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यह तो चुनी हुई सरकार का अपमान!

सवाल यह है कि क्या एक निर्वाचित सरकार को जो ऐतिहासिक बहुमत से सत्ता में आई, उसे प्रशासन चलाने के लिए अफसरों की नियुक्ति और तबादलों के लिए उपराज्यपाल का मोहताज होना पड़ेगा? यह तो सरासर जनता का अपमान है।
दिल्ली में इन दिनों कौन सरकार चला रहा है? मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल या उपराज्यपाल नजीब जंग? यह सवाल शासन की इस अजीबो-गरीब स्थिति से उपजा है जो देश की राजधानी में देखी जा रही है। शासन के सर्वोच्च अधिकारियों की नियुक्तियों को लेकर ऐसा घमासान शायद ही पहले कभी देखने में आया। मुख्यमंत्री ने जिस अफसर को नियुक्त किया उसे उपराज्यपाल ने हटा दिया और उपराज्यपाल ने जिसे नियुक्त किया उसे मुख्यमंत्री ने हटा दिया। दोनों में अपने-अपने अधिकारों को लेकर तलवारें खिंची हैं। नतीजा यह है कि आज दिल्ली में प्रशासन को चलाने वाले तंत्र का सर्वोच्च अधिकारी न मुख्य सचिव है और न कार्यकारी मुख्य सचिव। इन उच्चाधिकारियों की नियुक्ति आदेश जारी करने वाला प्रधान सचिव भी नहीं है। हालांकि मुख्य सचिव के.के. शर्मा को छोड़कर, जो छुट्टियां लेकर विदेश गए हैं, दोनों बड़े अधिकारी अपने पदों पर हैं लेकिन निष्प्रभावी। प्रधान सचिव अनिंदो मजूमदार तो राज्य सरकार की ओर से बुधवार को बुलाई गई अधिकारियों की बैठक के ऐन पहले अपनी जिम्मेदारी से भाग खड़े हुए और छुट्टी पर चले गए।
शासन अनुकूल नहीं हालात
इससे पहले इन अधिकारियों की नियुक्तियों या स्थानान्तरण को लेकर मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के दफ्तरों से परस्पर विरोधी आदेश जारी किए गए थे। हालत यहां तक पहुंची कि आला अधिकारी के दफ्तर में ताले तक जड़ दिए गए। क्या ये हालात शासन चलाने वाले तंत्र के लिए अनुकूल कहे जा सकते हैं। शायद ही कोई इसका समर्थन करेगा। क्योंकि ये अफसरों के लिए तो अनुकूल है या नहीं, जनता के लिए बिल्कुल नहीं है। जनता के लिए बनाई गई नीतियों-कार्यक्रमों को लागू करने का जिम्मा जिस तंत्र पर है अगर उसके शीर्ष स्तर पर ऐसी विसंगतियां हैं जो दिल्ली में देखी जा रही हैं तो जनता का भगवान ही मालिक है।
क्यों हो मोहताज
संवैधानिक हवाले देकर यह तर्क दिए जा रहे हैं कि उपराज्यपाल ही प्रशासनिक प्रमुख हैं। दिल्ली सरकार का काम उपराज्यपाल को सलाह देने या फिर विचार-विमर्श करने तक सीमित है। यह इसलिए क्योंकि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं। सवाल यह है कि क्या एक निर्वाचित सरकार को जो ऐतिहासिक बहुमत से सत्ता में आई, उसे प्रशासन चलाने के लिए अफसरों की नियुक्ति और तबादलों के लिए उपराज्यपाल का मोहताज होना पड़ेगा? यह तो सरासर जनता का अपमान है। अगर निर्वाचित सरकार का अपने अफसरों पर कोई नियंत्रण नहीं है, तो प्रशासनिक जवाबदेही कैसे तय होगी? जनता को कौन जवाब देगा। मुख्यमंत्री या उपराज्यपाल? लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है। जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व मुख्यमंत्री करता है न कि केन्द्र द्वारा नियुक्त एक प्रशासक। अगर ऐसा होता तो राज्यों में राज्यपाल ही सर्वोपरि प्रशासक होते, मुख्यमंत्री नहीं। दिल्ली को छोड़कर सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को अपने पसंद के अधिकारी नियुक्त करने का अधिकार है तो अरविन्द केजरीवाल को क्यों नहीं?
स्पष्ट रुख दिखाए केंद्र
मुख्यमंत्री ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों से गुहार की है कि दिल्ली सरकार को संवैधानिक योजना के तहत स्वतंत्र रूप से काम करने दिया जाए। क्या यह मांग गैर वाजिब है? कह सकते हैं कि यह सब दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं देने से हो रहा है तो केन्द्र सरकार को किसने रोका है। भाजपा की तो यह हमेशा से मांग रही है। यहां तक कि वाजपेयी सरकार के समय विधेयक भी लोकसभा में रखा गया था। मौजूदा केन्द्र सरकार शायद यह भूल रही है कि अपने पसंद का आला अधिकारी नियुक्त कराने के लिए कानून तक में बदलाव किया गया था। ऐसे में जीएनसीटी एक्ट-1991 जिसके जरिए दिल्ली का शासन संचालित होता है, में बदलाव करने में क्या दिक्कत है, यह समझ से परे है।
केन्द्र सरकार को ऐसे सभी मामलों में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट रखना चाहिए। यह नहीं कि जब विपक्ष में हो तब एक जुबान और जब सत्ता में हो तो दूसरी जुबान। प्राय: सभी राजनीतिक पार्टियों का यह अन्तरविरोध देश की कई ज्वलन्त राजनीतिक समस्याओं के समाधान में अड़चन बन कर खड़ा हो जाता है। राज्यपालों की नियुक्तिों के लिए सरकारिया आयोग की रिपोर्ट हमेशा ठंडे बस्ते में ही रही। क्योंकि विपक्ष चाहता रहा यह लागू हो और सत्ता पक्ष यह कभी नहीं चाहता। परिणामत: यह रिपोर्ट हमेशा आलमारियों में कैद रही। दिल्ली का मौजूदा अनुभव बहुत कटु है। नजीब जंग कानूनी तौर पर या कहें तकनीकी स्तर पर जो कुछ कर रहे हैं वह सही हो, पर नैतिक रूप से सही नहीं है। अनेक बार कानून की व्याख्याएं नैतिक और मूल्यगत आधार पर की गई हैं। अत: दिल्ली के घटनाक्रम से सभी दलों को दलगत राजनीति से उठकर सोचना चाहिए।

