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एक और महारोग

मालवीय नगर, जयपुर से डॉ. पी.सी. जैन लिखते हैं- 'राज्य में अब तक 125 लोगों की मौत और करीब 3000 लोगों को रोग की चपेट में लेने वाले स्वाइन फ्लू से भी खतरनाक एक और महारोग पनप रहा है। और वह है नकली दवाओं का धंधा। 'पत्रिका' में 'जिन्दगी दांव पर' (23 दिसम्बर) व 'नाक के नीचे नकली का धंधा (24 दिसम्बर) शीर्षक से प्रकाशित समाचार ताजा उदाहरण हैं। अब तक तो राज्य में नकली दवाओं का काला कारोबार चल रहा था। माना जाता था, नकली दवाएं अन्य राज्यों से बनकर आती हैं। अब तो नकली दवाएं यहीं बनने लगीं! राजधानी में स्वास्थ्य विभाग के नाक के नीचे!! पता नहीं और कितनी फैक्ट्रियां नकली दवाओं की चल रही हैं। राजधानी ही क्यों अन्य दूर-दराज राज्य के हिस्सों में भी नकली दवाएं बन रही हों तो क्या गारंटी। सनद रहे कि नकली दवाओं का धंधा महामारी से कम खतरनाक नहीं जिस पर कोई एपिडेमिक एक्ट भी बेअसर साबित होगा।' पुनीत शर्मा (जयपुर) ने लिखा- 'औषधि नियंत्रण और स्वास्थ्य विभाग की मिली-भगत बगैर नकली दवाओं का धंधा असंभव है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट भी कहती है कि दुनिया में बिकने वाली 75 फीसदी नकली दवाएं भारत में बनती हैं। ये विभाग कभी अपनी पहल से नकली दवाओं का जखीरा नहीं पकड़ते। कोई इन्हें सूचना देता है तभी ये विभाग हरकत में आने का ढोंग करते हैं।' प्रिय पाठकगण! आज देश भर में आम और खास घरों में अंग्रेजी दवाओं का इïस्तेमाल होता है। स्वास्थ्य और जीवन-रक्षा से जुड़ा देश का दवा उद्योग अरबों रुपए तक पहुंच चुका है। लिहाजा नकली दवाओं के समाचारों पर पाठकों की व्यापक प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक हैं। नकली या निम्न मानक दवाओं की बिक्री और इस्तेमाल को लेकर हर व्यक्ति चिन्तित व परेशान है। उनकी राज, समाज और मीडिया से क्या अपेक्षाएं हैं, आइए जानें। पूनम माथुर ने लिखा- 'जयपुर में पकड़ी गई ज्यादातर नकली दवाएं खांसी जुकाम की हैं। इन दिनों इन्हीं बीमारियों का सबसे ज्यादा प्रकोप है। लोग स्वाइन फ्लू के डर से भी मामूली खांसी जुकाम पर ये दवाएं बिना डॉक्टरी परामर्श के धड़ल्ले से खरीद रहे हैं। ऐसे हालात में ये नकली दवाएं कितनी खतरनाक हो सकती हैं, अंदाज लगाना मुश्किल नहीं।' जयपुर से विजय सैनी ने लिखा- 'विशेषज्ञ कहते हैं कि डायबिटीज के रोगी को उपयुक्त एंटीबायोटिक की बजाय नकली दवा देने पर किडनी में इंफैक्शन होकर उसे सैप्टीसीमिया तक हो सकता है। लम्बे समय तक नकली दवा लेने का असर सीधे खून पर पड़ता है। इसकी वजह से हड्डियां और आंख का रैटिना खराब हो सकता है। नकली दवाओं से एलर्जी और रक्त जहरीला बन सकता है। ये ऐसे विपरीत असर हैं जो इन्सान को ता-उम्र भुगतने पड़ते हैं।' विष्णु पुरी (उदयपुर) ने लिखा, 'नकली दवाओं के जानलेवा दुष्परिणामों के चलते माशेलकर समिति ने नकली दवाओं का धंधा करने वालों को मौत की सजा की सिफारिश की थी। ड्रग एक्ट के तहत नकली दवा के धंधे में दोषी पाए जाने पर आजीवन कारावास का प्रावधान है लेकिन आज तक किसी को यह सजा नहीं मिली।' हनुमानगढ़ से हरीश बंसल ने लिखा- 'राज्य सरकार की शुद्ध के लिए युद्ध] अभियान की तरह नकली दवा कारोबारियों के खिलाफ भी मुहिम शुरू करने की घोषणा का स्वागत है। जनता को अब इसके अमल में लाने की प्रतीक्षा है।' जोधपुर से नवनीत परिहार ने लिखा- 'अभियानों से कुछ होने जाने वाला नहीं है। जरू रत सरकारी मशीनरी को सक्षम और दुरुस्त करने की है। नकली दवाओं को जांच करने के लिए देश भर में कुल जमा 37 प्रयोगशालाएं हैं जिनमें सिर्फ 7 काम कर रही हैं। ड्रग इंस्पेक्टरों की भारी कमी हैं। स्वास्थ्यकर्मियों का नेटवर्क नहीं है। दवाओं का विशाल कारोबार और कैमिस्टों की भारी तादाद को देखते हुए जांच मशीनरी और संसाधनों का टोटा है।' नागौर से राजेन्द्र चौधरी ने लिखा- 'सरकार नकली दवा के कारोबार पर अंकुश लगाने में नाकाम रही है। चार माह पहले जयपुर में राज्य के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल के सामने एक दवा विक्रेता के पास पन्द्रह नकली इंजेक्शन बरामद हुए थे। एक इंजेक्शन की कीमत 19 हजार रुपए थी। इतनी महंगी दवा का नकली पाया जाना और बाजार में बिकने के लिए आना कई शंकाएं और प्रश्न खड़े करती हैं।' पाली से कु. पायल डागा ने लिखा- 'नकली दवाओं की आम आदमी कैसे परख करे, सरकार को इसके लिए प्रचार अभियान चलाना चाहिए। अखबार और टीवी के माध्यम से लोगों को जानकारियां दी जानी चाहिए।' अलवर से हरि शर्मा ने लिखा-'नकली दवा की सूचना सरकार तक पहुंचाने पर 25 लाख रुपए तक के इनाम का प्रावधान है। लेकिन यह जानकारी आम लोगों को नहीं होने से नकली दवाओं की रोकथाम में उनकी भागीदारी शून्य है।' पाठकों की प्रतिक्रियाओं का सार है कि नकली दवाओं का व्यापार हर हाल में रोका जाए। लोग जागरू क हों तथा दवाओं की पहचान के तरीके समझें। मीडिया इन तरीकों की जानकारी लोगों तक पहुंचाए। नकली दवाओं के कारोबार को उजागर करे। प्रिय पाठकगण। मीडिया के लिए भी सचमुच यह एक महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दा है। इसे पर्याप्त महत्त्व मिलना चाहिए। 'पत्रिका' सजग है। पाठकों को ड्रग एक्ट, नकली दवाओं की पहचान और परिणाम से जुड़ी कई महत्त्वपूर्ण सूचनाएं समय-समय पर दी गई हैं। नकली दवा पकड़वाओ, इनाम पाओ (17 नवम्बर), नकली और नुकसान (24 दिसम्बर) शीर्षक रिपोर्टें हाल ही में प्रकाशित ताजा उदाहरण हैं।

