टिप्पणी
राज्य सरकार जयपुर के अमानीशाह नाले के बहाव क्षेत्र में आ रही जमीन का मालिकाना हक निरस्त करेगी। इस क्षेत्र में आ रही निजी खातेदारों की जमीन चिक्षित करके पहली सूची जिला कलक्टर को भेज दी गई है। अब कलक्टर यह सूची राजस्व न्यायालय में पेश करेंगे। यानी शहर से गुजर रहे 40 किमी लम्बे नाले के बहाव-क्षेत्र में अवरोधों को दूर करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। देखने पर यह सारी कार्रवाई जयपुर विकास प्राधिकरण के काबिल अफसरों की लगती है। नौकरशाही को कितनी चिन्ता है प्राकृतिक नदी-नालों की! पर्यावरण की और नगर के संतुलित विकास की! लेकिन हकीकत शायद हर शहरवासी जानता है।
राजस्थान हाईकोर्ट के सख्त आदेश और बार-बार लगाई गई फटकार के बिना क्या इन अफसरों के कानों में जूं तक रेंगती? कोर्ट की सक्रियता और अवमानना से घबराए अफसरों के पास और कोई चारा भी नहीं बचा था। शुक्र है, प्राकृतिक जलाशयों और पर्यावरण पर माननीय न्यायालय की नजर है वरना जेडीए अफसर पूरे अमानीशाह नाले को ही बेच डालते। जिस तरह भू-राजस्व कानून की धज्जियां उड़ाते हुए नाले के बहाव क्षेत्र में जमीनों के आवंटन किए गए उससे सरकारी अफसरों ने भले ही अपनी जेबें गरम कर ली, लेकिन पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य के साथ भयानक खिलवाड़ हुआ। नाले के जहरीले पानी में लगाई गई सब्जियां शहरवासियों के पेट में लम्बे समय से जहर घोल रही हैं। संभवत: इसीलिए हाईकोर्ट द्वारा नियुक्त कमिश्नरों ने भी अपनी रिपोर्ट में बहाव क्षेत्र की खातेदारी खत्म करने की जरूरत बताई। हाईकोर्ट तो बहुत पहले ही नदी-नालों, बांध, तालाब आदि सभी जलाशयों के बहाव क्षेत्रों में अतिक्रमण, अवैध निर्माण तथा 1955 के भू-राजस्व कानून के विरुद्ध किए गए आवंटनों को निरस्त करने के आदेश दे चुका है। लेकिन संबंधित अधिकारी कानों में तेल डालकर लोगों को लूटते रहे। सरकार आंखों पर पट्टी बांधकर बैठी रही। सरकार का यही रवैया राज्य में अधिकांश प्राकृतिक जलाशयों को सूखने के कगार तक पहुंचाने के लिए जिम्मेदार है।
रामगढ़ बांध का हाल सबके सामने है। रामगढ़ ही क्यों राज्य की कई झाीलों-तालाबों का यही हाल है जो लालची अफसरों और राजनेताओं की मिलीभगत का नतीजा है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्य भी इस 'बीमारी' से मुक्त नहीं हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट तक के स्पष्ट निर्देश हैं कि जलाशयों के प्राकृतिक प्रवाह में किसी तरह का अवरोध नहीं होना चाहिए। राज्य हाईकोर्ट अपने आदेश में जलस्रोतों की जमीन का आवंटन रोकने की स्पष्ट हिदायत दे चुका है। कोर्ट यह तक कह चुका है कि अदालती आदेश के विपरीत आवंटन होने पर दोषी अधिकारी व लाभार्थी दोनों को बक्शा न जाए। ऐसे में जेडीए का जमीन आवंटन निरस्त करने का यह फैसला तब तक अधूरा है, जब तक कि अवैध आवंटन के जिम्मेदार अधिकारी को भी सजा नहीं मिले।
आवंटन निरस्त होने पर खातेदार को तो सजा मिल ही जाएगी, लेकिन अफसर खुले घूमते रहेंगे, यह नहीं चलेगा। भले ही अफसर रिटायर हो चुका हो, उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। इसलिए ऐसे सभी अफसरों की सूची सार्वजनिक की जानी चाहिए। अगर अफसर किसी नेता या मंत्री का नाम ले तो उसे भी सजा के दायरे में शामिल करना चाहिए। दो राय नहीं कि कई मामलों में नेताओं और मंत्रियों की अफसरों से मिलीभगत होगी। फिर भी आदेश करने वाला अफसर अगर सीधे जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा और उसे सजा नहीं मिलेगी तो यह घृणित गठजोड़ कभी टूट नहीं पाएगा।
