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पत्रकार की लक्ष्मण रेखा

देश में पिछले दिनों हुईं न्यायिक कार्यवाहियां इस बात का प्रमाण है कि संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सरकारें और नौकरशाही अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए जब-तब इस पर कुठाराघात करती रहती हैं। मीडिया पर प्रत्यक्ष या परोक्ष अंकुश लगा दिए जाते हैं। लेकिन न्यायपालिका की सजगता से अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करना आसान
नहीं है।


गत सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय ने दो ऐसे फैसले सुनाए, जिससे मीडिया की स्वतंत्रता को मजबूती प्राप्त हुई। ग्यारह सितम्बर को न्यायालय ने अदालती कार्यवाही की मीडिया रिपोर्टिंग को लेकर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एस.एच. कपाडिय़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अदालती कार्यवाही की रिपोर्टिंग में पत्रकारों के लिए दिशा-निर्देश बनाने से इन्कार कर दिया। अलबत्ता पीठ ने मीडिया की स्वतंत्रता और निष्पक्ष सुनवाई के अभियुक्त के अधिकार में संतुलन के लिए कुछ समय तक रिपोर्टिंग स्थगित रखने का सिद्धान्त अवश्य दिया। संविधान पीठ के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय किसी मामले के आधार पर अदालती कार्यवाही के प्रकाशन व प्रसारण को स्थगित रखने का आदेश दे सकते हैं। फैसले में स्पष्ट किया गया कि ऐसा आदेश संक्षिप्त अवधि के लिए होगा। यह भी कहा कि आदेश ऐहतियाती कार्रवाई होगी, दंडात्मक नहीं।
साथ ही संविधान पीठ ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान में प्रदत्त कोई निरंकुश अधिकार नहीं है। पत्रकारों को लक्ष्मण रेखा जाननी चाहिए ताकि अवमानना की मर्यादा का उल्लंघन न हो। स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने अभियुक्त की निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को संरक्षित किया, वहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी मजबूती प्रदान की। न्यायालय के फैसले से इस विचार को बल मिला, जिसमें मीडिया पर किसी बाहरी अंकुश की बजाय स्वयं मीडिया द्वारा आचार-संहिता पालन पर जोर दिया जाता है।
इसी तरह सेना की इकाइयों के मूवमेंट सम्बंधी समाचार देने से मीडिया को रोकने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर 14 सितंबर को सर्वोच्च न्यायाय ने रोक लगाकर मीडिया की स्वतंत्रता को पुन: मजबूती प्रदान की। आपको याद होगा 'इंडियन एक्सप्रेस' में 4 अप्रेल को प्रकाशित एक समाचार ने हलचल मचा दी। शीर्षक था—The January night Raisina Hill was spooked: Two key army units moved towards Delhi without notifying govt. यह समाचार इस वर्ष 16 जनवरी को दो सैन्य इकाइयों के दिल्ली की ओर कूच करने से सम्बंधित था। इसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर फैसला देते हुए केन्द्र व राज्य सरकारों को यह पुख्ता करने के निर्देश दिए कि ऐसे समाचार मीडिया में न आएं। न्यायालय ने ऐसे समाचारों को देशहित के विपरीत बताया। आपको यह भी याद दिला दूं कि यह उस समय का मामला है, जब सेना प्रमुख वी.के. सिंह की उम्र को लेकर विवाद चरम पर था और वे सुर्खियों में बने हुए थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के बाद सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने एक एडवाइजरी जारी की, जिसमें मीडिया को इस आदेश का सख्ती से पालन करने का निर्देश था। सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय प्रेस परिषद और इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी की याचिका पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला गलत ठहराया और उसके आदेश को रद्द कर दिया। न्यायमूर्ति एच.एल. दत्तू और सी.