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दादी मां के नुस्खे

पत्रिका के परिवार परिशिष्ट (9 दिसम्बर) में प्रकाशित कन्संर्ड कम्युनिकेटर अवार्ड के एक विज्ञापन पर कई पाठकों की तीखी प्रतिक्रिया प्राप्त हुई है। पाठकों की शिकायत है कि 'दादी मां के घरेलू नुस्खे' शीर्षक से प्रकाशित इस विज्ञापन में एक संवेदनशील सामाजिक मुद्दे को नकारात्मक और सनसनीखेज ढंग से पेश किया गया। इसमें आज के पाठक को जाने-अनजाने वे तरीके मिल गए जो भारत के रू ढि़वादी समाज में नवजात कन्या से छुटकारा पाने के लिए अपनाए जाते रहे हैं। पाठकों की राय में इस विज्ञापन के दुरुपयोग की आशंका है, अत: पत्रिका में यह विज्ञापन स्वीकार्य नहीं है।

आइए जानें, पाठकों ने क्या कहा है। जयपुर के एक प्रौढ़ दम्पती खासे नाराज थे- 'आखिर इस विज्ञापन का उद्देश्य क्या है...?' नवजात कन्या की रक्षा या उससे छुटकारा॥?? विज्ञापन में जो उपाय बताए गए हैं, वे कभी अनपढ़, रू ढि़वादी समाज में प्रचलित थे। आज तो उन्हें कोई जानता तक नहीं। इस विज्ञापन ने सब कुछ जाहिर कर दिया। भले ही आप दावा करें, यह विज्ञापन कन्या-हत्या को रोकने की अपील करता है। अपील अन्त में इतनी सूक्ष्म की गई कि सिगरेट के पैकेट पर चेतावनी की तरह बेअसर थी।'

उदयपुर की गृहिणी श्रीमती किरण जैन विज्ञापन की भाषा से विचलित थी और नाराज भी- 'विज्ञापन की भाषा तो देखिए- नवजात कन्या से छुटकारा पाने के आसान उपाय। ये किस जमाने की दादी मां के नुस्खे हैं। अरे! बेटियों को कौन मारना चाहता है आज। मेरी तीन बेटियां हैं। मुझे इन पर गर्व है जो बेटों से भी बढ़कर हैं। मेरी छोटी बेटी ने 'परिवार' में छपे इस विज्ञापन को पढ़कर मुझसे कुछ सवाल पूछे तो मैं कांप गई। क्या जवाब दूं मैं उसे? विज्ञापन को छापने से पहले कुछ तो सोचा होता।'

इंदौर से अध्यापक विष्णु चन्द्र शर्मा के अनुसार- 'कन्या हत्या रोकें।' इस तीन शब्दों के संदेश के लिए सौ से अधिक विनाशकारी शब्दों का सहारा लेने की क्या जरू रत थी।'

सूरत से वस्त्र व्यवसायी मेघराज अग्रवाल ने कहा- 'मुझे यह विज्ञापन बिलकुल नहीं जंचा। यह खतरनाक है।'

जयपुर दूरदर्शन से कुलवन्त सिंह की प्रतिक्रिया मिली- मेरी पत्नी और मुझे यह विज्ञापन बहुत अजीब लगा। हम दोनों ने इसका अर्थ निकालने की कोशिश की, पर नाकाम रहे।'

राजस्थान विश्वविद्यालय महिला संस्था (रुवा) के अध्यक्ष प्रो. राजकुमारी जैन और सचिव प्रो. बीना अग्रवाल ने लिखा- 'यह विज्ञापन उपदेश के प्रतिकूल विचार का संप्रेक्षण करता है और कन्या वध के उपाय जन-जन तक पहुंचा रहा है। हम इसकी भत्र्सना करते हैं।'

अखिल भारतीय तेरापंथी महिला मंडल की विमला दुग्गड़ ने विज्ञापन पर कड़ी आपत्ति जताई और बताया कि संगठन की सभी महिलाएं इससे आहत हैं।

बेंगलुरू से सामाजिक कार्यकर्ता सज्जनराज मेहता ने लिखा- इस विज्ञापन ने पाठकों को अनायास ही कुछ विकल्प प्रदान कर दिए। हालांकि यह विज्ञापन जनता-जनार्दन को जाग्रत करने के लिए है, पर कुछ लोग इसका दुरुपयोग कर सकते हैं। लोग नकारात्मक पहलुओं पर ज्यादा तत्पर होते हैं। अच्छा होता, विज्ञापन में वांछित संदेश को प्राथमिकता दी जाती न कि दादी मां के नुस्खों को। सामाजिक विकास पत्रिका का ध्येय रहा है। इसमें पत्रिका का महती योगदान भी है। इसलिए करबद्ध प्रार्थना है कि ऐसे विषय पर गौर करें।'

लगभग ऐसी ही प्रतिक्रियाएं देश के विभिन्न हिस्सों से मिली है जिनमें नौकरीपेशा, व्यवसायी, बुद्धिजीवी सहित व्यक्तिगत पाठक-पाठिकाओं के साथ ही स्वयं सेवी संस्थाएं, महिला संगठन और विद्यार्थी वर्ग शामिल हैं। सभी प्रतिक्रियाओं का सार है कि विज्ञापन भ्रमित करने वाला और आपत्तिजनक था। वे पत्रिका के पाठक हैं, इससे प्यार करते हैं और भरोसा रखते हैं इसलिए उन्हें इस विज्ञापन से आघात लगा।

