जयपुर साहित्य उत्सव के आयोजकों को अगर अल्पसंख्यक समुदाय की भावनाओं की तनिक भी कद्र होती, तो वे आयोजन के अंतिम दिन सलमान रुश्दी की वीडियो कान्फ्रेंसिंग की घोषणा नहीं करते। आयोजकों की यह कैसी खुराफात थी!
यह जानते-समझते कि रुश्दी की आयोजन में किसी तरह की शिरकत एक समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकती है—आयोजन के ठीक आखिरी दिन रुश्दी के वीडियो कान्फ्रेंसिंग का कार्यक्रम तय कर दिया। माना कि आयोजक इस बात की गारण्टी ले रहे थे कि रुश्दी विवादास्पद पुस्तक— 'सैटेनिक वर्सेज' के बारे में कुछ नहीं बोलेंगे। यह भी कि रुश्दी अपनी एक अन्य पुस्तक 'मिडनाइट्स चिल्ड्रन' पर ही बात करेंगे। इसके बावजूद यह सवाल तो बना रहेगा कि किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आपको क्या हक है? और बात जब एक समुदाय की भावनाओं से जुड़ी हो, तो यह सवाल न केवल आयोजकों से, बल्कि लेखक बिरादरी से भी पूछने का हक बनता है। मामला केवल अभिव्यक्ति की आजादी का नहीं है— यह सीधे-सीधे भावनाओं से भी जुड़ा है।
जिसे लेखन में पर्याप्त महत्व दिया गया है। रुश्दी के आने का कार्यक्रम रद्द करने का सही फैसला था। लेकिन बाद में रुश्दी का सम्मेलन के जरिए इतना प्रचार-प्रसार हुआ कि मानों एक समुदाय को चिढ़ाया जा रहा हो कि लो और रोको रुश्दी को। रही-सही कसर उन चार लेखकों ने पूरी कर दी, जिन्होंने विवादास्पद पुस्तक के अंश पढ़कर बखेड़ा खड़ा कर दिया। बखेड़ा इन लेखकों ने किया या करवाया गया, लेकिन इसका संदेश अच्छा नहीं गया। आयोजकों की कुटिल मनोवृत्ति के चलते न केवल कानून तोड़ा गया, बल्कि एक समुदाय की भावनाओं को फिर ठेस पहुंचाने की कोशिश की गई। ऐसा लगा जैसे साहित्य सम्मेलन के आयोजक समुदाय विशेष के सब्र का इम्तिहान लेने पर तुले हैं। ऐसा क्यों? कहीं यह परपीड़ा से खुश होने की संकीर्ण मानसिकता तो नहीं! या फिर आयोजन के प्रचार-प्रसार की व्यावसायिक भूख! तर्क दे सकते हैं कि रुश्दी न तो खुद सशरीर आयोजन में उपस्थित हो रहे थे और न ही वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए वे कोई विवादास्पद वक्तव्य देने वाले थे फिर उन्हें क्यों रोका गया? बात इतनी आसान होती तो उनकी किताब को प्रतिबंधित करने की नौबत ही नहीं आती। रुश्दी ने 'सैटेनिक वर्सेज' में जो कुछ लिखा उससे मुस्लिम वर्ग नाखुश था तो इसका मतलब यह नहीं कि वह सिर्फ किताब से खफा था। उसकी नाराजगी रुश्दी से भी है। इसलिए कम से कम तात्कालिक तौर पर तो आयोजन को रुश्दी की छाया से दूर रखा ही जा सकता था।
आयोजकों ने सब जानते-बूझते हुए भी रुश्दी की वीडियो कान्फ्रेंसिंग का ऐलान करके गैर-जिम्मेदारी का ही परिचय दिया। जिस जयपुर में वे यह आयोजन कर रहे थे, उस शहर की फिजां खराब करने का उन्हें कोई हक नहीं। शुक्र है, सब कुछ शान्ति से निपट गया। अगर लोग भड़क जाते और कुछ अनहोनी हो जाती तो आयोजकों का कुछ बिगड़ता या नहीं, साहित्य की जरूर बदनामी होती। उसका दर्द जयपुर सालों भोगता। साहित्य लोगों को जोडऩे के लिए है, तोडऩे या मतभेद पैदा करने के लिए नहीं।
