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परमाणु ऊर्जा पर प्रश्र चिन्ह





भोपाल से डॉ. सूर्यकान्त जायसवाल ने लिखा- 'जिस परमाणु ऊर्जा के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार को दांव पर लगा दिया था। जिस परमाणु ऊर्जा के लिए उन्हें अपनी सरकार बचाने के लिए 'नोट के बदले वोट' का आरोप झेलना पड़ा जो आज भी संप्रग सरकार का पीछा नहीं छोड़ रहा। वह परमाणु ऊर्जा आज इस कदर सवालों से घिरी हुई है कि किसी को जवाब देते नहीं सूझ रहा है।'
  बेंगलूरु से प्रसून माहेश्वरी ने लिखा- 'फुकुशिमा की घटना के बाद परमाणु बिजलीघर लगाने की होड़ में दौड़ रहे सभी राष्ट्र आज तो सहमे हुए हैं। लेकिन सवाल यह है कि कहीं यह 'श्मशानिया वैराग्य' तो नहीं? विंडस्केल से लेकर थ्री माइल्स आइलैण्ड, चेर्नोबिल, तोकाइमूरा और फुकुशिमा तक हुई परमाणु बिजलीघरों की त्रासदियों ने विश्व को झकझोर दिया था। लेकिन हर बार इन दुर्घटनाओं को भुला दिया गया। परमाणु संयंत्रों का विस्तार चालू रहा।'
 प्रिय पाठकगण! जापान की फुकुशिमा घटना के बाद विश्व में परमाणु ऊर्जा के खिलाफ बन रहे माहौल के बीच पाठकों ने कुछ सवाल उठाएं हैं।

  •  क्या परमाणु बिजलीघरों को बंद कर दिया जाना चाहिए?
  •  क्या परमाणु संयंत्रों के विस्तार का कार्यक्रम पूरी दुनिया में रोक दिया जाना चाहिए?
  •  परमाणु शक्ति के घातक विनाश से मानवता को कैसे बचाया जा सकता है?

पाठकों ने प्रतिक्रियाओं में इन प्रश्नों पर अपनी राय प्रकट की है। कई पाठकों ने परमाणु ऊर्जा की उपयोगिता और विकास में भूमिका पर भी तार्किक मत प्रकट किए हैं।
इंदौर से यशवंत भिड़े ने लिखा- 'अमरीका में पिछले 30 सालों से परमाणु ऊर्जा का विस्तार बंद था। लेकिन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने परमाणु बिजलीघरों के निर्माण को प्रोत्साहन देने की नई नीति शुरू कर दी। उन्हें लगता है कि परमाणु ऊर्जा की वजह से अमरीका अपने विकास कार्यक्रमों में कटौती किए बिना ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम कर सकता है। ओबामा की इस नीति का विरोध अब अमरीका में उनकी अपनी डेमोक्रेटिक पार्टी में भी होने लगा है।'
जया कुलश्रेष्ठ (जयपुर) ने लिखा- 'परमाणु ऊर्जा समर्थकों की दलील है कि इससे प्रदूषण नहीं फैलता। लेकिन रेडिएशन का खतरा प्रदूषण से हजार गुना घातक है। दुष्परिणाम पीढि़यों तक भुगतना पड़ता है।'
कोलकाता से यामिनी नायर ने लिखा- 'आखिर परमाणु बिजलीघर बंद क्यों नहीं कर दिए जाएं? इन बिजलीघरों से हमें मिल क्या रहा है! दुनिया की सिर्फ 14 प्रतिशत बिजली! 30 देशों के 443 परमाणु रिएक्टरों से सिर्फ 14 प्रतिशत बिजली और वह भी भारी-भरकम खर्च और जोखिम उठाकर। भारत को तो 2.5 फीसदी बिजली भी नहीं मिल रही है।'