प्रिय पाठकगण!
आपकी भावनाओं और विचारों का स्वागत है। पत्रिका भी पाठकों को सर्वोपरि मानता है। लेकिन पहले मैं कन्संर्ड कम्युनिकेटर अवार्ड के बारे में बता दूं। इस अवार्ड के तहत चयनित विज्ञापन पत्रिका में प्रतिवर्ष प्रकाशित होते हैं। यह सालाना प्रतियोगिता है, जिसमें देश-विदेश की कई नामचीन विज्ञापन एजेन्सियां भाग लेती हैं। प्रतियोगिता में शामिल सैकड़ों विज्ञापन-प्रविष्टियों का मूल्यांकन प्रतिष्ठित विज्ञापन-विशेषज्ञों का निर्णायक मंडल करता है। निर्णायकों द्वारा चयनित पचास विज्ञापनों को शृंखलाबद्ध रू प से प्रकाशित करने के लिए पत्रिका वचनबद्ध है। 'दादी मां के घरेलू नुस्खे' शीर्षक विज्ञापन भी इसी शृंखला की कड़ी है। यह 2009 के कन्संर्ड कम्युनिकेटर अवार्ड की विजेता प्रविष्टि है। जिसमें तीन हजार से ज्यादा भारतीय और 85 अन्तरराष्ट्रीय प्रविष्टियां प्राप्त हुई थीं। चयनकर्ताओं ने पचास प्रविष्टियों का चयन किया। चयनकर्ता देश के पांच प्रतिष्ठित और जाने-माने विज्ञापन विशेषज्ञ थे जो प्रसिद्ध विज्ञापन कम्पनियों से सम्बद्ध हैं।

प्रिय पाठकगण!
विज्ञापन की प्रस्तुतीकरण से आप असहमत हो सकते हैं, पर इसने एक ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दे पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। निस्संदेह, नवजात कन्याओं के लिए आज ये तरीके कहीं अपनाए नहीं जाते लेकिन इस समस्या ने अब नया रू प धारण कर लिया है। आज तो कन्या को जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है। वह भी रूढि़वादी समाज में नहीं- पढ़े-लिखे कथित प्रगतिशील समाज में। देश में कन्या-भ्रूण हत्या के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। एडवरटाइजिंग एजेन्सीज एसोसिएशन ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष डा। मधुकर कामत के अनुसार, पिछले 50 सालों में हम 1.50 करोड़ नवजात कन्याओं को मार चुके हैं। गत एक वर्ष में ही देश में 28 लाख भ्रूण परीक्षण हुए। भारत अनेक विकासशील राष्ट्रों से लड़कियों की औसत संख्या में काफी पीछे है।

विज्ञापन में इस भयावह समस्या को उठाने की वजह से ही सम्भवत: निर्णायक मंडल ने इसे चुना होगा। निर्णायक मंडल में से एक प्रसून जोशी के अनुसार, 'यह विज्ञापन एक बड़ी समस्या को सामने लाता है। अगर आज इस विज्ञापन को ऊंची आवाज में पढ़ें या सुनें तो आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे।'

जैसा कि मैंने कहा, प्रविष्टियों का चयन स्वतंत्र निर्णायकों के मंडल ने किया। पत्रिका आयोजन-संस्था के नाते चयनित विज्ञापनों का प्रकाशन करने के लिए वचनबद्ध है। भले ही विज्ञापन के कथ्य और प्रस्तुति से वह सहमत हो या नहीं। अखबार में आप रोजाना वाल्तेयर का कथन पढ़ते होंगे। जिसमें असहमति के बावजूद विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करने का वचन है। यह अधिकार सभी का है। निर्णायक मंडल का भी- पाठकों का भी।

दरअसल, पाठकों और समाज के व्यापक हित में पत्रिका का योगदान सर्वविदित है। सामाजिक सरोकारों को लेकर इसकी देशव्यापी पहचान है। पिछले एक दशक में पत्रिका के इस दिशा में किए गए कार्यों की लम्बी फेहरिश्त है। करगिल शहीदों की विधवाओं और गुजरात के भूकम्प पीडि़तों की सहायता के लिए चलाए गए अभियान आज भी याद किए जाते हैं। एक मुट्ठी अनाज योजना, अमृतं जलम, हरियालो राजस्थान, जागो जनमत जैसे एक दर्जन से अधिक कार्यक्रमों में समाज के विभिन्न वर्गों के लाखों लोगों ने हिस्सेदारी निभाई। कन्या-भ्रूण हत्या के खिलाफ वातावरण बनाने में पत्रिका की अद्वितीय भूमिका है। इस ज्वलन्त सामाजिक मुद्दे को अखबार ने अभियान की तरह चलाया और पिछले पांच वर्षों में जो कार्य किया, उसकी मिसाल अन्यत्र नहीं है। शायद इसीलिए इस विषय में प्रकाशित विज्ञापन पाठकों में चर्चा का विषय बना। अखबारों की पाठकों से संवाद हीनता के इस दौर में पत्रिका के पाठकों की प्रतिक्रियाएं अमूल्य निधि हैं और अखबार की वास्तविक शक्ति भी।
पाठक अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-
ई-मेल: anand.joshi@epatrika.com
एसएमएस: baat 56969
फैक्स:०१४१-2702418
पत्र: रीडर्स एडिटर,
राजस्थान पत्रिका झालाना संस्थानिक क्षेत्र,
जयपुर

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ये कैसी राजनीति !

जयपुर के पाठक शान्तनु राजवंशी ने लिखा, 'उस दिन (10 नवम्बर) 'पत्रिका' के पहले पन्ने पर एक व्यक्ति को दूसरे पर घूसा तानते हुए फोटो देखा तो भ्रम हुआ, फोटो गलती से तो नहीं छप गई। लेकिन गौर से देखा तो माजरा समझ में आ गया। वो मुक्केबाजी का फोटो नहीं था। महाराष्ट्र विधानसभा में हिंदी में शपथ ग्रहण का फोटो था। हमला करने वाला कोई और नहीं महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का विधायक था। जिसे थप्पड़-घूसे मारे गए वो भी विधायक था और राष्ट्र-भाषा में शपथ ग्रहण कर रहा था। बाद में पता चला टीवी चैनलों पर यह दृश्य लाइव दिखाया गया था, जिसे पूरे देश ने देखा।'

पाठक ने आगे लिखा- 'पत्रिका' में प्रकाशित फोटो का शीर्षक 'सदन में गुण्डाराज', साथ में विस्तृत समाचार के अलावा गुलाब कोठारी का विशेष लेख 'विष वृक्ष' पढ़कर पूरी तस्वीर साफ हो गई। संपादकीय पृष्ठ पर हरवंश दीक्षित की टिप्पणी ने संवैधानिक पक्ष रखा। इस शर्मनाक राष्ट्रीय घटना केसभी पहलुओं का सार्थक प्रस्तुतीकरण देखने को मिला। मेरे जैसे एक आम हिन्दुस्तानी के जेहन में भाषा और प्रांतवाद को लेकर जो सवाल उठे उनका समाधान अखबार की सामग्री से हुआ। सूचना और शिक्षण-मीडिया की यही वास्तविक भूमिका है।'

