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समाचार अभियान और सरकार

शायद ही ऐसा कभी हुआ कि अतिक्रमण, अवैध निर्माण व आवंटन के लिए जिम्मेदार अफसरों का कुछ बिगड़ा हो। अफसर क्यों जान-बूझाकर आंखें मूंदे रहते हैं? अतिक्रमण ढहाकर अतिक्रमणकारी को सजा मिल जाती है, तो इसके लिए कसूरवार अफसर का क्यों बाल भी बांका नहीं होता? सरकार से मोटी तनख्वाह व सुख-सुविधाएं पाने वाला अफसर अपनी जिम्मेदारी में विफल रहकर क्यों साफ बच निकलता है?

मीडिया अपनी प्रभावी भूमिका को किस तरह निभा सकता है— इसके उदाहरण 'पत्रिका' के अभियान हैं। महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर ये अभियान चलाए जाते रहे हैं। पाठकों को याद होगा, पिछले दिनों मोबाइल टॉवरों को लेकर जो अभियान छेड़ा गया, वह देशव्यापी मुद्दा बना। हाल ही एक और अभियान रंग लाया, 'लौटे अमानीशाह का अतीत।'
कहने को यह जयपुर शहर के एक नाले में अतिक्रमण से जुड़ा मुद्दा है, परन्तु इसका प्रतीकात्मक महत्व व्यापक है। नाले में बनी एक बड़ी कंपनी की नौ मंजिल इमारत का बड़ा हिस्सा बारूद से उड़ा दिया गया। राज्य में ऐसा पहली बार हुआ। कार्रवाई उच्च न्यायालय के आदेश से हुई। लेकिन नदी-नालों के प्राकृतिक प्रवाह को अवरुद्ध करने वाले इन अतिक्रमणों के विरुद्ध जो अभियान छेड़ा गया था, उसने भूमाफिया, भ्रष्ट अफसरों व राजनेताओं की चूलें हिला दी। नाले में रसूखदारों के कुछ और अतिक्रमण भी हटाए गए। शहर के बीच से निकल रहा यह प्राचीन नाला भारी बारिश से उफन पड़ा था। अतिक्रमणों के अवरोध से पानी का प्रवाह बाधित हुआ। बारिश लगातार हो जाती, तो यह नाला तबाही का कारण बन जाता। इस खतरे को भांपकर ही पत्रिका ने अभियान शुरू किया था।
न्यायालय के आदेश और पत्रिका के अभियान से उभरे अतिक्रमण के विरुद्ध जनाक्रोश के दबाववश सरकारी एजेंसियां सक्रिय हुईं। अफसरों ने आनन-फानन कुछ कार्रवाइयां कीं। बहुत कुछ करना अभी बाकी है। भ्रष्ट नौकरशाही पर अंगुलियां उठीं। राजस्थान उच्च न्यायालय ने उन पर तल्ख टिप्पणियां की। जब भी ऐसा माहौल बनता है, अतिक्रमियों के विरुद्ध अभियान छिड़ जाता है। लेकिन चपेट में अक्सर गरीब जनता ही आती है, लेकिन इस बार कुछ रसूखदार भी चपेट में आए। शायद ही ऐसा कभी हुआ कि अतिक्रमण, अवैध निर्माण व आवंटन के लिए जिम्मेदार अफसरों का कुछ बिगड़ा हो। अफसर क्यों जान-बूझकर आंखें मूंदे रहते हैं? अतिक्रमण ढहाकर अतिक्रमणकारी को सजा मिल जाती है, तो इसके लिए कसूरवार अफसर का क्यों बाल भी बांका नहीं होता?
सरकार से मोटी तनख्वाह व सुख-सुविधाएं पाने वाला अफसर अपनी जिम्मेदारी में विफल रहकर क्यों साफ बच निकलता है? ये सवाल अब सब तरफ उठने लगे हैं। उच्च न्यायालय ने तो साफ कह दिया—जिसका निर्माण टूटे उसे अफसरों से पैसे दिलाओ। न्यायालय की चिन्ता गरीबों को लेकर खास तौर पर है। पिछले दिनों रामगढ़ बांध के बहाव क्षेत्र में अतिक्रमण पर सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने मौखिक टिप्पणी की — अतिक्रमण होते समय तो अधिकारी सोते हैं। लापरवाही अफसर करता है, तलवार जनता पर लटकती है। अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम नौकरशाही सवालों के घेरे में है। भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाही का गठबंधन शायद इतना ताकतवर है कि सचमुच इनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता।
