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सोशल मीडिया का बढ़ता असर

पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन के ठिकाने पर अमरीकी हेलीकॉप्टरों के हमले की सबसे पहले सूचना मीडिया को एक ट्विट से हुई थी, जिसे एक स्थानीय बाशिन्दे ने पोस्ट किया था। सोशल मीडिया के एक विशेषज्ञ ने सही लिखा, 'अब हम सिर्फ श्रोता, पाठक या दर्शक नहीं रहे। आज का आम नागरिक भी एक लेखक, पत्रकार और प्रस्तोता की तरह ही ताकतवर हो गया है।

उस दिन अखबारों में एक साथ ये दोनों खबरें छपीं। एक में प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का पहली बार फेसबुक पर आने का समाचार था, जिसमें उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए एपीजे. अब्दुल कलाम की उम्मीदवारी सुनिश्चित करने व उन्हें जिताने की अपील की।
दूसरी खबर, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के ट्विटर पर संदेश से सम्बंधित थी, जिसमें उन्होंने एपीजे. अब्दुल कलाम से राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लडऩे की अपील की। उमर ने अपने ट्विट में प्रणव मुखर्जी की उम्मीदवारी की घोषणा होने पर उन्हें बधाई भी दी।
कुछ दिन पहले लालकृष्ण आडवाणी की अपने ब्लॉग पर अपनी ही पार्टी भाजपा को लेकर की गई टिप्पणी मीडिया में सुर्खियां बनी थीं। यही नहीं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खेल, मनोरंजन व कॉरपोरेट जगत से जुड़ी हस्तियों के व्यक्त किए गए विचार, संदेश व टिप्पणियां भी मीडिया में खबरें बन रही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि डिजिटल संसार अब सोशल मीडिया की भूमिका निभा रहा है। उसकी सूचनाएं आए दिन प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरें बन रही हैं। यह सोशल मीडिया—जिसे न्यू मीडिया भी कहा जा रहा है—के बढ़ते प्रभाव का प्रमाण तो है ही, मुख्यधारा के मीडिया के साथ उसके प्रगाढ़ होते रिश्तों को भी दर्शाता है। ऐसा अकारण नहीं है। फेसबुक, ट्विटर, यू- ट्यूब, फ्लिकर, ब्लॉग्स, पॉडकास्ट्स, गूगल आदि डिजीटल माध्यमों की दिनोंदिन होती सर्वव्यापी पहुंच से इनके महत्व और उपयोग को कई नए आयाम मिले हैं। विभिन्न आयु व पेशागत वर्गों में भी ये माध्यम अपनी पैठ बढ़ाते जा रहे हैं। राजनीति में युवा उमर अब्दुल्ला ट्विटर से जुड़े हैं, तो प्रौढ़वय ममता बनर्जी भी फेसबुक का सहारा ले रही हैं। बुजुर्ग लालकृष्ण आडवाणी अपने ब्लॉग के जरिए लोगों से संवाद कायम कर रहे हैं। यानी आम और खास सभी इन डिजिटल माध्यमों से जुड़ रहे हैं।
दुनिया में करीब 2 अरब लोगों तक इन माध्यमों की पहुंच हो चुकी है। हो भी क्यों नहीं। आपका संदेश बहुत आसानी से लोगों तक जो पहुंच जाता है। मिस्र, सीरिया, लीबिया, ट्यूनीशिया, बहरीन जैसे मुल्कों में क्रान्ति का बिगुल सोशल मीडिया के मार्फत ही वहां की जनता ने बजाया। शक्तिशाली अमरीका को हिलाने वाले आक्युपाइ वॉलस्ट्रीट आंदोलन को भी इसी मीडिया ने परवान चढ़ाया। भारत में अन्ना हजारे के लोकपाल अभियान को सोशल मीडिया ने बहुत बल दिया। आज सोशल मीडिया शक्ति का एक नया केन्द्र बन चुका है, जिससे सभी देशों के राजनीतिक दल व नेता जुडऩा चाहते हैं। हाल ही फ्रांस में हुए राष्ट्रपति