दर्शकों-श्रोताओं से दूर जाकर कोई चैनल अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता, लेकिन क्या यह सचमुच टीआरपी की अंधी दौड़ है या कुछ और भी? समाचार चैनलों का मौजूदा बर्ताव (या भटकाव!) कई सवाल खड़े करता है, लेकिन मीडिया को सबसे ऊपर उठकर देखने की जरूरत है खासकर, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को।
कई बार मीडिया समान महत्व के मुद्दों में से किसी एक को उछालकर बाकी मुद्दों से आंख फेर लेता है। मान लेता है कि अपना दायित्व पूरा हुआ। कई बार मीडिया कमतर मुद्दों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, लेकिन जरूरी मुद्दों की अनदेखी कर जाता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो भेड़चाल साफ दिखाई पड़ती है। नरेन्द्र मोदी के भाषणों की सजीव प्रसारण की होड़ शुरू हुई, तो कोई चैनल पीछे रहना नहीं चाहता। जो चैनल मोदी को पानी पी-पी कर कोसते थे, वे भी इस होड़ में शामिल हो गए। टीआरपी के लिए सब जायज है। ठीक है, दर्शकों-श्रोताओं से दूर जाकर कोई चैनल अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता, लेकिन क्या यह सचमुच टीआरपी की अंधी दौड़ है या कुछ और भी? समाचार चैनलों का मौजूदा बर्ताव (या भटकाव!) कई सवाल खड़े करता है। चुनाव नजदीक आ रहे हैं। राजनीतिक दलों के लिए उन मुद्दों को उछालना कोई नई बात नहीं है, जो उनके सियासी हितों को पूरे करते हों। जिन मुद्दों से सियासी हित नहीं सधते, ऐसे मुद्दे उनके लिए कोई मायने नहीं रखते हैं। लेकिन मीडिया को इससे ऊपर उठकर देखने की जरूरत है, खासकर, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को।
सरबजीत सिंह का ही मामला लें। ऐसा नहीं है कि अफजल गुरु को फांसी के बाद ही सरबजीत का मुद्दा उठा। समाचार चैनल काफी पहले से ही यह मुद्दा उठाते रहे हैं। सरबजीत की बहन दलजीत कौर के विस्तृत बयान, इंटरव्यू, परिजनों की प्रतिक्रियाएं आदि को लेकर चैनल भावुक कहानियां दिखाते रहे हैं। कई बार ऐसा भी देखा गया कि किसी एक चैनल ने बिना किसी संदर्भ या प्रसंग के सरबजीत के परिजनों से बातचीत कर ली, तो दूसरे चैनल भी शुरू हो गए। यह सही है कि सरबजीत का मामला हटकर है, लेकिन चैनलों में इस मुद्दे को लेकर जिस तरह विवेकहीन प्रतिस्पर्धा रही, उससे सरबजीत मानों दो देशों के बीच सम्बंधों के प्रतीक बन गए। इसीलिए सरबजीत की हत्या पर भारत में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। राजनेताओं ने इसी का फायदा उठाकर खूब बयान दिए। अपनी-अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश हुई। हर कोई मीडिया में बयान देकर मानो अपने को दर्ज करा देना चाहता हो। मीडिया के जरिए जो भावनात्मक उफान पैदा किया गया, उसका लाभ उठाने में कोई पीछे नहीं छूटा। पंजाब की अकाली सरकार ने तुरत-फुरत सरबजीत को शहीद का दर्जा दे डाला। ऊपर से तीन दिन का राजकीय शोक! राहुल गांधी का कभी कोई बयान नहीं आया था, वे भी सरबजीत के परिजनों को ढांढस बंधाने जा पहुंचे। अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए भिखीविंड में होड़ मच गई। मीडिया के कैमरे इतने कि आंखें चौंधिया जाएं। हर कोई शवयात्रा को 'लाइव' बनाने में जुट गया।
