बात सत्तर के दशक की है। वे रोजाना शाम को पत्रिका कार्यालय में आते और चुपचाप काम करने बैठ जाते थे। मुश्किल से उन्हें आधा घंटा भी नहीं लगता था। काम खत्म करके उसी तरह चुपचाप लौट जाते थे। इस आधे घंटे में वे कलम और कूंची की वह दुनिया रच जाते, जिसके प्रशंसक पत्रिका के लाखों पाठक थे। अपने विद्यार्थी जीवन से ही मैं राजस्थान की लोककथाओं पर आधारित उनकी चित्रकथाओं का नियमित पाठक था। इसलिए स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद अस्सी के दशक में मैंने जयपुर में पत्रिका ज्वॉइन की, तो केसरगढ़ में अनंत कुशवाहा जी को अपने इतने समीप काम करते हुए देखना मुझे बहुत आह्लादित करता था। मैं साप्ताहिक इतवारी पत्रिका में था। कुशवाहा जी पत्रिका के मैगजीन विभाग (उस वक्त रविवारीय परिशिष्ट) में आकर बैठते और अपना काम करके चले जाते थे। कई दिनों बाद पता चला कि ये अनंत कुशवाहा जी हैं।
इतनी खामोशी और सादगी से काम करने वाला शख्स मैंने पहले नहीं देखा था। उन्हें अपनी लोकप्रियता का कोई गुमान नहीं था। उन दिनों विजयदान देथा और रानी लक्ष्मी कुमारी चूंडावत की लोककथाओं पर आधारित उनकी चित्रकथाओं की शृंखला पत्रिका के जरिए घर-घर पहुंचती थी। पत्रिका के ऐसे पाठकों की संख्या लाखों में रही होगी, जो अखबार हाथ में आते ही पहले-पहल चित्रकथा पढ़ते थे।
कुशवाहा जी के हुनर को स्व। कुलिशजी ने पहचाना। कुशवाहा जी उन दिनों जयपुर में राजकीय सेवा में थे और उत्तर प्रदेश के कुछ अखबारों में छिटपुट सामग्री भेजते थे। कुलिशजी राजस्थान की लोककथाओं पर कुछ विशेष कार्य करना चाहते थे। इसका दायित्व उन्होंने कुशवाहा जी को सौंपा। यह अवसर बाद में न केवल कुशवाहा जी के लिए वरदान साबित हुआ, बल्कि राजस्थानी लोककथाओं को भी एक नया आयाम मिला। कुशवाहा जी ने चुन-चुन कर लोककथाओं का बेहतरीन चित्रांकन किया और उन्हें दैनिक अखबार का विषय बनाया। मुझे याद है बीकानेर के डूंगर कॉलेज के पुस्तकालय में सबसे पहले पत्रिका में चित्रकथा का पन्ना खोलने वाले मेरे कई विद्यार्थी मित्र थे। कुशवाहा जी एक बेहतरीन चित्रकार होने के साथ-साथ अच्छे शब्द शिल्पी भी थे। इसलिए भाषा और चित्रांकन की प्रस्तुति का तालमेल बेहतरीन रहता था। उनका लाइन-वर्क बहुत मजबूत था, इसलिए पाठक को चित्रकथा रोचक लगती थी। वह उससे बंध जाता था।
बाद में तो वे पत्रिका से औपचारिक रूप से जुड़ गए। सरकारी सेवा छोड़कर पूरी तरह साहित्य और चित्रांकन की दुनिया में रच-बस गए। उन्हें पत्रिका के नए प्रकाशन 'बालहंस' का संपादक नियुक्त किया गया। यह बच्चों की पाक्षिक पत्रिका थी। कुशवाहा जी ने न केवल इसका कुशलता से संपादन किया, बल्कि अनेक नवोदित बाल साहित्यकार, कवि, लेखक और चित्रकारों को अवसर दिया। जल्दी ही बालहंस पूरे उत्तर भारत की हिंदी की एक लोकप्रिय बाल पत्रिका बन गई। देश में बाल साहित्य पर आयोजित होने वाली गोष्ठियों/ सेमिनारों में बालहंस का जिक्र जरूर होता था। अनेक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित लेखक बालहंस से जुड़े। आज 'बालहंस' देश की प्रतिष्ठित बाल पत्रिका है, जिसमें कुशवाहा जी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है।
'बालहंस' में उन्होंने कई मौलिक चित्रकथाएं रचीं। इन कथाओं ने न केवल बाल पाठकों का भरपूर मनोरंजन किया, बल्कि बड़े पाठक भी उन्हें खूब रुचिपूर्वक पढ़ते थे। उनके रचित पात्र शैलबाला, ठोलाराम, कवि आहत आज भी पाठकों को याद हैं। शैलबाला एक साहसी लड़की का पात्र था, जिस पर उन्हें पाठकों की भरपूर प्रतिकियाएं मिलीं। 'बालहंस' में ही उनकी एक अनूठी चित्रकथा - शृंखला प्रकाशित हुई - कंू कंू। कुशवाहा जी एक प्रयोगशील रचनाकार थे। नए विचार, नई तकनीक को वे शब्द और चित्रांकन दोनों विधाओं में आजमाते थे। कूं कंू इसका सर्वाेत्कृष्ट उदाहरण था। इस चित्रकथा में एक भी शब्द का इस्तेमाल किए बिना विषयवस्तु और घटनाक्रम को पूरी रोचकता के साथ प्रस्तुत किया जाता था। कई वर्षों बाद उनके इस प्रयोग का रविवारीय परिशिष्ट में सार्थक उपयोग किया गया। मैंने परिशिष्ट विभाग का जिम्मा संभाला, तो पत्रिका के संपादक गुलाब कोठारी जी ने मुझे रविवारीय में कुछ नया करने का निर्देश दिया। उन्हीं के सुझाव पर 'आखर कोना' कॉलम शुरू किया गया, जिसे कुशवाहा जी तैयार करते थे। यह स्तंभ नव साक्षरों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। कुशवाहा जी का एक और पात्र इतवारी लाल भी बहुत लोकप्रिय हुआ। यह एक व्यंग्य चित्र शृंखला थी, जो साप्ताहिक इतवारी पत्रिका में प्रकाशित होती थी। इतवारी लाल पात्र के जरिए कुशवाहा जी ने कई सामाजिक, राजनीतिक और सामयिक विषयों पर तीखे कटाक्ष किए। कुशवाहा जी चुटकी लेने मेें माहिर थे। बातों से नहीं, अपनी व्यंग्यकारी अभिव्यक्ति से। जब उन्हें इतवारी के तत्कालीन प्रभारी ने इस शृंखला पर विराम लगाने को कहा, तो उन्होंने अंतिम किश्त बनाई। इसमें इतवारी लाल पात्र को उन्होंने एक गड्ढे में उल्टे पांव किए डूबता हुआ दिखाकर जो कटाक्ष किया, वह मुझे आज भी याद है।
वे जितने अच्छे चित्रकार थे, उतने ही श्रेष्ठ लेखक भी थे। उन्होंने भरपूर बाल साहित्य रचा। बाल कथाओं के उनके दस संग्रह हैं। वे आज के दौर में रचे जा रहे बाल साहित्य से संतुष्ट नहीं थे। भावी पीढ़ी के लिए वे बहुत चिंतित थे। इसलिए वे कहते थे कि बच्चों के लिए मौलिक सृजन की बेहद जरूरत है, जो आज इंटरनेट के दौर में खत्म होता जा रहा है। बच्चों को सूचनाएं परोसी जा रही हैं। इससे उनका एकांगी विकास ही हो रहा है।
2002 में वे सेवानिवृत्त हुए तो बोले - दैनंदिन उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो रहा हंू, लेकिन अपने सृजन कर्म से नहीं। पत्रिका ने भी उन्हें पूरा सम्मान और अवसर दिया। सेवानिवृत्ति के बाद उनके निधन के दिन (28 दिसंबर) तक उनकी चित्रकथा निरंतर प्रकाशित होती रही। पाठकों से शायद इसलिए उनका नाता कभी टूट नहीं पाएगा।
मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!
