एक पाठक का प्रश्न है- 'भोपाल गैस काण्ड के दोषियों को मामूली सजा सुनाने के बाद देश भर में हंगामा मचा है। क्या ऐसी प्रतिक्रिया उस वक्त हुई थी, जब 25 साल पहले यह भयानक त्रासदी घटी थी?'
जवाब पाठक ने खुद ही दिया है। 'उस वक्त शोक में डूबा राष्ट्र किंकर्तव्यविमूढ़ था। वह लाशें गिनने और लाखों गैस पीडि़तों के क्रन्दन से हतप्रभ था। जब सामान्य हुआ तो उसने देश के कर्णधारों और न्याय-व्यवस्था पर भरोसा किया। न्याय की आस में २५ साल काट दिए। लेकिन उसे मिला क्या? विश्वासघात! सचमुच उसके विश्वास को बड़ी बेरहमी से कुचल दिया गया। उसके असीम धैर्य का जो सिला राष्ट्र के कर्णधारों ने दिया उससे वह भीतर तक बिंध गया। आज वह क्षोभ, ग्लानि और पश्चाताप की आग में झाुलस रहा है।'
जवाब पाठक ने खुद ही दिया है। 'उस वक्त शोक में डूबा राष्ट्र किंकर्तव्यविमूढ़ था। वह लाशें गिनने और लाखों गैस पीडि़तों के क्रन्दन से हतप्रभ था। जब सामान्य हुआ तो उसने देश के कर्णधारों और न्याय-व्यवस्था पर भरोसा किया। न्याय की आस में २५ साल काट दिए। लेकिन उसे मिला क्या? विश्वासघात! सचमुच उसके विश्वास को बड़ी बेरहमी से कुचल दिया गया। उसके असीम धैर्य का जो सिला राष्ट्र के कर्णधारों ने दिया उससे वह भीतर तक बिंध गया। आज वह क्षोभ, ग्लानि और पश्चाताप की आग में झाुलस रहा है।'
प्रिय पाठकगण! भोपाल गैस काण्ड यानी दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी एक बार फिर सुर्खियों में है। 2-3 दिसम्बर 1984 की दरम्यानी रात को जो कुछ हुआ वह अनचाहा हादसा कहा जा सकता है। लेकिन बाद में जो कुछ प्रत्यक्ष और परोक्ष में घटता रहा उसे क्या कहेंगे? लापरवाही? भूल ... अमरीकी दबाव ... देशद्रोह ...? देखें पाठक क्या कहते हैं। खास बात यह कि अब आगे क्या? भोपाल की जिला अदालत के फैसले और कई नए तथ्यों की रोशनी में ऐसा क्या किया जाए कि गैस पीडि़तों को शीघ्र न्याय मिले। सभी दोषियों को सजा मिले। पाठकों ने इस पर तार्किक चर्चा की है।
भोपाल सेविशाल दुबे ने लिखा- 'गैस त्रासदी के दो मुख्य बिन्दु हैं- 1। आपराधिक 2. नागरिक। दोनों बिन्दुओं पर तत्कालीन केन्द्र और राज्य सरकार ने अपना कर्तव्य क्यों नहीं निभाया, इसकी जांच होनी चाहिए। आपराधिक कर्तव्य के तहत गैस काण्ड के अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचाना था। नागरिक कर्तव्य के तहत मृतकों के परिजनों और गैस पीडि़तों को पर्याप्त मुआवजा दिलाना था। इन दोनों बिन्दुओं पर सरकार सक्षम थी। सबूत और गवाह भी थे। लेकिन उसने बिलकुल उलट कार्य किया। कौडि़यों का मुआवजा लेकर यूनियन कार्बाइड को बख्श दिया। अमरीका में बैठी एंडरसन की पत्नी के बयान पर गौर करना चाहिए। उसने सब कुछ 'सैटल' होने की बात कही है। केन्द्र सरकार ने 15 फरवरी 1989 को यूनियन कार्बाइड से समझाौते में क्या 'सैटल' किया, देश को इसका पता चलना चाहिए।'