चुनावों के दौरान निकोलस सरकोजी और फ्रेंकोइस ओलान्द ने अपने-अपने प्रचार अभियान में सोशल मीडिया का जमकर उपयोग किया। अमरीका में जगजाहिर है, वहां चुनाव अभियानों में सोशल मीडिया की प्रमुख भूमिका रहती है। ओबामा ने युवा मतदाताओं को लुभाने के लिए इस माध्यम का खूब उपयोग किया। पाकिस्तान में इमरान खान और उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ लोगों से इसी माध्यम से संवाद कायम रखे हुए है। अनेक देशों में राजनीतिक पार्टियों की अपनी वेबसाइट्स हैं। उनके प्रवक्ता फेसबुक, ट्विटर आदि के जरिए लोगों से निरंतर संवाद रखते हैं।
अब सवाल यह है कि सोशल मीडिया की यह लोकप्रियता कहीं मुख्यधारा के मीडिया की राह में बाधक तो नहीं? सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत और प्रसार के बीच आजकल कुछ लोग अगर ऐसा सोचने लगे हैं, तो आश्चर्य नहीं। लेकिन यह सोचने से पहले हमें मीडिया के विभिन्न रूपों के विकास की प्रक्रिया व पृष्ठभूमि पर एक नजर डालने की जरूरत है। प्रिंट मीडिया के युग में सर्वप्रथम रेडियो के आगमन ने इसी तरह के संदेह व सवाल उपजाए, लेकिन क्या रेडियो अखबारों के विकास में बाधक बना? आंकड़े साक्षी हैं कि भारत में प्रिंट मीडिया का प्रसार रेडियो की मौजूदगी के बावजूद तेजी से बढ़ता गया। ये दोनों माध्यम एक-दूसरे के विकास के पूरक ही बने।
फिर टेलीविजन आया। इसमें श्रव्य और दृश्य, दोनों शक्तियां थीं। 24 घंटे अबाध रूप से चलने वाले न्यूज चैनलों के दौर के बावजूद पूर्ववर्ती मीडिया कायम रहा। यह सही है कि टेलीविजन ने एक लम्बे समय तक रेडियो की उपयोगिता को पृष्ठभूमि में धकेल दिया। लेकिन रेडियो ने अपना नया आविष्कार किया और एफएम और कम्युनिटी रेडियो के रूप में फिर एक नई पहचान कायम करके अपना अस्तित्व सिद्ध कर दिया। रंगीन टेलीविजन के युग ने अखबारों को आकर्षक कलेवर और सज्जा प्रदान की। विषयों में विस्तार हुआ। फलस्वरूप दुनिया भर में टीवी के बावजूद अखबारों की प्रसार-संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गई। आज तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी कम और पूरक ज्यादा नजर आते हैं। टीवी की खबरों का अखबारों में विश्लेषण होता है, तो अखबारों के समाचार टीवी पर चर्चा का केन्द्र बनते हैं। खबरों की विश्वसनीयता व प्रभावशीलता के स्तर को लेकर प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर जरूर बहस हो सकती है, लेकिन दोनों माध्यमों के विस्तार-विकास को सभी स्वीकार करते हैं।
इसके बाद डिजिटल युग आया। मोबाइल फोन, सोशल मीडिया, कम्युनिटी रेडियो, ई-मेल, एस.एम.एस. आदि ने न केवल सूचना के त्वरित सम्प्रेषण को मजबूत किया, बल्कि लोकतंत्र और जनता की आवाज को भी मजबूती प्रदान की। ये सभी माध्यम आज मुख्यधारा के मीडिया के लिए प्रतिस्पर्धी कम और प्रतिपूरक ज्यादा हैं। राजनेताओं और विभिन्न क्षेत्र के प्रसिद्ध व्यक्तियों के फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग आदि पर व्यक्त किए गए विचार व संदेश मुख्यधारा के मीडिया के लिए समाचार बन जाते हैं। वहीं मुख्यधारा के मीडिया में प्रकाशित-प्रसारित समाचार और वक्तव्य सोशल मीडिया में बहस-चर्चा का केन्द्र बन जाते हैं। शशि थरूर से लेकर