पिछले दिनों 'पत्रिका' में राजस्थान में रेजीडेन्ट डॉक्टरों की हड़ताल से सम्बन्धित समाचार टिप्पणियां, लोगों की राय और सम्पादकीय प्रकाशित किए गए थे। प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में डॉक्टरों का यह आन्दोलन सुर्खियों में रहा। इधर कई डॉक्टरों की शिकायत है कि उनके बारे में एकतरफा कवरेज हुई। उनका पक्ष जानने की किसी ने कोशिश नहीं की। उनको बार-बार 'भगवान' सम्बोधित करके कटघरे में खड़ा किया गया।
महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल, जयपुर के मनोचिकित्सक डॉ. पार्थ सिंह ने लिखा- 'डॉक्टरों को भगवान-भगवान कहकर उन पर व्यंग्य किया जा रहा है, उन्हें खलनायक के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है। बस, बहुत हुआ, हमें बख्श दें। हम भगवान नहीं, आम नागरिक हैं। आम भारतीय नागरिक- जो सम्मान और सुरक्षा के साथ जीना चाहता है... और इतना चाहना तो कोई अपराध नहीं।'
डॉ. पार्थ ने लिखा- 'रेजीडेन्ट डॉक्टरों की असंवेदनशीलता की खबरें तो टीका-टिप्पणियों के साथ बड़े-बड़े अक्षरों में प्रकाशित की गई, परन्तु उन पर ढाए गए जुल्म पर दो लाइन तक नहीं लिखी गई। जोधपुर में पुलिस ने हॉस्टल में घुसकर रेजीडेन्ट डॉक्टरों के साथ जैसा बर्ताव किया, वैसा तो शायद अजमल कसाब जैसे आतंककारियों के साथ भी नहीं किया गया। 37 मेडिकल छात्रों को गम्भीर चोटें आईं। कई तो शायद अब आजीवन अपंग बन जाएं। ये है भगवानों के साथ बर्ताव करने का तरीका? चिकित्सकों को भगवान का दर्जा दिया जाना ही उनके भावनात्मक शोषण की वजह बन गया है। जब-जब चिकित्सकों ने अपनी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के मुद्दे उठाए हैं, तब-तब उनको 'भगवान' होने का पाठ पढ़ाकर टरका दिया गया। फौजी और चिकित्सक की यही विडम्बना है। उनके जायज हक को उनके कर्त्तव्यों की याद दिलाकर ठुकरा दिया जाता है।'
'कर्त्तव्य परायणता का ठीकरा चिकित्सकों के सिर ही क्यों फोड़ा जाए? पुलिसकर्मी नागरिकों के रक्षक के रूप में भगवान हैं मगर वो थानों में बलात्कार करने से नहीं चूकते। देश निर्माण करने वाले इंजीनियर भी भगवान का रूप हैं, पर वो केवल अपने बैंक खातों का निर्माण करते रहते हैं। पत्रकार आजादी और अभिव्यक्ति के रक्षक के रूप में भगवान हुए पर आज वे भी बड़े-बड़े राजनेताओं और धनकुबेरों से पैसे लेकर उनकी खबरें छापते हैं। आज हालत यह है कि नई पीढ़ी चिकित्सक बनना ही नहीं चाहती। अनेक स्कूलों में जीव-विज्ञान का संकाय ही समाप्त कर दिया गया है? क्योंकि पूरी उम्र खपने के बाद भी उन्हें न अच्छा वेतन मिलता है, न सम्मान। ऊपर से कोई भी ऐरा-गैरा आकर उनसे मारपीट कर जाता है। रेजीडेन्ट डॉक्टरों के हड़ताल पर जाने से जो क्षति हुई वह अपूरणीय है, और इसका चिकित्सकों को बेहद अफसोस है। बिना इलाज के मौत हो जाना सभ्य समाज पर कलंक है। लेकिन ये हालात जिन परिस्थितियों में बने वे बेहद विचारणीय हैं।'
और अन्त में उन्होंने लिखा- 'कहा गया कि जो मांगें डॉक्टरों ने रखी वे बिना हड़ताल किए शान्तिपूर्ण तरीके से भी तो रखी जा सकती थी। परन्तु क्या व्यवहार में हमारा प्रशासन और सरकार शान्तिपूर्वक की गई मांगों को सुनते हैं?'
