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सत्ता में भागीदारी

इंदौर की सामाजिक कार्यकर्ता सुमिता चित्रे ने लिखा- '12 सितम्बर 1996 भारतीय महिलाओं के लिए ऐतिहासिक दिवस के तौर पर दर्ज है, जब लोकसभा में पहली बार महिला आरक्षण विधेयक पेश किया गया। दूसरा ऐतिहासिक दिवस 9 मार्च 2010 है, जब 14 साल बाद यह विधेयक राज्यसभा में पारित किया गया। इस ऐतिहासिक क्रम में अभी तीन कडिय़ां और जुडऩी हैं। पहली, जब यह विधेयक लोकसभा में पारित होगा। दूसरी, जब यह विधेयक देश की 14 विधानसभाओं में मंजूर होगा। और तीसरी, जब यह विधेयक भारत के राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त कर लेगा। भारत की आधी आबादी इन कडिय़ों के जुडऩे की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही है, ताकि इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय लिखा जा सके।'

प्रिय पाठकगण! महिला आरक्षण विधेयक पर देश भर में बहस चल रही है। मीडिया में इस पर निरंतर हो रही चर्चा के मुख्य दो बिन्दु हैं।

1. महिला आरक्षण विधेयक मूल स्वरू प में पारित हो।

2. विधेयक में कुछ संशोधन होने चाहिए।

संशोधन के पक्षधरों में भी दो तरह के दृष्टिकोण हैं। पहला यह कि दलित, पिछड़ी और अल्पसंख्यक महिलाओं का अलग से कोटा निर्धारित हो। इनका तर्क है कि अन्यथा सत्ता में केवल उच्च वर्ग की महिलाएं ही काबिज हो जाएंगी। दूसरा दृष्टिकोण यह है कि आरक्षण सीटों की बजाय टिकटों का हो अर्थात प्रत्येक दल चुनावों में 33 फीसदी टिकट अनिवार्यत: महिलाओं को दें। इनका तर्क है कि सीटों पर आरक्षण लैंगिक समानता के खिलाफ है जो लोकतंत्र की मूल भावना को ठेस पहुंचाएगा। महिला आरक्षण के मूल स्वरू प में यह प्रावधान है कि यह रोटेशन से लोकसभा और विधानसभाओं की सीटों पर लागू होगा तथा सभी महिलाओं पर समान रू प से लागू होगा। इस मत के पक्षधरों का मानना है कि इससे देश में महिला सशक्तीकरण का मार्ग प्रशस्त होगा जो आगे चलकर उनके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक उत्थान में कारगर होगा। अगर महिलाओं को बांट दिया गया अथवा टिकटों में आरक्षण दिया गया तो उन्हें कोई फायदा नहीं होगा।
अर्थात् सबके अपने-अपने तर्क हैं। इस पृष्ठभूमि में पाठकों की क्या राय है, यह जानना महत्वपूर्ण है। शायद उनकी राय मार्गदर्शनकर सके।

जयपुर से डा. पुनीतदास के अनुसार- 'लोकतंत्र का सार है कि अधिसंख्य लोगों की राय से ही कोई कार्य हो। हालात देखकर साफ है कि जिन दलों ने राज्यसभा में यह विधेयक पारित कराया, अभी उनमें भी एक राय नहीं है। यही वजह है कि लोकसभा में यह विधेयक अभी तक रखा ही नहीं गया। आखिर क्यों हम इस विधेयक के समस्त गुण-दोषों का आकलन करने से बचना चाहते हैं?'

जोधपुर से राजपाल सिंह ने लिखा- 'महिलाओं के आरक्षण पर डा. नलचिनपन की अध्यक्षता वाली संसद की स्थाई समिति ने इस विधेयक के अन्तरविरोधों के मद्देनजर इस बात पर गंभीरता से विचार किया था कि देश की उन सीटों की पहचान की जानी चाहिए जहां महिलाओं की आबादी का औसत ज्यादा है। ताकि उसीमें से 33 प्रतिशत सीटें दोहरी निर्वाचन प्रणाली के आधार पर छांट ली जाए। उनका आशय साफ था कि लोकसभा व विधानसभा के वर्तमान स्वरू प में परिवर्तन किए बिना महिलाओं को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है। लेकिन यह फार्मूला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। अगर इसे विधेयक में रखा जाता तो आज इसका शायद ही कोई विरोध करता।'

भोपाल से दिलीप जायसवाल ने लिखा- 'महिला आरक्षण विधेयक के स्थान पर राजनीतिक दलों के लिए यह कानून बना दिया जाए कि वे 33 फीसदी टिकट महिलाओं को आवंटित करे।'

अजमेर से डा. माया गुप्ता ने लिखा- 'तैंतीस फीसदी टिकटों का सुझााव महज एक छलावा है। सभी राजनीतिक दल टिकट आवंटन के दौरान एक ही तर्क देते हैं- टिकट उसी को जो जीत सके। यानी महिलाओं को सिर्फ हारने वाली सीटें मिलेंगी।'

अहमदाबाद से परितोष अग्निहोत्री के अनुसार- 'कोई भी राजनीतिक दल महिलाओं के प्रति उदार नहीं है। वरना आजादी के 63 साल बाद भी 544 सदस्यों की लोकसभा में केवल 59 महिलाएं ही होतीं?'

बंगलुरु से दीप राजपुरोहित ने लिखा- 'स्वीडन की संसद में वहां की 47 फीसदी महिलाओं की नुमाइंदगी है। स्वीडन में राजनीतिक दलों ने अपने आप ही महिलाओं के लिए संसद का 40 प्रतिशत टिकट का कोटा तय कर रखा है।'

बीकानेर से श्यामसुन्दर व्यास ने लिखा- 'सत्ता में महिलाओं की भागीदारी देने के मामले में भारत पाकिस्तान से भी पीछे है। इसलिए सारे विरोध छोड़कर विधेयक का सबको समर्थन करना चाहिए।'

उदयपुर की अनुराधा श्रीमाली ने लिखा- 'देश की 12 लाख पंचायतों में महिलाएं पंच-सरपंच निर्वाचित हुई हैं। जब पंचायतों में पचास फीसदी आरक्षण का विरोध नहीं हुआ तो अब 33 फीसदी पर क्यों शोर मचाया जा रहा है।'

श्रीगंगानगर से सुमित लाल अरोड़ा ने लिखा- 'इस विधेयक का सबसे कमजोर पक्ष यह है कि चुनावी सीट लॉटरी सिस्टम से रोटेशन में चलेगी। अर्थात एक तिहाई सीटों पर कोई भी महिला या पुरुष अपने क्षेत्र में पहचान नहीं बना पाएगा।'

दिल्ली से राजीव खत्री ने लिखा- 'महिला आरक्षण बिल की खामियों को बाद में भी दूर किया जा सकता है। रास्ता हमेशा खुला है। पूर्व में भी अनेक कानूनों में संशोधन किए गए हैं। फिलहाल इसे संशोधन की आड़ में लटकाए रखना अनुचित होगा। आखिर महिलाओं ने इसके लिए एक लम्बी लड़ाई जो लड़ी है।'

प्रिय पाठकगण! सत्ता में महिलाओं को उचित भागीदारी मिलनी चाहिए। यह उनका अधिकार है। ज्यादातर पाठकों की भी यही राय है। इस विधेयक का उद्देश्य भी यही है। यह लक्ष्य कैसे शीघ्र हासिल किया जा सकता है- जोर उसी पर होना चाहिए।

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टूट गई आस

जयपुर के सेवानिवृत्त शिक्षक घनश्याम वाष्र्णेय ने लिखा-'पत्रिका के 6 मार्च के अंक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का महंगाई पर बयान पढ़कर घोर निराशा हुई। (महंगाई रोकते तो बढ़ती बेरोजगारी) इस बयान में सरकार ने महंगाई से त्रस्त जनता को जोर का झाटका धीरे से मार दिया है। यह झाटका मुझो तो पेट्रोल-डीजल की कीमतों से भी बड़ा लगता है। कम-से-कम अब तक आस तो बंधी थी, क्योंकि सरकार महंगाई कम करने के लगातार आश्वासन दे रही थी।

पिछले दिनों कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी दोनों ने आश्वासन दिया था कि सरकार पूरी कोशिश कर रही है- जल्द परिणाम सामने आएंगे। (पत्रिका 6 फरवरी) अगले ही दिन मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने कहा- महंगाई का सबसे खराब दौर बीत चुका है और अब अच्छे दिन आने वाले हैं। (बुरा वक्त बीत गया, पत्रिका 7 फरवरी) इसके बाद भी सरकार महंगाई के मुद्दे पर जब-जब घिरी, उसने यही भरोसा दिलाया, महंगाई पर जल्द काबू पा लिया जाएगा। इसलिए पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाए, तो यह आस थी कि बाकी चीजों में सरकार महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही जनता को राहत पहुंचाएंगी। लेकिन आस टूट गई।'

कोटा के दीपसिंह हाड़ा ने लिखा- 'खाद्य वस्तुओं के दाम तो घटे नहीं, पेट्रोल-डीजल के दाम और बढ़ा दिए। यह तो कोढ़ में खाज वाली बात हुई। पेट्रोल के दाम घटने की कोई उम्मीद नहीं है। वित्त मंत्री ने साफ कहा कि वाजपेयी सरकार ने पेट्रोल-डीजल की कीमतों में 33 बार बढ़ोतरी की थी। और अब तो केन्द्र सरकार को संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी की भी हरी झंडी मिल गई।' (पत्रिका 5 मार्च)

इंदौर से गृहिणी सुषमा जैन के अनुसार- 'पेट्रोल महंगा तो समझो सब कुछ महंगा। घर-गृहस्थी की रोजमर्रा की कीमतें पहले से आसमान छू रही थीं। अब तो भगवान ही मालिक है।'

अजमेर से पुरुषोत्तम दास ने लिखा- 'अभी राजस्थान में गहलोत सरकार से एक उम्मीद और बची है। सरकार राज्य में पेट्रोल-डीजल पर वैट कम करके जनता को कुछ हद तक राहत पहुंचा सकती है।'

प्रिय पाठकगण! महंगाई को लेकर पिछले दिनों से पाठकों की प्रतिक्रियां लगातार मिल रही हैं। उच्च वर्ग को छोड़कर महंगाई से हर कोई त्रस्त है। ऐसे में सरकार की ओर से जब भी कोई बयान प्रकाशित होता है, पाठक खुलकर अपनी बात कहते हैं। शायद यही कारण है कि महंगाई के कारणों और इसके उपायों पर उनका सरकार से भिन्न व स्पष्ट दृष्टिकोण है। महंगाई क्यों बढ़ रही है- इस पर आर्थिक विश्लेषक, राजनीतिक दल और सरकार के अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन आमजन इसे किस नजरिए से देख रहा है, इसकी बानगी पाठकों की इन प्रतिक्रियाओं से जाहिर है।

जोधपुर से गोपाल अरोड़ा ने लिखा- हमारे देश में कीमतें भी राजनीतिक उद्देश्यों से घटती-बढ़ती हैं। केन्द्र सरकार ने चुनाव से पहले पेट्रोल के दाम दस रुपए तक घटा दिए थे। हरियाणा में राज्य सरकार ने चुनाव पूर्व पेट्रोल-डीजल पर वैट की दरें काफी कम कर दी थीं। कीमतें घटाने का काम हमेशा चुनाव से पहले ही क्यों होता है?'

भोपाल से इंद्रजीत सिंह ने लिखा- 'एक तरफ तो विकास दर के मामले में हम अमरीका, जापान जैसे विकसित देशों से आगे बताए जा रहे हैं। जल्दी ही चीन को भी पीछे छोडऩे की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ खाद्यान्नों की कीमतों पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे हैं। नियंत्रण तो दूर की बात, उचित वितरण प्रणाली तक कायम नहीं कर पाए हैं। जबकि हमारे भण्डारों में 2 करोड़ टन लक्ष्य के मुकाबले इस समय 4।8 करोड़ टन खाद्यान्न पड़ा हुआ है। दुनिया के दूसरे सबसे बड़े चीनी उत्पादक देश (भारत) में चीनी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गई है।'

बेंगलुरू से डा. दीपक परिहार ने लिखा- 'माना सरकार ने किसानों की भलाई के लिए चावल, गेहूं, गन्ना आदि के समर्थन मूल्यों में अच्छी-खासी बढ़ोतरी की, जिससे इनके दाम बढ़े। लेकिन इसका वास्तविक फायदा न तो किसानों को मिला और न आम उपभोक्ताओं को। फायदा तो बड़े व्यापारी और बिचौलिए उठा रहे हैं।'

श्रीगंगानगर से प्रतिभा खत्री ने लिखा- 'काला बाजारियों और जमाखोरों के कारण कीमतें आसमान छू रही हैं। ये बड़े-बड़े जमाखोर सभी पार्टियों को चंदा देते हैं। इसलिए कोई इन पर हाथ नहीं डालता। यहां के किसानों को तो किन्नू और कपास के भी उचित दाम नहीं मिलते।'

