सेना से जुड़ी खबरों को लेकर मीडिया की आलोचना हो रही है। कई प्रेक्षकों का कहना है कि 'ब्रेकिंग न्यूज' और एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में मीडिया मर्यादाएं लांघ रहा है। मीडिया से अपेक्षा की गई कि वह अपनी सीमा में रहे। केवल मीडिया को कठघरे में खड़ा कर देना ठीक नहीं। हमें जितना प्यार देश से है, उतना अभिव्यक्ति की आजादी से भी है। ये दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं।
हाल ही सेना से जुड़े मामलों की खबरों को लेकर मीडिया कटघरे में है। पहले, प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को लिखी गई थलसेनाध्यक्ष वी.के. सिंह की गोपनीय चिट्ठी लीक हुई। उसके बाद सेना की दो इकाइयों की सरकार को बिना सूचित किए दिल्ली की ओर कूच करने की सनसनीखेज खबर सामने आई। यही नहीं, एक न्यूज चैनल ने यह खबर प्रसारित की कि अगर जंग हुई तो भारतीय सेना 10 दिन तक ही लड़ पाएगी, क्योंकि सेना के पास इतना गोला-बारूद ही बचा है।
इन खबरों को लेकर मीडिया की आलोचना हो रही है। कई प्रेक्षकों का कहना है कि 'ब्रेकिंग न्यूज' और एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में मीडिया मर्यादाएं लांघ रहा है। वह अपनी जिम्मेदारियों को भूल गया है। इधर, केन्द्र सरकार और सेनाध्यक्ष का भी मानना है कि मीडिया को ऐसी खबरें प्रकाशित नहीं करनी चाहिए जिससे सेना और सरकार के बीच गलतफहमियां बढ़ें। यह दूसरी बात है कि दोनों तरफ से ही कुछ बयानबाजी ऐसी हुईं जिससे आपसी गलतफहमियां बढ़ीं। परन्तु मीडिया से अपेक्षा की गई कि वह अपनी सीमा में रहे।
एक पाठक ने लिखा—प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ईमानदार राजनेताओं में गिने जाते हैं। वी.के. सिंह की छवि भी ईमानदार जनरल की रही है। लेकिन मीडिया की खबरों ने दुर्भाग्य से इन तीनों को कटघरे में खड़ा कर दिया। पाठक का तर्क है कि ईमानदार व्यक्ति भ्रष्ट लोगों की आंखों में खटकता है। उसके इर्द-गिर्द भ्रष्ट लोगों का गिरोह सक्रिय हो जाता है। तीनों शख्सियतें इसी कुचक्र का शिकार हो रही है। इसमें मीडिया का इस्तेमाल किया जा रहा है। मीडिया जाने-अनजाने भ्रष्ट और स्वार्थी तत्वों के हाथों खेल रहा है।
प्रिय पाठकगण! इसमें दो राय नहीं ऊपर जिन खबरों का जिक्र किया गया उनमें मीडिया के एक हिस्से ने अभिव्यक्ति की आजादी का अतिरंजित प्रयोग किया। खबरों के प्रस्तुतीकरण में अपेक्षित संयम नहीं बरता गया। इसलिए मीडिया का यह रवैया गैर जिम्मेदाराना मानने में किसी को शायद आपत्ति न हो।
संवेदनशील मसलों की रिपोर्टिंग बहुत सोच-समझकर की जानी चाहिए। इसमें कुछ गलत नहीं। आपत्ति तब होती है, जब संवेदनशीलता के नाम पर सच्चाई पर परदा डालने की अपेक्षा की जाए। सच्चाई छुपाने से समस्या टल सकती है, खत्म नहीं हो सकती। हमारा लक्ष्य समस्याओं का खात्मा होना चाहिए न कि टालना। फिर स्पष्ट करूं कि संवेदनशील मसलों पर मीडिया पूरी जिम्मेदारी बरते। सच्चाई पर परदा डालने की उससे अपेक्षा न की जाए तो ही बेहतर है। संवेदनशील तथ्यों की गोपनीयता सुनिश्चित करने का वैधानिक उत्तरदायित्व शासन-तंत्र पर है। मीडिया पर यह थोपा नहीं जाना चाहिए। वरना मीडिया की स्वतंत्रता की सीमा-रेखा कब लांघ दी जाए, इसकी कोई भनक भी नहीं लगेगी। सरकार तो आजकल वैसे भी मीडिया के 'पर' कतरने पर तुली है। चाहे वह किसी दल की हो। सभी भ्रष्ट सत्ताधीशों और रसूखदारों की आंखों में मीडिया की आजादी खटक रही है। कहीं विशेषाधिकार के नाम पर, तो कहीं गोपनीयता और संवेदनशीलता के नाम पर। ऐसे वातावरण में मीडिया की जिम्मेदारी और बढ़ गई है।
