सवाल यह है कि क्या एक निर्वाचित सरकार को जो ऐतिहासिक बहुमत से सत्ता में आई, उसे प्रशासन चलाने के लिए अफसरों की नियुक्ति और तबादलों के लिए उपराज्यपाल का मोहताज होना पड़ेगा? यह तो सरासर जनता का अपमान है।
दिल्ली में इन दिनों कौन सरकार चला रहा है? मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल या उपराज्यपाल नजीब जंग? यह सवाल शासन की इस अजीबो-गरीब स्थिति से उपजा है जो देश की राजधानी में देखी जा रही है। शासन के सर्वोच्च अधिकारियों की नियुक्तियों को लेकर ऐसा घमासान शायद ही पहले कभी देखने में आया। मुख्यमंत्री ने जिस अफसर को नियुक्त किया उसे उपराज्यपाल ने हटा दिया और उपराज्यपाल ने जिसे नियुक्त किया उसे मुख्यमंत्री ने हटा दिया। दोनों में अपने-अपने अधिकारों को लेकर तलवारें खिंची हैं। नतीजा यह है कि आज दिल्ली में प्रशासन को चलाने वाले तंत्र का सर्वोच्च अधिकारी न मुख्य सचिव है और न कार्यकारी मुख्य सचिव। इन उच्चाधिकारियों की नियुक्ति आदेश जारी करने वाला प्रधान सचिव भी नहीं है। हालांकि मुख्य सचिव के.के. शर्मा को छोड़कर, जो छुट्टियां लेकर विदेश गए हैं, दोनों बड़े अधिकारी अपने पदों पर हैं लेकिन निष्प्रभावी। प्रधान सचिव अनिंदो मजूमदार तो राज्य सरकार की ओर से बुधवार को बुलाई गई अधिकारियों की बैठक के ऐन पहले अपनी जिम्मेदारी से भाग खड़े हुए और छुट्टी पर चले गए।
शासन अनुकूल नहीं हालात
इससे पहले इन अधिकारियों की नियुक्तियों या स्थानान्तरण को लेकर मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के दफ्तरों से परस्पर विरोधी आदेश जारी किए गए थे। हालत यहां तक पहुंची कि आला अधिकारी के दफ्तर में ताले तक जड़ दिए गए। क्या ये हालात शासन चलाने वाले तंत्र के लिए अनुकूल कहे जा सकते हैं। शायद ही कोई इसका समर्थन करेगा। क्योंकि ये अफसरों के लिए तो अनुकूल है या नहीं, जनता के लिए बिल्कुल नहीं है। जनता के लिए बनाई गई नीतियों-कार्यक्रमों को लागू करने का जिम्मा जिस तंत्र पर है अगर उसके शीर्ष स्तर पर ऐसी विसंगतियां हैं जो दिल्ली में देखी जा रही हैं तो जनता का भगवान ही मालिक है।
क्यों हो मोहताज
संवैधानिक हवाले देकर यह तर्क दिए जा रहे हैं कि उपराज्यपाल ही प्रशासनिक प्रमुख हैं। दिल्ली सरकार का काम उपराज्यपाल को सलाह देने या फिर विचार-विमर्श करने तक सीमित है। यह इसलिए क्योंकि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं। सवाल यह है कि क्या एक निर्वाचित सरकार को जो ऐतिहासिक बहुमत से सत्ता में आई, उसे प्रशासन चलाने के लिए अफसरों की नियुक्ति और तबादलों के लिए उपराज्यपाल का मोहताज होना पड़ेगा? यह तो सरासर जनता का अपमान है। अगर निर्वाचित सरकार का अपने अफसरों पर कोई नियंत्रण नहीं है, तो प्रशासनिक जवाबदेही कैसे तय होगी? जनता को कौन जवाब देगा। मुख्यमंत्री या उपराज्यपाल? लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है। जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व मुख्यमंत्री करता है न कि केन्द्र द्वारा नियुक्त एक प्रशासक। अगर ऐसा होता तो राज्यों में राज्यपाल ही सर्वोपरि प्रशासक होते, मुख्यमंत्री नहीं। दिल्ली को छोड़कर सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को अपने पसंद के अधिकारी नियुक्त करने का अधिकार है तो अरविन्द केजरीवाल को क्यों नहीं?