बीकानेर से अर्थशास्त्र के विद्यार्थी देवेन्द्र पुरोहित ने लिखा- 'जिंसों की कीमतें मांग और आपूर्ति से तय होती हैं। यह सही है कि जरू री जिंसों की आपूर्ति मांग से कम रही है। लेकिन कीमतों में जो उछाल आया वह स्वाभाविक आर्थिक सिद्धांतों से कहीं मेल नहीं खाता। वर्ष 2004 से तुलना करें, तो चावल में 130 प्रतिशत, चीनी में 197 प्रतिशत तथा अरहर दाल में 252 प्रतिशत कीमतों की बढ़ोतरी अविश्वसनीय ही मानी जाएगी।' प्रिय पाठकगण! अन्य कई पाठकों के पत्रों का सार है कि महंगाई पर नियंत्रण करना सरकार का प्राथमिक दायित्व है। विकास और कीमतों में तार्किक संतुलन हो, जो उत्पादकता बढ़ाकर हासिल किया जाना चाहिए न कि कीमतें बढ़ाकर।

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आसान निशाने!


पुणे विस्फोट पर बेंगलूरु के पाठक एस. जयरामन ने लिखा-
'फग्र्यूशन कॉलेज, पुणे की बी.ए. फस्र्ट इयर की छात्रा अनिन्दी धर ने उस दिन अपनी क्लास में पोएट्री टीचर से बड़ी मासूमियत से मृत्यु का वास्तविक अर्थ पूछा था, क्योंकि कविता में इसका जिक्र आया था। टीचर से जवाब मिला या नहीं, लेकिन अगले ही दिन खुद मौत ने उस मासूम को दबोच लिया। उन्नीस वर्षीय हंसती-मुस्कुराती यह छात्रा अपने भाई अंकिक (23), उसकी दोस्त शिल्पा (23), सहेलियां पी. सुंदरी और विनिता गडानी (22) के साथ रेस्त्रां में पार्टी मनाने आई थीं। वैलेन्टाइन डे की पूर्व संध्या थी, इसलिए रेस्त्रां में जश्न का माहौल था। तभी एक विस्फोट हुआ और ये चारों युवा हमेशा के लिए खामोश हो गए। जर्मन बेकरी रेस्त्रां की वह खुशनुमा शाम एक खौफनाक हादसे में तब्दील हो गई। हादसे में 12 लोग मारे गए, 57 घायल हुए। फिर वही सवाल, क्या ऐसे हादसे रोके नहीं जा सकते?


15 फरवरी के अंक में प्रकाशित केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के बयान पर एक पाठक देवेश अवस्थी (जयपुर) की आवेश और व्यंग्य मिश्रित प्रतिक्रिया मिली। पहले चिदम्बरम का बयान- 'पुणे विस्फोट खुफिया चूक का परिणाम नहीं था। बल्कि आतंककारियों ने आसान निशाने को लक्ष्य बनाकर वहां धोखे से बम रखा।' देवेश ने लिखा- 'जिस तरह रेत में गर्दन छिपाकर शुतुरमुर्ग सच्चाई की अनदेखी करता है, वैसे ही गृहमंत्री कर रहे हैं। क्या चिदम्बरम देशवासियों को यह संदेश दे रहे हैं कि आतंककारियों के षड्यंत्रों की जानकारी तो सरकार को पूरी है, लेकिन उन्हें रोकना और निर्दोष लोगों को बचाना सरकार के वश में नहीं है। 'आसान निशाने' का क्या मतलब? आतंककारी धोखे से नहीं तो क्या घोषणा करके बम रखेंगे? आतंकियों ने घोषणा करके ही विस्फोट किया था। पुणे विस्फोट से सिर्फ नौ दिन पहले 5 फरवरी को इस्लामाबाद में एक रैली के दौरान जमात-उद-दावा के डिप्टी चीफ अब्दुल रहमान मक्की ने खुला एलान किया था कि जमात के ताजा हमले पुणे, दिल्ली, कानपुर और इंदौर में होंगे। क्या कर लिया सरकार ने? खुफिया चेतावनियां... रेड अलर्ट... महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सिक्योरिटी... बस...! और आम आदमी का क्या। वह बेचारा तो हमेशा असुरक्षित ही रहेगा। आखिर 'आसान निशाना' जो है वह। सचमुच दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, जयपुर, हैदराबाद, बेंगलूरु आदि कितने ही भारतीय शहरों में हुए विस्फोट और आतंकी हमले खुफिया चूक के परिणाम थोड़े ही थे, आसान निशाना व आतंकियों के धोखे का परिणाम थे। वाह क्या खूब मुगालते में है हमारी सरकार!'

अहमदाबाद से शैलेन्द्र राजपुरोहित ने लिखा- 'मुंबई हमलों के बाद 14 माह तक आतंककारी खामोश रहे। लगा अब हमारे सुरक्षा-तंत्र ने उन्हें उनके बिलों में दुबके रहने को विवश कर दिया। वैसे ही जैसे 9/11 के बाद अमरीका ने किया। लेकिन पुणे विस्फोट ने इस भ्रम को तोड़ दिया है।'


भोपाल के अजय बैरागी के अनुसार- 'पुणे विस्फोट की गंभीरता को सरकार कम नहीं आंके। यह आतंककारियों का भारत के खिलाफ 'टेरर कैम्पेन' है। स्वयं चिदम्बरम ने राज्यसभा में स्वीकार किया था कि भारत पर हमला करने के लिए अलकायदा समेत कई आतंकी गुटों ने आपस में हाथ मिला लिए हैं। ऐसी ही चेतावनी अमरीकी रक्षा सचिव राबर्ट गेट्स ने पिछले दिनों हमारे रक्षा मंत्री ए।के। एंटनी को नई दिल्ली में दी थी। लिहाजा पुणे विस्फोट को आतंककारियों के मंसूबों की फिर से शुरुआत माना जाना चाहिए।' उपरोक्त प्रतिक्रियाओं के विपरीत कोटा से डी।.एस. रांका ने लिखा- 'आतंकी हमलों और विस्फोटों में केवल सरकार की नाकामी को कोसने से काम नहीं चलेगा। इजरायल की तरह आम भारतीयों को भी सुरक्षा और सतर्कता के नियम अपनाने होंगे।'

उदयपुर की सरोजबाला के अनुसार- 'अगर जर्मन बेकरी के बेयरे ने रेस्त्रां में पड़े लावारिस बैग को खोला नहीं होता तो 12 बेकसूर व्यक्तियों की जान नहीं जाती।'

