कल्पना करें, जब सरकार का शक्तिशाली व साधन-सम्पन्न तंत्र ही खबरों की खरीद-फरोख्त करेगा, तो मीडिया को भ्रष्टाचार के दलदल में धकेलने से भला कौन रोक पाएगा? छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार ने कुछ प्रमुख टीवी चैनलों पर मनचाही खबरें दिखाने के लिए किस तरह सरकारी खजाना खोल दिया, इसकी पोल 'इंडियन एक्सप्रेस ने खोली है।
यह सही है, 'पेड न्यूज' के अधिकांश मामलों में मीडिया दोषी है। लेकिन दूसरी ओर मीडिया को भ्रष्ट करने में चुनावी उम्मीदवार, राजनीतिक दलों, नेताओं के अलावा कारपोरेट घरानों को भी कम जिम्मेदार नहीं माना जाता। अब इसमें एक नाम और जुड़ गया है और वह है छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार। सरकार भी खबरें खरीदती हैं, यह पहला उदाहरण है। कल्पना करें, जब सरकार का शक्तिशाली व साधन-सम्पन्न तंत्र ही खबरों की खरीद-फरोख्त करेगा, तो मीडिया को भ्रष्टाचार के दलदल में धकेलने से भला कौन रोक पाएगा? छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार ने कुछ प्रमुख टीवी चैनलों पर मनचाही खबरें दिखाने के लिए किस तरह सरकारी खजाना खोल दिया, इसकी पोल 'इंडियन एक्सप्रेस' ने पिछले दिनों प्रकाशित एक विस्तृत समाचार रिपोर्ट में खोल दी।
'छत्तीसगढ़ गवर्नमेंट पे'ज फार आल द टीवी न्यूज देट इज फिट टू बाय' हैडलाइन से प्रकाशित इस रिपोर्ट में जो तथ्य और आंकड़े दिए गए हैं, वे छत्तीसगढ़ में टीवी चैनलों और राज्य सरकार दोनों पर बदनुमा दाग है। रिपोर्ट में हालांकि 2009 से 2011 तक के ही ब्यौरे हैं, लेकिन अब सब कुछ ठीक हो गया होगा, यह मानने का कोई कारण नजर नहीं आता। सरकारी कार्यक्रमों खासकर, मुख्यमंत्री की कवरेज के लिए स्थानीय टीवी चैनलों ने बाकायदा कई पैकेज बना रखे हैं। सबकी अलग-अलग दरें निर्धारित हैं। एक टीवी चैनल का उदाहरण देखिए—मुख्यमंत्री के भाषण व अन्य महत्वपूर्ण सरकारी कवरेज के लिए 2 मिनट का स्पेशल पैकेज। रोजाना 15 बार प्रसारण। कीमत 3.28 करोड़ रु. प्रतिवर्ष। इसी तरह मुख्यमंत्री की जनसभाओं की 10 मिनट लाइव कवरेज की कीमत 48 लाख रु. प्रतिवर्ष। (हर माह 4 प्रसारण) एक और पैकेज है—टिकर। रोजाना 10 घंटे दिखाए जाने वाले इस टिकर पैकेज की कीमत है 60 लाख रु. प्रतिवर्ष। एक और स्पेशल पैकेज है जिसमें सरकारी कार्यक्रमों की आधा घंटा कवरेज है। यह राष्ट्रीय नेटवर्क के लिए भी भेजी जाती है। इस पैकेज की कीमत है—50 लाख रुपए प्रतिवर्ष। (हर माह दो कार्यक्रमों का प्रसारण) टीवी स्क्रीन पर एक पट्टिका दिखाने का भी छोटा पैकेज है, जिसमें बच्चों के साथ मुख्यमंत्रीजी की फोटो दिखाने का प्रावधान है। इसकी कीमत है 14.6 लाख रु. प्रतिवर्ष। ये सारे पैकेज निजी टीवी चैनल की ओर से सरकार को 2010-11 के कार्यक्रमों की कवरेज के लिए प्रस्तावित किए गए थे।
'इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट में कई टीवी चैनलों की प्रसारित खबरों का तिथिवार ब्यौरा भी छपा है, जिनकी अलग-अलग कीमतें प्रस्तावित की गईं। इन्हें अखबार ने 'मैन्यूफ्रेक्चर्ड न्यूज' कहा है। इस 'मैन्यूफ्रेक्चर्ड न्यूज' के दो-एक उदाहरणों से ही पता चल जाएगा कि सरकार किस तरह अपने पक्ष में खबरें प्रायोजित कराती हैं। इनमें विरोधियों से लेकर माओवादी तक शामिल हैं। जाहिर है, प्रायोजित या फिर नकली खबरों ने सरकार का नैतिक बल कमजोर कर दिया। शायद इसीलिए राज्य सरकार राज्य के बजट प्रसारण के लिए भी चैनलों को कीमत चुकाती है। अखबार की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 में राज्य सरकार ने बजट प्रसारण के लिए चार टीवी चैनलों को 25 लाख रु. का भुगतान किया। यही नहीं, बस्तर में गरीब आदिवासियों को अनाज वितरण का सरकारी कार्यक्रम टीवी पर दिखाने के लिए टीवी चैनलों को 14.26 लाख रु. की कीमत चुकाई गई। किसी के भी जेहन में यह सवाल कौंध सकता है, आखिर यह सब क्या है? सरकार को क्या जरूरत है ऐसा करने की? अपनी जन कल्याणकारी योजनाओं के लिए सरकार को मीडिया का मोहताज क्यों होना चाहिए? क्यों सरकार लालायित है मीडिया में अपनी पब्लिसिटी के लिए? स्पष्ट है, सरकार की नीयत में खोट है। अगर सरकार पब्लिसिटी ही चाहती है तो बाकायदा विज्ञापन जारी करे। विज्ञापन-सामग्री को खबर का रूप देना जनता से धोखा है। यही सवाल मीडिया से भी है। जन कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की जानकारी लोगों तक पहुंचाना मीडिया का काम है। इनकी जमीनी हकीकत बताना भी मीडिया का फर्ज है। जनहित में सूचनाओं का प्रसार और खबरों का विश्लेषण मीडिया नहीं तो और कौन करेगा? इन कार्यों की कीमत कैसी? आश्चर्यजनक रूप से सरकार और मीडिया ने अपने-अपने तर्कों में लीपापोती की है। छत्तीसगढ़ सरकार और स्थानीय चैनल जिन्हें विज्ञापन या प्रायोजित खबरें बता रहे हैं, वे साधारण खबरों के रूप में ही लोगों के सामने परोसी गईं, विज्ञापन के रूप में नहीं। चतुराई बरतते हुए भले ही कुछेक अपवाद छोड़ दिए गए हों, लेकिन भ्रष्टाचार का यह धंधा छत्तीसगढ़ में आज भी खूब फल-फूल रहा है। वह भी राज्य सरकार के सरपरस्ती में।
सरकारी मकानों पर
पत्रकारों के कब्जे
मीडिया और सरकार के भ्रष्ट गठजोड़ का एक और उदाहरण मध्यप्रदेश से है। मामला मीडिया संस्थानों की बजाय मीडिया कर्मियों से ज्यादा जुड़ा है। मध्यप्रदेश में सरकारी मकानों पर 210 पत्रकार बरसों से कब्जा जमाए बैठे हैं। इन पत्रकारों पर 14 करोड़ रु. से अधिक की किराया राशि बकाया है। यह चौंकाने वाली जानकारी अगर राज्य सरकार की ओर से स्वाभाविक तौर पर आई होती तो और बात थी। जानकारी सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त हुई है। इस आधार पर एक रिटायर्ड सरकारी अधिकारी ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की है। आरोप है कि दो या तीन साल के लिए आवंटित सरकारी मकान में कुछ पत्रकार तो 37 वर्षों से कब्जा जमाए हुए हैं। इस दौरान राज्य में पांच-छह सरकारें तो आई होंगी। किसी भी सरकार ने इन पत्रकारों से मकान खाली कराने या किराया वसूल करने की कोशिश क्यों नहीं की? जाहिर है, हर सरकार अपने हित साधने के लिए पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई करने से बचती रही। हालांकि 210 आवंटित सरकारी मकानों पर 11 मकानों में अदालत का स्टे है और 23 मकान खाली भी कराए गए हैं। लेकिन अब भी 176 मकानों पर पत्रकारों के अनधिकृत कब्जे हैं। क्या इनके खिलाफ सरकार कोई कार्रवाई कर रही है या फिर कोर्ट के आदेश का इंतजार कर रही है?
