मीडिया ने अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से उठाया है। छिपे हुए मामलों, प्रकरणों और घोटालों का पर्दाफाश किया है। स्टिंग ऑपरेशनों ने भ्रष्टाचारियों और आतताइयों की पोल खोली है। इसलिए मीडिया से लोगों को बड़ी उम्मीदें हैं। इसलिए मीडिया का काम जब कोई दूसरा करता है, तो उसकी भूमिका और सार्थकता को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
उस दिन सुबह-सुबह एक फोन आया। आवाज में झाल्लाहट थी— 'महोदय, क्या देश में खोजी पत्रकारिता खत्म हो चुकी है?'
अचानक दागे गए प्रश्न पर मैं हैरानी से इतना ही बोल पाया—
'क्यों, क्या हुआ भाई?'
'क्या हुआ??' उसने गहरी सांस भरी— 'लगता है आप भी सोये हुए हैं।' आवाज में व्यंग्य का पुट भी था— 'क्या सारे बड़े कांड, घपले-घोटालों का भंडाफोड़ करने का काम अब मीडिया ने आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं के हवाले कर दिया है?'
अब तक मैं संभल चुका था। लेकिन उसने मुझो फिर बोलने का अवसर नहीं दिया। सवालों का हमला जारी था—
'पहले 70 हजार करोड़ का सिंचाई घोटाला, जिसमें एक उप मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। और अब 'देश के दामाद' की करोड़ों की काली कमाई, जिसने सरकार को हिला कर रख दिया। किसने उजागर किए? क्या यह सच्चाई नहीं, अंजली दमानिया या अरविन्द केजरीवाल 'बड़े लोगों के बड़े कारनामे' उजागर कर रहे हैं और पूरा मीडिया फॉलोअप कर रहा है?'
अन्त में वह फिर व्यंग्य करने से बाज नहीं आया— 'महोदय, असली खबरें तो इन लोगों के पास हैं।'
फोन बंद हो चुका था, पर उसने एक ऐसे मुद्दे पर हाथ रखा था, जो संभवत: अनेक लोगों के जेहन में भी कौंध रहा होगा। तो क्या सचमुच खोजी पत्रकारिता दम तोड़ रही है? यह सवाल इसलिए भी उठता है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों के दौरान देश को झकझोरने वाले भ्रष्टाचार के जितने भी बड़े मामले उजागर हुए उनमें मीडिया का योगदान नहीं था। कम-से-कम प्रारम्भिक उद्घाटनों में तो नहीं था। आप जानते हैं आदर्श हाउसिंग स्कीम, कॉमनवेल्थ खेल, 2 जी स्पैक्ट्रम से जुड़े घोटाले तो लोगों को रट चुके हैं। फिर आए कोयला आवंटन, महाराष्ट्र सिंचाई परियोजना और रॉबर्ट वाड्रा से जुड़े मामले, ये सब या तो कैग की रिपोर्टों से सामने आए या सीवीसी की रिपोर्ट से। या फिर आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं ने उजागर किए। कई मामले उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद खुल सके।
रॉबर्ट वाड्रा का मामला तो और भी संगीन है। करीब डेढ़ वर्ष पहले एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित होने के बावजूद इसे एक मुद्दे के रूप में खड़ा करने का श्रेय मीडिया की बजाय अरविन्द केजरीवाल को प्राप्त हुआ। रॉबर्ट वाड्रा की कंपनियों के कारनामों पर 'द इकनोमिक्स टाइम्स' ने मार्च, 2010 में ही एक रिपोर्ट प्रकाशित कर दी थी। मीडिया इसका फॉलोअप नहीं कर सका। जानबूझकर या अनजाने में—यह अलग मसला है। आज यह सवाल हर कोई पूछना चाहेगा कि केजरीवाल से ज्यादा साधन-सम्पन्न और सक्षम होने के बावजूद मीडिया पीछे क्यों रहा? क्यों मीडिया इतने भर से संतुष्ट है कि उसे एक बनी-बनाई खबर मिल गई? जो काम केजरीवाल ने आज किया, वह काम मीडिया डेढ़ साल