जयपुर से रमेश शर्मा ने लिखा- मुंबई हमलों के बाद भारत सरकार ने स्पष्ट कहा था कि जब तक पाकिस्तान अपने आतंकी अड्डों को नष्ट नहीं करता भारत उससे बातचीत नहीं करेगा। अचानक क्या हो गया कि हम नई दिल्ली में 25 फरवरी को पाक से बातचीत करने जा रहे हैं। जबकि हमारे रक्षामंत्री ने अभी हाल ही (20 फरवरी अंक) बयान दिया है कि आज भी सीमापार 42 आतंककारी अड्डे कायम हैं और पाकिस्तान इन्हें नष्ट करने के प्रति गंभीर नहीं है।'

इंदौर से जितेन्द्र एस चौहान ने लिखा- 'पाक की दादागिरी तो देखिए, वह इस बातचीत में कोई भी मुद्दा उठाने की भारत को धमकी दे रहा है। उसने साफ कहा है कि वह कश्मीर का मुद्दा उठा सकता है। यहां तक कि बलूचिस्तान में कथित भारतीय हस्तक्षेप को भी उठाएगा। पाकिस्तान के नेता वार्ता के लिए भारत की रजामंदी को अपनी फतह के रू प में पेश कर रहे हैं।' कोलकाता से पीयूष खेतान ने लिखा- 'पच्चीस फरवरी को जब भारतीय विदेश सचिव निरू पमा राव पाकिस्तान के विदेश सचिव सलमान बशीर से बातचीत के लिए बैठे तो राव को सबसे पहले पाक को उसकी करतूतों के लिए हड़काना चाहिए। बातचीत के लिए माकूल माहौल तैयार करने की जिम्मेदारी अकेले भारत की नहीं है, पाक की भी है।'

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बच्चों पर दबाव

* जनता नगर निवासी दसवीं की छात्रा स्मिता सिंह ने घर में चुन्नी के फंदे से लटक कर जान दी। (11 जनवरी)
* न्यू कॉलोनी में एविएशन की छात्रा अर्चना राठौड़ ने फंदे पर झूलकर खुदकुशी की। (16 जनवरी)
* बालाजी विहार की सी.ए. की छात्रा प्रीति दास ने ट्रेन के सामने कूदकर आत्महत्या की। (17 जनवरी)
* इंद्रा कॉलोनी में 9वीं की छात्रा गरिमा शर्मा ने फांसी लगाकर खुदकुशी की। (20 जनवरी)

'पत्रिका' में प्रकाशित इन खबरों का उल्लेख करते हुए जयपुर के पाठक पुनीत शर्मा ने लिखा- 'हम और कितनी मासूम आत्महत्याओं का इंतजार करेंगे? शहर में दस दिन में चार आत्महत्याएं! वह भी उन हाथों से जिन्होंने अभी जिन्दगी का बोझ उठाना शुरू भी नहीं किया था। जिन्दगी उनके लिए बोझिल कैसे बन गई? क्या ये घटनाएं हम सभी के लिए खतरे की गंभीर चेतावनी नहीं है? किशोर व युवा छात्र-छात्राओं में आत्महत्या की घटनाएं पूरे देश में तेजी से बढ़ रही है। आखिर विद्यार्थी-वर्ग आत्महत्या क्यों कर रहा है? कौन है इसके लिए जिम्मेदार? क्या युवाओं को असमय मौत को गले लगाने से रोका नहीं जा सकता? क्या उन्हें जिन्दगी का बेशकीमती मर्म समझाया नहीं जा सकता?'

प्रिय पाठकगण! पुनीत की तरह अन्य कई पाठकों ने भी इस ज्वलंत सामाजिक मुद्दे को उठाया है और इसके कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर सबका ध्यान आकर्षित किया है। पहले यह स्पष्ट कर दूं कि उपरोक्त जिन घटनाओं का पाठक ने उल्लेख किया है, उन सभी में आत्महत्या के अलग-अलग कारण हो सकते हैं। हर आत्महत्या दुखद और चिन्ताजनक है, लेकिन परीक्षा में विफलता, पढ़ाई का बोझ (एग्जाम स्ट्रेस) या अच्छे अंकों के लिए दबाव के चलते की जाने वाली आत्महत्या की घटनाएं जिस तेजी से बढ़ रही हैं, वे सचमुच खतरे की घण्टी है। अधिकतर पाठकों ने इसी पर चर्चा की है।

भावना परमार (उदयपुर) ने लिखा- 'अमरीका में 15 से 24 आयु वर्ग में होने वाली मौतों का दूसरा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है और अब भारत में इस आयु वर्ग में आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण परीक्षा में उच्च अंकों का दबाव बनता जा रहा है।'

अहमदाबाद से धर्मेश मेहता के अनुसार- 'मुंबई की तेरह वर्षीय किशोरी रू पाली शिन्दे ने इसलिए खुदकुशी की, क्योंकि उसकी मां हरदम उस पर अच्छे माक्र्स के लिए दबाव डालती थी। स्कूली छात्र सुशान्त पर भी ऐसा ही दबाव पिता ने डाला, जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर सका और मौत को गले लगा लिया। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं। सम्भवत: इन घटनाओं के चलते ही हाल ही केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल (2 फरवरी) ने बच्चों की आत्महत्या के लिए माता-पिता को जिम्मेदार ठहराया है।'

दीपक जैन (कोटा) ने लिखा- 'कपिल सिब्बल का सीबीएसई बोर्ड में दसवीं की परीक्षा वैकल्पिक करने का निर्णय सही है। न परीक्षा होगी न माता-पिता दबाव डालेंगे।'

भीलवाड़ा से आसकरण माली ने लिखा- 'माता-पिता कर्जा लेकर बच्चों की महंगी फीस चुकाते हैं। ऊपर से ट्यूशन-कोचिंग का खर्चा भी करते हैं। इसके बावजूद बच्चा पढ़ाई में ध्यान नहीं देता तो क्या उन्हें डांटने का भी हक नहीं।'

डा. रमेश त्रिपाठी (इंदौर) के अनुसार- 'माता-पिता अपनी आकांक्षाएं बच्चों पर थोपते हैं। वे अपने अधूरे सपने बच्चों के मार्फत पूरा करना चाहते हैं। परीक्षा के दौरान कई माता-पिता तो रातभर अपने बच्चे के साथ जागते हैं। बच्चे की क्षमता और सीमाओं का आकलन किए बगैर उस पर बोझ डालना उचित नहीं। वह डिप्रेशन का शिकार हो जाएगा। टेक्सास यूनिवर्सिटी का हाल का एक अध्ययन बताता है कि 75 फीसदी किशोर-किशोरियां डिप्रेशन में सुसाइड करते हैं।'