के. प्रसाद की बेंच ने कहा कि यह आदेश देकर उच्च न्यायालय ने गलती की है।सवाल है कि सैन्य इकाइयों की देश में मूवमेंट की खबर पर रोक की आखिर क्या तुक थी? ऐसी खबरें अखबारों में प्रकाशित होती रही हैं। हां, इन खबरों के प्रकाशन में संयम बरता जाए और अनावश्यक सनसनी से बचना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का यही सार निकाला जा सकता है। इधर कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी के मामले में मुम्बई उच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान पुलिस को जो फटकार लगाई, उससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक बार फिर मुहर लगी। कार्टूनिस्ट असीम को मुंबई पुलिस ने विवादित कार्टून के आधार पर राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया था। बाद में असीम को जमानत पर छोड़ दिया था। उच्च न्यायालय ने कहा कि कार्टूनिस्ट की गिरफ्तारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। न्यायालय ने पुलिस से पूछा, कार्टूनिस्ट पर राजद्रोह का मामला दर्ज करने से पहले अपना दिमाग क्यों नहीं लगाया? न्यायालय ने पुलिस और सरकार के रवैए को लेकर कई तीखे प्रश्न किए।
गत एक सप्ताह के दौरान देश में हुई ये न्यायिक कार्यवाहियां इस बात का प्रमाण है कि संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सरकारें और नौकरशाही अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए जब-तब इस पर कुठाराघात करती रहती हैं। मीडिया पर प्रत्यक्ष या परोक्ष अंकुश लगा दिए जाते हैं। लेकिन न्यायपालिका की सजगता से अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करना आसान नहीं है।
अब 'वाशिंगटन पोस्ट' भी!
आपको याद होगा, कुछ समय पहले भारतीय मूल के जाने-माने अमरीकी लेखक व पत्रकार फरीद जकारिया पर साहित्यिक चोरी का आरोप लगा था। इस आरोप में टाइम पत्रिका और टीवी चैनल सी.एन.एन. ने उन्हें कुछ समय के लिए निलंबित कर दिया था। हालांकि फरीद जकारिया ने खेद व्यक्त कर दिया था, लेकिन इस घटना से मीडिया बिरादरी को बड़ी ठेस पहुंची। ऐसी ही ठेस पहुंचाने वाली घटना पिछले दिनों फिर घटित हुई।
अमरीकी अखबार 'द वाशिंगटन पोस्ट' ने भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की— India’s silent prime minister becomes a tragic figure. यह रिपोर्ट दक्षिण एशिया में 'वाशिंगटन पोस्ट' के ब्यूरो चीफ साइमन डेनियर ने लिखी, जिस पर भारत में काफी बवाल मचा। इस रिपोर्ट में भारतीय पत्रिका 'कारवां' से कुछ अंश सीधे-सीधे उठा लिए गए थे, जो वर्ष 2011 में प्रकाशित एक लेख का हिस्सा थे। इस लेख में 'कारवां' के एसोसिएट एडिटर विनोद के जोस ने भारतीय इतिहासकार रामचन्द्र गुहा तथा डॉ. मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू व अन्य कई लोगों से बातचीत की थी। 'वाशिंगटन पोस्ट' में साइमन डेनियर ने अपनी रिपोर्ट में रामचन्द्र गुहा तथा संजय बारू के बयानों को तो प्रमुखता से छापा, लेकिन 'कारवां' का कहीं उल्लेख नहीं किया। हालांकि बाद में 'वाशिंगटन पोस्ट' ने अपनी गलती सुधारते हुए 'कारवां' का उल्लेख किया, लेकिन विनोद के जोस ने बीबीसी को कहा— मुझ उम्मीद है वो औपचारिक रूप से माफी मांगेंगे। अगर वो (वाशिंगटन पोस्ट) ऐसा करते हैं तो ये पत्रकारिता के लिए अच्छा होगा।
पत्रकारिता में एक-दूसरे की टिप्पणियों और विवरणों का उल्लेख करना बुरी बात नहीं है। कई प्रतिष्ठित पत्रकार और लेखक ऐसा करते रहे हैं। लेकिन वे उन्हें श्रेय भी देते हैं, जिनकी बातों का उल्लेख करते हैं। यह एक नैतिक नियम है, जिसका पत्रकारिता में पालन करना जरूरी है। लेकिन अब प्रतिष्ठित पत्रकार और अखबार भी इसका उल्लंघन करने लगे हैं, यह शुभ संकेत नहीं है। हमें अपनी लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखना होगा।

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