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जयपुर करे पुकार

जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि किस तरह जनता को संकट की घड़ी में पीठ दिखाकर खड़े हो जाते हैं-यह देखना हो तो जयपुर चले आएं। मेट्रो रेल की आड़ में अंधाधुंध तोडफ़ोड़ करके शहरवासियों से उनकी प्रिय विरासत छीनी जा रही है। परकोटे में बसे शहर के प्राचीन सौन्दर्य को जिस तरह निर्ममतापूर्वक नष्ट किया जा रहा है- वैसा उदाहरण दुनिया में नहीं मिलेगा।

    मेट्रो निर्माण कार्य जब से भीतरी शहर में शुरू हुआ- कोई न कोई विरासत का कंगूरा रोज ढह रहा है। अखबार खबरों से भरे पड़े हैं मगर सरकार और शहर के जनप्रतिनिधि जनभावनाओं से बेफिक्र हैं। बार-बार की चेतावनियों के बावजूद प्राचीन नवल किशोर मंदिर तथा उदयसिंह की हवेली का हादसा हो गया। लगा, सरकार तोडफ़ोड़ रोककर एकबारगी अपने कामकाज का आकलन जरूर करेगी। पर कुछ खास नहीं हुआ। तोडफ़ोड़ जारी है।
इन हालात में शहर को अपने सीने से लगाए रखने वाला हर शख्स हैरान और मायूस है। वह जनप्रतिनिधियों से आस लगाए बैठा है।  शहर की विरासत का सत्यानाश हो तो जनता शहर के चुने हुए प्रतिनिधियों से उम्मीद नहीं करेगी तो किससे करेगी। हालत यह है कि शहर के आठों सत्तारूढ़ दल के विधायक मौन हैं। सत्ता का नशा उन पर इस कदर हावी है कि अपने ही शहर का भला-बुरा नजर नहीं आ रहा। मेट्रो आज की जरूरत है- यह किसे इनकार है, मगर जब एक-एक करके शहर की प्राचीन संरचनाएं उजाड़ी जा रही हों तो प्राथमिकता चुननी पड़ेगी। आज शहर का बाशिन्दा उनसे यही अपेक्षा करता है कि मेट्रो भले अपना काम करे- लेकिन विरासत को सहेजते हुए। उस पर हथौड़ा चलाते हुए नहीं । हथौड़ा चले तो जनप्रतिनिधि बीच में दीवार बनकर खड़ा हो ताकि जे.एम.आर.सी के इंजीनियर और मिस्त्री  संवेदनशीलता से काम को अंजाम दें। हो इसके विपरीत रहा है। शहर की खूबसूरती में चार चांद जडऩे वाली चौपड़ को तोड़ा गया। कुंड उजाड़े गए। सुरंगें तोड़ी गईं प्राचीन सीढिय़ां उजाड़ी गईं, गौमुख क्षतिग्रस्त किया गया। बरामदों का स्वरूप बदल दिया गया। चूने की संरचनाओं को सीमेन्ट और कंक्रीट के ढांचों में बदला गया। विरासत पर गिरी हर ऐसी गाज पर विधायकों ने मुंह पर पट्टी बांधे रखी। जैसे उनका इस शहर की विरासत से कोई वास्ता न हो। क्या जनता इन्हें शहर का प्रतिनिधि कहेगी? दोनों सांसद भी चुप्पी साधे हैं। और तो और 91 में से अधिकांश पार्षद मौन हैं। सत्तारूढ़ दल के पार्षदों के मुंह से चूं तक नहीं निकल रही।

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एम.वी. कामथ का जाना

कामथ साहब ने आजीवन जो पत्रकारिता की वह कम गंभीर नहीं थी। वे जहां भी रहे अपने काम की गहराई और गंभीर विवेचना के लिए पहचाने गए। दरअसल, उनका आशय यह था कि एक युवा पत्रकार अपने पेशे पर ध्यान केन्द्रित रखे। पेशेगत जरूरतों और सच्चाइयों को समझे तथा लगातार सक्रिय रहते हुए अपनी योग्यता में निखार लाए।