यह जानते-समझते कि रुश्दी की आयोजन में किसी तरह की शिरकत एक समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकती है—आयोजन के ठीक आखिरी दिन रुश्दी के वीडियो कान्फ्रेंसिंग का कार्यक्रम तय कर दिया। माना कि आयोजक इस बात की गारण्टी ले रहे थे कि रुश्दी विवादास्पद पुस्तक— 'सैटेनिक वर्सेज' के बारे में कुछ नहीं बोलेंगे। यह भी कि रुश्दी अपनी एक अन्य पुस्तक 'मिडनाइट्स चिल्ड्रन' पर ही बात करेंगे। इसके बावजूद यह सवाल तो बना रहेगा कि किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आपको क्या हक है? और बात जब एक समुदाय की भावनाओं से जुड़ी हो, तो यह सवाल न केवल आयोजकों से, बल्कि लेखक बिरादरी से भी पूछने का हक बनता है। मामला केवल अभिव्यक्ति की आजादी का नहीं है— यह सीधे-सीधे भावनाओं से भी जुड़ा है।
जिसे लेखन में पर्याप्त महत्व दिया गया है। रुश्दी के आने का कार्यक्रम रद्द करने का सही फैसला था। लेकिन बाद में रुश्दी का सम्मेलन के जरिए इतना प्रचार-प्रसार हुआ कि मानों एक समुदाय को चिढ़ाया जा रहा हो कि लो और रोको रुश्दी को। रही-सही कसर उन चार लेखकों ने पूरी कर दी, जिन्होंने विवादास्पद पुस्तक के अंश पढ़कर बखेड़ा खड़ा कर दिया। बखेड़ा इन लेखकों ने किया या करवाया गया, लेकिन इसका संदेश अच्छा नहीं गया। आयोजकों की कुटिल मनोवृत्ति के चलते न केवल कानून तोड़ा गया, बल्कि एक समुदाय की भावनाओं को फिर ठेस पहुंचाने की कोशिश की गई। ऐसा लगा जैसे साहित्य सम्मेलन के आयोजक समुदाय विशेष के सब्र का इम्तिहान लेने पर तुले हैं। ऐसा क्यों? कहीं यह परपीड़ा से खुश होने की संकीर्ण मानसिकता तो नहीं! या फिर आयोजन के प्रचार-प्रसार की व्यावसायिक भूख! तर्क दे सकते हैं कि रुश्दी न तो खुद सशरीर आयोजन में उपस्थित हो रहे थे और न ही वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए वे कोई विवादास्पद वक्तव्य देने वाले थे फिर उन्हें क्यों रोका गया? बात इतनी आसान होती तो उनकी किताब को प्रतिबंधित करने की नौबत ही नहीं आती। रुश्दी ने 'सैटेनिक वर्सेज' में जो कुछ लिखा उससे मुस्लिम वर्ग नाखुश था तो इसका मतलब यह नहीं कि वह सिर्फ किताब से खफा था। उसकी नाराजगी रुश्दी से भी है। इसलिए कम से कम तात्कालिक तौर पर तो आयोजन को रुश्दी की छाया से दूर रखा ही जा सकता था।
आयोजकों ने सब जानते-बूझते हुए भी रुश्दी की वीडियो कान्फ्रेंसिंग का ऐलान करके गैर-जिम्मेदारी का ही परिचय दिया। जिस जयपुर में वे यह आयोजन कर रहे थे, उस शहर की फिजां खराब करने का उन्हें कोई हक नहीं। शुक्र है, सब कुछ शान्ति से निपट गया। अगर लोग भड़क जाते और कुछ अनहोनी हो जाती तो आयोजकों का कुछ बिगड़ता या नहीं, साहित्य की जरूर बदनामी होती। उसका दर्द जयपुर सालों भोगता। साहित्य लोगों को जोडऩे के लिए है, तोडऩे या मतभेद पैदा करने के लिए नहीं।
2 comments:
साफगोई से लिखे इस लेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद! चाहे बात इस्लाम का मज़ाक उड़ाने की कोशिश करने वाले शैतान रुश्दी की हो या दुसरे धर्मों की भावनाओं को आहत करने वाले अन्य लोगो की... किसी को भी किसी भी धर्म का मज़ाक उड़ाने की इजाज़त बिलकुल नहीं मिलनी चाहिए.
किताब प्रतिबन्ध या सलमान रुश्दी पर प्रतिबन्ध है. मेरी दिलचस्पि ईसमे था तथाकथित सेक्युलरवादि बुध्दीजीवी एवं ईस तरह के मामले बेदाग सेक्युलरवादि पार्टीयां प्रतिक्रीया क्या होगा...! पुनश्चः और आपका लेख पढकर मालुम हो गया की सेक्युलरवादी किसे कहते है.
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