पाकिस्तान में पहले भी ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं। थोड़े दिन पहले ही लाहौर की उसी कोट लखपत जेल में चमेल सिंह को कैदियों ने मार डाला, जहां सरबजीत पर हमला किया गया था। लेकिन चमेल सिंह के लिए किसी ने दो आंसू भी नहीं बहाये। कम-से-कम ऐसा ज्वार तो बिल्कुल नहीं उठा, जो सरबजीत के मामले में हुआ। क्या इसलिए कि मीडिया ने चमेल सिंह के मुद्दे को उछाला नहीं? या फिर इसलिए कि चमेल सिंह का मामला किसी राजनीतिक दल का हित नहीं साधता था? भारत के कितने कैदियों के साथ पाकिस्तान में क्या बर्ताव हो रहा है, किसी चैनल ने जानने की कोशिश नहीं की। कोट लखपत जेल में ही बंद 20 भारतीय कैदी तो ऐसे हैं, जो मानसिक रूप से बीमार हो चुके हैं। पकड़े जाते वक्त ये लोग बिल्कुल स्वस्थ थे। लेकिन जेल में इनके साथ हुए बर्ताव ने इन्हें लगभग पागल होने की कगार पर पहुंचा दिया। इनके साथ क्या बदसलूकी और उत्पीडऩ हुआ होगा, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। सारे मानवाधिकारी मौन हैं।
दोनों देशों के बंदियों के लिए बनी भारत-पाकिस्तान न्यायिक समिति ने हाल ही पाकिस्तान दौरे में पाया कि कराची, रावलपिंडी और लाहौर में बंद 535 कैदियों में से 469 को तो नियमानुसार भारतीय दूतावास के अधिकारियों से मिलने तक नहीं दिया गया। गौरतलब है कि इनमें 483 गरीब मछुआरे हैं, जो मछली पकड़ते वक्त अनजाने में सीमा पार कर गए। समुद्र में सीमा का भ्रम हो ही जाता है। रोजी-रोटी की तलाश में गए अक्सर दोनों देशों के मछुआरे पकड़े जाते हैं। उन्हें छोड़ा भी जाता है। लेकिन पाकिस्तानी जेलों का जो हाल है, उसमें थोड़े समय में ही बंदी के साथ जो बर्ताव होता है, वह असहनीय है। भारत सरकार के विदेश मामलों के मंत्रालय के अनुसार पाकिस्तान की जेलों में 1,184 भारतीय बंदी हैं। इन्हें मुक्त कराने में केन्द्र सरकार क्या कर रही है तथा इन बंदियों का पाकिस्तान में क्या हाल है, यह जानना भी जरूरी है। लेकिन इनके परिजनों की व्यथा मीडिया में अक्सर स्थानीय विवरणों में गुम होकर रह जाती है।
इतना ही नहीं, सबसे दुखद मुद्दा तो उन 53 सैन्य कर्मियों का है, जो 1965 व १1971 के युद्ध में सीमा की रक्षा करते हुए पाक सैनिकों के हत्थे चढ़ गए। इनका आज तक कोई पता नहीं चल पाया है कि ये जिन्दा हैं या मर गए। पाकिस्तान इनके बारे में खामोश है। इनके दुखी परिजन अपनी पीड़ा व्यक्त करते रहे हैं। मेजर एस.सी. गुलेरी के परिजन पिछले 42 साल से उनके घर लौटने का इंतजार कर रहे हैं। मेजर का वाकिया कम दर्दनाक नहीं। दो दिन पहले उनकी शादी हुई थी। 1971 का युद्ध छिड़ गया। अचानक सेना से बुलावा आया और वे सरहद पर चले गए। लेकिन वापस कभी नहीं लौटे। कैप्टन जे.सी. शर्मा के परिजन भी लंबे अरसे से उनके घर लौटने का इंतजार कर रहे हैं। ये लोग वे थे, जो हमारी रक्षा करने के लिए सीमा पर गए थे। समय-समय पर इन 53 युद्ध बंदियों के परिजन भारत सरकार से मांग करते रहे हैं, लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती। इन्हें लेकर केन्द्र सरकार क्यों इतनी लाचार है? इस दौरान विभिन्न राजनीतिक दल केन्द्र की सत्ता में रहे। किसी ने भी भारत के युद्ध बंदियों को लेकर गंभीर प्रयास नहीं किए। क्यों? मीडिया के लिए यह मुद्दा कभी इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा, जितना हाल में सरबजीत का रहा। सरबजीत का मुद्दा उठाना, गलत नहीं। गलत दूसरे मुद्दों की अनदेखी है। सरबजीत की प्रतिक्रिया भारत में सनाउल्लाह के रूप में सामने आई। अगर यह सिलसिला चल पड़े तो कितना खतरनाक होगा? इन दोनों मामलों को लेकर जो सियासी नफा-नुकसान भारत के राजनीतिक दलों से जुड़ा है, वही पाकिस्तान में भी है। 10 मई को पाकिस्तान में चुनाव है। सियासी पार्टियां अपनी-अपनी चालें चल रही हैं। वे दोनों मामलों को अपने ढंग से भुनाने की कोशिश कर रही हैं। वे मीडिया को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहती हैं। मीडिया इस दिशा में अधिक सजग नहीं दिखता। वह किस मामले में अति करेगा, तथा किस मामले की अनदेखी; कुछ भी कहना आसान नहीं।