गत सप्ताह मीडिया-जगत को बड़ी क्षति हुई। पत्रकारिता को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में जिस शख्सियत का नाम अदब से लिया जाता है, वह हमारे बीच नहीं रहे। ९३ वर्षीय माधव विट्ठल कामथ एम.वी. कामथ के नाम से मशहूर थे। उनका सम्पूर्ण जीवन सक्रियता की मिसाल था। आधी सदी से भी अधिक वर्षों तक उन्होंने पत्रकारिता की। लेखन-कर्म तो वे अंतिम समय तक करते रहे। उन्होंने करीब 40 पुस्तकें लिखीं। इनमें नरेन्द्र मोदी पर 'द आर्किटेक्ट आफ ए माडर्न स्टेट' पुस्तक भी शामिल है। उनके लेखन की चर्चा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर की जाती है। जीवन के 30 वर्ष उन्होंने विभिन्न देशों में गुजारे और पेरिस, जिनेवा, न्यूयार्क, ब्रूसेल्स, वाशिंगटन, लंदन जैसे शहरों से भारत के लिए पत्रकारिता की। उनके अनुभवों का दायरा व्यापक था। इसलिए वे पत्रकारिता को भी व्यापक नजरिए से देखते थे। अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के बावजूद वे मानते थे कि पत्रकारीय-कर्म विशुद्ध पेशेवर होना चाहिए। एक पत्रकार को सिर्फ एक अच्छा पत्रकार बनने की कोशिश करनी चाहिए और सदैव पाठकों को जेहन में रखना चाहिए। पत्रकार को अपने व्यक्तिगत आग्रह-दुराग्रह से ऊपर उठना चाहिए और अपनी क्षमता, विवेक और समझादारी को लगातार विकसित करना चाहिए। वे एक पत्रकार और समाजोत्थान के लिए कार्य करने वाले कार्यकर्ता के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खींचते थे। उनका यह दृष्टिकोण एक युवा पत्रकार को इंटरव्यू के दौरान स्पष्ट होता है। वे उसकी शंकाओं का समाधान करते हुए कहते हैं- अगर आप एक पेशेवर पत्रकार हैं तो यह मत समझिाए कि आपका काम क्रान्ति लाना है या आप इस दुनिया को बदल कर रख देंगे। यह काम आप क्रान्तिकारियों पर छोड़ दीजिए। विनोद में वे यह भी कह जाते हैं- खुद को इतनी गंभीरता से मत लो बिरादर! लेकिन सचमुच विनोद में ही। वरना कामथ साहब ने आजीवन जो पत्रकारिता की वह कम गंभीर नहीं थी। वे जहां भी रहे अपने काम की
गहराई और गंभीर विवेचना के लिए पहचाने गए। दरअसल, उनका आशय यह था कि एक युवा पत्रकार अपने पेशे पर ध्यान केन्द्रित रखे। पेशेगत जरूरतों और सच्चाइयों को समझो तथा लगातार सक्रिय रहते हुए अपनी योग्यता में निखार लाए। इधर-उधर ध्यान बांटने पर भटकाव होता है। एक अच्छा पत्रकार समाज को बहुत कुछ दे सकता है। यही कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा- मेरे गुरु एस. सदानन्द जो शीर्षस्थ पत्रकार रहे, कहते थे, आप पत्रकारिता में गंभीर काम करके
बताइए परन्तु अपने आप पर गंभीरता मत लादिए। साफ है, एम.वी. कामथ ने जो पत्रकारिता की, उसे उन्होंने बुलंदियों पर पहुंचाया लेकिन खुद जमीन से
जुड़े रहे।
वे कहते थे, अगर आप पत्रकार हैं तो आपको लगातार काम करते रहना होगा, तभी आपकी पहचान बनेगी। कभी-कभार कोई बड़ी 'स्टोरी' करके बैठ जाने से काम नहीं चलेगा। आपको हमेशा अपने प्रदर्शन से स्वयं को सिद्ध करते रहना पड़ेगा। क्योंकि आप जब अच्छा काम करते हैं तो पाठक की आपसे अपेक्षाएं भी बढ़ जाती हैं। वे कहते थे, लोग आप पर भरोसा करते हैं। उनके भरोसे को कायम रखना आपकी जिम्मेदारी है। कभी-कभार एक पत्रकार वह लिख देता है, जो उसे कभी नहीं लिखना चाहिए। इसके चलते लोगों का भरोसा टूटता है। वह फिर हासिल नहीं होता। पत्रकारिता में यह बहुत खतरनाक स्थिति होती है। इसलिए वे मानते थे- जो आप
लिखते हैं उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण वह है, जो आप नहीं लिखते। उनके सोचने का यह अपना अंदाज था और यही अंदाज उन्होंने अपने जीवन में भी लागू किया। वे उत्कृष्ट पत्रकार थे। इसका प्रमाण उनकी अनेक रिपोर्टें हैं जो उन्होंने लिखी। भारत के उत्तरी-पूर्वी राज्यों का दौरा करके उन्होंने एक विस्तृत रिपोर्ट लिखी जो 'इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया' में 'सेवन सिस्टर्स' शीर्षक से प्रकाशित हुई। ७० के दशक की इस रिपोर्ट को आज भी कई पत्रकार याद करते हैं। कश्मीर पर भी उन्होंने निर्भीकता से लिखा। शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के दौरान उन्होंने श्रीनगर में रहकर जो रिपोर्टिंग की वह जोखिम भरी थी लेकिन उन्होंने परवाह नहीं की।
कामथ साहब का सुदीर्घ जीवन निरन्तर सक्रियता और उपलब्धियों से परिपूर्ण रहा। लेखन से उन्हें जबरदस्त लगाव था। ९० वर्ष की आयु तक वे करीब-करीब रोजाना लिखते रहे। यह संयोग ही कहा जाएगा कि वे आजीवन प्रिंट मीडिया से जुड़े रहे मगर उम्र के आखिरी पड़ाव के दौर में इलेक्ट्रानिक मीडिया से संबद्ध प्रसार भारती के अध्यक्ष बने। देश को आजादी मिलने से पूर्व १९४६ में उन्होंने अपने पत्रकारीय जीवन की शुरुआत मुम्बई में 'फ्री प्रेस जनरल' से की। वे संडे टाइम्स के सम्पादक रहे। विदेशों से उन्होंने 'टाइम्स आफ इंडिया' के लिए रिपोर्टिंग की।' इलेस्ट्रेटेड वीकली' साप्ताहिक पत्रिका के सम्पादक के रूप में उन्होंने इसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। वे मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ कम्यूनिकेशन के अध्यक्ष भी रहे। पत्रकारिता, इतिहास, पर्यावरण, राजनीति सहित विभिन्न विषयों पर लिखी उनकी पुस्तकों की लम्बी सूची है जिनमें भारतीय विद्या भवन से प्रकाशित 'रिपोर्टर एट लार्ज' के अलावा 'गांधी, ए स्प्रीचुअल जर्नी', 'ऑन मीडिया, पालिटिक्स एंड लिटरेचर', 'द परसूइट ऑफ एक्सीलेस' की विशेष चर्चा की जाती है। वे 'पद्मभूषण' से नवाजे गए और अनेक मान-सम्मान और पुरस्कार उनके नाम रहे।
कामथ साहब में जो अपने पेशे के प्रति लगाव, अनुशासनप्रियता, निरन्तर लेखन और अध्ययनशीलता थी वह आज के पत्रकारों के लिए एक प्रेरक मिसाल है। उनका जाना अपूरणीय क्षति है। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!

