मीडिया में कैमरे की कितनी अहम भूमिका है, इसकी अहमियत तब सामने आई, जब दिल्ली पुलिस के एक सिपाही सुभाष तोमर की हत्या का मामला दर्ज हुआ। एक टीवी चैनल ने उस दिन की घटना की वह फुटेज दिखा दी, जिसमें सुभाष तोमर दिखाई दे रहे थे। दो युवा उन्हें होश में लाने की कोशिश कर रहे थे। इनमें एक युवक था और दूसरी युवती।
कैमरा झूठ नहीं बोलता। कैमरा चाहे सी.सी. टीवी का हो या फिर न्यूज टीवी का। सच्चाई को कैद कर ही लेता है। मीडिया में कैमरे की कितनी अहम भूमिका है, इसका उदाहरण दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की घटना के विरोध में हुए एक प्रदर्शन में देखने को मिला। यह प्रदर्शन भी देश भर में हुए अनेक प्रदर्शनों की तरह टीवी चैनलों ने कवर किया था और भुला दिया गया था। लेकिन इसकी अहमियत तब सामने आई, जब दिल्ली पुलिस के एक सिपाही सुभाष तोमर की हत्या का मामला दर्ज हुआ। सुभाष तोमर उस दिन प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित करने के लिए अपनी ड्यूटी पर तैनात थे। दिल्ली पुलिस का आरोप था कि निषेधाज्ञा के दौरान हिंसा पर उतारू भीड़ ने पुलिस पर पथराव किया। इससे सुभाष तोमर गंभीर रूप से घायल हो गए। उन्हें गंभीरावस्था में राममनोहर लोहिया अस्पताल में भरती कराया गया, जहां दो दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई। पुलिस ने निषेधाज्ञा भंग करने सहित, सिपाही पर हमले और हत्या के प्रयास आदि विभिन्न धाराओं में 8 प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया था, जिनमें कुछ छात्र भी थे। बाद में हत्या की धारा भी जोड़ दी गई।
कई लोगों को यह बात गले नहीं उतर रही थी। ज्यादती तो पुलिस ने की थी। निहत्थे छात्र-छात्राओं, युवाओं और बुजुर्गों तक पर पुलिस ने बेरहमी से लाठियां बरसाई थीं। टीवी चैनलों पर लोगों ने यह सब देखा भी। अखबारों में फोटुएं भी छपीं। प्रदर्शनकारी आम नागरिक थे। हमलावर नहीं। वे देश की राजधानी में एक छात्रा के साथ दिल दहला देने वाला दुष्कर्म करने वाले दरिन्दों और दिल्ली की लचर पुलिस व्यवस्था से बेहद खफा थे और अपना गुस्सा प्रकट कर रहे थे। जिन आठ प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने पकड़ा उनमें एक को छोड़कर कोई भी किसी राजनीतिक दल या संगठन से संबद्ध नहीं था। क्या ये लोग हमलावर हो सकते थे? यह सवाल कौंध रहा था। इसी बीच एक टीवी चैनल ने उस दिन की घटना की वह फुटेज दिखा दी, जिसमें सुभाष तोमर दिखाई दे रहे थे। सिपाही की वर्दी में सुभाष तोमर जमीन पर पड़े थे। दो युवा उन्हें होश में लाने की कोशिश कर रहे थे। इनमें एक युवक था और दूसरी युवती। युवती सिपाही का सिर सहला रही थी। युवक सिपाही की एडिय़ों पर मालिश कर रहा था। दोनों मिलकर बेहोश सिपाही की मदद कर रहे थे। दृश्य इतना स्पष्ट था कि न केवल सिपाही सुभाष तोमर, बल्कि आस-पास का परिवेश भी साफ नजर आ रहा था। न तो सड़क पर पत्थर दिखाई दे रहे थे, न ही खून का एक कतरा। सिपाही के बदन पर कोई घाव नजर नहीं आ रहा था। सुभाष तोमर की उम्र ४६ वर्ष थी। ऐसा लग रहा था वे थककर गिर पड़े हों। लेकिन यह सब अनुमान था। सिपाही कैसे बेहोश हुआ? क्या उस पर किसी ने हमला किया? टीवी फुटेज से तो कुछ पता नहीं चल रहा था। शायद पहले की घटना कैमरे में रिकार्ड नहीं हुई होगी। लेकिन यह साफ था कि सिपाही सुभाष तोमर के कोई बाहरी चोट या जख्म नहीं था। न आसपास पथराव का कोई सबूत था। यानी पथराव से सिपाही के गंभीर रूप से घायल होने की दिल्ली पुलिस की कहानी की पोल खुल गई थी। चैनल ने कई बार यह फुटेज दिखाए। अपनी फुटेज देखकर टीवी पर वह युवक स्वयं प्रकट हो गया, जो सिपाही की मदद कर रहा था। योगेन्द्र नामक यह युवक दिल्ली में पत्रकारिता का विद्यार्थी है। उसने चैनल पर उस दिन का घटनाक्रम विस्तार से बता दिया।