कई बार मीडिया समान महत्व के मुद्दों में से किसी एक को उछालकर बाकी मुद्दों से आंख फेर लेता है। मान लेता है कि अपना दायित्व पूरा हुआ। कई बार मीडिया कमतर मुद्दों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, लेकिन जरूरी मुद्दों की अनदेखी कर जाता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो भेड़चाल साफ दिखाई पड़ती है। नरेन्द्र मोदी के भाषणों की सजीव प्रसारण की होड़ शुरू हुई, तो कोई चैनल पीछे रहना नहीं चाहता। जो चैनल मोदी को पानी पी-पी कर कोसते थे, वे भी इस होड़ में शामिल हो गए। टीआरपी के लिए सब जायज है। ठीक है, दर्शकों-श्रोताओं से दूर जाकर कोई चैनल अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता, लेकिन क्या यह सचमुच टीआरपी की अंधी दौड़ है या कुछ और भी? समाचार चैनलों का मौजूदा बर्ताव (या भटकाव!) कई सवाल खड़े करता है। चुनाव नजदीक आ रहे हैं। राजनीतिक दलों के लिए उन मुद्दों को उछालना कोई नई बात नहीं है, जो उनके सियासी हितों को पूरे करते हों। जिन मुद्दों से सियासी हित नहीं सधते, ऐसे मुद्दे उनके लिए कोई मायने नहीं रखते हैं। लेकिन मीडिया को इससे ऊपर उठकर देखने की जरूरत है, खासकर, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को।
सरबजीत सिंह का ही मामला लें। ऐसा नहीं है कि अफजल गुरु को फांसी के बाद ही सरबजीत का मुद्दा उठा। समाचार चैनल काफी पहले से ही यह मुद्दा उठाते रहे हैं। सरबजीत की बहन दलजीत कौर के विस्तृत बयान, इंटरव्यू, परिजनों की प्रतिक्रियाएं आदि को लेकर चैनल भावुक कहानियां दिखाते रहे हैं। कई बार ऐसा भी देखा गया कि किसी एक चैनल ने बिना किसी संदर्भ या प्रसंग के सरबजीत के परिजनों से बातचीत कर ली, तो दूसरे चैनल भी शुरू हो गए। यह सही है कि सरबजीत का मामला हटकर है, लेकिन चैनलों में इस मुद्दे को लेकर जिस तरह विवेकहीन प्रतिस्पर्धा रही, उससे सरबजीत मानों दो देशों के बीच सम्बंधों के प्रतीक बन गए। इसीलिए सरबजीत की हत्या पर भारत में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। राजनेताओं ने इसी का फायदा उठाकर खूब बयान दिए। अपनी-अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश हुई। हर कोई मीडिया में बयान देकर मानो अपने को दर्ज करा देना चाहता हो। मीडिया के जरिए जो भावनात्मक उफान पैदा किया गया, उसका लाभ उठाने में कोई पीछे नहीं छूटा। पंजाब की अकाली सरकार ने तुरत-फुरत सरबजीत को शहीद का दर्जा दे डाला। ऊपर से तीन दिन का राजकीय शोक! राहुल गांधी का कभी कोई बयान नहीं आया था, वे भी सरबजीत के परिजनों को ढांढस बंधाने जा पहुंचे। अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए भिखीविंड में होड़ मच गई। मीडिया के कैमरे इतने कि आंखें चौंधिया जाएं। हर कोई शवयात्रा को 'लाइव' बनाने में जुट गया।
पाकिस्तान में पहले भी ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं। थोड़े दिन पहले ही लाहौर की उसी कोट लखपत जेल में चमेल सिंह को कैदियों ने मार डाला, जहां सरबजीत पर हमला किया गया था। लेकिन चमेल सिंह के लिए किसी ने दो आंसू भी नहीं बहाये। कम-से-कम ऐसा ज्वार तो बिल्कुल नहीं उठा, जो सरबजीत के मामले में हुआ। क्या इसलिए कि मीडिया ने चमेल सिंह के मुद्दे को उछाला नहीं? या फिर इसलिए कि चमेल सिंह का मामला किसी राजनीतिक दल का हित नहीं साधता था? भारत के कितने कैदियों के साथ पाकिस्तान में क्या बर्ताव हो रहा है, किसी चैनल ने जानने की कोशिश नहीं की। कोट लखपत जेल में ही बंद 20 भारतीय कैदी तो ऐसे हैं, जो मानसिक रूप से बीमार हो चुके हैं। पकड़े जाते वक्त ये लोग बिल्कुल स्वस्थ थे। लेकिन जेल में इनके साथ हुए बर्ताव ने इन्हें लगभग पागल होने की कगार पर पहुंचा दिया। इनके साथ क्या बदसलूकी और उत्पीडऩ हुआ होगा, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। सारे मानवाधिकारी मौन हैं।