ममता बनर्जी के उदाहरण इसके प्रमाण हैं। एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्य पुस्तक में अम्बेडकर का कार्टून विवाद मुख्यधारा के मीडिया से होकर ही सोशल मीडिया में चर्चा का व्यापक मुद्दा बना। उल्लेखनीय बात यह है कि आज सोशल मीडिया के जरिए हर व्यक्ति सूचना का एक स्रोत बन गया है। पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन के ठिकाने पर अमरीकी हेलीकॉप्टरों के हमले की सबसे पहले सूचना मीडिया को एक ट्विट से हुई थी, जिसे एक स्थानीय बाशिन्दे ने पोस्ट किया था। सोशल मीडिया के एक विशेषज्ञ ने सही लिखा, 'अब हम सिर्फ श्रोता, पाठक या दर्शक नहीं रहे। आज का आम नागरिक एक लेखक, पत्रकार और प्रस्तोता की तरह ही ताकतवर हो गया है। और यह सब किया है, आज की डिजिटल दुनिया ने—सोशल या न्यू मीडिया ने। इससे मुख्यधारा का मीडिया समृद्ध ही हुआ है। उसके सूचना के स्रोत का विस्तार हुआ है। प्राकृतिक आपदा या किसी आपातकालीन परिस्थितियों में सोशल मीडिया से प्राप्त संदेश व सूचनाएं प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सुर्खियां बनी हैं। जापान में भूकम्प के दौरान यह हम देख चुके है। इसमें दो राय नहीं कि डिजिटल क्रांति ने व्यक्ति की निजता को प्रभावित किया है। और यह भी कि सोशल मीडिया सही अर्थों में पत्रकारिता नहीं है और न ही यह एक सम्पूर्ण मीडिया की भूमिका निभा सकता है, (इस पर चर्चा फिर कभी) इसके बावजूद इसकी ताकत और असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।





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निशाने पर विकीलीक्स!

विश्व राजनीति के इतिहास में इतने बड़े स्तर पर सरकारी राज खोलने का श्रेय 'विकीलीक्स' और इसके संस्थापक जूलियन असांजे को है। इसलिए असांजे के साथ पिछले दो वर्षों से घटित घटनाओं पर न केवल उनके लाखों प्रशंसकों की नजर है, बल्कि कई देश भी जिज्ञासापूर्वक घटनाओं को देख रहे हैं। असांजे के समर्थकों का आरोप है कि उन पर यौन शोषण के आरोप एक गहरी साजिश के तहत लगे हैं।

अपनी वेबसाइट 'विकीलीक्स' के जरिए अमरीकी सरकार के कई महत्वपूर्ण राज उजागर कर अमरीका को पूरी दुनिया के सामने मुश्किल में डालने वाले खोजी पत्रकार जूलियन असांजे इन दिनों खुद मुश्किल में हैं। आखिर ब्रिटेन की सर्वोच्च अदालत ने उन्हें स्वीडन को प्रत्यर्पित करने का आदेश सुना दिया। हालांकि अदालत ने फैसले को चुनौती देने के लिए उन्हें 13 जून तक समय दिया है, लेकिन माना जा रहा है कि असांजे को स्वीडन भेजने की पूरी तैयारी की जा चुकी है।
असांजे स्वीडन जाने का विरोध कर रहे हैं। उनका आरोप है कि स्वीडन में उनके खिलाफ मुकदमा तो एक बहाना है। स्वीडन सरकार उन्हें अमरीका को सौंप देगी। दोनों देशों के बीच यह गुप्त 'डील' हुई है। असांजे किसी सूरत में अमरीका नहीं जाना चाहते। अमरीका उन्हें जानी-दुश्मन समझाता है। अमरीका के हाथ लगे, तो वे जीवित नहीं बचेंगे, ऐसी उन्हें आशंका है।