स्पष्ट रुख दिखाए केंद्र
मुख्यमंत्री ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों से गुहार की है कि दिल्ली सरकार को संवैधानिक योजना के तहत स्वतंत्र रूप से काम करने दिया जाए। क्या यह मांग गैर वाजिब है? कह सकते हैं कि यह सब दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं देने से हो रहा है तो केन्द्र सरकार को किसने रोका है। भाजपा की तो यह हमेशा से मांग रही है। यहां तक कि वाजपेयी सरकार के समय विधेयक भी लोकसभा में रखा गया था। मौजूदा केन्द्र सरकार शायद यह भूल रही है कि अपने पसंद का आला अधिकारी नियुक्त कराने के लिए कानून तक में बदलाव किया गया था। ऐसे में जीएनसीटी एक्ट-1991 जिसके जरिए दिल्ली का शासन संचालित होता है, में बदलाव करने में क्या दिक्कत है, यह समझ से परे है।
केन्द्र सरकार को ऐसे सभी मामलों में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट रखना चाहिए। यह नहीं कि जब विपक्ष में हो तब एक जुबान और जब सत्ता में हो तो दूसरी जुबान। प्राय: सभी राजनीतिक पार्टियों का यह अन्तरविरोध देश की कई ज्वलन्त राजनीतिक समस्याओं के समाधान में अड़चन बन कर खड़ा हो जाता है। राज्यपालों की नियुक्तिों के लिए सरकारिया आयोग की रिपोर्ट हमेशा ठंडे बस्ते में ही रही। क्योंकि विपक्ष चाहता रहा यह लागू हो और सत्ता पक्ष यह कभी नहीं चाहता। परिणामत: यह रिपोर्ट हमेशा आलमारियों में कैद रही। दिल्ली का मौजूदा अनुभव बहुत कटु है। नजीब जंग कानूनी तौर पर या कहें तकनीकी स्तर पर जो कुछ कर रहे हैं वह सही हो, पर नैतिक रूप से सही नहीं है। अनेक बार कानून की व्याख्याएं नैतिक और मूल्यगत आधार पर की गई हैं। अत: दिल्ली के घटनाक्रम से सभी दलों को दलगत राजनीति से उठकर सोचना चाहिए।
दिल्ली में इन दिनों कौन सरकार चला रहा है? मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल या उपराज्यपाल नजीब जंग? यह सवाल शासन की इस अजीबो-गरीब स्थिति से उपजा है जो देश की राजधानी में देखी जा रही है। शासन के सर्वोच्च अधिकारियों की नियुक्तियों को लेकर ऐसा घमासान शायद ही पहले कभी देखने में आया। मुख्यमंत्री ने जिस अफसर को नियुक्त किया उसे उपराज्यपाल ने हटा दिया और उपराज्यपाल ने जिसे नियुक्त किया उसे मुख्यमंत्री ने हटा दिया। दोनों में अपने-अपने अधिकारों को लेकर तलवारें खिंची हैं। नतीजा यह है कि आज दिल्ली में प्रशासन को चलाने वाले तंत्र का सर्वोच्च अधिकारी न मुख्य सचिव है और न कार्यकारी मुख्य सचिव। इन उच्चाधिकारियों की नियुक्ति आदेश जारी करने वाला प्रधान सचिव भी नहीं है। हालांकि मुख्य सचिव के.के. शर्मा को छोड़कर, जो छुट्टियां लेकर विदेश गए हैं, दोनों बड़े अधिकारी अपने पदों पर हैं लेकिन निष्प्रभावी। प्रधान सचिव अनिंदो मजूमदार तो राज्य सरकार की ओर से बुधवार को बुलाई गई अधिकारियों की बैठक के ऐन पहले अपनी जिम्मेदारी से भाग खड़े हुए और छुट्टी पर चले गए।
शासन अनुकूल नहीं हालात
इससे पहले इन अधिकारियों की नियुक्तियों या स्थानान्तरण को लेकर मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के दफ्तरों से परस्पर विरोधी आदेश जारी किए गए थे। हालत यहां तक पहुंची कि आला अधिकारी के दफ्तर में ताले तक जड़ दिए गए। क्या ये हालात शासन चलाने वाले तंत्र के लिए अनुकूल कहे जा सकते हैं। शायद ही कोई इसका समर्थन करेगा। क्योंकि ये अफसरों के लिए तो अनुकूल है या नहीं, जनता के लिए बिल्कुल नहीं है। जनता के लिए बनाई गई नीतियों-कार्यक्रमों को लागू करने का जिम्मा जिस तंत्र पर है अगर उसके शीर्ष स्तर पर ऐसी विसंगतियां हैं जो दिल्ली में देखी जा रही हैं तो जनता का भगवान ही मालिक है।