अमानीशाह के मामले को ही ले लीजिए। चारों तरफ से कठघरे में खड़े होने के बावजूद अभी तक नौ मंजिला इमारत के मामले में किसी अफसर के विरुद्ध कुछ नहीं हुआ। राज्य के नगरीय विकास मंत्री शान्ति धारीवाल ने घोषणा की— 'सरकार की मंशा है कि गलत निर्माण की इजाजत देने वाले अधिकारियों पर अवश्य कार्रवाई होनी चाहिए। अमानीशाह नाले में इस तरह के निर्माण के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को चिह्नित किया जाएगा।'  25 दिन बीत गए, आज तक अधिकारी चिह्नित नहीं किए गए। कार्रवाई की बात तो बहुत दूर है। आजकल सरकारें ऐसे जनहितकारी कार्य न्यायालय के आदेश से भले ही करने को बाध्य हो जाएं, स्व-विवेक से नहीं करतीं।
मोबाइल टॉवरों का उदाहरण लें। शहरों में लगे उच्च क्षमता के हजारों टॉवर जनता के स्वास्थ्य के साथ किस तरह खिलवाड़ कर रहे, इसका खुलासा अखबार ने किया। यह काम सरकार का था। खुलासा होने के बाद टॉवरों के बारे में निर्णय करने का कार्य तो सरकार का था। वह भी उसने नहीं किया। न्यायालय के आदेश से ही सरकार हिली। स्कूलों से टॉवर हटाने का काम आधे मन से शुरू किया। परिणाम भी अधूरा है। पत्रिका ने अपनी भूमिका निभाई, बड़ी मोबाइल कंपनियों की नाराजगी झेलकर भी। न्यायालय ने भी फर्ज निभाया, पर सरकार निद्रा में है।
प्राकृतिक जलाशयों को उनका मूल स्वरूप लौटाने की लड़ाई पत्रिका सिर्फ राजस्थान में ही नहीं, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में भी लड़ रहा है। भोपाल में बड़ी झील और रायपुर में तेलीबंधा तालाब को लेकर भी मुहिम चल रही है। मोबाइल टॉवर का मुद्दा भी लगभग सभी प्रमुख शहरों में उठाया गया। निश्चय ही ये मुद्दे गांव, शहर और जनता के भविष्य से जुड़े हैं। मगर ध्यान दिलाने के बावजूद सरकार सोई रहती है। तभी तो पत्रिका का ध्येय वाक्य है— 'य एषु सुप्तेषु जागर्ति।'
पत्रकारों का पलायन
पिछले दिनों आई एक रिपोर्ट ने पत्रकारिता के पेशे को लेकर चिन्ताजनक तस्वीर पेश की है। रिपोर्ट के अनुसार देश में काफी संख्या में प्रशिक्षित पत्रकार दूसरे क्षेत्रों में पलायन कर रहे हैं। रिपोर्ट में वर्ष 1985 से लेकर 2010 तक के आंकड़े शामिल करने का दावा किया गया है। यह रिपोर्ट मीडिया स्टडीज ग्रुप और जन मीडिया जर्नल ने भारतीय जनसंचार संस्थान के उक्त अवधि के शैक्षणिक सत्र के छात्रों की प्रतिक्रिया के आधार पर तैयार की है। रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय जनसंचार संस्थान से प्रशिक्षित एक चौथाई से ज्यादा (26.76 फीसदी) पत्रकार दूसरे क्षेत्रों में पलायन कर चुके हैं। रिपोर्ट भले ही पत्रकारिता के एक बड़े और केन्द्रीय संस्थान के छात्रों की प्रतिक्रिया पर आधारित है, फिर भी है, तो चिन्ताजनक। खासकर तब, जब मल्टीमीडिया के युग में अखबार, टीवी, रेडियो, साइबर माध्यम तथा जनसम्पर्क का दायरा विस्तृत होता जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, मीडिया से जुड़े प्रशिक्षित छात्रों में से 32.28 फीसदी अखबार, 25.98 फीसदी टीवी, 13.39 फीसदी साइबर माध्यम, 8.66 फीसदी रेडियो, 7.09 फीसदी पत्रिकाओं, 2.88 फीसदी विज्ञापन तथा 5.77 फीसदी जनसम्पर्क क्षेत्रों में कार्यरत हैं।

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