इसके विपरीत वड़ोदरा से सुभाष शाह ने लिखा- 'भारत में ऊर्जा की आवश्यकता लगातार बढ़ रही है। भारत को विशाल पैमाने पर ऊर्जा की जरूरत है। पानी और कोयला सीमित मात्रा में है। विकास का सारा ढांचा ऊर्जा पर निर्भर है। परमाणु ऊर्जा के सिवाय हमारे पास विकल्प ही क्या है। परमाणु ऊर्जा विस्तार कार्यक्रम को रोकने का मतलब विकास को ठप करना है।'
जबलपुर से निर्मल शुक्ला ने लिखा- 'परमाणु संयंत्रों में आबादी के लिहाज से छोटे देशों जैसे फ्रांस, जापान, दक्षिण कोरिया से भारत बहुत पीछे है। परमाणु संयंत्र 10 शीर्ष राष्ट्रों में भारत का सातवां नम्बर है। जबकि भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की दूसरी तेज रफ्तार वाली अर्थव्यवस्था है। भारत को अगर तेज रफ्तार से आगे बढ़ना है तो परमाणु संयंत्रों का विस्तार करना ही होगा।'
कोटा से गौतम रॉ ने लिखा- 'जो लोग सीमित ऊर्जा स्रोतों की दलील देकर भारत में परमाणु ऊर्जा की वकालत कर रहे हैं उन्हें भारत की सौर और पवन ऊर्जा की शक्ति का एहसास नहीं है। भारत की भौगोलिक स्थिति के मद्देनजर 4500 ट्रिलियन किलोवाट शुद्ध सौर ऊर्जा प्राप्त हो सकती है। यहां औसतन सालाना 300 स्वच्छ सूर्य-दिवस  (Clear Sunny days) आते हैं। 1500 से 2000 'सनशाइन अवर्स' कुछ हिस्से को छोड़कर भारत के पूरे क्षेत्र को उपलब्ध है। पवन-ऊर्जा में भारत को विश्व में लीडर माना जाता है।'
बीकानेर से डॉ. विजय भार्गव ने लिखा- 'परमाणु बिजलीघरों को बंद करने से कुछ हासिल नहीं होगा। जरूरत सुरक्षा उपायों को मजबूत करने की है।'
अहमदाबाद से देवे कात्याल ने लिखा- 'फुकुशिमा के बाद चीन, जर्मनी, फ्रांस, रूस आदि देशों ने अपने परमाणु संयंत्रों को लेकर जो घोषणाएं की हैं, वे दिखावटी हैं। ये देश परमाणु बिजलीघर लगाने का अपना कोई कार्यक्रम रद्द नहीं करेंगे।'
जोधपुर से पी.सी. जोशी ने लिखा- 'अगर सभी परमाणु देश गंभीर हैं तो वे नए सिरे से एक संयुक्त समझोता करें कि वे अपने-अपने देशों में नए लगने वाले सभी संयंत्रों पर रोक लगा देंगे। इस समझोते की 20 वर्ष से पूर्व किसी भी तरह की समीक्षा पर पाबंदी होनी चाहिए।'
कपिल गौतम (उदयपुर) ने लिखा- 'पृथ्वी पर जीवन किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा से समूल नष्ट हो सकता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी 'प्रलय' की परिकल्पना है।
परन्तु प्रलय को जब इंसान स्वयं आमंत्रित करे तो महाविनाश को कौन रोक सकता है। चाहे परमाणु
हथियार हों या फिर संयंत्र। यही समय है जब हम विकास और विनाश की अवधारणाओं को बारीकी से समझे।