पहले ही नहीं कर सकता था? मीडिया पर और भी कई प्रश्नचिक्ष लग रहे हैं। क्या मीडिया शक्तिसम्पन्न और प्रभावशाली लोगों के बारे में सीधे तौर पर मुद्दे उठाने से बच रहा है? या फिर उसकी खोजी अन्तर्दृष्टि खत्म होती जा रही है? आज मीडिया से लोग यह जानना चाहते हैं कि वह खोजी पत्रकारिता कहां है, जो स्वयं पहल करके दस्तावेजों का पड़ताल करती थी। विश्लेषण करके निष्कर्ष निकालती थी। दूर-दराज के इलाकों में जाकर धूल फांकती थी और तथ्यों का स्वयं सत्यान्वेषण करती थी।
मीडिया ने अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से उठाया है। कई छिपे हुए मामलों, प्रकरणों और घोटालों का जनहित में पर्दाफाश किया है। भागलपुर का आंखफोड़ कांड, नेल्ली का नरसंहार, बोफोर्स कांड, हथियारों की दलाली, रिश्वत लेकर संसद में प्रश्न पूछने से लेकर सामाजिक अन्याय व उत्पीडऩ और मानवाधिकार हनन के अनेक महत्वपूर्ण प्रकरण उजागर किए हैं। कई स्टिंग ऑपरेशनों ने भ्रष्टाचारियों, बाहुबलियों और आतताइयों की पोल खोली है। इसलिए मीडिया से लोगों को बड़ी उम्मीदें हैं। आम जनता की भलाई और सेवा के लिए बनी हुई सरकारें हकीकत में कर क्या रही हैं, यह लोगों को मीडिया से बेहतर और कौन बताएगा? इसलिए मीडिया का काम जब कोई दूसरा करता है, तो उसकी भूमिका और सार्थकता को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
सुबह-सुबह उस दिन मुझे जिस फोन ने जगाया वह मीडिया के प्रति इसी जनमानस की अभिव्यक्ति थी। यह अजीब मगर सुखद संयोग ही था इस घटना के तीन दिन बाद ही खोजी पत्रकारिता के दो महत्वपूर्ण उदाहरण मीडिया ने पेश किए। इंडिया टीवी ने 20-20 क्रिकेट में छह अम्पायरों को मैच फिक्सिंग की बात कबूलते हुए कैमरे में कैद किया। इन छहों अम्पायरों को जांच पूरी होने तक अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद ने निलम्बित कर दिया। जो अम्पायर खेल नियमों का पालन करने के जिम्मेदार थे, वे पहली बार मैच फिक्सिंग के आरोपी बने। फिर 'आज तक' ने स्टिंग के जरिए केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद की पोल खोली। आरोप है कि उनकी संस्था जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट ने विकलांगों के नाम पर अफसरों के जाली हस्ताक्षर कर 71 लाख रु. हजम कर लिए। सलमान खुर्शीद इस संस्था के अध्यक्ष तथा उनकी पत्नी लुइस खुर्शीद परियोजना निदेशक हंै। इस खुलासे के बाद देश के कानून मंत्री की खासी किरकिरी हुई। वे सफाई दे रहे हैं, लेकिन लोगों को उनकी सफाई शायद ही रास आए। जो सच्चाई कैमरे में कैद हुई, उसे झाुठलाना आसान नहीं।
बात फिर खोजी पत्रकारिता की। मीडिया गाहे-बगाहे अपनी भूमिका निभा रहा है। लेकिन वो नहीं, जिसकी उससे उम्मीद की जाती है। फस्र्ट पोस्ट डॉट कॉम के सम्पादक आर. जगन्नाथन के अनुसार— 'मीडिया राजनेताओं, उद्योगपतियों, मंत्रियों और नौकरशाहों के प्रति इतना नरम क्यों है? राजनेताओं से मीडिया फिर भी सवाल कर लेता है, लेकिन उद्योगपतियों, खासकर बड़े और शक्तिशाली व्यवसायियों को कभी कठघरे में खड़ा नहीं करता।' मीडिया के भविष्य को लेकर सजग व्यक्ति आज यही चिन्ता करता नजर आता है।
उस दिन सुबह-सुबह एक फोन आया। आवाज में झाल्लाहट थी— 'महोदय, क्या देश में खोजी पत्रकारिता खत्म हो चुकी है?'