डॉ.अपूर्वा कौशिक (अजमेर) ने लिखा- 'मनसे और शिवसेना में इन दिनों जंग छिड़ी हुई है कि कौन ज्यादा कट्टर और संकीर्ण है। इसमें कभी मनसे तो कभी शिवसेना का पलड़ा भारी लगता है। विधानसभा में विधायक पर हमला करने के बाद राज ठाकरे को जो सुर्खियां मिल रही थीं, उसे बाल ठाकरे हजम नहीं कर पाए और सचिन तेंदुलकर जैसे कद्दावर खिलाड़ी को ही निशाना बना बैठे। अब बाल ठाकरे सुर्खियां बटोरने लगे तो राज ठाकरे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को धमका कर फिर चर्चा में आ गए। शिवसेना क्यों पीछे रहती। उसने एक न्यूज चैनल के मुंबई व पुणे के दफ्तरों पर हमला बोल कर सुर्खियां बटोर लीं।'

अहमदाबाद से रोशन चन्द्रा ने लिखा- 'महाराष्ट्र के मतदाताओं ने लगातार तीसरी बार शिवसेना को ठुकराया। मनसे को भी मात्र तेरह सीटें मिलीं। अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए दोनों दल घिनौना खेल खेल रहे हैं। मीडिया को इन्हें तवज्जो नहीं देनी चाहिए।'

अलका माहेश्वरी, बेंगलुरू ने लिखा- 'मनसे और शिवसेना की बातों पर ध्यान मत दो। उनकी चर्चा मत करो। उन्हें तूल मत दो, उपेक्षा करो। देखो कैसे ठिकाने लगते हैं।'

प्रिय पाठकगण! पिछले दिनों महाराष्ट्र में शिवसेना और उसी से उपजी महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के जो क्रिया-कलाप सामने आए उन पर सैकड़ों पाठकों की प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं। पाठकों ने खासकर मनसे के उग्र हिंदी-विरोध, बाल ठाकरे की तेंदुलकर को नसीहत और आईबीएन- लोकमत न्यूज चैनल पर शिव सैनिकों के हमलों को लेकर तीखे तेवर अपनाए हैं। पाठकों की प्रतिक्रियाओं को इन क्षेत्रीय दलों की संकीर्ण राजनीतिक कार्यशैली पर नागरिकों की राय की एक बानगी के तौर पर देखा जा सकता है।

जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर, के छात्र विवेक माथुर के अनुसार- 'महाराष्ट्र विधानसभा में एक विधायक को हिंदी में शपथ लेने पर पीटने वाले यह क्यों भूल गए कि एक मराठी भाषी डॉ। भीमराव अम्बेडकर ने ही इस देश का संविधान लिखते समय देशवासियों को बताया था कि इस देश की राष्ट्रभाषा हिंदी है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इसी महाराष्ट्र में हिंदी में अखबार शुरू किया था। हिंदी को समृद्ध करने वाले काका कालेलकर को कौन नहीं जानता।'

अपूर्वा व्यवहारे (उदयपुर) के अनुसार- 'हिंदी कोई मुद्दा है ही नहीं। न शिवसेना और न ही मनसे का मराठी से कोई लगाव है। इन्हें तो अपनी राजनीति चमकानी है।'

श्रीगंगानगर से कुलविन्द सिंह ने लिखा- राज ठाकरे ने महाराष्ट्र के सभी 288 नवनिर्वाचित विधायकों को पत्र लिखकर धमकाया कि मराठी में शपथ नहीं लेने वाले विधायक से निपट लिया जाएगा। और कमाल की बात कि उन्होंने कर भी दिखाया उनके आदेश की नाफरमानी करने वाले विधायक को पिटवाकर। यह तो इंडिया में ही संभव है।'

निशि परमार (राजस्थान विश्वविद्यालय) ने लिखा- 'मुंबई पूरे भारत की है, यह कहकर सचिन ने क्या गलत किया कि बाल ठाकरे ने उन्हें चुप रहने की नसीहत दे डाली।'

कोटा से सतीश जैन ने लिखा- 'हार से शिवसेना इतनी कुंठित हो चुकी है कि उसने एक मराठी चैनल पर ही हमला बोल दिया। अगर ठाकरे साहब अपने अखबार 'सामना' में अपने विचार अभिव्यक्त कर सकते हैं तो चैनल क्यों नहीं। अभिव्यक्ति की आजादी जितनी 'सामना' को है उतनी अन्य अखबारों और चैनलों को भी है।'

नागौर से रवीन्द्र शर्मा ने लिखा- 'मुंबई पर हमला करने वाले आतंककारी कसाब को अभी तक हम सजा नहीं दिला पाए हैं। 26 नवम्बर की वह काली रात फिर नजदीक है। पूरा देश आतंकवाद से जूझ रहा है और हम भाषा और प्रान्त के संकीर्ण मुद्दे उठाकर राष्ट्रीय एकता की चिन्दी-चिन्दी बिखेर रहे हैं। शिवसेना हो या मनसे या फिर कोई भी राजनीतिक दल जो संकीर्णता के घेरे में कैद है, उन्हें हम सब भारतीय मिलकर 'मुक्ति' दिला दें तो अच्छा होगा।

पाठकों की प्रतिक्रियाओं का सार है कि संकीर्ण राजनीति करने वाले दल और नेताओं को सबक सिखाया जाना चाहिए। अनेक पाठकों की राय है कि ऐसे दलों की मीडिया कवरेज बंद होनी चाहिए। प्रिय पाठकगण! कवरेज बंद करना इस समस्या का समाधान नहीं है। वे क्या बोलते हैं, क्या सोचते हैं, क्या करते हैं इसका पता पूरे देश को चलना चाहिए। अन्यथा उनकी राजनीति देश के लिए घातक है या फायदेमंद- इसका फैसला कौन करेगा।
पाठक अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-
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पत्र: रीडर्स एडिटर,
राजस्थान पत्रिका झालाना संस्थानिक क्षेत्र,
जयपुर

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कानून का कोड़ा


एक पाठक की प्रतिक्रिया मिली- 'सीबीआई के पूर्व निदेशक डा। राजेन्द्र शेखर के अनुसार भारत सबसे भ्रष्ट 10 देशों की सूची में शामिल है। यहां 24 करोड़ लोग रोज भूखे सोते हैं और प्रतिवर्ष 26 हजार करोड़ रुपए की घूस दी जाती है।' (पत्रिका 7 नवम्बर)

पाठक ने आगे लिखा- 'मुझे लगता है, घूस का आंकड़ा काफी कम है। जिस देश में मधु कोड़ा जैसे राजनेता हों वहां 26 हजार करोड़ की राशि ऊंट के मुंह में जीरे समान है। अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक घोटाला एक पूर्व मुख्यमंत्री के नाम दर्ज हुआ है। अकेले मधु कोड़ा की 4 हजार करोड़ रुपए की सम्पत्ति का पता चलना इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि देश भ्रष्टाचार के महासागर में डुबकी लगा रहा है। एक मुख्यमंत्री रह चुका व्यक्ति ही दोनों हाथों से बटोरने में लगा हो, तो एक अरब से अधिक आबादी वाले देश में छोटी-बड़ी हैसियत के लाखों व्यक्तियों को काली कमाई करने से कौन रोक सकता है।'

प्रिय पाठकगण!

झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा इन दिनों मीडिया में सुर्खियों में हैं। पिछले दिनों आयकर विभाग ने देश भर में उनके अनेक ठिकानों पर छापे मारकर अरबों रुपए की बेहिसाबी सम्पत्ति का पता लगाया है। छापे की कार्रवाई के बाद वह बीमार हो गए और अस्पताल में भर्ती हैं। यह सही है कि इस मामले की अभी जांच चल रही है और पूरी वास्तविकता सामने आने के लिए हमें प्रतीक्षा करनी होगी लेकिन जो तथ्य सामने आए हैं वे मधु कोड़ा को प्राथमिक तौर पर दोषी सिद्ध करने के लिए काफी हैं। देखें, पाठक क्या कहते हैं।

डी.के. पालीवाल (उदयपुर) ने लिखा- '2004 में चुनाव आयोग को दिए ब्यौरे के मुताबिक मधु कोड़ा की सम्पत्ति सिर्फ 35 लाख रुपए की थी। पांच साल बाद 2009 में कोड़ा ने 30 करोड़ की सम्पत्ति घोषित की। और अब मधु कोड़ा व उनके साथियों की बेहिसाबी बेनामी सम्पत्ति की कीमत 5500 करोड़ रुपए बताई जा रही है। सिर्फ छह माह में उनकी सम्पत्ति 30 करोड़ से अरबों रुपए कैसे हो गई? इसका मतलब है मधु कोड़ा चुनाव आयोग की आंख में धूल झोंक रहे थे।'

एल.एल.बी. के विद्यार्थी दिनेश विजयवर्गीय (दयानंद विश्वविद्यालय) ने लिखा- 'सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद जनप्रतिनिधियों के लिए चुनाव आयोग ने सम्पत्ति का विवरण देना अनिवार्य कर रखा था। वरना चुनाव नहीं लड़ सकते। मधु कोड़ा ने अपनी अरबों की सम्पत्ति छिपाकर इस नियम की धज्जियां उड़ा दी। तो क्या यह माना जाए कि नेतागण चुनाव पूर्व जो सम्पत्ति घोषित करते हैं वह कानून और जनता की आंख में धूल झोंकने के लिए है?'

डा. पुरुषोत्तम जैन (कोटा) ने लिखा- 'कहते हैं कोड़ा पन्द्रह साल पहले तक एक मामूली मजदूर थे। एक मामूली आदमी अरबपति नहीं बन सकता, यह जरू री नहीं। लेकिन कैसे बना यह तो पता चलना चाहिए। कोड़ा दो बार खान मंत्री और एक बार मुख्यमंत्री रहे। यह अवधि कुल मिलाकर पांच साल है। इतने कम समय में उनके पास इतनी दौलत कहां से आई कि वे विदेशों में खानें खरीद सकें?'

दिवाकर शर्मा (बीकानेर) के अनुसार- 'झारखण्ड राज्य का सालाना बजट 8 हजार करोड़ रुपए है। जिसमें 4 हजार करोड़ रुपए का घोटाला अकेले पूर्व मुख्यमंत्री पर आरोपित है। जनता का धन इस कदर लूटने का यह अपूर्व मामला है, जिसकी सारी परतें जनता के सामने उधेरनी होंगी।'

अलवर से रजनी शर्मा ने लिखा- 'कानून का कोड़ा पड़ा तो पूर्व मुख्यमंत्री की तबीयत बिगड़ गई और वे अस्पताल में भर्ती हो गए।'

अजमेर से गजेन्द्र उपाध्याय ने लिखा- 'जिस तेजी से मधु कोड़ा ने धन कमाया वह जाहिर तौर पर भ्रष्ट तरीकों के बगैर संभव नहीं था। लेकिन अफसोस इस बात का है कि समय रहते राजनीतिक दल, सतर्कता एजेंसियां और खोजी पत्रकारिता किसी ने अपना कत्र्तव्य नहीं निभाया। अन्यथा मधु कोड़ा को काफी पहले पकड़ा जा सकता था।'

अहमदाबाद से शालिनी डागा ने लिखा- 'देश के अन्य बड़े घोटालों की तरह यह घोटाला भी दब जाएगा। बड़े-बड़े नेताओं का कुछ नहीं बिगड़ता। सभी राजनीतिक दलों में मधु कोड़ा जैसे लोग बैठे हैं।'

उदयपुर से देवेन्द्र सी.सैनी के अनुसार- 'रिश्वत लेकर संसद में सवाल पूछने वाले दस सांसदों की सदस्यता खत्म कर दी गई थी। लेकिन उन्हीं में से कुछ सांसद चुनकर फिर संसद में आ गए हैं।'

गीता भार्गव (जयपुर) के अनुसार- 'पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ठीक ही कहते हैं कि भ्रष्टाचार आतंकवाद से भी बड़ी समस्या है। मेरी राय में देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार की समस्या सबसे बड़ी है। भ्रष्टाचार के इस नाग को कुचलने की जरू रत है, लेकिन कुचले कौन?'

प्रिय पाठकगण!

अनेक पाठकों ने यही सवाल उठाया है कि भ्रष्टाचार को आखिर रोके कौन? जनता और सिर्फ जनता। कानून, न्यायपालिका और मीडिया इसमें योगदान कर सकते हैं। कभी जल्दी कभी देर से कानून का शिकंजा सब पर कसता है। दागी और भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों को हम चुने ही क्यों? कम-से-कम दागी के तौर पर पहचान होने के बाद हरगिज नहीं। मधु कोड़ा अगर जांच में दोषी पाए जाते हैं, तो फिर उनका विधानसभा या लोकसभा में पहुंचना दूभर ही नहीं असंभव हो जाना चाहिए। और यह आप ही कर सकते हैं।

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एडवांस में नोबेल!

'गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार से वंचित करने पर कभी नोबेल समिति को खेद व्यक्त करना पड़ा था। ठीक वैसे ही बराक ओबामा को यह पुरस्कार प्रदान करने पर नोबेल समिति को भविष्य में खेद जताना नहीं पड़ जाए।'


अजमेर से डा. कर्णदेव सिंह आगे लिखते हैं- 'ऐसा पहली बार हुआ है, जब किसी व्यक्ति को उपलब्धि की वजह से नहीं बल्कि भावी संभावना की वजह से नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा विश्व को परमाणु हथियारों से मुक्त कराना चाहते हैं। ओबामा के इस दृष्टिकोण पर ही समिति मुग्ध हो गई और उन्हें 'एडवांस' में पुरस्कार दे डाला। वाह! क्या बात है। क्या नोबेल समिति ने आविष्कार की सभावना में आज तक किसी वैज्ञानिक को विज्ञान का नोबेल दिया है? या उत्कृष्टता की उम्मीद में किसी लेखक को साहित्य-सृजन से पहले ही साहित्य के नोबेल से नवाजा है?'