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बेदाग हो छवि


इंदौर से श्याम नारायण निगम ने लिखा- 'सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मेरा अनुमान पुख्ता यकीन में बदलता जा रहा है। मेरे जेहन में यह सवाल था कि आखिर सरकार ने एक दागी व्यक्ति को देश का केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) बनाया ही क्यों था? जरूर इनमें से कोई एक वजह रही होगी-
  1.  सरकार पी.जे. थॉमस को उपकृत करना चाहती थी?
  2.  या उसकी कोई राजनीतिक मजबूरी थी?
  3. या फिर सरकार की सोची-समझी रणनीति थी?
थॉमस पर सरकार की मेहरबानी की मुझे कोई खास वजह नजर नहीं आती। वह पामोलिन घोटाले में फंसे थे। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज भी उनकी नियुक्ति के विरोध में थीं। गठबंधन राजनीति की कोई मजबूरी भी सामने नहीं आई। न ही थॉमस की नियुक्ति में करुणानिधि का कोई दबाव नजर आया। फिर क्यों एक शक्तिशाली पद पर ऐसे व्यक्ति को बिठा दिया जो सरकार की फजीहत का सबसे बड़ा कारण बन गया। सरकार की दलीलें और मीडिया में उजागर हुए तथ्यों से यह साफ लगता है कि पी.जे. थॉमस की सीवीसी पद पर नियुक्ति सरकार की एक सोची-समझी रणनीति थी। घोटालों से घिरती सरकार के लिए शायद थॉमस सबसे उपयुक्त व्यक्ति थे। आखिर एक दागी व्यक्ति ही दूसरे दागी को बचा सकता है। लेकिन हाय! सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया! अब कुछ नहीं हो सकता। काठ की हांडी दुबारा आंच पर नहीं चढ़ सकती।'
  प्रिय पाठकगण! आप जानते हैं, देश में भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने के लिए केंद्रीय सतर्कता आयोग गठित है। पूर्व में आयोग ने भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर किए हैं। लेकिन पी.जे. थॉमस की नियुक्ति के बाद इस संवैधानिक संस्था पर अंगुलियां  उठीं और मामला सर्वोच्च अदालत में गया। अदालत ने पिछले दिनों अपने फैसले में थॉमस की नियुक्ति को अवैध ठहराया। इससे पहले सरकार थॉमस की नियुक्ति को उचित बताते हुए लगातार उनका बचाव कर रही थी। बल्कि न्यायपालिका को प्रशासनिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करने की सलाह भी दे रही थी। इस सारे प्रकरण पर पाठकों की क्या प्रतिक्रिया है, आइए जानते हैं।
जयपुर से हिमांशु थपलियाल ने लिखा- 'भ्रष्टाचार के मामलों को सामने लाने में पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्तों ने शानदार भूमिका निबाही थी। एन. विट्ठल ने चार हजार से अधिक भ्रष्ट आईएएस, आईपीएस अफसरों तथा कई बड़े राजनेताओं के नाम आयोग की वेबसाइट पर डालकर भूचाल ला दिया था। उनके बाद आए मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रत्यूष सिन्हा ने कॉमनवैल्थ खेलों में घोटालों की परतें उधेड़ कर रख दी थीं। लेकिन पी.जे. थॉमस की नियुक्ति के बाद आयोग का रुतबा फीका पड़ गया।'
कोटा से मीता श्रीवास्तव ने लिखा- 'सामाजिक संस्था सेंटर फॉर लिटीगेशन' जिसमें पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे.एम. लिंगदोह सहित देश की नामी शख्सियतें शामिल हैं, ने अगर थॉमस की नियुक्ति को अदालत में चुनौती नहीं दी होती तो वे शायद आयोग में मजे से बैठकर भ्रष्टाचारियों को क्लीन चिट दे रहे होते।'
जबलपुर से गौतम रस्तौगी ने लिखा- 'अफसोस कि सरकार ने उस व्यक्ति को भ्रष्टाचारियों पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया जो खुद भ्रष्टाचार के आरोप से घिरा था। इससे भी ज्यादा अफसोस इस बात का है कि उसकी नियुक्ति ऐसे प्रधानमंत्री के हाथों से हुई जो अपनी बेदाग और स्वच्छ छवि के लिए जाने जाते हैं।'
बेंगलुरू से रमेश एस. राजपुरोहित ने लिखा- 'थॉमस प्रकरण में प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि भी धूमिल हुई है। वे यही कहते रहे कि थॉमस पर आरोप की उन्हें जानकारी नहीं थी। लेकिन मीडिया में हाल ही जिन तीन आधिकारिक पत्रों की खबरें छपी हैं, वे सच्चाई बयान करने के लिए काफी है। इनमें एक पत्र कार्मिक विभाग द्वारा 2008 में तथा दो पत्र केरल सरकार ने 2006 व 2008 में केंद्र को भेजे थे। इनमें थॉमस के खिलाफ मामले की जानकारी दी गई थी। केरल के मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंद ने भी यही बात कही है।'
भोपाल से सौम्य देवसिंह ने लिखा- 'शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में यही कहा कि मुख्य सतर्कता आयुक्त की छवि बेदाग होनी चाहिए। सीवीसी की नियुक्ति के लिए बने कानून में भी यही बात लिखी है। इसलिए सरकार यह मानते हुए भी कि थॉमस ने पामोलिन घोटाला नहीं किया, उन्हें सीवीसी नहीं बना सकती थी। क्योंकि उन पर आरोप था और वे दोषमुक्त नहीं किए गए थे।'
बीकानेर से कैलाश भटनागर ने लिखा- 'पी.जे. थॉमस पर केवल पामोलिन ऑयल घोटाले का मुकदमा ही नहीं चल रहा बल्कि उन पर टेलीकॉम सचिव के तौर पर २ जी स्पैक्ट्रम घोटाले में ए.राजा की मदद करने का आरोप भी है। इस घोटाले की पोल अब काफी हद तक खुल चुकी है।'
जोधपुर से श्रीगोपाल सोनी ने लिखा- 'जाने-माने पत्रकार राम बहादुर राय ने सही लिखा (पत्रिका: ४ मार्च) कि अदालत ने थॉमस की हेकड़ी निकाल दी। शीर्ष अदालत की तीखी टिप्पणियों के बावजूद थॉमस अड़े रहे। उन्हें नियुक्त करने वाली सरकार की किरकिरी होती रही, लेकिन उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। वे संवैधानिक पद पर बैठे एक सर्वशक्तिमान हस्ती बनकर इठला रहे थे। इस्तीफा अभी भी उन्होंने नहीं दिया। लेकिन उन्हें अब जाना ही होगा- बे-आबरु होकर।'
अजमेर से दयालचंद्र मीरचंदानी ने लिखा- 'लोकतंत्र में पद, सत्ता और ताकत का नहीं, उत्तरदायित्व का प्रतीक है। लेकिन कई लोग सत्ता के नशे में होश खो बैठते हैं। सुखद बात है कि उन्हें होश में लाने के लिए हमारे पास न्यायपालिका और मीडिया जैसा तंत्र मौजूद है।'

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