लगभग इसी तरह के विचार कोटा मेडिकल कॉलेज के छात्र (नाम स्पष्ट नहीं), महेन्द्र उपाध्याय, नेहा सिंह, प्रिया सिंघल, प्रवीण प्रजापत, (सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज, बीकानेर) सुप्रिया अग्रवाल, मोहनलाल भार्गव आदि रेजीडेन्ट डॉक्टर तथा उनके शुभचिन्तकों ने व्यक्त किए हैं। कुछ डॉक्टरों ने 8 सितम्बर को 'प्रवाह' में प्रकाशित 'प्रायश्चित जरूरी' (भुवनेश जैन) टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जोधपुर की घटना के वीडियो लिंक भेजकर प्रश्न पूछे हैं कि इनमें आपको कौन हैवान नजर आता है डॉक्टर या पुलिस? और लिखा- 'भगवान को तो सब माफ करके अगले दिन अपने फूटे सिर और टूटी टांगें लेकर समाज की सेवा करनी चाहिए।'
एक मेडिकल छात्र ने लिखा- 'गुंडागर्दी पुलिस करती है और आप हमें बदनाम करते हो। प्रायश्चित तो आपको करना चाहिए।'
प्रिय पाठकगण! डॉक्टरों के इस आक्रोश से जाहिर है कि उन्होंने चौतरफा उठे विरोध और जन आक्रोश के स्वरों को नहीं सुना। 5, 6 व 7 सितम्बर को राज्य में रेजीडेन्ट डॉक्टरों की हड़ताल पर बहुत कुछ लिखा-कहा जा चुका है। हड़ताल का किसी ने समर्थन नहीं किया। उल्टे चिकित्सकों के आन्दोलन की जितनी भर्त्सना हुई, उतनी किसी की नहीं। इस दौरान जिन 70 मरीजों की मृत्यु हुई, उनके परिजनों को वे कैसेसमझाएँगे कि मरीजों की मौत स्वाभाविक कारणों से हुई। डॉक्टरी बहुत संवेदनशील कर्म है। तभी तो आपको 'भगवान' कहते हैं। मीडिया नहीं, आम आदमी का सम्बोधन है यह। वह दिल से डॉक्टर का सम्मान करता है। यह भी सच है कि जोधपुर में डॉक्टरों पर पुलिस ज्यादती की किसी ने प्रशंसा नहीं की। सभी ने पुलिसकर्मियों को दोषी माना। अखबार के समाचार और टिप्पणियों से भी यह स्पष्ट है। अलबत्ता सरकारी स्तर पर इस मामले में अभी तक पुख्ता कार्रवाई नहीं हुई। सरकारी कामकाज का अपना ढर्रा है। ऐसे मामलों में उसे अपनी शैली बदलनी चाहिए। पर डॉक्टरों को तो निसंदेह अपने रवैये पर विचार करना चाहिए। रेजीडेन्ट डॉक्टरों के बात-बात पर हड़ताल पर जाने के लिए बदनाम होने के कारण वे अपनी जायज मांगों के प्रति भी आमजन की सहानुभूति खोते जा रहे हैं। मीडिया को दोष देने और अन्यों से तुलना करने से क्या होगा? वे अपने चारों तरफ देखें। कौन उनके साथ हड़ताल में खड़ा हुआ? निसंदेह डॉक्टर सम्मान और सुविधाओं के हकदार हैं, लेकिन वे जीवन और मृत्यु से जुड़े अपने पेशे के कठोर कर्त्तव्य को भी नजरअंदाज न करें।
मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है
1 year ago
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