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भूमिपुत्र का दर्द

जबलपुर से प्रशांत एस. सब्बरवाल ने लिखा- 'मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा है कि किसान आत्महत्या जैसा कदम उठाने को क्यों मजबूर है? राज्य में पिछले डेढ़ माह में करीब डेढ़ दर्जन से अधिक किसानों ने जान दी है। (पत्रिका: 29 जनवरी) इस मामले में दायर जनहित याचिका पर कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस जारी कर चार सप्ताह में जवाब देने को कहा है। जाहिर है, कर्ज से पीडि़त किसानों की आत्महत्याओं के मामले में सरकार अब कठघरे में खड़ी है। मुख्यमंत्री की ओर से की गई मुआवजे की घोषणाएं थोथी निकलीं। किसानों को कोई राहत नहीं मिली। 'भूमिपुत्र' आज हाशिए पर हैं। उसका दर्द कोई नहीं समझ रहा। 1997 से लेकर आज तक देश में करीब सवा दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। दुख से जब सीना छलनी हो जाता है, तभी कोई ऐसा कदम उठाता है। उपाय सरकारों के पास हैं, लेकिन सरकारें निष्ठुर हैं। न्यायालय के नोटिस से शायद वे पिघलें।'
इंदौर से रवीन्द्र पुष्करणा ने लिखा- 'चर्वाक का कर्ज लेकर घी पीने का कथन अगर किसानों की मौत का कारण बनता तो कुछ और बात थी, किन्तु किसान तो कर्ज लेकर खेत खोदता है, अन्न उपजाने के लिए। अन्न, जो देश का पेट भरता है। इतना ज्यादा कि गोदामों में पड़ा सड़ता है। फिर भी वो आत्महत्या के लिए मजबूर है तो जरूर कोई संगीन बात है। तह में जाने की जरूरत है।'
प्रिय पाठकगण! किसानों की आत्महत्या की घटनाएं पिछले लंबे समय से सिलसिलेवार घटित हो रही हैं। खासकर महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों में किसानों ने भारी संख्या में कर्ज से पीडि़त होकर या फसल बर्बाद होने पर आत्महत्याएं की हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 1997 से 2009 के बीच देश में 2,16,500 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। निश्चय ही ये आंकड़े भयावह हैं। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के ताजा नोटिस के परिप्रेक्ष्य में पाठकों की प्रतिक्रियाओं पर गौर करना चाहिए।
भोपाल से तनवीर अहमद ने लिखा- 'मध्यप्रदेश में कर्ज के बोझ तले दबे किसान पिछले लंबे समय से मौत को गले लगा रहे हैं, लेकिन किसी भी सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े इस बात का जीता-जागता प्रमाण हैं। ब्यूरो के मुताबिक 1997 में (मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़) 2390 किसानों ने आत्महत्या की वहीं 2008 में यह संख्या बढ़कर 3152 हो गई। इसके बाद भी मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या करने की प्रवृत्ति में इजाफा ही हुआ है। यह इसी से पता चलता है कि पिछले डेढ़ माह में ही मध्यप्रदेश में डेढ़ दर्जन से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं- सरकार यह अच्छी तरह से जानती है इसलिए अदालत में उसे सारे तथ्य सही तरीके से रखने चाहिए।'
उदयपुर से नवीन कुमार मित्तल ने लिखा- 'कमोबेश पूरे देश के किसानों की हालत एक जैसी है। राजस्थान के हालात भी कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। राज्य में ग्रामीण क्षेत्रों में 83 प्रतिशत परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं। दो साल पहले एक रिपोर्ट में बताया गया था कि राज्य के हर ग्रामीण परिवार पर औसतन ५५ हजार रुपए का कर्ज है। राज्य में 30 लाख ग्रामीण परिवार कर्जदार हैं। इनमें 34 प्रतिशत किसानों ने तो ऊंची ब्याज दरों पर निजी सूदखोरों से ऋण ले रखे हैं। ये आंकड़े राज्य में भी विदर्भ जैसे हालात उत्पन्न कर सकते हैं।'
जयपुर से डॉ. अशोक चक्रपाणि ने लिखा- 'भारत में किसानों की संख्या लगातार घट रही है, लेकिन आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या बढ़ रही है। इससे हमारी अर्थव्यवस्था में खेती की उपेक्षा का अंदाजा लगाया जा सकता है। भारत जैसे देश में कृषि क्षेत्र को समृद्ध बनाए बिना अर्थव्यवस्था में स्थायी मजबूती की कल्पना ही नहीं की जा सकती।'
कोटा से रामदेव आहूजा ने लिखा- 'किसानों की गरीबी का मुख्य कारण उन्हें अपनी फसलों की सही कीमत नहीं मिलना है। राष्ट्रीय किसान आयोग भी यह स्वीकार कर चुका है। आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया कि अधिकांश राज्यों में किसानों को धान और गेहूं का उत्पादन लागत से भी कम न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है। यही हाल दुग्ध व्यवसाय का है। भारत विश्व में एकमात्र देश है जहां दूध की कीमत किसी ब्रांडेड कम्पनी के पानी से भी कम है।'
बीकानेर से श्याम मनोहर शर्मा ने लिखा- 'सरकारें अक्सर लगान, फसली ऋण या ब्याज माफ करने की घोषणाएं करती हैं। कई तरह के अनुदान और छूटें देती है। कृषि विकास के लिए करोड़ों-अरबों रुपए की योजनाएं बनाती हैं। इस सबके बावजूद आज का किसान पिछड़ा हुआ और दुखी क्यों है? जबकि एक समय था जब राज्य का खजाना खेती-किसानी के राजस्व से ही भरता था। जिसके आधार पर शासकों ने ताजमहल जैसे अजूबे खड़े कर दिए। बड़े-बड़े सैनिक अभियान और युद्ध लड़े। आज हालत यह है कि जिस देश में 63 प्रतिशत लोग खेती पर आश्रित हैं, वहां सकल घरेलू उत्पाद में खेती का योगदान 55 प्रतिशत से गिरकर सिर्फ 17प्रतिशत रह गया है। क्या पूंजीवाद हमारी कृषि व्यवस्था को चौपट करता जा रहा है?'
अजमेर से कैलाश चौधरी तथा जोधपुर से प्रेमशंकर प्रजापत के पत्रों का सार है कि बाजार की शक्तियों से भ्रमित होकर आज का किसान कर्ज के दुष्चक्र में फंस रहा है। वह क्या बोएगा, यह स्थानीय परिस्थिति और जरूरत की बजाय बाजार तय कर रहा है। महंगी खाद और रासायनिक उर्वरक उसकी उपजाऊ जमीन को बंजर कर रहे हैं। इस दुष्चक्र से किसानों को निकालने की जरूरत है।