क्यों हो मोहताज
संवैधानिक हवाले देकर यह तर्क दिए जा रहे हैं कि उपराज्यपाल ही प्रशासनिक प्रमुख हैं। दिल्ली सरकार का काम उपराज्यपाल को सलाह देने या फिर विचार-विमर्श करने तक सीमित है। यह इसलिए क्योंकि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं। सवाल यह है कि क्या एक निर्वाचित सरकार को जो ऐतिहासिक बहुमत से सत्ता में आई, उसे प्रशासन चलाने के लिए अफसरों की नियुक्ति और तबादलों के लिए उपराज्यपाल का मोहताज होना पड़ेगा? यह तो सरासर जनता का अपमान है। अगर निर्वाचित सरकार का अपने अफसरों पर कोई नियंत्रण नहीं है, तो प्रशासनिक जवाबदेही कैसे तय होगी? जनता को कौन जवाब देगा। मुख्यमंत्री या उपराज्यपाल? लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है। जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व मुख्यमंत्री करता है न कि केन्द्र द्वारा नियुक्त एक प्रशासक। अगर ऐसा होता तो राज्यों में राज्यपाल ही सर्वोपरि प्रशासक होते, मुख्यमंत्री नहीं। दिल्ली को छोड़कर सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को अपने पसंद के अधिकारी नियुक्त करने का अधिकार है तो अरविन्द केजरीवाल को क्यों नहीं?
स्पष्ट रुख दिखाए केंद्र
मुख्यमंत्री ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों से गुहार की है कि दिल्ली सरकार को संवैधानिक योजना के तहत स्वतंत्र रूप से काम करने दिया जाए। क्या यह मांग गैर वाजिब है? कह सकते हैं कि यह सब दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं देने से हो रहा है तो केन्द्र सरकार को किसने रोका है। भाजपा की तो यह हमेशा से मांग रही है। यहां तक कि वाजपेयी सरकार के समय विधेयक भी लोकसभा में रखा गया था। मौजूदा केन्द्र सरकार शायद यह भूल रही है कि अपने पसंद का आला अधिकारी नियुक्त कराने के लिए कानून तक में बदलाव किया गया था। ऐसे में जीएनसीटी एक्ट-1991 जिसके जरिए दिल्ली का शासन संचालित होता है, में बदलाव करने में क्या दिक्कत है, यह समझ से परे है।
केन्द्र सरकार को ऐसे सभी मामलों में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट रखना चाहिए। यह नहीं कि जब विपक्ष में हो तब एक जुबान और जब सत्ता में हो तो दूसरी जुबान। प्राय: सभी राजनीतिक पार्टियों का यह अन्तरविरोध देश की कई ज्वलन्त राजनीतिक समस्याओं के समाधान में अड़चन बन कर खड़ा हो जाता है। राज्यपालों की नियुक्तिों के लिए सरकारिया आयोग की रिपोर्ट हमेशा ठंडे बस्ते में ही रही। क्योंकि विपक्ष चाहता रहा यह लागू हो और सत्ता पक्ष यह कभी नहीं चाहता। परिणामत: यह रिपोर्ट हमेशा आलमारियों में कैद रही। दिल्ली का मौजूदा अनुभव बहुत कटु है। नजीब जंग कानूनी तौर पर या कहें तकनीकी स्तर पर जो कुछ कर रहे हैं वह सही हो, पर नैतिक रूप से सही नहीं है। अनेक बार कानून की व्याख्याएं नैतिक और मूल्यगत आधार पर की गई हैं। अत: दिल्ली के घटनाक्रम से सभी दलों को दलगत राजनीति से उठकर सोचना चाहिए।