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अमरीका में मोदी और मीडिया

मोदी अपने भाषण में क्या बोलेंगे, किस अंदाज में बोलेंगे, भाषण का क्या असर पड़ेगा- कयासबाजी की ऐसी खबरें भी चैनलों के 'प्राइम टाइम' का हिस्सा बनी। मोदी की ड्रेस, उनकी स्टाइल, उनके नवरात्रि व्रत और खान-पान की आदतें भी चर्चा के विषय बनाए गए। मेडिसन स्क्वायर गार्डन के आयोजन से पहले मीडिया में एक पूरा माहौल रचा जा चुका था। 
      क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमरीका यात्रा अभूतपूर्व रही? अगर इस सवाल का राजनीतिक विश्लेषण छोड़ दें और बात केवल मीडिया कवरेज की करें तो जवाब 'हां' होगा। भारत के टीवी चैनलों के पत्रकारों का अमरीका में जमावड़ा मोदी की यात्रा से कई दिन पहले ही शुरू हो गया था। अखबारों ने भी कवरेज के विशेष इंतजाम किए। इससे पूर्व शायद ही किसी भारतीय प्रधानमंत्री की यात्रा से पहले अमरीका जाकर वहां के गली-मोहल्लों, बाजार-चौराहों, मंदिर-गुरुद्वारों, सड़क, पार्क और होटल तक में जाकर मीडिया कवरेज की गई। अमरीका में बसे भारतीयों ने भी पहले कभी किसी भारतीय प्रधानमंत्री का ऐसा भव्य स्वागत नहीं किया होगा। मीडिया और प्रवासी भारतीयों ने मिलकर जो माहौल रचा उससे अमरीका तो नहीं, मगर न्यूयार्क शहर जरूर 'नमोमय' हो गया था। खासकर २८ सितम्बर को, जब वहां के प्रसिद्ध मेडिसन स्क्वायर गार्डन में हजारों लोगों को मोदी ने संबोधित किया। अमरीकी मीडिया शुरू में मोदी की यात्रा को लेकर जरूर उदासीन दिखा लेकिन बाद में उसने दिलचस्पी दिखाई। अलबत्ता, भारतीय मीडिया की तरह उसने इकतरफा मुग्धभाव तो नहीं दर्शाया फिर भी संयुक्त राष्ट्र महासभा में भाग लेने आए अन्य राष्ट्राध्यक्षों के मुकाबले भारतीय प्रधानमंत्री की यात्रा को ज्यादा महत्त्व दिया।
भारत के टीवी चैनलों ने मंगलयान के तत्काल बाद मोदी की अमरीकी यात्रा पर माहौल बनाना शुरू कर दिया था। सबसे पहले नेटवर्क १८ ने अपने चार प्रमुख न्यूज चैनलों के पत्रकारों की टीम भेजी। इसके बाद होड़ मच गई। एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में एक-एक करके लगभग सभी प्रमुख चैनलों ने अपने संवाददाता और कैमरामैन मोदी की यात्रा से चार-पांच दिन पहले ही अमरीका भेज दिए। सीएनएन-आईबीएन, आईबीएन-७, टीवी टुडे ग्रुप, इंडिया न्यूज, जी न्यूज, एबीपी न्यूज, एनडीटीवी, इंडिया टीवी आदि समाचार चैनलों के संवाददाताओं ने घूम-घूमकर स्टोरी तैयार की और लाइव रिपोर्टिंग की। मोदी की यात्रा को लेकर तैयारियां, भारतीय मूल के अमरीकी नागरिकों की उल्लास भरी प्रतिक्रियाएं, मेडिसन स्क्वायर गार्डन का विशेष आयोजन, मोदी समर्थकों का गरबा-नृत्य और राह चलते अमरीकी नागरिकों के इंटरव्यू तक चैनलों ने दिखाए।
न्यूयार्क  के कई महत्त्वपूर्ण स्थानों से एक साथ एक ही चैनल के अलग-अलग संवाददाताओं की 'लाइव रिपोर्टिंग' ने माहौल को 'मोदीमय' बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। चैनलों में कवरेज के लिए नए-नए ढंग अपनाने की होड़ मची रही। मोदी के हर कार्यक्रम की विस्तार से चर्चा की गई। मोदी अपने भाषण में क्या बोलेंगे, किस अंदाज में बोलेंगे, भाषण का क्या असर पड़ेगा- कयासबाजी की ऐसी खबरें भी चैनलों के 'प्राइम टाइम' का हिस्सा बनी। मोदी की ड्रेस, उनकी