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1 comments:

sctiwari said...

bhumi bhumi me basanewala jan aur jan ki sanskriti se rashtra ka nirman hota hai. desh ke jan aur sanskriti ka aaj hal kya hai chhupa nahin hai,swatantrata prapti se hi bhumiputra ki bhalai yani kheti ki unnati ki wah ruprekha ,yojana nahin banayigayi jitna audyogikaran ka dhol pita gaya sochane ki baat hai krishi pradhan desh me krishi utpad ko udyog se nahin joda gaya, matlab yahki aise laghuudyogo ko protsahan nahi diya gaya jo krishi utpadon par nirbhar hon, sinchai sadhano ki taraf jor nahin diya gaya tha jiska parinam aaj dessh aur desh ka kisan bhog raha hai. jab neev hi kamjor ho to bhavya prasad kaise khada hoga. 1969 me jab banko ka rashtiyakaran hua tab unko kisano ko kheti(krishiupkaran,khad beej) pashuon(bail bhains adi)kar karj dene ke lakchhya dekar samay sima bandhi gayi,natija yah nikala bank ke adhikario ne apana lakchhya pura karne ke liye har gaon me apana ek dalal taiyar kiya commission kha kar aise logon kokarj de diya jo kisan the hi nahi. anam, lapata logo ko bhi dediya gaya jinko jarurat thi unhe mila hi nahi aur aaj bhi kamovesh wahi sthiti hai. rashtrakavi ramdhari singh dinkar ki ye panktiyan barbas yaad aati hai"JAB TAK MANUJ MANUJ KA SAMBHAR NANI SHRAM HOGA, SHAMIT NA HOGA KOLAHAL SANGHARSH NANI KAM HOGA.SCT