एक अन्य पाठक इन्द्रजित मेहता (जोधपुर) ने सवाल किया- 'क्या ओबामा के नेतृत्व में अमरीका ने अपने साढ़े पांच हजार वारहैड्स में कोई कमी की है? या फिर इराक और अफगानिस्तान से अपनी फौजें हटा ली है? या इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध का शांतिपूर्ण समाधान खोज लिया है? या फिर ग्वातनामो यातना शिविर में बंदियों को मुक्त कर दिया है? बराक महोदय ने ऐसा कौन-सा काम कर दिया जिसके लिए उन्हें शांति का सर्वोच्च पुरस्कार दिया गया।'


आर्किटेक्ट पी.सी. श्रीवास्तव, (जयपुर) के अनुसार- 'ओसामा लादेन को अभी तक पकड़ा नहीं जा सका। हिजबुल्ला, हमास, तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा जैसे तमाम संगठनों पर कोई लगाम नहीं कसी जा सकी। उल्टे आतंकवाद को पनाह देने वाले पाकिस्तान को अमरीका ने 2.8 अरब डालर की सैन्य सहायता दी जो अब तक की सर्वाधिक राशि है।'

प्रिय पाठकगण!

अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा पर दुनिया भर में प्रतिक्रिया हुई। नोबेल पुरस्कारों को लेकर विवाद और विमत के स्वर पहले भी उठते रहे हैं, लेकिन ओबामा को शांति के नोबेल पर जो बहस दुनिया भर में छिड़ी है, वह संभवत: पहली बार है जिसमें आम आदमी भी शामिल हो गया है। क्या इस पुरस्कार के लिए ओबामा का चयन गलत है या उन्हें समय से पहले पुरस्कृत करना गलत? पाठकों के दृष्टिकोण की बानगी आपने देखी। आइए, कुछ और प्रतिक्रियाएं जानें।


'पत्रिका (10 अक्टूबर) ने खबर का सही शीर्षक दिया- ओबामा को शांति नोबेल पर हैरत! खुद ओबामा को इस पुरस्कार की कतई उम्मीद नहीं रही होगी। आखिर उन्होंने अभी तक किया ही क्या है। इसी दिन प्रकाशित संपादकीय से भी मैं सहमत हूं जिसमें लिखा कि इस समय दुनिया जितनी अशांत है उतनी शायद पहले कभी नहीं रही। इसके लिए अगर कोई दोषी है तो अमरीका की विफल नीतियां। इन नीतियों में बदलाव की दिशा में ओबामा ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया है। अगर अमरीका का राष्ट्रपति होना ही योग्यता का मापदंड है तो फिर नोबेल फाउण्डेशन को एक पुरस्कार और शुरू कर देना चाहिए जो केवल अमरीकी राष्ट्रपति के लिए रिजर्व हो।' उक्त प्रतिक्रिया उदयपुर के छात्र शिवदयाल श्रीमाली ने व्यक्त की।चेन्नई से दिलीप सी। नैयर ने लिखा- 'यह सही है कि ओबामा के भाषण शांति की आशा जगाते हैं। 4 जून 2009 को मिस्र की राजधानी काहिरा में मुस्लिम जगत के लिए दिया गया उनका भाषण अभूतपूर्व था। इससे पहले पौलेण्ड की राजधानी प्राग में अपने भाषण में विश्व को परमाणु हथियारों से मुक्त करने की बात कहकर ओबामा ने खूब तालियां बटोरी थीं। जी-20 देशों की बैठक में रू स-अमरीका दोनों ने अपने परमाणु बमों की संख्या सीमित करने का वादा किया था। इससे पहले किसी अमरीकी राष्ट्रपति ने ऐसी घोषणाएं नहीं की। इन घोषणाओं को अमरीकी राष्ट्रपति वास्तविकताओं में कब बदलेंगे, इसका सबको इंतजार है। नोबेल समिति को भी इंतजार करना चाहिए था।'


इसके विपरीत डा. जयन्ती पाराशर (कोटा) का मत है- 'ओबामा अन्य अमरीकी राष्ट्रपतियों से बिलकुल अलग हैं। वे साहसी हैं और बेबाकी से अपनी बात कहने की कूवत रखते हैं। उनमें भविष्य की अपार संभावनाएं हैं। नोबेल समिति ने उनका चयन करके इन संभावनाओं को मान्यता दी है।'


'दस माह के कार्यकाल में ओबामा ने वादे ही वादे किए हैं। वे अच्छा भाषण देते हैं। लेकिन उनकी कथनी और करनी में अन्तर दिखाई पड़ता है। तभी तो गैलप के हाल एक सर्वेषण में ओबामा की लोकप्रियता सम्बन्धी रेटिंग में 10 अंकों की गिरावट आई है।' यह प्रतिक्रिया बिजनेसमैन आर।के. माहेश्वरी (जयपुर) ने व्यक्त की।


अलवर से आशुतोष वैष्णव ने लिखा- 'ओबामा का रवैया निष्पक्ष नहीं है। वे पाकिस्तान को सैन्य मदद करते हैं और मुंबई हमलों पर चुप्पी साध लेते हैं। चीन की घुसपैठ पर भी वे कुछ नहीं बोलते।'


पाठकों की प्रतिक्रियाओं का सार है कि नोबेल शांति पुरस्कार के लिए ओबामा के चयन में जल्दबाजी की गई है। अभी ओबामा को और अवसर दिया जाना चाहिए और यह देखना चाहिए कि वे अपनी घोषणाओं में कितने खरे उतरते हैं। वे सत्ता के सर्वोच्च सिंहासन पर हैं। शक्ति, साधन और सामथ्र्य की उनके पास कोई कमी नहीं। इसलिए अपने इरादों को जमीनी हकीकत में बदलने के लिए उनके सामने कोई बाधा नहीं होनी चाहिए।

पाठक रीडर्स एडिटर को अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-
ई-मेल: anand.joshi@epatrika.com
एसएमएस: baat 56969
फैक्स: ०१४१-2702418
पत्र: रीडर्स एडिटर,
राजस्थान पत्रिकाझालाना संस्थानिक क्षेत्र,
जयपुर