असांजे ने विकीलीक्स के जरिए और भी कई देशों की सरकारों की पोल खोली है, लेकिन अमरीका उनके खास निशाने पर रहा है। उन्होंने इंटरनेट पर अमरीकी शासन के लाखों गोपनीय संदेश, हजारों खुफिया दस्तावेज और अमरीका को मित्र व शत्रु देशों के समक्ष शर्मिन्दा करने वाले अनेक राज उजागर किए हैं। 'विकीलीक्स' के खुलासों को दुनिया के लगभग सभी प्रमुख अखबारों और न्यूज चैनलों ने अपनी सुर्खियों में स्थान दिया। आज भी 'विकीलीक्स' के खुलासों की विश्व मीडिया-जगत में उत्सुकता से प्रतीक्षा की जाती है। इन खुलासों की वजह से अमरीका असांजे से नाराज है। मित्र देशों में उसकी छवि को 'विकीलीक्स' ने खासा बट्टा लगाया। विकीलीक्स पर रोक के अमरीका ने कई प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रयास किए। इसलिए असांजे की आशंका गलत नहीं लगती कि अमरीका में उन्हें सजा-ए-मौत दी जाएगी। 'विकीलीक्स' के पोल खोलने वाले खुलासों के बाद उनके विरुद्ध गतिविधियों पर एक नजर डालना ठीक होगा।
आस्ट्रेलिया के निवासी जूलियन असांजे ने वर्ष 2006 में विकीलीक्स की नींव रखी। शुरुआत में वे इसका कामकाज जमाने में लगे रहे। चर्चा में वे तब आए, जब उन्होंने 'विकीलीक्स' के जरिए 2010 में एक वीडियो जारी किया। इस वीडियो में एक अमरीकी हेलीकॉप्टर को अफगानिस्तान में हमला करते हुए दिखाया गया जिसमें कई लोग मारे गए थे। जाहिर है, इससे अमरीका काफी नाराज हुआ। लेकिन 'विकीलीक्स' ने अपना अभियान जारी रखा। जुलाई 2010 में उसने एक साथ 91 हजार दस्तावेज साइट पर डालकर खलबली मचा दी। इसमें ज्यादातर अमरीकी सेना के गुप्त दस्तावेज थे। अफगान युद्ध से जुड़े इन दस्तावेजों से जाहिर हुआ कि इस युद्ध में अमरीकी शासकों की वास्तविक मंशा क्या थी।
इसके बाद के घटनाक्रम पर गौर करें। जुलाई में 'विकीलीक्स' ने दस्तावेज जारी किए और एक माह बाद असांजे को स्वीडन की एक महिला ने उनके भाषणों का कार्यक्रम तय किया। असांजे 11अगस्त 2010  को स्वीडन पहुंचे। 14 अगस्त 2010 को असांजे ने कथित तौर पर इस महिला से शारीरिक सम्पर्क कायम किया। 17 अगस्त को असांजे ने एक अन्य महिला से कथित रूप से शारीरिक सम्पर्क बनाया, जो उनसे 14 अगस्त के भाषण कार्यक्रम में मिली थी। 18 अगस्त को असांजे ने स्वीडन में रहकर अपनी वेबसाइट विकीलीक्स का आगे का काम जारी रखने के लिए सरकार से इजाजत मांगी। 20 अगस्त 2010 को असांजे के खिलाफ स्वीडन में वारण्ट जारी हो गए। दोनों महिलाओं ने शिकायत की कि असांजे ने उनके साथ बलात्कार किया। दोनों महिलाओं का कहना था कि असांजे के साथ उनके सम्बन्ध आपसी सहमति से शुरू हुए थे, जो बाद में असहमति में तब्दील हो गए। असांजे ने इन आरोपों को बेबुनियाद बताया। आखिरकार 18 नवम्बर 2010 को स्वीडन की अदालत ने असांजे की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए। तब तक असांजे स्वीडन से लौट चुके थे। इस बीच असांजे का विकीलीक्स पर अमरीका के खिलाफ अभियान जारी रहा। 22 अक्टूबर 2010 में विकीलीक्स ने अमरीकी सेना की कोई 4 लाख फाइलें जारी की, जो इराक युद्ध से जुड़ी थी। इतना ही नहीं, विकीलीक्स ने अनेक संवेदनशील सूचनाएं जारी कर दी, जो अमरीकी कूटनीति से संबद्ध थी। इससे अमरीका की काफी बदनामी हुई। बार-बार शर्मिन्दगी से अमरीका काफी परेशान था। 28 नवम्बर को फिर विकीलीक्स ने अमरीकी कूटनीति की संवेदनशील सूचनाएं जारी की। इसके बाद 7 दिसम्बर 2010 को असांजे को ब्रिटेन में स्वीडन के वारण्ट पर गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ दिनों में ब्रिटेन की अदालत ने उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया। तब से असांजे ब्रिटेन में है। उनके जुनूनी अभियान में कोई कमी नहीं आई। 