राज्य सरकार जयपुर के अमानीशाह नाले के बहाव क्षेत्र में आ रही जमीन का मालिकाना हक निरस्त करेगी। इस क्षेत्र में आ रही निजी खातेदारों की जमीन चिक्षित करके पहली सूची जिला कलक्टर को भेज दी गई है। अब कलक्टर यह सूची राजस्व न्यायालय में पेश करेंगे। यानी शहर से गुजर रहे 40 किमी लम्बे नाले के बहाव-क्षेत्र में अवरोधों को दूर करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। देखने पर यह सारी कार्रवाई जयपुर विकास प्राधिकरण के काबिल अफसरों की लगती है। नौकरशाही को कितनी चिन्ता है प्राकृतिक नदी-नालों की! पर्यावरण की और नगर के संतुलित विकास की! लेकिन हकीकत शायद हर शहरवासी जानता है।
राजस्थान हाईकोर्ट के सख्त आदेश और बार-बार लगाई गई फटकार के बिना क्या इन अफसरों के कानों में जूं तक रेंगती? कोर्ट की सक्रियता और अवमानना से घबराए अफसरों के पास और कोई चारा भी नहीं बचा था। शुक्र है, प्राकृतिक जलाशयों और पर्यावरण पर माननीय न्यायालय की नजर है वरना जेडीए अफसर पूरे अमानीशाह नाले को ही बेच डालते। जिस तरह भू-राजस्व कानून की धज्जियां उड़ाते हुए नाले के बहाव क्षेत्र में जमीनों के आवंटन किए गए उससे सरकारी अफसरों ने भले ही अपनी जेबें गरम कर ली, लेकिन पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य के साथ भयानक खिलवाड़ हुआ। नाले के जहरीले पानी में लगाई गई सब्जियां शहरवासियों के पेट में लम्बे समय से जहर घोल रही हैं। संभवत: इसीलिए हाईकोर्ट द्वारा नियुक्त कमिश्नरों ने भी अपनी रिपोर्ट में बहाव क्षेत्र की खातेदारी खत्म करने की जरूरत बताई। हाईकोर्ट तो बहुत पहले ही नदी-नालों, बांध, तालाब आदि सभी जलाशयों के बहाव क्षेत्रों में अतिक्रमण, अवैध निर्माण तथा 1955 के भू-राजस्व कानून के विरुद्ध किए गए आवंटनों को निरस्त करने के आदेश दे चुका है। लेकिन संबंधित अधिकारी कानों में तेल डालकर लोगों को लूटते रहे। सरकार आंखों पर पट्टी बांधकर बैठी रही। सरकार का यही रवैया राज्य में अधिकांश प्राकृतिक जलाशयों को सूखने के कगार तक पहुंचाने के लिए जिम्मेदार है।
रामगढ़ बांध का हाल सबके सामने है। रामगढ़ ही क्यों राज्य की कई झाीलों-तालाबों का यही हाल है जो लालची अफसरों और राजनेताओं की मिलीभगत का नतीजा है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्य भी इस 'बीमारी' से मुक्त नहीं हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट तक के स्पष्ट निर्देश हैं कि जलाशयों के प्राकृतिक प्रवाह में किसी तरह का अवरोध नहीं होना चाहिए। राज्य हाईकोर्ट अपने आदेश में जलस्रोतों की जमीन का आवंटन रोकने की स्पष्ट हिदायत दे चुका है। कोर्ट यह तक कह चुका है कि अदालती आदेश के विपरीत आवंटन होने पर दोषी अधिकारी व लाभार्थी दोनों को बक्शा न जाए। ऐसे में जेडीए का जमीन आवंटन निरस्त करने का यह फैसला तब तक अधूरा है, जब तक कि अवैध आवंटन के जिम्मेदार अधिकारी को भी सजा नहीं मिले।
आवंटन निरस्त होने पर खातेदार को तो सजा मिल ही जाएगी, लेकिन अफसर खुले घूमते रहेंगे, यह नहीं चलेगा। भले ही अफसर रिटायर हो चुका हो, उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। इसलिए ऐसे सभी अफसरों की सूची सार्वजनिक की जानी चाहिए। अगर अफसर किसी नेता या मंत्री का नाम ले तो उसे भी सजा के दायरे में शामिल करना चाहिए। दो राय नहीं कि कई मामलों में नेताओं और मंत्रियों की अफसरों से मिलीभगत होगी। फिर भी आदेश करने वाला अफसर अगर सीधे जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा और उसे सजा नहीं मिलेगी तो यह घृणित गठजोड़ कभी टूट नहीं पाएगा।
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