मीडिया ने सेना को लेकर सनसनीखेज खबरें छापने में रुचि दिखाई, उतनी ही सीएजी की रिपोर्ट में दिखानी चाहिए जो सेना की रक्षा तैयारियों की खामियों को लेकर पिछले साल दिसम्बर में आई थी। अफसोस की बात यह है कि हमारे जनप्रतिनिधियों ने भी प्रधानमंत्री को लिखा पत्र लीक होने को तो देशद्रोह कृत्य बताया, लेकिन सीएजी की रिपोर्ट पर खामोश रहे। अगर वे सचमुच देश की सुरक्षा को लेकर चिन्तित हैं तो उन्हें इस रिपोर्ट पर रक्षा मंत्रालय समेत केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा करना चाहिए था। सीएजी की रिपोर्ट क्यों नहीं देश का मुद्दा बनी, क्यों मीडिया की रिपोर्ट मुद्दा बन गई, इस पर ठंडे दिमाग से विचार करने की जरूरत है।
इंडियन एक्सप्रेस में सेना की दो इकाइयों के कूच करने की खबर सनसनी तो पैदा करती है, लेकिन यह सवाल भी उठाती है कि क्यों सेना के एक रूटीन अभ्यास ने सत्ता के गलियारों में हड़कम्प मचा दी। क्या इसे सेनाध्यक्ष की संभावित बर्खास्तगी से जोड़कर देखा गया? क्या सरकार और सेना में विश्वास के रिश्ते इतने कमजोर हो गए? क्या दुनिया की सबसे ताकतवर सेनाओं में शुमार हमारी सेना और सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की सरकार के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है? इन सवालों को खारिज करना जितना आसान है, उतना ही कठिन है इनका सामना करना। सच्चाई से आंख चुराकर केन्द्र सरकार अपनी व्यवस्थागत खामियों और जवाबदेही से बच नहीं सकती। जरूरत है तो खामियों को दूर करने की न कि परदा डालने की। मीडिया को या फिर सेनाध्यक्ष को कटघरे में खड़ा करके यही कोशिश की जा रही है। यह सही है कि उम्र विवाद की टीस में सेनाध्यक्ष ने भी कुछ गलतियां की हैं। बेशक, उन्हें की गई14 करोड़ घूस की पेशकश पर परदा नहीं पडऩा चाहिए था। उस पर कार्रवाई होनी चाहिए थी। इसमें सेनाध्यक्ष और सरकार बराबर दोषी है। लेकिन सरकार खुद पाक साफ रहकर अकेले सेनाध्यक्ष को निशाना बना रही है। क्या सरकार और सेनाध्यक्ष के बीच खींचतान का नतीजा नहीं है कि मीडिया में कई गोपनीय तथ्य लीक किए जा रहे हैं?
केवल मीडिया को कटघरे में खड़ा कर देने से इन सवालों का जवाब नहीं मिल सकता। हमें जितना प्यार देश से है, उतना अभिव्यक्ति की आजादी से भी है। ये दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं। भारतीय मीडिया इतना गैर जिम्मेदाराना नहीं कि राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मसलों की अनदेखी कर दे। सेना की दो इकाइयों की दिल्ली कूच सम्बंधी खबर को गौर से पढ़ें तो साफ हो जाएगा कि यह सेना के विद्रोह की बजाय सरकार के भय पर केन्द्रित है। सवाल है, जिस दिन सेनाध्यक्ष ने अपनी उम्र विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई उस दौरान सरकार इतनी सशंकित क्यों थी कि सेना के रुटीन अभ्यास से घबरा गई। जबकि सेनाध्यक्ष तो अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का ही इस्तेमाल कर रहे थे। मीडिया भी यही कर रहा है।
1 comments:
बोलेंगे अनचाही बातें,
सामर्थ्य तुम्हारी पर शक होगा.
शत्रुजनों की बातें सुनकर,
क्या इससे बढ़ कर दुःख होगा?
सही उदगार .
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