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नक्सली हैं या आतंकी

जयपुर से हरीश मित्तल ने लिखा- 'सचमुच विचलित कर देने वाली फोटो (पत्रिका, 8 अक्टूबर) थी वह! सम्पादकीय पेज पर झारखंड के पुलिस इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदूवार की सिर कटी खून से लथपथ लाश का चित्र देखकर कौन विचलित नहीं हुआ होगा। माओवादी नक्सलियों ने इंस्पेक्टर का अपहरण करके बड़ी बेरहमी से उनका गला रेत दिया था। नक्सली विचार धारा का वैसे तो मानवता से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन यह तो हैवानियत की हद है।'
सेवा निवृत्त सिविल इंजीनियर गंगाधर शर्मा (जयपुर) ने लिखा- 'क्या हत्यारे नक्सलियों को इंस्पेक्टर की पत्नी सुनीता इंदूवार का करुण क्रन्दन सुनाई पड़ेगा? या फिर वे 14 वर्षीय उस बालक का आक्रोश सुनेंगे जिसने रोते हुए कहा- 'उन्होंने मेरे पापा को मारा, मैं भी बड़ा होकर उन्हें मारूंगा। या फिर गढ़चिरौली में 18 शहीद पुलिसकर्मियों की विधवाओं, बच्चों और परिजनों का आर्तनाद सुनेंगे, जिन्हें नक्सलियों ने गोलियों से भून दिया था। आखिर निर्दोष व्यक्तियों की हत्याएं करके नक्सली संगठन भारतीय व्यवस्था में कैसा बदलाव लाना चाहते हैं। क्या नक्सलियों और खूंखार आतंककारियों में कोई फर्क है?'
प्रिय पाठकगण!
झारखंड में इंस्पेक्टर इंदूवार की हत्या के दो दिन बाद ही महाराष्ट्र में नक्सलियों ने एक साथ 18 पुलिकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। देश के कई हिस्सों में पिछले दिनों नक्सलियों की खूनी वारदातें बढ़ रही हैं। पाठकों की राय में सरकार की ढुलमुल नीति के कारण ही नक्सलियों के हौसले बढ़ते जा रहे हैं। गृहमंत्री पी। चिदम्बरम ने इंदूवार की हत्या के तुरन्त बाद बयान दिया कि हम अपने ही लोगों (नक्सलियों) से युद्ध नहीं कर सकते। नक्सलियों ने गृहमंत्री की इस उदारता का जवाब अगले ही दिन 18 पुलिसकर्मियों की हत्या करके दिया। पाठकों का दृष्टिïकोण है कि केन्द्र सरकार व राज्य सरकारें और कितने बेकसूरों की हत्याओं का इंतजार कर रही हैं।

जोधपुर से गोपाल अरोड़ा ने लिखा- 'झारखंड और महाराष्टï्र में दो दिन के भीतर नक्सलियों के हमले में 19 पुलिसकर्मी शहीद हो गए। पिछले दस वर्र्षों में छह हजार से अधिक लोग नक्सली हमलों का शिकार हो चुके हैं। 15 राज्यों के 150 जिले इनके खौफ से भयभीत हैं। नक्सली भारत में नासूर बन चुके हैं। अगर अब भी सरकार नहीं चेती तो पड़ोसी देश में तालिबानियों ने जिस तरह अपना वर्चस्व स्थापित किया, नक्सलवादी पूरे भारत में अपना वर्चस्व कायम कर सकते हैं।'

अजमेर से दयानंद विश्वविद्यालय की छात्रा कु। प्रियंका माथुर के अनुसार- 'यह सही है कि नक्सली आमतौर पर पुलिसकर्मियों पर ही हमला बोलते हैं, लेकिन पुलिसवाले इनसान नहीं हैं क्या? उनके भी बीवी-बच्चे हैं।

पाली से रूपनारायण सोनी ने लिखा- 'नक्सली किसी के सगे नहीं है। वे दावा तो गरीबों की हिमायत का करते हैं, लेकिन उनके मकसद में जो भी बाधक होता है वे उसे रास्ते से हटा देते हैं।'
हनुमानगढ़ से दीपक बंसल ने लिखा- 'माओवादी नक्सलवादी संगठन अपनी राह से पूरी तरह से भटक गए हैं।' चेन्नई से मोहन एस। राघवन ने लिखा- 'हिंसा की बुनियाद पर बने किसी भी संगठन का लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई स्थान नहीं हो सकता। नक्सलियों को हिंसा के अलावा कुछ नहीं सूझता। वे मानवता के दुश्मन हैं।'

प्रिय पाठकगण! सही कहा है। हिंसा अपने आप में सबसे बड़ा गुनाह है। इसलिए हिंसा की राह पर चलने वाले संगठन और व्यक्तियों के प्रति सरकार को कोई नरमी नहीं बरतनी चाहिए- भले ही वे अपने देश के ही क्यों न हों।
रुखसाना को सलाम

29 सितंबर के अंक में प्रकाशित समाचार 'साहस नारी का' पर पाठकों के अनेक पत्र मिले हैं। जम्मू-कश्मीर के राजौरी जिले में लश्कर-ए-तैयबा के तीन दुर्दान्त आतंककारी एक घर में घुस आए थे। उनके हाथों में बंदूकें थी और वे परिवार के सदस्यों को ललकार रहे थे। इसी बीच 22 वर्षीय युवती रुखसाना ने अप्रतिम साहस का परिचय देते हुए आतंककारियों पर हमला बोल दिया। एक आतंककारी को रुखसाना ने कुल्हाड़ी के वार से मार गिराया। दो आतंककारी उल्टे पांव भाग छूटे। पूरे परिवार ने राहत की सांस ली।

अजमेर से जावेद खान, शमीम अख्तर, जयपुर से रक्षिता वर्मा, तन्वी जैन, रूपनारायण, अहमदाबाद से संतोष पारेख, श्रीगंगानगर से देवकीनंदन बंसल, उदयपुर से देवेन्द्र उपाध्याय के पत्रों का सार है कि अगर कश्मीर सहित देश के नागरिक रुखसाना जैसा हौसला अख्तियार कर ले तो देश में आतंकवाद का नामो-निशान नहीं बचेगा। कश्मीर की आम जनता अलगाववादियों और आतंकी संगठनों को पूरी तरह नकार चुकी है- यह बात तो विधानसभा चुनाव में कश्मीरी जनता की रिकॉर्ड भागीदारी से ही सिद्ध हो चुकी थी। लेकिन कश्मीर के लोग अब आतंककारियों को उनकी भाषा में ही जवाब देने लगे हैं- यह रुखसाना ने साबित कर दिया।
रुखसाना के साहस को पूरे देश का सलाम!

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चीन से सावधान!