यह सही है, 'पेड न्यूज' के अधिकांश मामलों में मीडिया दोषी है। लेकिन दूसरी ओर मीडिया को भ्रष्ट करने में चुनावी उम्मीदवार, राजनीतिक दलों, नेताओं के अलावा कारपोरेट घरानों को भी कम जिम्मेदार नहीं माना जाता। अब इसमें एक नाम और जुड़ गया है और वह है छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार। सरकार भी खबरें खरीदती हैं, यह पहला उदाहरण है। कल्पना करें, जब सरकार का शक्तिशाली व साधन-सम्पन्न तंत्र ही खबरों की खरीद-फरोख्त करेगा, तो मीडिया को भ्रष्टाचार के दलदल में धकेलने से भला कौन रोक पाएगा? छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार ने कुछ प्रमुख टीवी चैनलों पर मनचाही खबरें दिखाने के लिए किस तरह सरकारी खजाना खोल दिया, इसकी पोल 'इंडियन एक्सप्रेस' ने पिछले दिनों प्रकाशित एक विस्तृत समाचार रिपोर्ट में खोल दी।
'छत्तीसगढ़ गवर्नमेंट पे'ज फार आल द टीवी न्यूज देट इज फिट टू बाय' हैडलाइन से प्रकाशित इस रिपोर्ट में जो तथ्य और आंकड़े दिए गए हैं, वे छत्तीसगढ़ में टीवी चैनलों और राज्य सरकार दोनों पर बदनुमा दाग है। रिपोर्ट में हालांकि 2009 से 2011 तक के ही ब्यौरे हैं, लेकिन अब सब कुछ ठीक हो गया होगा, यह मानने का कोई कारण नजर नहीं आता। सरकारी कार्यक्रमों खासकर, मुख्यमंत्री की कवरेज के लिए स्थानीय टीवी चैनलों ने बाकायदा कई पैकेज बना रखे हैं। सबकी अलग-अलग दरें निर्धारित हैं। एक टीवी चैनल का उदाहरण देखिए—मुख्यमंत्री के भाषण व अन्य महत्वपूर्ण सरकारी कवरेज के लिए 2 मिनट का स्पेशल पैकेज। रोजाना 15 बार प्रसारण। कीमत 3.28 करोड़ रु. प्रतिवर्ष। इसी तरह मुख्यमंत्री की जनसभाओं की 10 मिनट लाइव कवरेज की कीमत 48 लाख रु. प्रतिवर्ष। (हर माह 4 प्रसारण) एक और पैकेज है—टिकर। रोजाना 10 घंटे दिखाए जाने वाले इस टिकर पैकेज की कीमत है 60 लाख रु. प्रतिवर्ष। एक और स्पेशल पैकेज है जिसमें सरकारी कार्यक्रमों की आधा घंटा कवरेज है। यह राष्ट्रीय नेटवर्क के लिए भी भेजी जाती है। इस पैकेज की कीमत है—50 लाख रुपए प्रतिवर्ष। (हर माह दो कार्यक्रमों का प्रसारण) टीवी स्क्रीन पर एक पट्टिका दिखाने का भी छोटा पैकेज है, जिसमें बच्चों के साथ मुख्यमंत्रीजी की फोटो दिखाने का प्रावधान है। इसकी कीमत है 14.6 लाख रु. प्रतिवर्ष। ये सारे पैकेज निजी टीवी चैनल की ओर से सरकार को 2010-11 के कार्यक्रमों की कवरेज के लिए प्रस्तावित किए गए थे।
'इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट में कई टीवी चैनलों की प्रसारित खबरों का तिथिवार ब्यौरा भी छपा है, जिनकी अलग-अलग कीमतें प्रस्तावित की गईं। इन्हें अखबार ने 'मैन्यूफ्रेक्चर्ड न्यूज' कहा है। इस 'मैन्यूफ्रेक्चर्ड न्यूज' के दो-एक उदाहरणों से ही पता चल जाएगा कि सरकार किस तरह अपने पक्ष में खबरें प्रायोजित कराती हैं। इनमें विरोधियों से लेकर माओवादी तक शामिल हैं। जाहिर है, प्रायोजित या फिर नकली खबरों ने सरकार का नैतिक बल कमजोर कर दिया। शायद इसीलिए राज्य सरकार राज्य के बजट प्रसारण के लिए भी चैनलों को कीमत चुकाती है। अखबार की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 में राज्य