उसने बताया कि प्रदर्शनकारियों के पीछे कुछ सिपाही दौड़ रहे थे। तभी एक सिपाही रुका और जमीन पर गिर पड़ा। उसके साथ के अन्य सिपाही आगे निकल गए। योगेन्द्र व उसकी दोस्त पाओली दौड़कर सिपाही के पास पहुंचे। योगेन्द्र ने न केवल सिपाही को होश में लाने की कोशिश की, बल्कि राममनोहर लोहिया अस्पताल पहुंचाने में भी मदद की। योगेन्द्र अस्पताल में काफी देर तक रुका। उसने एक पुलिस इन्सपेक्टर को अपना नाम, पता और मोबाइल नं. दर्ज कराया और घर चला गया। योगेन्द्र ने जब टीवी पर फुटेज देखी तो उसे माजरा समझा में आया कि वह सिपाही सुभाष तोमर थे। बाद में पाओली ने भी टीवी पर आकर योगेन्द्र की बातों की पुष्टि की। बाकी कहानी कैमरे ने बयान कर ही दी थी। सिपाही सुभाष तोमर पर किन लोगों ने हमला किया? हमला किया भी या नहीं? या फिर वे थककर स्वयं ही गिर पड़े? ये जांच के विषय हैं। लेकिन दिल्ली पुलिस के आला अफसरों ने एक सिपाही की आड़ लेकर जो कहानी गढ़ी, उसकी कैमरे ने पोल खोल दी। यह एक मिसाल है, जो पूरे देश में पुलिस के कामकाज और रवैये को दर्शाती है। दिल्ली पुलिस की चौतरफा निन्दा हो रही थी। शायद इसीलिए पुलिस प्रदर्शनकारियों को हिंसक ठहराकर निर्दोष लोगों पर किए गए लाठी चार्ज के अपने गुनाह पर परदा डालना चाहती थी। लेकिन वह कामयाब नहीं हो सकी। पुलिस ने जिन आठ प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया, उनमें दो छात्रों के बारे में पुलिस की पोल सी.सी. टीवी के कैमरों ने खोल दी। ये दोनों छात्र घटना स्थल से काफी दूर उस वक्त मैट्रो में सफर कर रहे थे। ट्रेन में और मैट्रो स्टेशन पर लगे सी.सी. टीवी कैमरों ने हकीकत बयां कर दी।
तो ये हैं कैमरे की करामात। दूध का दूध और पानी का पानी। निर्दोष को बचाने और दोषी पर शिकंजा कसने में इस कैमरे की बड़ी भूमिका है।
मीडिया पर पाबंदी
स्वतंत्र मीडिया से कौन डरता है? इसका जवाब है, या तो वह जो अत्याचार करता है, या वह जो जनता से कुछ छिपाना चाहता है। चीन की सरकार यही कर रही है। चीन में मीडिया पर कई तरह की पाबंदियां हैं। ये पाबंदियां चीन में सरकार चला रही कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से लगाई हुई है। पार्टी का चीन के मीडिया पर पूरी तरह नियंत्रण है। इसका विरोध करने की किसी में हिम्मत नहीं। लेकिन गत 7 जनवरी को 'सदर्न वीकेंड' नामक एक साप्ताहिक चीनी अखबार के पत्रकारों ने इसके खिलाफ आवाज बुलंद की। कम्युनिस्ट पार्टी के स्थानीय कार्यालय के बाहर अखबार के सैकड़ों पत्रकार इकट्ठे हुए और नारे लगाए। यही नहीं, अखबार ने कम्युनिस्ट पार्टी के प्रांतीय नेता तुओ झोन को हटाने के लिए सरकार को एक खुला खत भी लिखा, जो अखबार ने प्रकाशित किया। जानकारों का कहना है कि यह चीन में मीडिया पर नियंत्रण के विरोध में उठी आवाज की शुरुआत है। चीन में आखिर एक अखबार ने मीडिया पर पाबंदी को चुनौती देने का साहस तो किया!