'विकीलीक्स' अमरीका को निशाना बनाती रही। बीच-बीच में उसने, चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत आदि देशों को लेकर भी कई खुलासे किए, जिनसे वहां की सरकारें भी परेशान हुईं। दरअसल हर देश की सरकारें कई सूचनाएं जनता से छिपाती हैं। इनमें कुछ सूचनाएं तो राष्ट्रीय हितों को लेकर होती हैं, जिन्हें गोपनीय रखने पर शायद किसी को आपत्ति नहीं। लेकिन गोपनीयता की आड़ में वे सभी जानकारियां दबा दी जाती हैं, जो सरकार, शासन, अफसरों और नेताओं की पोल खोलती है। जनहित में होते हुए भी सूचनाओं पर पहरा लगा दिया जाता है। इसलिए जब कोई माध्यम इन सूचनाओं को जारी करने का बीड़ा उठाता है, तो उसे लोगों का समर्थन मिलता है। 'विकीलीक्स' को विश्व भर में मिले समर्थन का कारण भी यही है। एक शक्तिशाली देश की कथनी और करनी में फर्क को 'विकीलीक्स' दुनिया के सामने सप्रमाण लेकर आई। हालांकि सूचनाओं व खुलासों के प्रसंग में 'विकीलीक्स' ने कुछ मर्यादाएं भी भंग कीं, जिनका समर्थन नहीं किया जा सकता। फिर भी विश्व राजनीति के इतिहास में इतने बड़े स्तर पर सरकारी राज खोलने का श्रेय 'विकीलीक्स' और इसके संस्थापक जूलियन असांजे को है। इसलिए असांजे के साथ पिछले दो वर्षों से घटित घटनाओं पर न केवल उनके लाखों प्रशंसकों की नजर है, बल्कि कई देश भी जिज्ञासापूर्वक घटनाओं को देख रहे हैं। जूलियन असांजे पर स्वीडन में दो महिलाओं से बलात्कार के जो आरोप लगे हैं, उन पर कानूनी तौर पर कार्यवाही हो और दोषी पाए जाने पर असांजे को सजा भी हो, इस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन जिस तरह घटनाएं घटी हैं, खासकर 'विकीलीक्स' के खुलासों के बाद, उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। असांजे के समर्थकों का आरोप है कि उन पर यौन शोषण के आरोप एक गहरी साजिश के तहत लगे हैं।
असांजे कह ही चुके हैं कि उन्हें फंसाया जा रहा है। यौन शोषण का आरोप तो एक बहाना है। स्वीडन में उनके साथ क्या होगा, वे जानते हैं। इसलिए उन्होंने ब्रिटेन की अदालत में अपने प्रत्यर्पण का विरोध किया। ब्रिटिश अदालत के आदेश से असांजे संभवत: शीघ्र स्वीडन प्रत्यर्पित कर दिए जाएं, लेकिन पूरी दुनिया की उन पर नजर रहेगी कि असांजे जो आशंकाएं व्यक्त कर रहे हैं, क्या वे सच होंगी? अगर वे सच होती हैं तो यह विकीलीक्स पर निशाना साधना होगा, जो सूचना का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को शक्तिपूर्वक व योजनाबद्ध ढंग से कुचलने का प्रयास कहा जाएगा।

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राजनीति बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

साभार: द हिंदू
  • यह सम्पूर्ण घटनाक्रम एक शर्मनाक अध्याय के रूप में इतिहास में दर्ज हो चुका है। इस कार्टून पर न बाबा साहब को ऐतराज था, न नेहरू जी को, न दलित समुदाय को और न उस समय के राजनीतिक दलों को। अगर इसमें कोई आपत्तिजनक बात होती, तो विशेषज्ञों का पैनल एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्य-पुस्तक के लिए इस कार्टून का चयन ही क्यों करता? पुस्तक बाकायदा कठिन चयन प्रक्रिया से गुजरी थी।