हरि पुरोहित (बीकानेर) के अनुसार- 'बच्चा क्या पढऩा चाहता है- यह जानना माता-पिता के लिए जरू री है वरना वह परीक्षा में पास होकर भी जिन्दगी में फेल हो जाएगा।'

अनवर हुसैन (जयपुर) ने लिखा- 'एक अध्ययन के अनुसार पिछले 60 साल में किशोर उम्र के विद्यार्थियों में आत्महत्या की दर में तीन गुना इजाफा हो गया। भले जिन्दगी को लेकर अलग-अलग फलसफे हों, मगर जिन्दगी जैसी खूबसूरत कोई और नियामत नहीं। लिहाजा बचपन से बच्चों को जिन्दगी की अहमियत समझाई जानी चाहिए।'

जोधपुर से सुशान्त भट्टाचार्य ने लिखा- 'आत्महत्याओं के खिलाफ माहौल बनाया जाए। मीडिया और स्वयंसेवी संगठन इसमें कारगर भूमिका निभा सकते हैं। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर 'सेव' (सुसाइड अवेयरनेस वाइसेज ऑफ एजुकेशन) जैसे संगठनों की मदद ली जा सकती है। अवसाद ग्रस्त बच्चों के मार्गदर्शन के लिए राष्ट्रीय हेल्पलाइन हो तथा स्कूलों में काउंसलिंग व्यवस्था अनिवार्यत: लागू हो।'

राखी तनेजा (बेंगलुरू ) ने लिखा- 'कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली की प्रसिद्ध मनोविश्लेषक डा। अरुणा ब्रूटा ने यह बताकर सबको चौंका दिया कि दसवीं बोर्ड की परीक्षा शुरू होने से पहले ही राजधानी के लगभग 300 बच्चे उनके पास लाए जा चुके थे, जिन्होंने परीक्षा के दबाव के चलते आत्महत्या का प्रयास किया।'

प्रिय पाठकगण! ये हालात चिन्तनीय हैं- माता-पिता, शिक्षक, स्कूल प्रबंधक, शिक्षाविदों व सरकार सबके लिए। जीवन अनमोल है- खासकर उन कलियों के लिए जिन्हें अभी फूल बनकर खिलना है और बगिया को महकाना है। ध्यान रखें, आत्महत्या करने वाला बच्चा कहीं हमसे यह कहना तो नहीं चाहता था- गिव मी सम सनशाइन! और हमने उसे अनसुना कर दिया!!

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मीडिया कठघरे में

प्रिय पाठकगण! दूसरों पर सवाल उठाने वाला मीडिया स्वयं कठघरे में है। पिछली बार 'खबरों के पैकेज' (11 जनवरी) के बहाने मीडिया के भ्रष्टाचार की चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।


'हिन्दू' ने गत महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान राजनीति और मीडिया के संयुक्त भ्रष्टाचार को लेकर कई नवीन तथ्य उजागर किए। अखबार ने पी। साईनाथ की रिपोर्टों में खुलासा किया कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने अपने चुनाव अभियान के दौरान मीडिया के लिए करोड़ों रुपए के विज्ञापन जारी किए। इन विज्ञापनों को महाराष्ट्र के प्रमुख मराठी दैनिकों में समाचार की तरह प्रकाशित किया गया। यानी अखबारों ने पाठकों को और मुख्यमंत्री ने चुनाव आयोग को भ्रमित किया। 'हिन्दू' की रिपोर्ट के अनुसार मुख्यमंत्री ने अपने चुनाव खर्च का जो अधिकृत ब्यौरा जिला निर्वाचन अधिकारी को प्रस्तुत किया, उसमें उन्होंने अखबारों का 5,379 रुपए तथा टीवी चैनलों का मात्र 6000 रुपए का विज्ञापन खर्चा दर्शाया है। 'हिन्दू' की रिपोर्ट सवाल उठाती है कि मराठी अखबारों में अशोक चव्हाण के चुनाव अभियान के बारे में पूरे-पूरे पृष्ठों की जो सामग्री कई दिन तक प्रकाशित की गई, वह अगर न्यूज कवरेज थी, तो सभी अखबारों में एक जैसी क्यों थी। रिपोर्ट में कुछ प्रमुख मराठी दैनिकों में प्रकाशित ऐसे समाचारों के कई उदाहरण हैं, जिनके शीर्षक, इंट्रो यहां तक कि एक-एक पंक्ति शब्दश: मिलती-जुलती थी। जाहिर है, न विज्ञापन देने वाले के धन का हिसाब-किताब और न लेने वाले के धन का हिसाब-किताब किसी को पता चला।


लोकसभा चुनाव के उदाहरण तो और भी संगीन हैं। करीब नौ माह पहले हुए इन चुनावों में 'पेड न्यूज' का एक ऐसा वायरस आया, जिसने भारतीय मीडिया के एक बड़े हिस्से को जकड़ लिया। सचमुच मीडिया में घुसी इस बुराई से उसकी विश्वसनीयता को जबरदस्त आघात लगा। स्व. प्रभाष जोशी के अनुसार- 'उस दौरान चुनाव सम्बंधी कोई भी खबर, फोटो या कवरेज यहां तक कि विश्लेषण भी उम्मीदवार से पैसे लिए बगैर नहीं छपा।' सम्भवत: सबसे पहले इसका खुलासा 'वॉल स्ट्रीट जनरल' की बेवसाइट पर नई दिल्ली ब्यूरो चीफ पाल बेकेट के एक लेख में किया गया। शीर्षक था- 'प्रेस कवरेज चाहिए? मुझे कुछ पैसा दो।' पाल बेकेट ने चण्डीगढ़ के एक निर्दलीय उम्मीदवार का अखबारों में नाम तक नहीं छपने का कारण बताया- कवरेज चाहिए तो पैसा दो। उस उम्मीदवार ने पाल को बताया कि अखबारों की तरफ से कई दलाल उससे मिल चुके हैं- खबरें छपवानी है तो फीस तो चुकानी पड़ेगी। कवरेज के हिसाब से उन्हें पैकेज की दरें भी बताई गईं। पाल के लेख के अनुसार निर्दलीय उम्मीदवार ने केवल परखने के उद्देश्य से अपने चुनावी दौरे की झूठ-मूठ खबर बनाकर दी तो वह अखबारों में हू-ब-हू छप गई।