कैमरा झूठ नहीं बोलता। कैमरा चाहे सी.सी. टीवी का हो या फिर न्यूज टीवी का। सच्चाई को कैद कर ही लेता है। मीडिया में कैमरे की कितनी अहम भूमिका है, इसका उदाहरण दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की घटना के विरोध में हुए एक प्रदर्शन में देखने को मिला। यह प्रदर्शन भी देश भर में हुए अनेक प्रदर्शनों की तरह टीवी चैनलों ने कवर किया था और भुला दिया गया था। लेकिन इसकी अहमियत तब सामने आई, जब दिल्ली पुलिस के एक सिपाही सुभाष तोमर की हत्या का मामला दर्ज हुआ। सुभाष तोमर उस दिन प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित करने के लिए अपनी ड्यूटी पर तैनात थे। दिल्ली पुलिस का आरोप था कि निषेधाज्ञा के दौरान हिंसा पर उतारू भीड़ ने पुलिस पर पथराव किया। इससे सुभाष तोमर गंभीर रूप से घायल हो गए। उन्हें गंभीरावस्था में राममनोहर लोहिया अस्पताल में भरती कराया गया, जहां दो दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई। पुलिस ने निषेधाज्ञा भंग करने सहित, सिपाही पर हमले और हत्या के प्रयास आदि विभिन्न धाराओं में 8 प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया था, जिनमें कुछ छात्र भी थे। बाद में हत्या की धारा भी जोड़ दी गई।
कई लोगों को यह बात गले नहीं उतर रही थी। ज्यादती तो पुलिस ने की थी। निहत्थे छात्र-छात्राओं, युवाओं और बुजुर्गों तक पर पुलिस ने बेरहमी से लाठियां बरसाई थीं। टीवी चैनलों पर लोगों ने यह सब देखा भी। अखबारों में फोटुएं भी छपीं। प्रदर्शनकारी आम नागरिक थे। हमलावर नहीं। वे देश की राजधानी में एक छात्रा के साथ दिल दहला देने वाला दुष्कर्म करने वाले दरिन्दों और दिल्ली की लचर पुलिस व्यवस्था से बेहद खफा थे और अपना गुस्सा प्रकट कर रहे थे। जिन आठ प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने पकड़ा उनमें एक को छोड़कर कोई भी किसी राजनीतिक दल या संगठन से संबद्ध नहीं था। क्या ये लोग हमलावर हो सकते थे? यह सवाल कौंध रहा था। इसी बीच एक टीवी चैनल ने उस दिन की घटना की वह फुटेज दिखा दी, जिसमें सुभाष तोमर दिखाई दे रहे थे। सिपाही की वर्दी में सुभाष तोमर जमीन पर पड़े थे। दो युवा उन्हें होश में लाने की कोशिश कर रहे थे। इनमें एक युवक था और दूसरी युवती। युवती सिपाही का सिर सहला रही थी। युवक सिपाही की एडिय़ों पर मालिश कर रहा था। दोनों मिलकर बेहोश सिपाही की मदद कर रहे थे। दृश्य इतना स्पष्ट था कि न केवल सिपाही सुभाष तोमर, बल्कि आस-पास का परिवेश भी साफ नजर आ रहा था। न तो सड़क पर पत्थर दिखाई दे रहे थे, न ही खून का एक कतरा। सिपाही के बदन पर कोई घाव नजर नहीं आ रहा था। सुभाष तोमर की उम्र ४६ वर्ष थी। ऐसा लग रहा था वे थककर गिर पड़े हों। लेकिन यह सब अनुमान था। सिपाही कैसे बेहोश हुआ? क्या उस पर किसी ने हमला किया? टीवी फुटेज से तो कुछ पता नहीं चल रहा था। शायद पहले की घटना कैमरे में रिकार्ड नहीं हुई होगी। लेकिन यह साफ था कि सिपाही सुभाष तोमर के कोई बाहरी चोट या जख्म नहीं था। न आसपास पथराव का कोई सबूत था। यानी पथराव से सिपाही के गंभीर रूप से घायल होने की दिल्ली पुलिस की कहानी की पोल खुल गई थी। चैनल ने कई बार यह फुटेज दिखाए। अपनी फुटेज देखकर टीवी पर वह युवक स्वयं प्रकट हो गया, जो सिपाही की मदद कर रहा था। योगेन्द्र नामक यह युवक दिल्ली में पत्रकारिता का विद्यार्थी है। उसने चैनल पर उस दिन का घटनाक्रम विस्तार से बता दिया।
उसने बताया कि प्रदर्शनकारियों के पीछे कुछ सिपाही दौड़ रहे थे। तभी एक सिपाही रुका और जमीन पर गिर पड़ा। उसके साथ के अन्य सिपाही आगे निकल गए। योगेन्द्र व उसकी दोस्त पाओली दौड़कर सिपाही के पास पहुंचे। योगेन्द्र ने न केवल सिपाही को होश में लाने की कोशिश की, बल्कि राममनोहर लोहिया अस्पताल पहुंचाने में भी मदद की। योगेन्द्र अस्पताल में काफी देर तक रुका। उसने एक पुलिस इन्सपेक्टर को अपना नाम, पता और मोबाइल नं. दर्ज कराया और घर चला गया। योगेन्द्र ने जब टीवी पर फुटेज देखी तो उसे माजरा समझा में आया कि वह सिपाही सुभाष तोमर थे। बाद में पाओली ने भी टीवी पर आकर योगेन्द्र की बातों की पुष्टि की। बाकी कहानी कैमरे ने बयान कर ही दी थी। सिपाही सुभाष तोमर पर किन लोगों ने हमला किया? हमला किया भी या नहीं? या फिर वे थककर स्वयं ही गिर पड़े? ये जांच के विषय हैं। लेकिन दिल्ली पुलिस के आला अफसरों ने एक सिपाही की आड़ लेकर जो कहानी गढ़ी, उसकी कैमरे ने पोल खोल दी। यह एक मिसाल है, जो पूरे देश में पुलिस के कामकाज और रवैये को दर्शाती है। दिल्ली पुलिस की चौतरफा निन्दा हो रही थी। शायद इसीलिए पुलिस प्रदर्शनकारियों को हिंसक ठहराकर निर्दोष लोगों पर किए गए लाठी चार्ज के अपने गुनाह पर परदा डालना चाहती थी। लेकिन वह कामयाब नहीं हो सकी। पुलिस ने जिन आठ प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया, उनमें दो छात्रों के बारे में पुलिस की पोल सी.सी. टीवी के कैमरों ने खोल दी। ये दोनों छात्र घटना स्थल से काफी दूर उस वक्त मैट्रो में सफर कर रहे थे। ट्रेन में और मैट्रो स्टेशन पर लगे सी.सी. टीवी कैमरों ने हकीकत बयां कर दी।
तो ये हैं कैमरे की करामात। दूध का दूध और पानी का पानी। निर्दोष को बचाने और दोषी पर शिकंजा कसने में इस कैमरे की बड़ी भूमिका है।
मीडिया पर पाबंदी
स्वतंत्र मीडिया से कौन डरता है? इसका जवाब है, या तो वह जो अत्याचार करता है, या वह जो जनता से कुछ छिपाना चाहता है। चीन की सरकार यही कर रही है। चीन में मीडिया पर कई तरह की पाबंदियां हैं। ये पाबंदियां चीन में सरकार चला रही कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से लगाई हुई है। पार्टी का चीन के मीडिया पर पूरी तरह नियंत्रण है। इसका विरोध करने की किसी में हिम्मत नहीं। लेकिन गत 7 जनवरी को 'सदर्न वीकेंड' नामक एक साप्ताहिक चीनी अखबार के पत्रकारों ने इसके खिलाफ आवाज बुलंद की। कम्युनिस्ट पार्टी के स्थानीय कार्यालय के बाहर अखबार के सैकड़ों पत्रकार इकट्ठे हुए और नारे लगाए। यही नहीं, अखबार ने कम्युनिस्ट पार्टी के प्रांतीय नेता तुओ झोन को हटाने के लिए सरकार को एक खुला खत भी लिखा, जो अखबार ने प्रकाशित किया। जानकारों का कहना है कि यह चीन में मीडिया पर नियंत्रण के विरोध में उठी आवाज की शुरुआत है। चीन में आखिर एक अखबार ने मीडिया पर पाबंदी को चुनौती देने का साहस तो किया!
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