मुम्बई में १२ मार्च १९९३ को दोपहर डेढ़ बजे से बम धमाके शुरू हुए। सवा दो घंटे तक जगह-जगह धमाके होते रहे। चीख-पुकार के बीच २५७ निर्दोष लोगों की मौत हो गई। ७१३ घायल हो गए। पूरी मुंबई दहल गई। ये धमाके भारत के पहले सुनियोजित शृंखलाबद्ध धमाके थे। आतंक का एक नया और भयावह चेहरा सामने आया। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा, विस्फोट की घटनाओं में पाकिस्तान का पूरा हाथ था। मुंबई की अलग-अलग जगहों पर विस्फोटक रखने के लिए जिन १९ अपराधियों को चुना गया, उनमें १७ को पाकिस्तान में ट्रेनिंग दी गई। पाकिस्तान से लौटकर इन लोगों ने विस्फोटों को अंजाम दिया। हथियार और विस्फोटक भी तस्करी करके लाए गए। इनके सरगना दाउद इब्राहिम, टाइगर मेमन व कई गुर्गे भागकर पाकिस्तान चले गए और आज वहां शान से रह रहे हैं। यह पहला अवसर है, जब सुप्रीम कोर्ट ने भारत में भारतीयों द्वारा की गई आतंकी घटना के लिए पाकिस्तान को सीधे दोषी ठहराया है।
खैर... विस्फोटों में संजय दत्त का कोई हाथ नहीं था। टाडा कोर्ट ने पहले ही उन्हें आपराधिक साजिश से बरी कर दिया था और उन्हें छह साल की सजा सुना दी थी। ध्यान रहे यह सजा उन्हें ए.के. ५६ रायफल और एक पिस्तौल अवैध रूप से रखने पर सुनाई गई थी। आतंकी इसी रायफल का इस्तेमाल करते हैं। धमाकों के लिए भारत में तस्करी से लाए गए हथियारों में से एक संजय दत्त के पास भी पहुंची। आखिर कैसे? संजय दत्त तब ३३ वर्ष के दुस्साहसी और एक लापरवाह नौजवान थे। लापरवाही का खमियाजा भुगतना ही पड़ता है। संजय दत्त ने भी भुगता। सबक भी सीखे होंगे, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संजय दत्त का मामला एक सामान्य लापरवाही तक सीमित नहीं है। यह एक ऐसी घटना से जुड़ा हुआ है, जो शायद ही कभी भुलाई जाएगी। लाखों-करोड़ों लोगों की भावनाएं भी इससे जुड़ी हैं। पीडि़तों और मृतकों के परिजनों की तो है ही। इसलिए कानूनसम्मत जो भी सजा हो, वह उन्हें भुगतनी होगी। जाने-माने कानूनविद् जस्टिस आर.एस. सोढ़ी के अनुसार, 'संजय दत्त बहुत सस्ते में छूट गए। उन्हें सिर्फ पांच वर्ष की सजा मिली है, जो उनके अपराध के हिसाब से बहुत कम है। इससे उन्हें संतुष्ट हो जाना चाहिए।' सही है, एक बार टाडा कानून में मुकदमा दर्ज हो जाने के बाद हटाया नहीं जाता। टाडा में बंद जब्बुनिशा काजी से पूछिए, जिसकी दलील है कि उसका गुनाह तो संजय दत्त से भी कम था। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील कमलेश जैन का कहना है- 'बेशक उस वक्त (बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद) मुंबई के हालात भयावह थे और पुलिस से संजय दत्त और उनके परिवार को सुरक्षा नहीं मिल रही थी। इसलिए उन्होंने भय व अपने बचाव में गैर-कानूनी तरीके से हथियार रखे, लेकिन अपने आप में यह दलील नाकाफी है। आखिर बहुत सारे लोग मुम्बई में उसी हालात में रह रहे थे और अगर वे भी यही कदम उठाते, तो क्या होता?'
जैसा कि पहले कहा, एके-५६ रायफल आतंकी रखते हैं। बेशक संजय दत्त ने इसका इस्तेमाल नहीं किया। आतंकियों से उनका परिचय भी नहीं होगा, परन्तु हथियारों की तस्करी करने और उनकी अवैध खरीद-बिक्री करने वाले असामाजिक तत्वों के सम्पर्कों में तो वे आए ही थे। कानून के जानकार कहते हैं कि मुम्बई में इतना बड़ा आतंकी मनसूबा कामयाब नहीं होता, अगर जिम्मेदार तंत्र के साथ ही स्थानीय लोगों ने भी लापरवाही न बरती होती। संजय दत्त तो एक नामी परिवार से ताल्लुक रखते थे। उन्हें तो खास सावधानी बरतनी चाहिए थी। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक इन्सान की जिम्मेदारी तय करता है। सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीशों जस्टिस पी. सदाशिवम व जस्टिस बी.एस. चौहान ने फैसला सुनाते हुए कहा कि दत्त परिवार के रुतबे के बावजूद यह नहीं माना जा सकता कि संजय दत्त अवैध ढंग से हथियार रखें। उन्हें सजा पूरी करनी ही होगी। संजय दत्त को माफी की मांग करना सुप्रीम कोर्ट की मंशा की अवमानना ही मानी जाएगी। संजय दत्त को माफ किया जाता है, तो यह संदेश जाएगा कि बड़े और रुतबे वाले लोग अपराध करके बच निकलते हैं या फिर रियायत पा लेते हैं भले ही शीर्ष अदालत उन्हें दोषी माने। आम जनता के इन मनोभावों को मीडिया को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए।