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मीडिया है आंख और कान


बाहुबलियों के खिलाफ कोई राजनीतिक दल शिकायत दर्ज नहीं कराता, क्योंकि सब दलों में बाहुबली मौजूद हैं। सब दलों को वोट चाहिए। इसलिए जीतने के लिए सारे हथकंडे आजमाए जाते हैं। जनता बेचैन है। उसकी आवाज चुनावी कोलाहल और बाहुबलियों के खौफ में कहीं दब जाती है। ऐसे में मीडिया जनता की आवाज बने और चुनाव आयोग उसे सुने तो निष्पक्ष और निर्भय चुनाव संभव है, यही लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत है।


मीडिया जनता के मुद्दों को उठाकर किस तरह संवैधानिक संस्थाओं का ध्यान आकर्षित करता है और ये संस्थाएं मीडिया की खबरों का किस तरह जनहित में उपयोग कर सकती हैं, इसका एक अच्छा उदाहरण हाल ही में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने दिया। पत्रिका ने 15 फरवरी को चर्चित हस्तियों से ज्वलन्त मुद्दों पर बातचीत का नया कार्यक्रम शुरू किया—'पत्रिका ग्रुप इन कनवरसेशन विद न्यूज मेकर।' इस कार्यक्रम की पहली कड़ी में एस.वाई. कुरैशी को आमंत्रित किया गया। सम्पादकीय टीम ने उनसे बातचीत की। जहिर है, बातचीत का केन्द्रीय विषय चुनाव सम्बंधी ज्वलन्त मुद्दों को लेकर था। उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में चुनाव के संदर्भ में उनसे कई सवाल पूछे गए। एक सवाल था— 'बाहुबलियों के डर से कोई इनके खिलाफ चुनाव आयोग को शिकायत नहीं करता। ऐसे में बाहुबल के आधार पर कई लोग चुनाव जीतकर आ जाते हैं?'
जवाब में मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा— 'अब ऐसा संभव नहीं होता। चुनाव के दौरान प्रत्येक पोलिंग बूथ की वीडियो मॉनिटरिंग होती है। 24 घंटे आयोग बाहुबलियों की वीडियो रिकार्डिंग करवाता है। इसके अलावा मीडिया के कैमरों की पैनी नजर से बच पाना और भी कठिन है।' संभव है उनकी बात में कुछ अतिश्योक्ति हो, लेकिन इसी क्रम में चुनाव आयुक्त ने एक महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा— 'हमने कई मीडिया रिपोर्टों के आधार पर बाहुबलियों और धन बांटने वालों के खिलाफ कार्रवाई की है। मीडिया को हम अपने आंख और कान मानकर चलते हैं।'
प्रिय पाठकगण! मुख्य चुनाव आयुक्त का यह कथन देश की सभी संवैधानिक संस्थाओं सहित व्यवस्था-तंत्र की उन समस्त इकाईयों के लिए नजीर है, जो जन-शिकायतों के बगैर कोई कार्रवाई न कर सकने की विवशता जताते हैं। कई सरकारी विभाग तो हाथ बांधे बैठे रहते हैं। सबके सामने घटना घटित होती है। जिस विभाग पर कार्रवाई का जिम्मा है वह आंखें मूंदे हैं। भले ही लोगों के कान फट रहे हों, मगर उनको कुछ सुनाई नहीं देता। उनके पास शिकायत जो नहीं आई। सरकारी कामकाज का यह एक सामान्य ढर्रा बन गया है। क्या इससे निजात पाना जरूरी नहीं?
बाहुबलियों के खिलाफ कोई राजनीतिक दल शिकायत दर्ज नहीं कराता, क्योंकि सब दलों में बाहुबली मौजूद हैं। चुनाव के दौरान कोई दल जोखिम मोल नहीं लेता। सब जानते-बूझाते चुप हैं। सब दलों को वोट चाहिए। इसलिए जीतने के लिए सारे हथकंडे आजमाए जाते हैं। जनता बेचैन है। उसकी आवाज चुनावी कोलाहल और बाहुबलियों के खौफ में कहीं दब जाती है। ऐसे में मीडिया जनता की आवाज बने और चुनाव आयोग उसे सुने तो निष्पक्ष और निर्भय चुनाव संभव है, यही तो लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत है।
मीडिया हर चुनाव में बाहुबलियों के कारनामे उजागर करता रहा है। कई बाहुबली आज जेलों में बंद हैं तो उसका काफी श्रेय मीडिया को है। लेकिन अकेले मीडिया भी सब कुछ नहीं कर सकता। सरकारी एजेन्सियों को भी तत्पर होने की जरूरत है। पिछले वर्षों में चुनाव आयोग ने शिकंजा कसना शुरू किया तो बाहुबलियों के तेवर ढीले पडऩे लगे। आयोग के अपने तंत्र ने तो काम किया ही, साथ ही उसने मीडिया रिपोर्टों और सूचनाओं को भी आधार बनाया।
यह सही है कि मीडिया का एक हिस्सा अपनी अनेक गैर-प्रामाणिक खबरों की वजह से अविश्वसनीय होता जा रहा है, फिर भी कई मीडिया घराने जनता में अपनी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता को बरकरार रखे हुए है। शायद इसीलिए आज भी जनता के अधिकाधिक मुद्दे उठाने में जितना मीडिया कामयाब है उतना कोई दूसरा नहीं। उच्च न्यायालय अनेक मामलों में स्व-प्रेरित प्रसंज्ञान लेते हैं। इनमें ज्यादातर मीडिया के उठाए मुद्दे शामिल हैं। पत्रिका की कई खबरें माननीय न्यायालय में सुनवाई का आधार बनी हैं। पूरे जयपुर शहर को जलापूर्ति करने वाले रामगढ़ बांध क्षेत्र में अतिक्रमण और भू-आवंटन को लेकर की गई समाचार शृंखला 'मर गया रामगढ़' इसका ताजा उदाहण है।
तात्पर्य यह है कि जब उच्च न्यायालय और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं अखबार की खबरों पर कार्रवाई कर सकती हैं, तो अन्य संस्थाएं क्यों नहीं। जब तक सरकारी आदेश नहीं हो जाता, महकमे सोते रहते हैं। मीडिया में घपले-घोटाले उजागर होते रहते हैं, सरकारी महकमों को कोई फर्क नहीं पड़ता। हालांकि कई बार शासन-तंत्र मीडिया की सूचनाओं पर सक्रिय होता दिखाई पड़ता है। अनेक मामलों में उसके कानों में जूं तक नहीं रेंगती। मध्य प्रदेश में विधायक रमेश मेंदोला के झूठे शपथ पत्र को लेकर पत्रिका ने प्रमाण सहित समाचार प्रकाशित किए, लेकिन उनका कुछ नहीं बिगड़ा। और तो और, प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी तक ने, प्रकरण में कुछ नहीं किया। बावजूद इसके कि उन्हें सम्बन्धित सारे कागजात दे दिए गए थे। हालांकि खबरें छपने के बाद विधायक को अदालत से जमानत अवश्य करानी पड़ी। मगर सरकार चुप रही।
शासन-तंत्र की हठधर्मिता के ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं। अखबार ऐसी सैकड़ों खबरें, सूचनाएं और मुद्दे रोजाना सामने लाते हैं, जो जनता की समस्याओं से ताल्लुक रखते हैं। इन पर अगर सम्बंधित संस्थाएं कार्रवाई करने की ठान ले तो जनता की अनेक समस्याओं का समाधान संभव है। मीडिया का अपना सूचना-तंत्र है। यह सरकारी नेटवर्क से अधिक प्रभावी है और तत्परता से कार्य करता है। आदर्श हाउसिंग घोटाला सर्वप्रथम मीडिया ने उजागर किया था, जो एक आर.टी.आई. कार्यकर्ता के जरिए 2003 में ही सामने आ चुका था। अगर सरकारी एजेन्सियों ने उस वक्त इस रिपोर्ट पर ध्यान दिया होता तो 8 साल तक यह मामला सरकारी फाइलों में दबा नहीं रहता। कॉमनवेल्थ खेल घोटाले को लेकर भी खबरें छप रही थीं, लेकिन सुनने-देखने वाले आंख कान बंद थे। 2 जी स्पैक्ट्रम और पाम ऑयल घोटाले में सरकार का यही रवैया रहा, जो बाद में गलत निकला। भंवरी देवी अपहरण कांड में शुरू से मंत्री और विधायक का नाम सामने आ रहा था, लेकिन राजस्थान सरकार ने उनके खिलाफ कार्रवाई कोर्ट की दखल के बाद ही की। सरकारों का यह रवैया मीडिया के प्रति उसके रुख को स्पष्ट करता है।

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