अचानक दागे गए प्रश्न पर मैं हैरानी से इतना ही बोल पाया—
'क्यों, क्या हुआ भाई?'
'क्या हुआ??' उसने गहरी सांस भरी— 'लगता है आप भी सोये हुए हैं।' आवाज में व्यंग्य का पुट भी था— 'क्या सारे बड़े कांड, घपले-घोटालों का भंडाफोड़ करने का काम अब मीडिया ने आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं के हवाले कर दिया है?'
अब तक मैं संभल चुका था। लेकिन उसने मुझो फिर बोलने का अवसर नहीं दिया। सवालों का हमला जारी था—
'पहले 70 हजार करोड़ का सिंचाई घोटाला, जिसमें एक उप मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। और अब 'देश के दामाद' की करोड़ों की काली कमाई, जिसने सरकार को हिला कर रख दिया। किसने उजागर किए? क्या यह सच्चाई नहीं, अंजली दमानिया या अरविन्द केजरीवाल 'बड़े लोगों के बड़े कारनामे' उजागर कर रहे हैं और पूरा मीडिया फॉलोअप कर रहा है?'
अन्त में वह फिर व्यंग्य करने से बाज नहीं आया— 'महोदय, असली खबरें तो इन लोगों के पास हैं।'
फोन बंद हो चुका था, पर उसने एक ऐसे मुद्दे पर हाथ रखा था, जो संभवत: अनेक लोगों के जेहन में भी कौंध रहा होगा। तो क्या सचमुच खोजी पत्रकारिता दम तोड़ रही है? यह सवाल इसलिए भी उठता है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों के दौरान देश को झकझोरने वाले भ्रष्टाचार के जितने भी बड़े मामले उजागर हुए उनमें मीडिया का योगदान नहीं था। कम-से-कम प्रारम्भिक उद्घाटनों में तो नहीं था। आप जानते हैं आदर्श हाउसिंग स्कीम, कॉमनवेल्थ खेल, 2 जी स्पैक्ट्रम से जुड़े घोटाले तो लोगों को रट चुके हैं। फिर आए कोयला आवंटन, महाराष्ट्र सिंचाई परियोजना और रॉबर्ट वाड्रा से जुड़े मामले, ये सब या तो कैग की रिपोर्टों से सामने आए या सीवीसी की रिपोर्ट से। या फिर आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं ने उजागर किए। कई मामले उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद खुल सके।
रॉबर्ट वाड्रा का मामला तो और भी संगीन है। करीब डेढ़ वर्ष पहले एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित होने के बावजूद इसे एक मुद्दे के रूप में खड़ा करने का श्रेय मीडिया की बजाय अरविन्द केजरीवाल को प्राप्त हुआ। रॉबर्ट वाड्रा की कंपनियों के कारनामों पर 'द इकनोमिक्स टाइम्स' ने मार्च, 2010 में ही एक रिपोर्ट प्रकाशित कर दी थी। मीडिया इसका फॉलोअप नहीं कर सका। जानबूझकर या अनजाने में—यह अलग मसला है। आज यह सवाल हर कोई पूछना चाहेगा कि केजरीवाल से ज्यादा साधन-सम्पन्न और सक्षम होने के बावजूद मीडिया पीछे क्यों रहा? क्यों मीडिया इतने भर से संतुष्ट है कि उसे एक बनी-बनाई खबर मिल गई? जो काम केजरीवाल ने आज किया, वह काम मीडिया डेढ़ साल पहले ही नहीं कर सकता था? मीडिया पर और भी कई प्रश्नचिक्ष लग रहे हैं। क्या मीडिया शक्तिसम्पन्न और प्रभावशाली लोगों के बारे में सीधे तौर पर मुद्दे उठाने से बच रहा है? या फिर उसकी खोजी अन्तर्दृष्टि खत्म होती जा रही है? आज मीडिया से लोग यह जानना चाहते हैं कि वह खोजी पत्रकारिता कहां है, जो स्वयं पहल करके दस्तावेजों का पड़ताल करती थी। विश्लेषण करके निष्कर्ष निकालती थी। दूर-दराज के इलाकों में जाकर धूल फांकती थी और तथ्यों का स्वयं सत्यान्वेषण करती थी।