स्टाइल, उनके नवरात्रि व्रत और खान-पान की आदतें भी चर्चा के विषय बनाए गए। मेडिसन स्क्वायर गार्डन के आयोजन से पहले मीडिया में एक पूरा माहौल रचा जा चुका था। हालांकि यह मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि मोदी के प्रति अमरीका में रह रहे भारतीयों के जोश-खरोश ने इस आयोजन को विशिष्टता प्रदान की, पर साथ ही यह भी एक सच्चाई थी कि मीडिया ने जो माहौल रचा, आयोजन को यादगार बनाने में उसकी भूमिका भी कम न थी। देखा जाए तो इस आयोजन के बाद ही अमरीकी मीडिया सक्रिय हुआ। इससे पहले 'न्यूयार्क  टाइम्स' तथा 'वाशिंगटन पोस्ट' जैसे नाम छोड़ दें तो वहां के नामी अखबार और चैनल मोदी की यात्रा को लेकर उदासीन बने रहे। 'द वाल स्ट्रीट जनरल' 'यूएसए टुडे', 'लॉस एंजिल्स टाइम्स', 'डेली न्यूज' आदि अखबार मोदी की अमरीका यात्रा पर प्राय: चुप्पी साधे रहे।
भारत-अमरीकी द्विपक्षी सम्बंधों पर गहन विश्लेषण तो बहुत दूर की बात थी। मेडिसन स्क्वायर गार्डन के आयोजन में करीब 20 हजार लोगों की जोशीली उपस्थिति और मोदी के प्रभावशाली भाषण के बाद वहां के मीडिया में कुछ हलचल हुई।
सीएनएन टीवी ने अपने पोर्टल पर लिखा- 'पिछले सप्ताह करीब १३० देशों के प्रमुख यूएन की बैठक में हिस्सा लेने के लिए न्यूयार्क  आ चुके हैं। जिस तरह का स्वागत भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का किया गया, किसी और देश के समुदाय ने अपने प्रधानमंत्री का वैसा स्वागत नहीं किया।'
'डेली न्यूज' अखबार ने लिखा- 'नरेन्द्र मोदी का अमरीका में जो स्वागत-सत्कार हो रहा है, वह भारत में व्यापार के बारे में उनके अच्छे नेतृत्व के कारण है।' बराक ओबामा से वाशिंगटन में मोदी की मुलाकात से पहले अखबार 'वाशिंगटन पोस्ट' ने लिखा- 'सफल भारतीय मूल के अमरीकियों के बड़े समूह के हीरो नरेन्द्र मोदी सोमवार को वाशिंगटन पहुंचेंगे तो उन्हें भारत के अल्पसंख्यक समूहों के विरोध का भी सामना करना पड़ेगा।' 'न्यूयार्क  टाइम्स' ने लिखा- 'राष्ट्रपति ओबामा से मुलाकात से पहले मेडिसन स्क्वायर पर उनके भाषण से यह पता चला कि वह अमरीका से आखिर क्या चाहते हैं।' इन अखबारों में विश्लेषण भी प्रकाशित हुए।'द वाल स्ट्रीट जनरल' ने  जो अब तक खामोश था, मोदी पर विस्तृत समाचार प्रकाशित किया।
कुछ अमरीकी अखबार और न्यूज एजेन्सियों ने मोदी के खिलाफ किए गए प्रदर्शन और ज्ञापनों को खास तवज्जो दी तो कुछ ने मोदी की यात्रा को हल्के-फुल्के और मजाकिया अंदाज में भी प्रस्तुत किया। यूएसए टुडे ने लिखा- 'मोदी ने रॉकस्टार का दर्जा हासिल कर लिया है।' अमरीका की न्यूज एजेन्सी एसोसिएट प्रेस ने मेडिसन स्क्वायर गार्डन आयोजन पर लिखा- 'घूमते हुए स्टेडियम में बॉक्सिंग चैम्पियन की तरह स्पॉटलाइट से मोदी ने भाषण दिया। बॉलीवुड स्टाइल में डांसर्स ने उनके आने से पहले परफोर्मेंस दी।'
अमरीका और भारतीय मीडिया के स्वर भले ही अलग-अलग रहे हों लेकिन दोनों देशों के मीडिया ने खासकर भारतीय टीवी चैनलों ने मोदी की
यात्रा को लेकर जो कवरेज की वह अभूतपूर्व कही जाएगी। इससे पहले किसी भारतीय प्रधानमंत्री की अमरीका यात्रा को मीडिया ने इतना तूल नहीं दिया था। इससे पहले अमरीकी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री ने साझाा लेख भी नहीं लिखा जो इस बार ओबामा और मोदी ने लिखा है।