एक उदाहरण राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के उत्तर प्रदेश के एक संस्करण का है। उसने अपना सम्पूर्ण प्रथम पृष्ठ एक उम्मीदवार के चुनाव अभियान के विज्ञापन का प्रकाशित किया। लेकिन सामग्री इस ढंग से प्रकाशित की कि वह खबरों का पृष्ठ लगे। बाकायदा लीड स्टोरी के साथ तीन कॉलम फोटो, सैकण्ड लीड, डबल कालम, तीन कालम की खबरें तथा नीचे स्टीमर (बॉटम न्यूज) आदि वैसे ही छपे थे जैसे अखबार का प्रथम पृष्ठ हो। ये सभी खबरें और फोटो एक ही उम्मीदवार से संबंधित थीं। कहीं पर भी विज्ञापन का उल्लेख नहीं था। इस पर पाठकों में हल्ला मचा तो अखबार ने अगले दिन स्पष्टीकरण प्रकाशित कर दिया कि कल प्रकाशित प्रथम पृष्ठ वास्तव में एक उम्मीदवार का चुनावी विज्ञापन था, इसका अखबार के संपादकीय विचारों से कोई तादात्म्य नहीं। सवाल है- इस स्पष्टीकरण की क्या उपयोगिता रही, खासकर तब, जब उसी दिन लोग मतदान कर रहे थे।

बात हिन्दी-अंग्रेजी के कई बड़े राष्ट्रीय दैनिकों तक सीमित नहीं थी। प्रांतीय भाषाओं के प्रमुख अखबार जिनका देश भर में विशाल पाठक-वर्ग है- भी इसी राह पर चल रहे थे। बल्कि कई तो सभी सीमाएं लांघ चुके थे।

भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य श्रीनिवास रेड्डी (द संडे एक्सप्रेस) के अनुसार- '2009 के आम चुनावों में आंध्र प्रदेश के अधिकांश स्थानीय अखबारों ने 300 करोड़ से भी ज्यादा धनराशि ऐसे तरीकों से बटोरी।'


पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि पूरे देश में चुनावों के दौरान केवल मीडिया पर ही कितना धन फूं का गया होगा! क्या यह राजनेताओं की अपनी कमाई थी? एक पाठक शिरीष चंद्रा (कोलकाता) के अनुसार- 'यह जनता का पैसा था, जो काले धन के रू प में मीडिया को इस्तेमाल करने के लिए उपयोग किया गया, लेकिन मीडिया तो खुद ही खबरों के पैकेज बनाकर तैयार खड़ा था।'

पाठकों को याद दिला दूं, साप्ताहिक अंग्रेजी पत्रिका 'आउटलुक' (21 दिसम्बर 09) ने कई नेताओं के बयान प्रकाशित किए, जिन्होंने अपने चुनाव कवरेज के लिए प्रिन्ट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पैसा दिया था या जिनसे पैसे की मांग की गई।

पाठक को सूचना और चुनावी विश्लेषण करके राजनीतिक हालात का जायजा देना मीडिया का प्राथमिक उत्तरदायित्व है। इसीलिए लोग मीडिया पर भरोसा करते हैं। 'पेड न्यूज' इस भरोसे को तोड़ती है। 'आउटलुक' के संपादक और जाने-माने पत्रकार विनोद मेहता कहते हैं- 'पेड न्यूज हमारी (मीडिया की) सामूहिक विश्वसनीयता पर एक गम्भीर खतरे के रूप में उभर रही है।'

प्रिय पाठकगण! मीडिया के एक जिम्मेदार वर्ग ने हाल में इसी खतरे को भांपकर इस मुद्दे पर सबका ध्यान खींचा है। इनमें 'पत्रिका' भी शामिल है। प्रसन्नता की बात यह है कि पाठकों की इस पर बहुत ही सकारात्मक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं।

पाठक रीडर्स एडिटर को अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-

ई-मेल: anand.joshi@epatrika.com

एसएमएस: baat 56969

फैक्स: 0141-2702418

पत्र: रीडर्स एडिटर,

राजस्थान पत्रिकाझालाना संस्थानिक क्षेत्र,

जयपुर

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खबरों के पैकेज !

मीडिया में 'पेड न्यूज' का मुद्दा चर्चा में है। चुनावों के दौरान पैसा लेकर खबरें छापने और प्रसारित करने पर हाल ही मीडिया- खासकर, प्रिन्ट मीडिया में गम्भीर चर्चा हुई है। मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित पी. साईनाथ और स्व. प्रभाष जोशी जैसे प्रतिष्ठित पत्रकारों ने इस मुद्दे को उठाया और राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान केन्द्रित किया। जयपुर में झाबरमल्ल शर्मा स्मृति व्याख्यान के दौरान भी यह मुद्दा उठा। खास बात यह है कि मीडिया में आई इस बुराई को मीडिया ने उठाया। अब आमजन और पाठक भी इस मुद्दे पर मुखर होने लगे हैं।

जयपुर से विजय श्रीमाली ने लिखा, 'चुनाव में पैसे लेकर खबरें छापने का आरोप पत्रकारों और अखबारों पर पहले भी लगते रहे हैं। लेकिन पिछले दिनों राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के समक्ष अनेक अखबारों और न्यूज चैनलों ने चुनाव कवरेज के लिए जिस तरह खबरों के पैकेज रखे- कुछ ने तो बाकायदा रेट कार्ड छपवाए- वह भारतीय मीडिया-जगत की अपूर्व घटना है। अपूर्व और शर्मनाक! सम्भवत: इसीलिए मीडिया के एक जिम्मेदार वर्ग में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। मुझे यह सुखद लगा कि पिछले दिनों इस मुद्दे को कुछ अखबारों ने जोर-शोर से उठाकर जनता को जागरू क करने की कोशिश की है। मीडिया के भ्रष्टाचार को अगर मीडिया का ही एक जागरू क तबका उजागर करने को कटिबद्ध है, तो मुझे पूरी उम्मीद है कि भ्रष्ट मीडिया को जनता सबक सिखाकर मानेगी।'

भोपाल से सुभाष रघुवंशी ने लिखा- 'विज्ञापन और खबर में रात-दिन का अंतर होता है। लेकिन कई अखबारों ने चुनाव अभियान के विज्ञापनों को खबरों की तरह प्रकाशित किया। ऐसी सामग्री में ्रष्ठङ्कञ्ज यानी 'विज्ञापन' लिखने की सामान्य परिपाटी है, जिसका उल्लंघन किया गया। इससे विज्ञापन और खबर का भेद मिट गया। पाठक भ्रमित हुए।'

उदयपुर से डॉ. एस.सी. मेहता के अनुसार- 'मीडिया की पहचान और अस्तित्व खबरों पर टिके हैं। खबरों में मिलावट करके तो वह अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी मार रहा है।'