चीन की ताजा घुसपैठ की घटना (पत्रिका 7 सितंबर) पर अनेक पाठकों की तीखी प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं। पाठकों ने चीन की भत्र्सना करते हुए भारत को उससे सावधान रहने की सलाह दी है। पाठकों के अनुसार चीनी घुसपैठ की घटनाओं को भारत सरकार हल्के में न लें तथा पूरी ताकत से जवाब दे।

प्रो। एस।सी। भटनागर (जयपुर) ने लिखा- 'चीन भारत की सीमा में दो कि.मी. भीतर घुस आया, लेकिन विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने कहा- घुसपैठ से चिन्तित होने की जरूरत नहीं। सरकारी रिपोर्ट खुलासा कर रही है (14 सितंबर अंक) कि चीन इंच-दर-इंच भारत की भूमि पर कब्जा कर रहा है, लेकिन राष्टï्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन इसे खतरा मानने की बजाय चीनी घुसपैठ को मीडिया में तूल देने को बड़ा खतरा बता रहे हैं। (20 सितंबर) चीन ने इस वर्ष अब तक पांचवीं बार सीमा का उल्लंघन किया है लेकिन विदेश सचिव निरुपमा राव चीनी घुसपैठ की घटनाओं में वृद्धि से इनकार कर रही हैं। आखिर ये क्या हो रहा है? क्या देश के नागरिक इतने नादान हैं कि वे पड़ोसी देश की गुस्ताखियों से अनभिज्ञ हैं! भारत से ज्यादा चीन को भला और कौन जानता है। हमारे शासक लीपापोती करने की बजाय चीन को कड़ा संदेश दे।'
राजस्थान विश्वविद्यालय के शोधार्थी राजेश श्रीवास्तव के अनुसार- 'भारत को अगर दुनिया में किसी से खतरा है तो वह चीन है। क्योंकि चीन अमरीका की जगह लेना चाहता है। इसमें वह भारत को अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानता है। भारत की विशाल जनसंख्या और भूभाग चीन के लिए चुनौती है। इसलिए वह ऐसी करतूतें करता रहता है जिससे भारत पर दबाव बना रहे।'

डॉ। धमेन्द्र चौधरी (अजमेर) के अनुसार- 'चीन का एजेण्डा सन्' 2050 तक अमरीका को पछाड़कर 'सुपर पावर' बनना है। इस रणनीति के तहत वह धीरे-धीरे कूटनीतिक तरीके से आगे बढ़ रहा है। हाल ही भारत के तवांग क्षेत्र में घुसपैठ चीन की इसी रणनीति का हिस्सा है।'

अहमदाबाद से दिव्या पुरोहित ने लिखा- 'चीन ने भारत की 43 हजार वर्ग किमी। जमीन पर कब्जा कर रखा है। सीमा के पास भारत की प्रहारक दूरी पर लगभग ढाई लाख सैनिक तैनात कर रखे हैं। हमारे अरुणाचल प्रदेश को वह भारत का हिस्सा मानने से इन्कार करता रहा है।'

अध्यापक प्रकाश श्रीमाली, उदयपुर ने लिखा- 'पं। जवाहरलाल नेहरू ने 1954 में चीन से समझौत करके तिब्बत पर उसका आधिपत्य स्वीकार करने की भारी भूल की थी। नेहरू जी के हिन्दी-चीनी भाई-भाई का जवाब चीन ने 1962 में भारत पर हमले के रूप में दिया। ऐसे दगाबाज दोस्त से हमेशा सावधान रहने की जरूरत है।'

बीकानेर से गिरधारी शर्मा ने लिखा- 'चीन ने किसी देश से दोस्ती नहीं निभाई। जिस तरह चीन ने पं। नेहरू को धोखा दिया, उसी तरह उसने इंडोनेशिया के राष्टï्रपति सुकार्णो को भी दगा दिया। मलाया, फिलीपीन्स, वियतनाम, जापान कोई भी देश चीन की करतूतों से नहीं बचा।''चीन अतीत में भी भारत से दुश्मनी रखता था और आज भी दुश्मनी रखता है।' यह प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नंदकिशोर कश्यप (कोटा) ने लिखा- 'अन्तरराष्टï्रीय मुद्रा कोष से भारत ने अरुणाचल के विकास के लिए दो अरब डॉलर का ऋण मांगा तो चीन ने बैठक में आपत्ति जताकर अड़ंगा लगा दिया। एन.एस.जी. (परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह) देशों की बैठकों में भी चीन भारत को परमाणु आपूर्ति का विरोध करता रहा है। संयुक्त राष्टï्र में सुरक्षा परिषद सदस्य के रूप में भारत की दावेदारी पर चीन को सदैव खुलकर आपत्ति रही है। चीन हमारे साथ कहीं भी दोस्ती नहीं निभा रहा। फिर भारत किस बात का संकोच करे।'

गोपाल अरोड़ा (जोधपुर) ने लिखा- 'भारतीय विदेश नीति के निर्माताओं को आंखें खोल देनी चाहिए इस तथ्य को समझने के लिए कि अन्तरराष्टï्रीय संबंधों का संचालन आदर्शवादी राजनीति से नहीं, बल्कि यथार्थपरक शक्ति राजनीति से होता है।'

उदयपुर से जीवन चन्द्र 'भारती' ने लिखा- 'ओलम्पिक मशाल के समक्ष तनिक विरोध प्रदर्शन भी चीन को बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने भारतीय राजदूत के मार्फत भारत सरकार को कड़ी फटकार लगाई जिससे हड़कम्प मच गया था। लेकिन हम सीमा उल्लंघन जैसे गंभीर मसले की भी अनदेखी कर रहे हैं- यह बहुत दुख की बात है।'

बंगलुरु से दीप बोथरा ने लिखा- 'कूटनीतिक तौर पर हमें चीन को यह संदेश देना चाहिए कि सीमा उल्लंघन की मामूली घटना को भी भारत बर्दाश्त नहीं करेगा। हमारी सेना सक्षम है। जरूरत राजनेताओं को सही समय पर सही बयान देने की है। संपादकीय (9 सितंबर) में ठीक लिखा कि राजनेता अपनी कमर सीधी रखें। भारतीय सेना ने आमने-सामने कई लड़ाइयां जीती हैं।'

प्रिय पाठकगण! यह युग परस्पर तनाव और युद्ध का नहीं है। खासकर तब, जब कई देश परमाणु शक्ति से सम्पन्न हैं। इस युग में शांति और भाइचारे की बातें होनी चाहिए। लेकिन यह विचार एकतरफा कभी फलीभूत नहीं हो सकता है। इसके लिए दोनों तरफ से प्रयास होने चाहिए।

स्वाभिमान से जीने का हक सभी को है। इसे किसी को भी नहीं भूलना चाहिए।

पाठक रीडर्स एडिटर को अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-
एसएमएस: baat 56969
फैक्स: ०१४१-2702418
पत्र: रीडर्स एडिटर,
राजस्थान पत्रिकाझालाना संस्थानिक क्षेत्र,
जयपुर

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