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कुदरत का कहर : मीडिया का भेदभाव!

जम्मू-कश्मीर की बाढ़ को लेकर मीडिया ने जो संवेदनशीलता दिखाई वह देश के उत्तर-पूर्व (असम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश) में आई बाढ़ में कहीं नजर नहीं आई। जबकि बाढ़ का कहर और उससे प्रभावितों की त्रासदी किसी भी तरह कमतर नहीं थी।
क्या मीडिया ने देश के दो अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ की कवरेज में भेदभाव बरता? निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर में पिछले 60 वर्षों की यह सबसे भीषण बाढ़ थी। वहां के लोगों ने झोलम का ऐसा रूप पहले कभी नहीं देखा था। राज्य के ढाई हजार से अधिक गांवों में बाढ़ ने कहर बरपाया। 300 से अधिक लोगों की जान चली गई। 10 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी तत्परता से बाढ़ प्रभावित इलाकों का हवाई सर्वेक्षण करने के बाद कहा- 'यह राष्ट्रीय स्तर की आपदा है।' उन्होंने एक हजार करोड़ रुपए की बाढ़ पीडि़तों की सहायता की घोषणा की। सरकारी तंत्र ने सक्रियता दिखाई। सेना के बचाव व राहत कार्य तेजी से शुरू हुए।
शायद इसीलिए राष्ट्रीय मीडिया ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लगातार दस दिन तक जम्मू-कश्मीर की बाढ़ सुर्खियों में रही। 'जन्नत' कहे जाने वाले कश्मीर में कुदरत का कहर कयामत बनकर किस तरह टूटा, इसकी हकीकत मीडिया ने देश को बताई।
लाइव रिपोर्टिंग, जलप्लावन की दर्दनाक तस्वीरें, पीडि़तों की आप-बीती तथा मानवीय संवेदनाओं को छूने वाले वृत्तांत मीडिया के जरिए ही देश के लोगों ने पढ़े, सुने और देखे। पीडि़त परिवारों के बिछुड़े लोगों को मिलाने और उनके बारे में जानकारियां देने में मीडिया की अहम भूमिका सामने आई। लोगों ने यह भी देखा कि घाटी में आम दिनों में सेना पर पत्थर बरसाने वालों ने किस तरह सेना की रहनुमाई में बाढ़ से अपनी जान बचाई।
सही है, जब देश के किसी हिस्से में तबाही मची हो तो राष्ट्रीय मीडिया उसकी अनदेखी कैसे कर सकता है। आपको याद होगा, पिछले साल उत्तराखंड में बाढ़ ने भयानक कहर बरपाया था। 6 हजार लोगों की जानें चली गईं। ४ हजार से ज्यादा गांव जलमग्न हो गए। उत्तराखंड की त्रासदी भीषणतम त्रासदियों में से एक थी। उस दौरान राष्ट्रीय मीडिया जिस तरह तत्पर हुआ, उसी तरह कश्मीर में भी हुआ। हां, तब 24 घंटे चलने वाले चैनलों ने जरूर अति कर दी थी। उसकी आलोचना भी की गई थी लेकिन उस वक्त मीडिया, खासकर चौबीस घंटे चलने वाले न्यूज चैनलों की पेशेगत जिम्मेदारी को लेकर इंसानी भेदभाव और अनदेखी का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता था। मगर यह आरोप इस बार कश्मीर की बाढ़ के दौरान मीडिया कवरेज खासकर न्यूज चैनलों पर की गई रिपोर्टिंग को लेकर अवश्य लग चुका है। इसे अगर और स्पष्ट कहूं तो यह कि जम्मू-कश्मीर की बाढ़ को लेकर मीडिया ने जो संवेदनशीलता दिखाई वह देश के उत्तर-पूर्व (असम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश) में आई बाढ़ में कहीं नजर नहीं आई। जबकि बाढ़ का कहर और उससे प्रभावितों की त्रासदी किसी भी तरह कमतर नहीं थी।
जम्मू-कश्मीर की तरह ही उत्तर-पूर्वी राज्यों का एक बड़ा हिस्सा भीषण बाढ़ की तबाही से जूझा रहा था। कश्मीर में बाढ़ से सिर्फ एक सप्ताह पहले तक ब्रह्मपुत्र ने झोलम से भी अधिक रौद्र रूप धारण कर रखा था। उत्तर-पूर्व के राज्यों में बाढ़ की क्या स्थिति है और वहां के लोग किन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं इसकी एक झालक भी चौबीस घंटे चलने वाले हमारे इन राष्ट्रीय कहे जाने वाले चैनलों में दिखाई नहीं पड़ी। जो थोड़ी बहुत सूचनात्मक तौर पर जानकारियां सामने आईं वह भी प्रिंट मीडिया के जरिए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को हत्या, बलात्कार, गॉसिप या फिर मनोरंजन परक कथा-कहानियों से ही फुरसत नहीं थी। केन्द्र सरकार ने तो उत्तर-पूर्वी राज्यों की बाढ़ को बहुत हल्के में लिया ही, मीडिया ने भी यही किया। मानों टीवी चैनल्स सरकार का अनुसरण करने में लगे हों। उत्तर-पूर्व के राज्यों में कुल मिलाकर २० लाख से भी अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हुए थे। अकेले असम के १६ जिलों में १२ लाख लोग बाढ़ से बुरी तरह पीडि़त थे। (पत्रिका: २८ अगस्त) जबकि सिर्फ डेढ़-पौने दो लाख पीडि़तों को ही सरकारी राहत शिविरों में शरण दी जा सकी थी। ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों ने असम में लगातार हुई बारिश से भारी तबाही मचा रखी थी। दो हजार से अधिक गांव पूरी तरह जलमग्न थे। दूर-दराज के ग्रामीण इलाके हर तरह के सम्पर्क  से कटे हुए थे। कच्चे झाोंपड़ों में रहने वाली गरीब ग्रामीण आबादी को अस्तित्व का संघर्ष करते हुए देखा जा सकता था। लोग पेड़ के डंठल की नावें बनाकर खतरनाक ढंग से उफनते पानी को पार कर रहे थे। ये हालात कुछ प्रेस एजेन्सियों के हवाई सर्वेक्षणों और तस्वीरों में कुछ राष्ट्रीय अखबारों के जरिए सामने आए। अगर असम सहित उत्तर-पूर्वी राज्यों में बाढ़ की विभीषिका की आपको वास्तविक थाह लेनी है तो गूगल सर्च करके देखिए।  प्रेस एजेन्सियों के फोटोग्राफ्स और विवरण सारी स्थिति बयां कर देंगे। मेघालय में जिंजिरम नदी के कारण काफी तबाही हुई। करीब सवा लाख लोग बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुए। मणिपुर के लाम्फेलपेट इलाके के कई हिस्सों में नाम्बुल नदी के उफान ने बरबादी मचाई। अरुणाचल प्रदेश में लगातार बारिश तथा सियांग और संबासिरी नदियों में उफान से जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा। प्रदेश का पूर्वी सियांग और लोहित जिला अन्य हिस्सों से कट गया था। छितरी आबादी और विकट क्षेत्र के कारण बाढ़ प्रभावितों की वहां कोई मदद करने वाला नहीं था लेकिन केन्द्र सरकार ने अनदेखी की तो मीडिया भी सोया रहा। सरकार का असम की बाढ़ के प्रति नजरिया केन्द्रीय मंत्री वी.के. सिंह के बयान से ही स्पष्ट था। वी.के. सिंह 'डेवलपमेंट ऑफ नॉर्थ-इस्टर्न रीजन' (डीओएनईआर) के प्रभारी मंत्री हैं। प्रेट्र के संवाददाता ने जब उनसे असम में बाढ़ के हालात के बारे में पूछा तो उनका जवाब था- 'असम में बाढ़ कोई नई बात नहीं है।' असम सहित उत्तर-पूर्व के ज्यादातर राज्य हर वर्ष बाढ़ की विभीषिका से जूझाते हैं, यह वहां के निवासियों का जज्बा है लेकिन क्या इसीलिए हमें उनकी पीड़ा से कोई सरोकार नहीं? यह कैसी संवेदनहीनता है? देश के नागरिकों के बीच भेदभाव करने की यह कैसी मानसिकता है? इन स्थितियों में जम्मू-कश्मीर में अगर सरकार की तत्परता तथा असम में उदासीनता को जम्मू-कश्मीर राज्य में आसन्न चुनाव से जोड़कर देखा जाए तो क्या गलत है? खैर, सरकार और विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने राजनीतिक कारणों से यह विभेद करते हैं लेकिन मीडिया भी यही करे तो यह गंभीर चिन्ता का विषय होना चाहिए। उत्तर-पूर्व के लोगों में यह भावना और मजबूत होगी कि सरकार तो है ही देश का मीडिया भी उनकी समस्याओं को लेकर संवेदनहीन है। मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हाल ही देश के दो अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ को लेकर जो रवैया अपनाया, उससे तो यह प्रमाणित भी हुआ है