सरकार ने बजट प्रसारण के लिए चार टीवी चैनलों को 25 लाख रु. का भुगतान किया। यही नहीं, बस्तर में गरीब आदिवासियों को अनाज वितरण का सरकारी कार्यक्रम टीवी पर दिखाने के लिए टीवी चैनलों को 14.26 लाख रु. की कीमत चुकाई गई। किसी के भी जेहन में यह सवाल कौंध सकता है, आखिर यह सब क्या है? सरकार को क्या जरूरत है ऐसा करने की? अपनी जन कल्याणकारी योजनाओं के लिए सरकार को मीडिया का मोहताज क्यों होना चाहिए? क्यों सरकार लालायित है मीडिया में अपनी पब्लिसिटी के लिए? स्पष्ट है, सरकार की नीयत में खोट है। अगर सरकार पब्लिसिटी ही चाहती है तो बाकायदा विज्ञापन जारी करे। विज्ञापन-सामग्री को खबर का रूप देना जनता से धोखा है। यही सवाल मीडिया से भी है। जन कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की जानकारी लोगों तक पहुंचाना मीडिया का काम है। इनकी जमीनी हकीकत बताना भी मीडिया का फर्ज है। जनहित में सूचनाओं का प्रसार और खबरों का विश्लेषण मीडिया नहीं तो और कौन करेगा? इन कार्यों की कीमत कैसी? आश्चर्यजनक रूप से सरकार और मीडिया ने अपने-अपने तर्कों में लीपापोती की है। छत्तीसगढ़ सरकार और स्थानीय चैनल जिन्हें विज्ञापन या प्रायोजित खबरें बता रहे हैं, वे साधारण खबरों के रूप में ही लोगों के सामने परोसी गईं, विज्ञापन के रूप में नहीं। चतुराई बरतते हुए भले ही कुछेक अपवाद छोड़ दिए गए हों, लेकिन भ्रष्टाचार का यह धंधा छत्तीसगढ़ में आज भी खूब फल-फूल रहा है। वह भी राज्य सरकार के सरपरस्ती में।
सरकारी मकानों पर
पत्रकारों के कब्जे
मीडिया और सरकार के भ्रष्ट गठजोड़ का एक और उदाहरण मध्यप्रदेश से है। मामला मीडिया संस्थानों की बजाय मीडिया कर्मियों से ज्यादा जुड़ा है। मध्यप्रदेश में सरकारी मकानों पर 210 पत्रकार बरसों से कब्जा जमाए बैठे हैं। इन पत्रकारों पर 14 करोड़ रु. से अधिक की किराया राशि बकाया है। यह चौंकाने वाली जानकारी अगर राज्य सरकार की ओर से स्वाभाविक तौर पर आई होती तो और बात थी। जानकारी सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त हुई है। इस आधार पर एक रिटायर्ड सरकारी अधिकारी ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की है। आरोप है कि दो या तीन साल के लिए आवंटित सरकारी मकान में कुछ पत्रकार तो 37 वर्षों से कब्जा जमाए हुए हैं। इस दौरान राज्य में पांच-छह सरकारें तो आई होंगी। किसी भी सरकार ने इन पत्रकारों से मकान खाली कराने या किराया वसूल करने की कोशिश क्यों नहीं की? जाहिर है, हर सरकार अपने हित साधने के लिए पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई करने से बचती रही। हालांकि 210 आवंटित सरकारी मकानों पर 11 मकानों में अदालत का स्टे है और 23 मकान खाली भी कराए गए हैं। लेकिन अब भी 176 मकानों पर पत्रकारों के अनधिकृत कब्जे हैं। क्या इनके खिलाफ सरकार कोई कार्रवाई कर रही है या फिर कोर्ट के आदेश का इंतजार कर रही है?
2 comments:
बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक अभिव्यक्ति शुभकामना देती ”शालिनी”मंगलकारी हो जन जन को .-2013
प्रभावी लेखनी,
नव वर्ष मंगलमय हो,
बधाई !!
Post a Comment