प्रिय पाठकगण! बात अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने तक सीमित नहीं है। यह लोकतंत्र के चौथे पाये की विश्वसनीयता का गम्भीर मुद्दा है। इसमें काला धन, भ्रष्टाचार और राजनीतिक गठजोड़ के अनैतिक और अवैधानिक पहलू जुड़े हैं। स्व। प्रभाष जोशी के अनुसार मीडिया का काम जनता की चौकीदारी करना है। लेकिन चौकीदार की अगर चोर से ही मिली-भगत हो, तो जनता का क्या होगा।

लिहाजा जनता को जागरूक करने की मीडिया के उस वर्ग की चिन्ता जायज है जो 'पेड न्यूज' या 'पैकेज जर्नलिज्म' को अनैतिक मानता है। ध्यान रहे, 'पेड न्यूज' और विज्ञापन में अन्तर स्पष्ट है। जाने-माने पत्रकार राजदीप सरदेसाई के अनुसार- 'अगर एक राजनेता या कारपोरेट घराना अखबार में संपादकीय जगह या टीवी पर एयर टाइम खरीदना चाहता है तो वह ऐसा कर सकता है। लेकिन उसे नियमानुसार इसकी घोषणा करनी होगी।' राजदीप आगे लिखते हैं- 'जब राजनीतिक/ व्यावसायिक ब्राण्ड गैर पारदर्शी ढंग से घुसा दिया जाता है, जब विज्ञापन फार्म या कंटेट में साफ फर्क के बगैर खबर के रू प में पाठक या दर्शक के सामने आता है, तब वह खबरों की शुचिता का उल्लंघन है।'

प्रिय पाठकगण! पी. साईनाथ ने पिछले दिनों 'हिन्दू' में प्रकाशित अपनी खोजपूर्ण रिपोर्टों में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों के दौरान कुछ प्रमुख मराठी दैनिकों में खबरों की इसी शुचिता के उल्लंघन को तथ्यों के साथ उजागर किया है। मराठी ही क्यों अन्य कई भाषाई अखबार हिन्दी और अंग्रेजी के राष्ट्रीय दैनिक भी कठघरे में हैं। (पाठकों को बता दूं इसमें 'पत्रिका' शामिल नहीं है।) गत वर्ष लोकसभा और कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान खबरों की इस अनैतिक बिक्री पर हाल ही देश के प्रिन्ट मीडिया ने अनेक तथ्य प्रकाशित किए हैं। बड़े-बड़े राजनेताओं के हवाले से लिखा है कि कौन-कौन से अखबारों ने चुनाव प्रचार के बदले धन की मांग की। आंखें खोल देने वाली ये रिपोर्टें 'हिन्दू', 'इण्डियन एक्सप्रेस', 'आउट लुक' (अंग्रेजी साप्ताहिक) में प्रमुखता से प्रकाशित हुई हैं। हिन्दी दैनिक 'जनसत्ता' में स्व. प्रभाष जोशी ने इस मुद्दे को सबसे पहले उठाया। निश्चय ही यह संपूर्ण भारतीय मीडिया-जगत का सर्वाधिक चिन्तनीय मुद्दा है, जिस पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए।

अहमदाबाद के एक पाठक एच.सी. जैन ने लिखा- 'मीडिया की बदौलत रुचिका गिरहोत्रा का मामला राष्ट्रीय सुर्खियों में आया और हरियाणा के पूर्व पुलिस अफसर राठौड़ पर शिकंजा कसा। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, नीतिश कटारा जैसे प्रकरणों में प्रभावशाली-शक्तिशाली अभियुक्त तमाम दबावों के बावजूद बच नहीं सके। अनेक बड़े राजनेताओं के भ्रष्टाचार को मीडिया ने उजागर किया। मधु कोड़ा के भ्रष्टाचार का मामला सबसे पहले झारखण्ड के एक हिन्दी अखबार 'प्रभात खबर' ने उजागर किया। जाहिर है, मीडिया जनता की आवाज है। जनता उसे अपना दोस्त और संरक्षक मानती है। ऐसे में अगर मीडिया खुद भ्रष्टाचार में लिप्त होगा, तो वह अन्याय के खिलाफ कैसे लड़ेगा।'

जयपुर से विमल पारीक ने लिखा- 'भ्रष्टाचार में लिप्त होकर मीडिया अपनी ताकत और प्रभाव खो रहा है। झाबरमल्ल शर्मा स्मृति व्याख्यान के दौरान 'पत्रिका' समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी ने सही कहा- (पत्रिका 5 जनवरी) 'लोकतंत्र को बचाना है तो मीडिया का इलाज करना जरूरी है। मीडिया के कमजोर होने के कारण लोकतंत्र के अन्य तीन स्तम्भ शिथिल हो गए हैं।'

प्रिय पाठकगण! मीडिया की कमजोरी और शिथिलता की चर्चा अभी अधूरी है। पिछले दिनों प्रिन्ट मीडिया ने इस मुद्दे पर क्या तथ्य देश की जनता के सामने रखे। खबरों के पैकेज क्या हैं। इसमें राजनीतिक उम्मीदवार, दल, अखबार और टीवी चैनलों की क्या भूमिका रही। पाठक इन मुद्दों पर और क्या कहते हैं? इन पर चर्चा अगली बार।
पाठक रीडर्स एडिटर को अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-
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कुशवाहाजी यादें



बात सत्तर के दशक की है। वे रोजाना शाम को पत्रिका कार्यालय में आते और चुपचाप काम करने बैठ जाते थे। मुश्किल से उन्हें आधा घंटा भी नहीं लगता था। काम खत्म करके उसी तरह चुपचाप लौट जाते थे। इस आधे घंटे में वे कलम और कूंची की वह दुनिया रच जाते, जिसके प्रशंसक पत्रिका के लाखों पाठक थे। अपने विद्यार्थी जीवन से ही मैं राजस्थान की लोककथाओं पर आधारित उनकी चित्रकथाओं का नियमित पाठक था। इसलिए स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद अस्सी के दशक में मैंने जयपुर में पत्रिका ज्वॉइन की, तो केसरगढ़ में अनंत कुशवाहा जी को अपने इतने समीप काम करते हुए देखना मुझे बहुत आह्लादित करता था। मैं साप्ताहिक इतवारी पत्रिका में था। कुशवाहा जी पत्रिका के मैगजीन विभाग (उस वक्त रविवारीय परिशिष्ट) में आकर बैठते और अपना काम करके चले जाते थे। कई दिनों बाद पता चला कि ये अनंत कुशवाहा जी हैं।