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मीडिया में 'ट्राई' की सिफारिशें

चाहे किसी भी दल की सरकार हो, बातें तो सभी मीडिया की स्वतंत्रता की करती हैं लेकिन कोई भी सरकार मीडिया को पूरी तरह स्वतंत्रता देना चाहती नहीं। स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र का रक्षक तो हो सकता है लेकिन सरकार का रक्षक भी हो, यह जरूरी नहीं।

'ट्राई' (टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी आफ इंडिया) ने एक बार फिर भारतीय मीडिया को सरकारी दखल और बड़ी कंपनियों के बढ़ते एकाधिकार के खतरों से आगाह किया है। हालांकि 'ट्राई' ने पांच वर्ष पूर्व अपनी विस्तृत रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी लेकिन इतना समय बीत जाने के बाद भी सरकार ने कुछ नहीं किया। इस स्थिति पर चिन्ता जाहिर करते हुए 'ट्राई' ने हाल ही अपनी ताजा सिफारिशें सरकार को भेजी हैं। इन सिफारिशों में कहा गया है कि न केवल सरकार को मीडिया में हस्तक्षेप करने से दूर रहना चाहिए, बल्कि मीडिया में पूंजी के माध्यम से स्थापित किए जा रहे एकाधिकार व वर्चस्व के खतरों को रोकने का भी प्रयास करना चाहिए।
'ट्राई' ने और भी कई सिफारिशें की हैं जिनका सम्बन्ध इलेक्ट्रॉनिक ही नहीं, प्रिंट मीडिया से भी है। 'ट्राई' के पास प्रसारण नियमन का ही अधिकार है। शायद इसीलिए उसकी सिफारिशें और उन्हें जारी करने के अधिकार को लेकर प्रिंट मीडिया में कुछ लोगों ने एतराज जताया है। सवाल किया जा रहा है कि मीडिया-उद्योग ने आज जो स्वरूप धारण कर लिया है, वह बिना विशाल पूंजी के कैसे टिक पाएगा? सवाल अपनी जगह सही है। इसका समाधान मुश्किल मगर असंभव नहीं है। लेकिन इसकी आड़ में मीडिया से जुड़े बुनियादी मुद्दों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। 'ट्राई' की सिफारिशों को इसी दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। 'ट्राई' की बुनियादी दो सिफारिशों पर ही गौर करें तो उनमें आपत्ति की कोई बात नजर नहीं आती।
 मीडिया में सरकारी दखलंदाजी को लेकर देश में एक पाखंड साफ तौर पर देखा जा सकता है। चाहे किसी भी दल की सरकार हो, सभी बातें तो मीडिया की स्वतंत्रता की करती हैं लेकिन कोई भी सरकार मीडिया को पूरी तरह स्वतंत्रता देना चाहती नहीं। स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र का रक्षक तो हो सकता है लेकिन सरकार का रक्षक भी हो, यह जरूरी नहीं। सरकार के घपले घोटाले और शासन की विसंगतियों को लोगों के सामने लाना मीडिया का काम है। सरकार को यही रास नहीं आता और वह मीडिया को काबू में करने के प्रत्यक्ष व परोक्ष हथकंडे अपनाने लगती है। सरकार नियंत्रित या निर्देशित मीडिया कभी अपनी भूमिका को सही ढंग से नहीं निभा सकता। उसका पतन अवश्यंभावी है। ऐसे में अगर 'ट्राई' मीडिया को सरकार की दखलंदाजी से बचाने की सिफारिश करता है तो इसमें गलत क्या है।
 इसी तरह एकाधिकार भी किसी उद्योग के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। खासकर मुक्त अर्थव्यवस्था में तो यह एक गंभीर रोग से कम नहीं। भारतीय मीडिया में एकाधिकार की चर्चा ने पिछले दिनों तब जोर पकड़ा जब रिलायंस इंडस्ट्रीज ने नेटवर्क-१८ को खरीद लिया जिसके तहत कई न्यूज चैनल और वेब पोर्टल्स संचालित होते हैं। 'ट्राई' ने अपनी सिफारिशों में न केवल एकाधिकार को मीडिया उद्योग के लिए घातक बताया है बल्कि मीडिया में मालिकाना हक और नियंत्रण के अन्तर को भी स्पष्ट किया है। 'ट्राई' के अनुसार बिना बहुलांश हिस्सेदारी के भी मीडिया इकाइयों पर नियन्त्रण किया जा सकता है। नियंत्रण' को 'ट्राई' ने विस्तृत परिभाषित किया है। मीडिया के विकास में 'ट्राई' ने बड़ी कंपनियों के एकाधिकार और नियंत्रण दोनों को एक बुराई मानते हुए अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य एच.एच.आई. (हरफिंडाल हर्शमैन इंडेक्स) पद्धति की सिफारिश की है। साथ ही मीडिया में होल्डिंग और क्रॉस होल्डिंग की समीक्षा के लिए सुझााव दिया है कि ऐसे पूंजी निवेश की हर तीन साल में समीक्षा होनी चाहिए।  भारत में मीडिया में मालिकाना हक को लेकर 'क्रास मीडिया ऑनरशिप' पर कोई पाबंदी नहीं है। इससे काफी घालमेल हुआ है। मीडिया में क्रॉस ऑनरशिप के प्रचलित दोनों रूपों पर भारत में कोई प्रतिबंध नहीं है, जबकि अमरीका और कई यूरोपीय देशों में 'हारिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' प्रतिबंधित है।
जब एक मीडिया-कंपनी मीडिया से इतर दूसरे क्षेत्र में निवेश करे तो इसे 'हारिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' कहा जाता है। मीडिया में कई ऐसी कंपनियां या घराने प्रवेश कर चुके हैं जो अपना कारोबार चमकाने के लिए मीडिया को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। मीडिया के नियम और मूल्यों से उनका कोई सरोकार नहीं। भारतीय मीडिया-उद्योग में यह प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ती जा रही है, जो मीडिया में कई बुराइयों को जन्म दे रही है। इसलिए अगर 'ट्राई' ने मीडिया में ऐसे पूंजी निवेश की निरन्तर समीक्षा की बात कही है और एच.एच.आई. पद्धति लागू करने की सिफारिश की है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। प्रिन्ट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया- राजनेताओं के स्वामित्व वाली अधिकतर मीडिया इकाइयों में खबरों को किस तरह राजनीतिक रंग दिया जाता है यह सर्वविदित है। शायद इसीलिए 'ट्राई' ने राजनीतिक संगठनों को भी मीडिया-उद्योग में निवेश और हस्तक्षेप से रोके जाने की सिफारिश
की है।
 'ट्राई' ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में मीडिया पर निगरानी के लिए एक स्वतंत्र प्राधिकरण का गठन करने की जो सिफारिश की है, उस पर विचार-विमर्श की जरूरत है। मीडिया के स्वतंत्र विकास के लिए मीडिया के भीतर ही नियामक संस्था होनी चाहिए- इसे लेकर मीडिया से जुड़े ज्यादातर पक्ष एकमत हैं। किसी बाहरी संस्था के माध्यम से मीडिया पर निगरानी की कोई भी नियामक संस्था सार्थक भूमिका निभा पाएगी, इसमें संदेह है। फिर भी 'ट्राई' की दोनों बुनियादी सिफारिशें निर्विवाद हैं जिन्हें मानने में सरकार और मीडिया-उद्योग को भी कोई परहेज नहीं होना चाहिए।