7 comments:
आज यूं ही बालहंस और अनंत कुशवाहा जी के बारे में जानने के लिए गूगल पर दोनों का नाम टाइप किया। आपने बहुत अच्छी जानकारी दी है। मेरे जैसे लाखों पाठक कुशवाहा जी को कभी नहीं भूल सकते। लेकिन खेद सहित एक बात कहना चाहूंगा कि बालहंस में अब वो बात नहीं रही जो कभी हुआ करती थी। तब बालहंस पढ़ने के लिए हम बच्चे झगड़ा भी कर लेते थे और मां को बीच-बचाव करना पड़ता था।
Rajeev Sharma kolsiya
ganvkagurukul.blogspot.com
बालहंस! आह! बचपन की सारी यादें ताजा हो गईं मेरी अनंत कुशवाह जी का चेहरा आज पहली बार देख रहा हूँ मैं। जबकि बचपन में बालहंस जब महज दो या तीन रूपए में मिला करती थी तब से लगाकर जहां तक मुझे याद आता है संभवतः सन् 1998-99 तक मैं इसका नियमित पाठक रहा हूँ। यदि पत्रिका समूह चाहे तो बालहंस का एक पूर्व पाठक सम्मेलन भी आयोजित कर सकता है। कुशवाह जी का शाॅर्ट फाॅर्म में लिखा हुआ नाम "अकु" आज भी याद है मुझे। भोलाराम,कवि आहत, कूं कूं, हाय कितनी-कितनी सारी स्मृतियां हैं मेरे बचपन की बालहंस के साथ मैं बता नहीं सकता। आज सहज ही ठोलाराम के नाम से गूगल किया तो यह लेख सामने आया इसलिए इस पर कमेंट करके अपना मन कुछ हल्का कर लिया मैंने। हालांकि उस समय भी बालहंस को प्रतियोगिता देने वाले उसके की प्रतिद्वंदी पत्थर पत्रिकाएं जैसे चंपक, चन्दामामा, नंदन, की सारे काॅमिक्स वगैरह मौजूद थीं लेकिन फिर भी बालहंस पढ़ने का अपना ही आनंद था और यह निश्चित रूप से अनंत जी की लेखनी का ही कमाल था। अब तो संभवतः अनंत जी का स्वर्गवास हो गया होगा। यदि वे जीवित हों तो मैं प्रभु से उनके सुदीर्घ और स्वस्थ जीवन के लिए कामना करता हूँ। राम-राम।
🙏
मेरा जन्म 1988 का है मैने पढ़ने की और चित्रकथा पढ़ने की शुरुआत पत्रिका और बालहंस से ही की..
पत्रिका में छपने वाली दैनिक कॉमिक स्ट्रिप का मैं रोज इंतजार करता था, लेकिन हमारे घर अखबार नहीं आता था सो स्कूल से आने के बाद पहला काम पड़ोस से मांगकर पत्रिका लाना और पढ़ना हुआ करता था..
बालहंस के चित्रकथा विशेषांक इतने रोमांचक होते थे कि मैं कई दिनों तक उन्हें बचा कर थोड़ा थोड़ा पढ़ता था कि कहीं जल्दी खत्म ना हो जाए, ..
बहुत समय बाद मुझे पता चला कि यह अनंत कुशवाहा जी का काम है..
इस पोस्ट के अनंत जी की जो तस्वीर है, वह पत्रिका के रविवारीय में छपी थी और मैने उसे संभाल कर रखा, अनंत कुशवाहा जी की यह तस्वीर देखकर मेरे मन में उनके प्रति बेहद प्रेम और श्रद्धा उमड़ती है,
काश मैं उनसे मिल पाता और उन्हें बता पाता कि उनकी चित्रकथाओं का मेरे बाल मन पर कितना गहरा प्रभाव पड़ा।
मेरी दिली तमन्ना है कि
अनंत जी के काम को इकट्ठा किया जाए और हो सके तो दुबारा पब्लिश किया जाए..
आनंद जी, क्या हम इस और कुछ प्रयास कर सकते हैं?
बालहंस के पुराने अंक भी मुझे चाहिएं..
क्या पत्रिका आर्काइव्स से मुझे पुराने अंक मिल सकते हैं?
कृपया मदद कीजिए..
धन्यवाद
मेरी भी यही इच्छा है की अनंत कुशवाहा जी की सभी कहानियां और चित्र कथाएं दोबारा पब्लिश किए जाएं आज की जनरेशन के बच्चों के लिए यह बहुत बहुत आवश्यक है
मै बालहंस का नियमित पाठक था। अनंत कुशवाहा जी के चित्र, कहानियाँ और चित्रकथाएं बहुत पसंद हैं। चित्रकथा विशेषांक आज भी संभालकर रखा है। आपने उनके बारे में जानकारी दी बहुत अच्छा लगा। ईश्वर उनको अपने श्री चरणों में स्थान दे।
मुझे उनके चित्रकथा विशेषांक चाहिए।
आपके पास कौन सी प्रतियाँ हैं?
प्लीज़ मुझसे शेयर कीजिए। 🙏🏼
मुझे आप पीडीएफ़ भेज दीजिए
मैं आपका आभारी रहूँगा।
मेरा ईमेल आईडी himanshu9414@gmail.com है
ह्वाट्सऐप नंबर 9024689437
Dr Himanshu.
धन्यवाद
Anant Kushwaha ji ke parivar ka address ya contact number milega?
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