इतनी खामोशी और सादगी से काम करने वाला शख्स मैंने पहले नहीं देखा था। उन्हें अपनी लोकप्रियता का कोई गुमान नहीं था। उन दिनों विजयदान देथा और रानी लक्ष्मी कुमारी चूंडावत की लोककथाओं पर आधारित उनकी चित्रकथाओं की शृंखला पत्रिका के जरिए घर-घर पहुंचती थी। पत्रिका के ऐसे पाठकों की संख्या लाखों में रही होगी, जो अखबार हाथ में आते ही पहले-पहल चित्रकथा पढ़ते थे।

कुशवाहा जी के हुनर को स्व। कुलिशजी ने पहचाना। कुशवाहा जी उन दिनों जयपुर में राजकीय सेवा में थे और उत्तर प्रदेश के कुछ अखबारों में छिटपुट सामग्री भेजते थे। कुलिशजी राजस्थान की लोककथाओं पर कुछ विशेष कार्य करना चाहते थे। इसका दायित्व उन्होंने कुशवाहा जी को सौंपा। यह अवसर बाद में न केवल कुशवाहा जी के लिए वरदान साबित हुआ, बल्कि राजस्थानी लोककथाओं को भी एक नया आयाम मिला। कुशवाहा जी ने चुन-चुन कर लोककथाओं का बेहतरीन चित्रांकन किया और उन्हें दैनिक अखबार का विषय बनाया। मुझे याद है बीकानेर के डूंगर कॉलेज के पुस्तकालय में सबसे पहले पत्रिका में चित्रकथा का पन्ना खोलने वाले मेरे कई विद्यार्थी मित्र थे। कुशवाहा जी एक बेहतरीन चित्रकार होने के साथ-साथ अच्छे शब्द शिल्पी भी थे। इसलिए भाषा और चित्रांकन की प्रस्तुति का तालमेल बेहतरीन रहता था। उनका लाइन-वर्क बहुत मजबूत था, इसलिए पाठक को चित्रकथा रोचक लगती थी। वह उससे बंध जाता था।

बाद में तो वे पत्रिका से औपचारिक रूप से जुड़ गए। सरकारी सेवा छोड़कर पूरी तरह साहित्य और चित्रांकन की दुनिया में रच-बस गए। उन्हें पत्रिका के नए प्रकाशन 'बालहंस' का संपादक नियुक्त किया गया। यह बच्चों की पाक्षिक पत्रिका थी। कुशवाहा जी ने न केवल इसका कुशलता से संपादन किया, बल्कि अनेक नवोदित बाल साहित्यकार, कवि, लेखक और चित्रकारों को अवसर दिया। जल्दी ही बालहंस पूरे उत्तर भारत की हिंदी की एक लोकप्रिय बाल पत्रिका बन गई। देश में बाल साहित्य पर आयोजित होने वाली गोष्ठियों/ सेमिनारों में बालहंस का जिक्र जरूर होता था। अनेक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित लेखक बालहंस से जुड़े। आज 'बालहंस' देश की प्रतिष्ठित बाल पत्रिका है, जिसमें कुशवाहा जी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है।

'बालहंस' में उन्होंने कई मौलिक चित्रकथाएं रचीं। इन कथाओं ने न केवल बाल पाठकों का भरपूर मनोरंजन किया, बल्कि बड़े पाठक भी उन्हें खूब रुचिपूर्वक पढ़ते थे। उनके रचित पात्र शैलबाला, ठोलाराम, कवि आहत आज भी पाठकों को याद हैं। शैलबाला एक साहसी लड़की का पात्र था, जिस पर उन्हें पाठकों की भरपूर प्रतिकियाएं मिलीं। 'बालहंस' में ही उनकी एक अनूठी चित्रकथा - शृंखला प्रकाशित हुई - कंू कंू। कुशवाहा जी एक प्रयोगशील रचनाकार थे। नए विचार, नई तकनीक को वे शब्द और चित्रांकन दोनों विधाओं में आजमाते थे। कूं कंू इसका सर्वाेत्कृष्ट उदाहरण था। इस चित्रकथा में एक भी शब्द का इस्तेमाल किए बिना विषयवस्तु और घटनाक्रम को पूरी रोचकता के साथ प्रस्तुत किया जाता था। कई वर्षों बाद उनके इस प्रयोग का रविवारीय परिशिष्ट में सार्थक उपयोग किया गया। मैंने परिशिष्ट विभाग का जिम्मा संभाला, तो पत्रिका के संपादक गुलाब कोठारी जी ने मुझे रविवारीय में कुछ नया करने का निर्देश दिया। उन्हीं के सुझाव पर 'आखर कोना' कॉलम शुरू किया गया, जिसे कुशवाहा जी तैयार करते थे। यह स्तंभ नव साक्षरों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। कुशवाहा जी का एक और पात्र इतवारी लाल भी बहुत लोकप्रिय हुआ। यह एक व्यंग्य चित्र शृंखला थी, जो साप्ताहिक इतवारी पत्रिका में प्रकाशित होती थी। इतवारी लाल पात्र के जरिए कुशवाहा जी ने कई सामाजिक, राजनीतिक और सामयिक विषयों पर तीखे कटाक्ष किए। कुशवाहा जी चुटकी लेने मेें माहिर थे। बातों से नहीं, अपनी व्यंग्यकारी अभिव्यक्ति से। जब उन्हें इतवारी के तत्कालीन प्रभारी ने इस शृंखला पर विराम लगाने को कहा, तो उन्होंने अंतिम किश्त बनाई। इसमें इतवारी लाल पात्र को उन्होंने एक गड्ढे में उल्टे पांव किए डूबता हुआ दिखाकर जो कटाक्ष किया, वह मुझे आज भी याद है।

वे जितने अच्छे चित्रकार थे, उतने ही श्रेष्ठ लेखक भी थे। उन्होंने भरपूर बाल साहित्य रचा। बाल कथाओं के उनके दस संग्रह हैं। वे आज के दौर में रचे जा रहे बाल साहित्य से संतुष्ट नहीं थे। भावी पीढ़ी के लिए वे बहुत चिंतित थे। इसलिए वे कहते थे कि बच्चों के लिए मौलिक सृजन की बेहद जरूरत है, जो आज इंटरनेट के दौर में खत्म होता जा रहा है। बच्चों को सूचनाएं परोसी जा रही हैं। इससे उनका एकांगी विकास ही हो रहा है।

2002 में वे सेवानिवृत्त हुए तो बोले - दैनंदिन उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो रहा हंू, लेकिन अपने सृजन कर्म से नहीं। पत्रिका ने भी उन्हें पूरा सम्मान और अवसर दिया। सेवानिवृत्ति के बाद उनके निधन के दिन (28 दिसंबर) तक उनकी चित्रकथा निरंतर प्रकाशित होती रही। पाठकों से शायद इसलिए उनका नाता कभी टूट नहीं पाएगा।

मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!

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