पांच राज्यों में चुनाव परिणाम की तस्वीर आज साफ हो जाएगी, लेकिन उन अखबारों और टीवी चैनलों के नाम कब सामने आएंगे, जिन्होंने उम्मीदवारों के पक्ष में पैसे लेकर खबरें प्रकाशित कीं?
यह सवाल कई पाठकों के जेहन में उठ रहा होगा। खासकर, तब जब चुनाव आयोग द्वारा 167 उम्मीदवारों को पेड न्यूज के लिए नोटिस जारी किये गए । तीन मार्च को अंतिम चरण का मतदान संपन्न होने से पहले ये नोटिस जारी किये गये थे। इसलिए संभव है पेड न्यूज के आरोपी उम्मीदवारों की संख्या और बढ़ जाए। पाठकों को बता दूं कि इन चुनावों में खड़े करीब 7 हजार उम्मीदवारों में से एक हजार से भी अधिक उम्मीदवारों पर पेड न्यूज के आरोप लगाए गए थे। यह स्थिति सात चरणों में हुई मतदान प्रक्रिया के बीच के दिनों की है। चुनाव संपन्न होने तक यह आंकड़ा कहां तक पहुंचा होगा, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। जितने ज्यादा उम्मीदवार, उतनी ही ज्यादा पेड न्यूज की शिकायतें। आयोग ने चुनिंदा शिकायतों पर ही नोटिस जारी किये। लेकिन यह स्पष्ट है कि तमाम प्रयासों के बावजूद पेड न्यूज नामक मर्ज बढ़ता जा रहा है।
सवाल है-आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। कौन है इसके लिए जिम्मेदार ? क्या इस मर्ज का कोई इलाज नहीं ? बड़ा सवाल यह है कि मीडिया संस्थानों के नाम सामने आ जाएंगे, तब भी क्या उनका कुछ बिगड़ पाएगा, पिछली बार की तरह? यह बात तो सभी जानते हैं कि आज के अधिकांश नेता और राजनीतिक दलों की साख जनता की नजर में काफी गिर चुकी है। शायद ही किसी को अपनी जीत का पक्का भरोसा हो। हर कोई वे सारे हथकंडे आजमाना चाहता है, जिनसे जीत सुनिश्चित हो सके। उन्हीं में से एक हथकंडा पेड न्यूज है। उम्मीदवार अपने पक्ष में एक कृत्रिम माहौल मीडिया के जरिए पैदा करना चाहता है। वह अपने प्रचारकों द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर तैयार की गई खबरों का प्रकाशन व प्रसारण कराता है। इसके लिए वह मीडिया संस्थानों को अनाप-शनाप भुगतान करता है।
इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए जन प्रतिनिधि, राजनीतिक दल और मीडिया तीनों ही जिम्मेदार हैं। यह सही है कि मीडिया का एक हिस्सा इस अनैतिक गठबंधन से खुद को बचाए हुए है। इनमें पत्रिका समूह का नाम प्रमुख है। भारतीय प्रेस परिषद की सूची में पेड न्यूज के लिए पत्रिका को छोड़कर कई बड़े अखबारों के नाम दर्ज हैं। दरअसल, जिस तेजी से पेड न्यूज का महारोग बढ़ता जा रहा है, उससे कुछेक मीडिया संस्थानों का बचे रहना किसी चमत्कार से कम नहीं। शायद पाठकों में अटूट विश्वास ही उनकी शक्ति का वास्तविक आधार बना हुआ है।
सवाल फिर भी शेष है। आखिर क्या है पेड न्यूज नामक इस मर्ज का इलाज? भारतीय प्रेस परिषद ने पिछले आम चुनावों में पेड न्यूज की हकीकत जानने के लिए एक समिति गठित की थी। समिति ने पूरी छानबीन के बाद अपनी रिपोर्ट परिषद को सौंप दी। समिति के एक सदस्य वरिष्ठ पत्रकार परंजाय गुहा ठाकुरता के अनुसार- ' पेड न्यूज संबंधी रिपोर्ट में इन सभी अखबारों और मीडिया संस्थानों क ा जिक्र किया गया, जिन्होंने पैसे लेकर खबरें छापी थीं। हमने उन सभी संस्थानों को अपना पक्ष रखने का मौका दिया, लेकिन दोषी अखबारों और मीडिया संस्थानों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। '