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सरकार का ट्विटर पर चहकना


आजकल ट्विटर पर अभिनेता से लेकर राजनेता तक सभी चहकते (ट्विट करते) हैं। शायद इसीलिए पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने पेट्रोल में कीमतों की कमी की घोषणा अपने ट्विटर अकाउंट पर की। यह पहला अवसर है, जब किसी महत्वपूर्ण निर्णय की जानकारी सरकार ने औपचारिक प्रेस-विज्ञप्ति या प्रेस कान्फे्रन्स की बजाय सोशल नेटवर्किंग के जरिए दी। वह भी पेट्रोल में कीमतों की कमी की तिथि से पूरे चौबीस घंटे पहले। मीडिया को यह खबर ट्विटर से मिली और आम जनता के लिए सार्वजनिक हुई। वैसे कह सकते हैं कि मंत्री ने जब पेट्रोल की कीमत घटाने की जानकारी अपने ट्विटर अकाउंट पर दी तभी यह सूचना सार्वजनिक हो गई थी, लेकिन भारत जैसे देश में ट्विटर पर या मंत्री को फोलो करने वाले लोगों की सीमित तादाद है। सही मायने में आम लोगों के हित की यह सूचना मीडिया के जरिए ही लोगों तक पहुंच पाई।
ऐसे में यह स्वाभाविक सवाल है कि सरकार को अपने महत्वपूर्ण निर्णयों की जानकारी 'ट्विटर', 'फेसबुक' आदि सोशल नेटवर्किंग माध्यमों से देनी चाहिए या मीडिया के मार्फत आम जन तक पहुंचानी चाहिए? प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने अपने मंत्रियों और अफसरों को सोशल मीडिया से जुड़ने के निर्देश दिए थे। स्वयं प्रधानमंत्री भी ट्विटर के जरिए लोगों तक संदेश पहुंचाते हैं। जनता के वोटों से चुनी हुई सरकार जनता से सतत संवाद के लिए इन माध्यमों का उपयोग करे तो शायद किसी को भी एतराज नहीं होगा। अनेक राजनेता 'ट्विटर', 'फेसबुक' आदि माध्यमों पर मौजूद हैं और समय-समय पर अपने प्रशंसकों-मित्रों-शुभचिन्तकों आदि से संवाद करते हैं। विभिन्न मुद्दों पर उनकी राय, सम्मति, प्रतिक्रियाएं मीडिया में सुर्खियां भी बनती हैं। लेकिन सरकार का कोई महत्वपूर्ण निर्णय, वह भी ऐसा जो सीधे जनता से जुड़ा हो- अगर उसे मंत्रीजी अपने 'ट्विटर' अकाउंट पर डालकर इतिश्री कर ले तो इसे क्या कहना चाहिए। सरकार के महत्वपूर्ण व नीतिगत निर्णयों की सूचनाओं-घोषणाओं के लिए सोशल नेटवर्किंग पर निर्भरता सही नहीं मानी जा सकती। बल्कि कई विश्लेषकों की राय में तो यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है। भाजपा के पूर्व नेता गोविन्दाचार्य तो इसे पब्लिक रिकार्ड एक्ट का उल्लंघन मानते हैं और अदालत में जनहित याचिका दायर कर चुके हैं। अगर समय रहते सोशल मीडिया-प्रेमी सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया तो उसके नतीजे भी भुगतने पड़ सकते हैं।
सोशल मीडिया के दुरुपयोग और उसके दुष्परिणाम के विश्व में सैकड़ों उदाहरण हैं। इसमें जितना खुलापन है, उतनी अराजकता भी। किसी भी तरह के नियन्त्रण और नियमन से मुक्त यह माध्यम कई बार सरकारों की फांस बन चुका है। इसका मतलब यह भी नहीं कि सोशल मीडिया की सकारात्मक भूमिका नगण्य है। लेकिन यह एक दुधारी तलवार है। मौजूदा केन्द्र सरकार सोशल मीडिया की शक्ति और कमजोरियों से नावाकिफ होगी, यह सोचना नादानी होगी। सरकार में आने से पहले भाजपा के कई नेता सोशल नेटवर्किंग पर सक्रिय रहे हैं। नरेन्द्र मोदी तो काफी पहले ही सोशल नेटवर्क पर लोकप्रिय राजनेता का खिताब हासिल कर चुके थे। ऐसे में मौजूदा केन्द्र सरकार की सोशल मीडिया पर निर्भरता को सहज ही समझाा जा सकता है। दरअसल, सोशल मीडिया और मुख्य मीडिया के मूलभूत स्वरूप और उनमें परस्पर भिन्नता है।
सोशल मीडिया एक निरपेक्ष माध्यम है। इसमें आप इकतरफा संवाद लम्बे समय तक कायम रख सकते हैं। आप जानते हैं लोग आपके 'फॉलोवर' या दूसरे शब्दों में आपके 'समर्थक' होते हैं। वे आपके शब्दों की प्रतीक्षा करते हैं और जब आप उन्हें व्यक्त कर देते हैं तो वे आपकी तारीफ करते हैं। कई तो प्रशंसा के पुल बांध देते हैं। कुछ आलोचक भी होते हैं, लेकिन दिखावे के। वास्तविक आलोचक या विश्लेषकों को कोई पसंद नहीं करता और उन्हें आमतौर पर प्रतिबंधित (ब्लॉक) कर दिया जाता है। अव्वल तो कोई असुविधाजनक सवाल आपसे करता ही नहीं। किसी ने कर भी दिया तो आप उसकी आसानी से अनदेखी कर सकते हैं। 'ट्विटर' में तो वैसे भी १४० अक्षरों की सीमा बंधी है। यानी एक सुविधाजनक परिस्थिति आपको सोशल मीडिया पर उपलब्ध है। इसका सबसे ज्यादा फायदा राजनेता उठा रहे हैं। प्रचार का प्रचार और जवाबदेही नगण्य। सरकार में बैठे नेता के लिए तो यह और भी मुफीद है। मंत्री का सोशल मीडिया के जरिए लोगों से संवाद बुरी चीज नहीं है, लेकिन इसे राजनीतिक सुविधा का माध्यम बना देना अनुचित है।
यह सुविधा मुख्य मीडिया में सहज उपलब्ध नहीं है। हालांकि मीडिया के जो मौजूदा हालात हैं उनमें राजनेता, राजनीतिक दल और सरकार ही नहीं, पहुंचवाला कोई भी व्यक्ति मीडिया से अनुकूल सुविधाएं हासिल कर लेता है। लेकिन मुख्यधारा का मीडिया अपने स्वरूप में ही सोशल मीडिया से इतना भिन्न है कि वह कहीं न कहीं या किसी न किसी स्तर पर आपको जवाबदेही के लिए मजबूर कर सकता है।
मीडिया की इसी शक्ति ने उसे अनेक विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कायम रखा है। मीडिया 'ट्विटर' की तरह निरपेक्ष नहीं है। न ही वह 'फेसबुक' की तरह किसी एक कंपनी या व्यक्ति द्वारा संचालित है। सोशल मीडिया में कुछ नियम और विधियां तय हैं जो निरपेक्ष भाव से स्वत: काम करती रहती है। उसका यह तंत्र अच्छे और बुरे की पहचान नहीं कर सकता। इसके विपरीत मीडिया एक जीवन्त माध्यम है। उसके संचालक ही नहीं, उसमें कार्यरत मीडियाकर्मी भी हर क्षण चौकन्ने रहते हैं। उनमें परस्पर कड़ी प्रतिस्पद्र्र्धा है। वह अलग-अलग रूपों और नामों में मौजूद है। कहीं वह प्रिंट मीडिया है तो कहीं वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। प्रिंट में भी दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक कई स्तर हैं तो इलेक्ट्रॉनिक में भी दृश्य और श्रव्य दोनों माध्यम हैं। न्यूज चैनलों की पूरी शृंखला है। ऐसे में लोगों के प्रति जवाबदेही से बचना मुश्किल है, खासकर किसी सरकारी प्रतिनिधि का। यही बंदिश शायद सरकार को रास नहीं आ रही है और उसने एक सुविधाजनक रास्ता अख्तियार कर लिया है। लेकिन अगर सरकार ने यही राह अपनाने का फैसला कर लिया है तो माना जाएगा कि वह मुख्यधारा के मीडिया की तो अनदेखी कर ही रही है, बल्कि जनता के प्रति जवाबदेही का भी अनादर कर रही है।

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