दोनों देशों के बंदियों के लिए बनी भारत-पाकिस्तान न्यायिक समिति ने हाल ही पाकिस्तान दौरे में पाया कि कराची, रावलपिंडी और लाहौर में बंद 535 कैदियों में से 469 को तो नियमानुसार भारतीय दूतावास के अधिकारियों से मिलने तक नहीं दिया गया। गौरतलब है कि इनमें 483 गरीब मछुआरे हैं, जो मछली पकड़ते वक्त अनजाने में सीमा पार कर गए। समुद्र में सीमा का भ्रम हो ही जाता है। रोजी-रोटी की तलाश में गए अक्सर दोनों देशों के मछुआरे पकड़े जाते हैं। उन्हें छोड़ा भी जाता है। लेकिन पाकिस्तानी जेलों का जो हाल है, उसमें थोड़े समय में ही बंदी के साथ जो बर्ताव होता है, वह असहनीय है। भारत सरकार के विदेश मामलों के मंत्रालय के अनुसार पाकिस्तान की जेलों में 1,184 भारतीय बंदी हैं। इन्हें मुक्त कराने में केन्द्र सरकार क्या कर रही है तथा इन बंदियों का पाकिस्तान में क्या हाल है, यह जानना भी जरूरी है। लेकिन इनके परिजनों की व्यथा मीडिया में अक्सर स्थानीय विवरणों में गुम होकर रह जाती है।
इतना ही नहीं, सबसे दुखद मुद्दा तो उन 53 सैन्य कर्मियों का है, जो 1965 व १1971 के युद्ध में सीमा की रक्षा करते हुए पाक सैनिकों के हत्थे चढ़ गए। इनका आज तक कोई पता नहीं चल पाया है कि ये जिन्दा हैं या मर गए। पाकिस्तान इनके बारे में खामोश है। इनके दुखी परिजन अपनी पीड़ा व्यक्त करते रहे हैं। मेजर एस.सी. गुलेरी के परिजन पिछले 42 साल से उनके घर लौटने का इंतजार कर रहे हैं। मेजर का वाकिया कम दर्दनाक नहीं। दो दिन पहले उनकी शादी हुई थी। 1971 का युद्ध छिड़ गया। अचानक सेना से बुलावा आया और वे सरहद पर चले गए। लेकिन वापस कभी नहीं लौटे। कैप्टन जे.सी. शर्मा के परिजन भी लंबे अरसे से उनके घर लौटने का इंतजार कर रहे हैं। ये लोग वे थे, जो हमारी रक्षा करने के लिए सीमा पर गए थे। समय-समय पर इन 53 युद्ध बंदियों के परिजन भारत सरकार से मांग करते रहे हैं, लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती। इन्हें लेकर केन्द्र सरकार क्यों इतनी लाचार है? इस दौरान विभिन्न राजनीतिक दल केन्द्र की सत्ता में रहे। किसी ने भी भारत के युद्ध बंदियों को लेकर गंभीर प्रयास नहीं किए। क्यों? मीडिया के लिए यह मुद्दा कभी इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा, जितना हाल में सरबजीत का रहा। सरबजीत का मुद्दा उठाना, गलत नहीं। गलत दूसरे मुद्दों की अनदेखी है। सरबजीत की प्रतिक्रिया भारत में सनाउल्लाह के रूप में सामने आई। अगर यह सिलसिला चल पड़े तो कितना खतरनाक होगा? इन दोनों मामलों को लेकर जो सियासी नफा-नुकसान भारत के राजनीतिक दलों से जुड़ा है, वही पाकिस्तान में भी है। 10 मई को पाकिस्तान में चुनाव है। सियासी पार्टियां अपनी-अपनी चालें चल रही हैं। वे दोनों मामलों को अपने ढंग से भुनाने की कोशिश कर रही हैं। वे मीडिया को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहती हैं। मीडिया इस दिशा में अधिक सजग नहीं दिखता। वह किस मामले में अति करेगा, तथा किस मामले की अनदेखी; कुछ भी कहना आसान नहीं।
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