परिणाम सामने है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान अखबार फिर पैकेज लेकर उम्मीदवारों के पास पहुंच गए। हालांकि अधिकांश अखबार क्षेत्रीय, भाषाई व स्थानीय हैं, पर यह स्पष्ट है कि इन मीडिया संगठनों को किसी का खौफ नहीं था। पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता ने आरोप लगाया कि कुछ अखबारों ने उनके मुख्य उम्मीदवारों की पच्चीस दिन तक कवरेज के लिए दो करोड़ रुपए पैकेज की मांग रखी। जाहिर है, दोषी पाये जाने के बावजूद पिछली बार किसी अखबार के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने से हौसले बढ़ गए।
दूसरी तरफ पेड न्यूज मामले में दोष सिद्ध होने पर चुनाव आयोग ने बीस अक्टूबर 2011 को उत्तरप्रदेश की बिसौली विधानसभा सदस्य उमिलेश यादव की सदस्यता खत्म कर दी थी। पेड न्यूज में यह पहली सजा थी। 167 उम्मीदवारों पर भी चुनाव आयोग की तलवार लटक रही है। ऐसे में मीडिया कब तक बचा रहेगा। उस पर लोगों की उंगलियां उठना स्वाभाविक है। आज उम्मीदवार और दलों की तरह मीडिया की साख भी खतरे में है।
भाजपा की चुनाव प्रक्रिया सुधार समिति के अध्यक्ष किरीट सोमैया के अनुसार-अगले चुनावों में पेड न्यूज साबित होने पर अखबार व टीवी चैनल मालिक व पत्रकारों पर आपराधिक मामले दर्ज किए जाएंगे। गत वर्ष जब वे जयपुर आए तो उनका दावा था कि उनकी समिति ने ही ऐसा सुझााव दिया था, जिसे केंद्रीय चुनाव आयोग ने मंजूर कर लिया और अगले चुनावों से इस पर अमल हो सकता है। निश्चय ही अगर ऐसा होता है तो चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया को जमीनी सच्चाई का पता चल जाएगा। जनता और सत्ता के बीच सेतु की विनम्र भूमिका निभाने वाले मीडिया के उस वर्ग के लिए यह चुनौती होगी कि वह मीडिया में घुस आए इस महारोग का जड़ से खात्मा कब और कैसे कर पाएगा? जब तक पेड न्यूज खत्म नहीं होगी, इसके अपराध की काली छाया संपूर्ण मीडिया जगत पर मंडराती रहेगी।
यह सवाल कई पाठकों के जेहन में उठ रहा होगा। खासकर, तब जब चुनाव आयोग द्वारा 167 उम्मीदवारों को पेड न्यूज के लिए नोटिस जारी किये गए । तीन मार्च को अंतिम चरण का मतदान संपन्न होने से पहले ये नोटिस जारी किये गये थे। इसलिए संभव है पेड न्यूज के आरोपी उम्मीदवारों की संख्या और बढ़ जाए। पाठकों को बता दूं कि इन चुनावों में खड़े करीब 7 हजार उम्मीदवारों में से एक हजार से भी अधिक उम्मीदवारों पर पेड न्यूज के आरोप लगाए गए थे। यह स्थिति सात चरणों में हुई मतदान प्रक्रिया के बीच के दिनों की है। चुनाव संपन्न होने तक यह आंकड़ा कहां तक पहुंचा होगा, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। जितने ज्यादा उम्मीदवार, उतनी ही ज्यादा पेड न्यूज की शिकायतें। आयोग ने चुनिंदा शिकायतों पर ही नोटिस जारी किये। लेकिन यह स्पष्ट है कि तमाम प्रयासों के बावजूद पेड न्यूज नामक मर्ज बढ़ता जा रहा है।
सवाल है-आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। कौन है इसके लिए जिम्मेदार ? क्या इस मर्ज का कोई इलाज नहीं ? बड़ा सवाल यह है कि मीडिया संस्थानों के नाम सामने आ जाएंगे, तब भी क्या उनका कुछ बिगड़ पाएगा, पिछली बार की तरह? यह बात तो सभी जानते हैं कि आज के अधिकांश नेता और राजनीतिक दलों की साख जनता की नजर में काफी गिर चुकी है। शायद ही किसी को अपनी जीत का पक्का भरोसा हो। हर कोई वे सारे हथकंडे आजमाना चाहता है, जिनसे जीत सुनिश्चित हो सके। उन्हीं में से एक हथकंडा पेड न्यूज है। उम्मीदवार अपने पक्ष में एक कृत्रिम माहौल मीडिया के जरिए पैदा करना चाहता है। वह अपने प्रचारकों द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर तैयार की गई खबरों का प्रकाशन व प्रसारण कराता है। इसके लिए वह मीडिया संस्थानों को अनाप-शनाप भुगतान करता है।
इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए जन प्रतिनिधि, राजनीतिक दल और मीडिया तीनों ही जिम्मेदार हैं। यह सही है कि मीडिया का एक हिस्सा इस अनैतिक गठबंधन से खुद को बचाए हुए है। इनमें पत्रिका समूह का नाम प्रमुख है। भारतीय प्रेस परिषद की सूची में पेड न्यूज के लिए पत्रिका को छोड़कर कई बड़े अखबारों के नाम दर्ज हैं। दरअसल, जिस तेजी से पेड न्यूज का महारोग बढ़ता जा रहा है, उससे कुछेक मीडिया संस्थानों का बचे रहना किसी चमत्कार से कम नहीं। शायद पाठकों में अटूट विश्वास ही उनकी शक्ति का वास्तविक आधार बना हुआ है।
सवाल फिर भी शेष है। आखिर क्या है पेड न्यूज नामक इस मर्ज का इलाज? भारतीय प्रेस परिषद ने पिछले आम चुनावों में पेड न्यूज की हकीकत जानने के लिए एक समिति गठित की थी। समिति ने पूरी छानबीन के बाद अपनी रिपोर्ट परिषद को सौंप दी। समिति के एक सदस्य वरिष्ठ पत्रकार परंजाय गुहा ठाकुरता के अनुसार- ' पेड न्यूज संबंधी रिपोर्ट में इन सभी अखबारों और मीडिया संस्थानों क ा जिक्र किया गया, जिन्होंने पैसे लेकर खबरें छापी थीं। हमने उन सभी संस्थानों को अपना पक्ष रखने का मौका दिया, लेकिन दोषी अखबारों और मीडिया संस्थानों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। '
परिणाम सामने है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान अखबार फिर पैकेज लेकर उम्मीदवारों के पास पहुंच गए। हालांकि अधिकांश अखबार क्षेत्रीय, भाषाई व स्थानीय हैं, पर यह स्पष्ट है कि इन मीडिया संगठनों को किसी का खौफ नहीं था। पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता ने आरोप लगाया कि कुछ अखबारों ने उनके मुख्य उम्मीदवारों की पच्चीस दिन तक कवरेज के लिए दो करोड़ रुपए पैकेज की मांग रखी। जाहिर है, दोषी पाये जाने के बावजूद पिछली बार किसी अखबार के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने से हौसले बढ़ गए।
दूसरी तरफ पेड न्यूज मामले में दोष सिद्ध होने पर चुनाव आयोग ने बीस अक्टूबर 2011 को उत्तरप्रदेश की बिसौली विधानसभा सदस्य उमिलेश यादव की सदस्यता खत्म कर दी थी। पेड न्यूज में यह पहली सजा थी। 167 उम्मीदवारों पर भी चुनाव आयोग की तलवार लटक रही है। ऐसे में मीडिया कब तक बचा रहेगा। उस पर लोगों की उंगलियां उठना स्वाभाविक है। आज उम्मीदवार और दलों की तरह मीडिया की साख भी खतरे में है।
भाजपा की चुनाव प्रक्रिया सुधार समिति के अध्यक्ष किरीट सोमैया के अनुसार-अगले चुनावों में पेड न्यूज साबित होने पर अखबार व टीवी चैनल मालिक व पत्रकारों पर आपराधिक मामले दर्ज किए जाएंगे। गत वर्ष जब वे जयपुर आए तो उनका दावा था कि उनकी समिति ने ही ऐसा सुझााव दिया था, जिसे केंद्रीय चुनाव आयोग ने मंजूर कर लिया और अगले चुनावों से इस पर अमल हो सकता है। निश्चय ही अगर ऐसा होता है तो चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया को जमीनी सच्चाई का पता चल जाएगा। जनता और सत्ता के बीच सेतु की विनम्र भूमिका निभाने वाले मीडिया के उस वर्ग के लिए यह चुनौती होगी कि वह मीडिया में घुस आए इस महारोग का जड़ से खात्मा कब और कैसे कर पाएगा? जब तक पेड न्यूज खत्म नहीं होगी, इसके अपराध की काली छाया संपूर्ण मीडिया जगत पर मंडराती रहेगी।
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