ पत्रकारों की हत्याओं को भी जोड़ दें तो संभवत: भारत सीरिया से भी आगे निकल जाएगा। इटावा जिले में राकेश शर्मा और बुलंदशहर जिले में जकाउल्ला तथा पिछले माह बांदा जिले में शशांक शुक्ला और लखनऊ जिले में लेखराम भारती— ये चार पत्रकार मारे जा चुके हैं। पुलिस अभी तक किसी भी हमलावर को गिरफ्तार नहीं कर पाई है।
स्पष्ट है, पिछले आठ माह में ही देश में 10 पत्रकार विभिन्न हमलों में मारे जा चुके हैं। पिछले वर्ष मध्यप्रदेश के पत्रकार चन्द्रिका रॉय की परिवार सहित हत्या कर दी गई थी। पत्नी सहित उनके दो मासूम बच्चों को मौत की नींद में सुला दिया गया था। मुम्बई के खोजी पत्रकार ज्योतिर्मय डे (जेडी) की हत्या को भी भूला नहीं जा सकता, जो महाराष्ट्र के अंडरवल्र्ड सरगनाओं की सच्चाइयों को उजागर कर रहे थे। मारपीट और कैमरा तोडऩे की तो सैकड़ों घटनाएं हैं। गत वर्ष जोधपुर में ही भंवरी देवी अपहरण कांड के दौरान महिपाल मदेरणा के समर्थकों ने पत्रकारों पर हमला बोल दिया था। छत्तीसगढ़ में पत्रिका के रायगढ़ ब्यूरो प्रमुख प्रवीण त्रिपाठी पर भी पार्षद के लोगों ने जानलेवा हमला किया था। पत्रकारों से मारपीट, अपहरण और हत्याओं की पृष्ठभूमि का एक मात्र सबब यही है कि मीडिया की आवाज को दबाया जाए। निश्चय ही पत्रकार मुश्किल हालात में काम कर रहे हैं। शासन-तंत्र पत्रकारों की सुरक्षा करने में नाकाम रहा है।
फिर संवेदनहीनता!
पत्रकारों में हेकड़ी और संवेदनहीनता की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। टीवी पत्रकारों में यह खासतौर पर देखी जा रही हैं। उत्तराखंड में बाढ़ के दौरान कई घटनाएं सामने आई थीं। एक टीवी संवाददाता तो भरे पानी में बाढ़ पीडि़त एक कमजोर ग्रामीण के कंधे पर बैठकर रिपोर्टिंग करते देखा गया था। ताजा घटना दीपिका कुमारी से जुड़ी है। दीपिका ने तीरन्दाजी में भारत का नाम रोशन किया है। वे गत दिनों पोलैण्ड में सम्पन्न हुए विश्व-कप में स्वर्ण पदक जीतकर स्वदेश लौटी थीं। दीपिका से इंटरव्यू करने के लिए सारे चैनल वाले उन पर मानो टूट पड़े थे। दीपिका ने उनसे गुजारिश की कि सब एक साथ उनसे इंटरव्यू कर लें। क्योंकि वे लगातार अभ्यास, यात्रा की थकान और सो न सकने के कारण सबको अलग-अलग इंटरव्यू देने में असमर्थ हैं। लेकिन संवाददाता अड़ गए। कुछेक तो बाकायदा दीपिका पर तंज कसने लगे, जिसका सार यह था कि स्वर्ण पदक जीतते ही दीपिका आसमान में उडऩे लगी है। संवाददाताओं के कठोर बोल और तानों से आहत दीपिका कुमारी सबके सामने ही रो पड़ीं। लेकिन खबर के भूखे संवाददाताओं पर कोई असर नहीं था। क्या देश का गौरव बढ़ाने वाली एक खिलाड़ी का हम मीडिया वाले इस तरह से स्वागत करते हैं! 30 अगस्त के अंक में 'हिन्दू' ने इस पूरी घटना का विवरण प्रकाशित किया और बिलखती हुई दीपिका कुमारी का फोटो भी, जो पीटीआई ने जारी किया था। इस विवरण को पढ़कर हर कोई यही कहेगा—संवेदनहीन मीडिया!!

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