जयपुर के पाठक शान्तनु राजवंशी ने लिखा, 'उस दिन (10 नवम्बर) 'पत्रिका' के पहले पन्ने पर एक व्यक्ति को दूसरे पर घूसा तानते हुए फोटो देखा तो भ्रम हुआ, फोटो गलती से तो नहीं छप गई। लेकिन गौर से देखा तो माजरा समझ में आ गया। वो मुक्केबाजी का फोटो नहीं था। महाराष्ट्र विधानसभा में हिंदी में शपथ ग्रहण का फोटो था। हमला करने वाला कोई और नहीं महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का विधायक था। जिसे थप्पड़-घूसे मारे गए वो भी विधायक था और राष्ट्र-भाषा में शपथ ग्रहण कर रहा था। बाद में पता चला टीवी चैनलों पर यह दृश्य लाइव दिखाया गया था, जिसे पूरे देश ने देखा।'
पाठक ने आगे लिखा- 'पत्रिका' में प्रकाशित फोटो का शीर्षक 'सदन में गुण्डाराज', साथ में विस्तृत समाचार के अलावा गुलाब कोठारी का विशेष लेख 'विष वृक्ष' पढ़कर पूरी तस्वीर साफ हो गई। संपादकीय पृष्ठ पर हरवंश दीक्षित की टिप्पणी ने संवैधानिक पक्ष रखा। इस शर्मनाक राष्ट्रीय घटना केसभी पहलुओं का सार्थक प्रस्तुतीकरण देखने को मिला। मेरे जैसे एक आम हिन्दुस्तानी के जेहन में भाषा और प्रांतवाद को लेकर जो सवाल उठे उनका समाधान अखबार की सामग्री से हुआ। सूचना और शिक्षण-मीडिया की यही वास्तविक भूमिका है।'
डॉ.अपूर्वा कौशिक (अजमेर) ने लिखा- 'मनसे और शिवसेना में इन दिनों जंग छिड़ी हुई है कि कौन ज्यादा कट्टर और संकीर्ण है। इसमें कभी मनसे तो कभी शिवसेना का पलड़ा भारी लगता है। विधानसभा में विधायक पर हमला करने के बाद राज ठाकरे को जो सुर्खियां मिल रही थीं, उसे बाल ठाकरे हजम नहीं कर पाए और सचिन तेंदुलकर जैसे कद्दावर खिलाड़ी को ही निशाना बना बैठे। अब बाल ठाकरे सुर्खियां बटोरने लगे तो राज ठाकरे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को धमका कर फिर चर्चा में आ गए। शिवसेना क्यों पीछे रहती। उसने एक न्यूज चैनल के मुंबई व पुणे के दफ्तरों पर हमला बोल कर सुर्खियां बटोर लीं।'
अहमदाबाद से रोशन चन्द्रा ने लिखा- 'महाराष्ट्र के मतदाताओं ने लगातार तीसरी बार शिवसेना को ठुकराया। मनसे को भी मात्र तेरह सीटें मिलीं। अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए दोनों दल घिनौना खेल खेल रहे हैं। मीडिया को इन्हें तवज्जो नहीं देनी चाहिए।'
अलका माहेश्वरी, बेंगलुरू ने लिखा- 'मनसे और शिवसेना की बातों पर ध्यान मत दो। उनकी चर्चा मत करो। उन्हें तूल मत दो, उपेक्षा करो। देखो कैसे ठिकाने लगते हैं।'
प्रिय पाठकगण! पिछले दिनों महाराष्ट्र में शिवसेना और उसी से उपजी महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के जो क्रिया-कलाप सामने आए उन पर सैकड़ों पाठकों की प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं। पाठकों ने खासकर मनसे के उग्र हिंदी-विरोध, बाल ठाकरे की तेंदुलकर को नसीहत और आईबीएन- लोकमत न्यूज चैनल पर शिव सैनिकों के हमलों को लेकर तीखे तेवर अपनाए हैं। पाठकों की प्रतिक्रियाओं को इन क्षेत्रीय दलों की संकीर्ण राजनीतिक कार्यशैली पर नागरिकों की राय की एक बानगी के तौर पर देखा जा सकता है।
जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर, के छात्र विवेक माथुर के अनुसार- 'महाराष्ट्र विधानसभा में एक विधायक को हिंदी में शपथ लेने पर पीटने वाले यह क्यों भूल गए कि एक मराठी भाषी डॉ। भीमराव अम्बेडकर ने ही इस देश का संविधान लिखते समय देशवासियों को बताया था कि इस देश की राष्ट्रभाषा हिंदी है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इसी महाराष्ट्र में हिंदी में अखबार शुरू किया था। हिंदी को समृद्ध करने वाले काका कालेलकर को कौन नहीं जानता।'
अपूर्वा व्यवहारे (उदयपुर) के अनुसार- 'हिंदी कोई मुद्दा है ही नहीं। न शिवसेना और न ही मनसे का मराठी से कोई लगाव है। इन्हें तो अपनी राजनीति चमकानी है।'
श्रीगंगानगर से कुलविन्द सिंह ने लिखा- राज ठाकरे ने महाराष्ट्र के सभी 288 नवनिर्वाचित विधायकों को पत्र लिखकर धमकाया कि मराठी में शपथ नहीं लेने वाले विधायक से निपट लिया जाएगा। और कमाल की बात कि उन्होंने कर भी दिखाया उनके आदेश की नाफरमानी करने वाले विधायक को पिटवाकर। यह तो इंडिया में ही संभव है।'
निशि परमार (राजस्थान विश्वविद्यालय) ने लिखा- 'मुंबई पूरे भारत की है, यह कहकर सचिन ने क्या गलत किया कि बाल ठाकरे ने उन्हें चुप रहने की नसीहत दे डाली।'
कोटा से सतीश जैन ने लिखा- 'हार से शिवसेना इतनी कुंठित हो चुकी है कि उसने एक मराठी चैनल पर ही हमला बोल दिया। अगर ठाकरे साहब अपने अखबार 'सामना' में अपने विचार अभिव्यक्त कर सकते हैं तो चैनल क्यों नहीं। अभिव्यक्ति की आजादी जितनी 'सामना' को है उतनी अन्य अखबारों और चैनलों को भी है।'
नागौर से रवीन्द्र शर्मा ने लिखा- 'मुंबई पर हमला करने वाले आतंककारी कसाब को अभी तक हम सजा नहीं दिला पाए हैं। 26 नवम्बर की वह काली रात फिर नजदीक है। पूरा देश आतंकवाद से जूझ रहा है और हम भाषा और प्रान्त के संकीर्ण मुद्दे उठाकर राष्ट्रीय एकता की चिन्दी-चिन्दी बिखेर रहे हैं। शिवसेना हो या मनसे या फिर कोई भी राजनीतिक दल जो संकीर्णता के घेरे में कैद है, उन्हें हम सब भारतीय मिलकर 'मुक्ति' दिला दें तो अच्छा होगा।
पाठकों की प्रतिक्रियाओं का सार है कि संकीर्ण राजनीति करने वाले दल और नेताओं को सबक सिखाया जाना चाहिए। अनेक पाठकों की राय है कि ऐसे दलों की मीडिया कवरेज बंद होनी चाहिए। प्रिय पाठकगण! कवरेज बंद करना इस समस्या का समाधान नहीं है। वे क्या बोलते हैं, क्या सोचते हैं, क्या करते हैं इसका पता पूरे देश को चलना चाहिए। अन्यथा उनकी राजनीति देश के लिए घातक है या फायदेमंद- इसका फैसला कौन करेगा।
पाठक अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-
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एसएमएस: baat 56969
फैक्स:०१४१-2702418
पत्र: रीडर्स एडिटर,
राजस्थान पत्रिका झालाना संस्थानिक क्षेत्र,
जयपुर
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