मीडिया ने अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से उठाया है। कई छिपे हुए मामलों, प्रकरणों और घोटालों का जनहित में पर्दाफाश किया है। भागलपुर का आंखफोड़ कांड, नेल्ली का नरसंहार, बोफोर्स कांड, हथियारों की दलाली, रिश्वत लेकर संसद में प्रश्न पूछने से लेकर सामाजिक अन्याय व उत्पीडऩ और मानवाधिकार हनन के अनेक महत्वपूर्ण प्रकरण उजागर किए हैं। कई स्टिंग ऑपरेशनों ने भ्रष्टाचारियों, बाहुबलियों और आतताइयों की पोल खोली है। इसलिए मीडिया से लोगों को बड़ी उम्मीदें हैं। आम जनता की भलाई और सेवा के लिए बनी हुई सरकारें हकीकत में कर क्या रही हैं, यह लोगों को मीडिया से बेहतर और कौन बताएगा? इसलिए मीडिया का काम जब कोई दूसरा करता है, तो उसकी भूमिका और सार्थकता को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
सुबह-सुबह उस दिन मुझे जिस फोन ने जगाया वह मीडिया के प्रति इसी जनमानस की अभिव्यक्ति थी। यह अजीब मगर सुखद संयोग ही था इस घटना के तीन दिन बाद ही खोजी पत्रकारिता के दो महत्वपूर्ण उदाहरण मीडिया ने पेश किए। इंडिया टीवी ने 20-20 क्रिकेट में छह अम्पायरों को मैच फिक्सिंग की बात कबूलते हुए कैमरे में कैद किया। इन छहों अम्पायरों को जांच पूरी होने तक अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद ने निलम्बित कर दिया। जो अम्पायर खेल नियमों का पालन करने के जिम्मेदार थे, वे पहली बार मैच फिक्सिंग के आरोपी बने। फिर 'आज तक' ने स्टिंग के जरिए केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद की पोल खोली। आरोप है कि उनकी संस्था जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट ने विकलांगों के नाम पर अफसरों के जाली हस्ताक्षर कर 71 लाख रु. हजम कर लिए। सलमान खुर्शीद इस संस्था के अध्यक्ष तथा उनकी पत्नी लुइस खुर्शीद परियोजना निदेशक हंै। इस खुलासे के बाद देश के कानून मंत्री की खासी किरकिरी हुई। वे सफाई दे रहे हैं, लेकिन लोगों को उनकी सफाई शायद ही रास आए। जो सच्चाई कैमरे में कैद हुई, उसे झाुठलाना आसान नहीं।
बात फिर खोजी पत्रकारिता की। मीडिया गाहे-बगाहे अपनी भूमिका निभा रहा है। लेकिन वो नहीं, जिसकी उससे उम्मीद की जाती है। फस्र्ट पोस्ट डॉट कॉम के सम्पादक आर. जगन्नाथन के अनुसार— 'मीडिया राजनेताओं, उद्योगपतियों, मंत्रियों और नौकरशाहों के प्रति इतना नरम क्यों है? राजनेताओं से मीडिया फिर भी सवाल कर लेता है, लेकिन उद्योगपतियों, खासकर बड़े और शक्तिशाली व्यवसायियों को कभी कठघरे में खड़ा नहीं करता।' मीडिया के भविष्य को लेकर सजग व्यक्ति आज यही चिन्ता करता नजर आता है।
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