भोपाल से ही मुमताज अली ने लिखा- 'अमरीकन कम्पनी यूनियन कार्बाइड को 25 हजार लोगों की मौत और 6 लाख लोगों के बीमार पड़ने के बदले सिर्फ 710 करोड़ रुपए का मुआवजा लेकर बरी कर दिया गया। यह राशि कितनी नाकाफी है, इसका अंदाजा अमरीका में 9/11 हमले में मारे गए 2 हजार 8 सौ लोगों के परिजनों को मिले मुआवजे से लगाया जा सकता है। भारतीयों की जान की कीमत क्या है- जरा गौर करें। अमरीका में सभी 2800 मृतकों के परिजनों को एक साल के भीतर प्रति व्यक्ति 8 करोड़ रुपए का मुआवजा मुहैया कराया गया। जबकि भोपाल गैस काण्ड के 25 साल बाद भी मृतकों को औसत 2 लाख रुपए तथा घायलों को 50 हजार रुपए मुआवजा ही दिया जा सका है। कई घायल इलाज पर ही लाखों रुपए खर्च कर चुके हैं।'
जबलपुर से शशि शेखर ने लिखा- 'भारत सरकार चाहे तो वह अब भी यूनियन कार्बाइड से अतिरिक्त मुआवजा राशि की मांग कर सकती है। इसके लिए वह यूनियन कार्बाइड के खिलाफ अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में दावा कर सकती है। यह कार्रवाई न्यायसंगत ही नहीं, तर्कपूर्ण भी कही जाएगी। क्योंकि कम्पनी से जिस वक्त मुआवजा राशि तय की गई थी उस दौरान तीन हजार मौतें और करीब एक लाख लोगों के बीमार होने के मामले सामने आए थे। बाद में यह संख्या बढ़कर क्रमश: 25 हजार तथा 6 लाख हो गई। ये आंकड़े उन गैस दावा अदालतों द्वारा प्रमाणित हैं जिन्होंने गैस त्रासदी में मौतों और घायलों के लिए मुआवजे मंजूर किए हैं।'
जयपुर से विजय सिंह तंवर के अनुसार- 'यूनियन कार्बाइड के जिन सात अधिकारियों को दो साल सश्रम कारावास की सजा सुनाकर जमानत पर छोड़ दिया गया, उसमें राज्य सरकार सी।आर.पी.सी. की धारा 172-ए के तहत सजा बढ़ाने की अपील करे। साथ ही सी.बी.आई धारा 304 (गैर इरादतन हत्या) के तहत मुकदमा चलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू अर्जी दाखिल करे। और केन्द्र सरकार वारेन एंडरसन को तत्काल भारत लाने की कार्रवाई करे।'
उदयपुर से गौरव मेहता ने लिखा- 'यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का मामला ही दर्ज होना चाहिए। एंडरसन समेत सभी अधिकारियों ने गैस संयंत्र की सुरक्षा को लेकर आपराधिक लापरवाही बरती थी, जिसका विस्तृत विवरण सतीनाथ षडंगी के लेख 'सूना ही रह गया कठघरा' (पत्रिका 9 जून) में किया गया है।'
अहमदाबाद से प्रो. कीर्ति व्यास ने लिखा- 'केन्द्र और राज्य सरकार से सम्बंधित उन राजनेताओं और अफसरों का खुलासा होना जरूरी है, जो गैस त्रासदी काण्ड में निर्णायक भूमिका निभा रहे थे। केन्द्रीय जांच ?यूरो के पूर्व संयुक्त निदेशक बी।आर. लाल, भोपाल के तत्कालीन कलक्टर मोतीसिंह, प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव रहे पी.सी. अलेक्जेंडर, पायलट हसन अली, कैप्टन आर.सी. सोढ़ी आदि ने जो नए खुलासे किए हैं, उन पर इसलिए गौर करना जरूरी है कि राष्ट्र के समक्ष दूध का दूध और पानी का पानी होना चाहिए।'
कोटा से नीलिमा बंसल ने लिखा- 'जब भी रघु राय की खींची मिट्टी में दबे उस मृत बच्चे की तस्वीर देखती हूं- जो भोपाल गैस त्रासदी में मारे गए लोगों की भयावहता का प्रतीक बन चुकी है- तो कांप उठती हूं। आखिर ऐसे कारखानों की हमें जरूरत ही क्यों है जो मानवता और प्रकृति के निर्मम हत्यारे साबित हो रहे हैं।'
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