अखबार में जो महत्त्व खबर का है, वही कार्टून का भी है। बल्कि एक अच्छा कार्टून कई बार खबर पर भारी पड़ता है। कभी-कभी जो बात खबर में खबरनवीस नहीं कह पाता, वह कार्टून में कार्टूनिस्ट कह जाता है। शायद इसीलिए पूरी दुनिया के अखबारों में कार्टून को खास विशिष्टता हासिल है। अनेक प्रतिष्ठित अखबारों में रोजाना पहले पन्ने पर प्रकाशित होने वाला पॉकेट कार्टून इस बात का प्रमाण है। यह 'पत्रिका' के पाठक भी देखते ही होंगे। वर्ष 2006 में जब पत्रिका ने अपनी स्थापना की स्वर्ण जयन्ती मनाई, उस समय पिछले 50 वर्षों के दौरान 'पत्रिका' में प्रकाशित महत्वपूर्ण कार्टूनों की एक पुस्तक भी प्रकाशित की गई थी- कार्टून यात्रा। यह अखबार की यात्रा में कार्टून के योगदान को दर्शाती है।
दरअसल, अखबारों में कार्टून का हास्य-बोध लोगों को गुदगुदाता है। शंकर पिल्लई, आर.के. लक्ष्मण, अबू, सुधीर दर, रंगा, कांजीलाल जैसे भारतीय कार्टूनिस्टों का अप्रतिम योगदान रहा है। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया में भी कार्टून कला का उपयोग किया जा रहा है। एनिमेशन के जरिए कार्टून-फिल्में भी दर्शकों में लोकप्रिय हैं। कार्टूनों पर आधारित कॉमिक्स बच्चों में चाव से पढ़े जाते हैं। फिर भी अखबार में छपे कार्टून का अलग ही स्थान है। हम रोज अखबार पढ़ते हैं और रोज नई-नई समस्याओं से रूबरू होते हैं। रोज घटित होने वाली राजनीतिक हलचलें, देश-विदेश का दैनिक घटनाक्रम और तात्कालिक तौर पर उठने वाले सामाजिक मुद्दे कार्टून में एक नया आयाम पा जाते हैं। कार्टून में हल्के-फुल्के अंदाज में किया गया कटाक्ष गंभीर बात को भी सहजता से कह जाता है। अखबार में कार्टून आम आदमी की रोजमर्रा की इच्छा और तकलीफों की सहज व सशक्त अभिव्यक्ति है। इसलिए आमतौर पर पाठक अखबार में सर्वप्रथम कार्टून पर उत्सुकतापूर्वक नजर डालते हैं। कार्टून-कला और अखबार की यह जुगलबंदी काफी लोकप्रिय रही है। इसलिए कार्टून-कला पर जब-जब भी हमला हुआ, यों तो समूचे मीडिया में इसकी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन अखबार-जगत में सर्वाधिक तीखी प्रतिक्रिया हुई।
ग्यारहवीं कक्षा की जिस पुस्तक पर हाल ही में केन्द्र सरकार ने रोक लगाई, उसकी वजह भी एक कार्टून है। यह कार्टून 63 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था। यह कार्टून भी उस वक्त की तात्कालिक परिस्थिति को दर्शाता है। देश की आजादी के बाद भारत के संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी। उस दौरान संविधान बनने की धीमी गति पर जन मानस की सोच को अभिव्यक्ति देते हुए इस कार्टून में कटाक्ष किया गया था। चंद राजनेताओं द्वारा विवादित बना दिया गया यह कार्टून न तो किसी व्यक्ति विशेष को निशाना बनाता है और न किसी वर्ग विशेष को।
देश के जाने-माने कार्टूनिस्ट शंकर पिल्लई ने यह कार्टून बनाया था। तब शंकर के अन्य कार्टूनों की तरह लोगों ने इसे सहजता से लिया था। इस पर किसी ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई थी। आज के पाठक भी इस कार्टून के बारे में अच्छी तरह जान गए हैं। इसमें एक घोंघे पर बैठे हुए बाबा साहब अंबेडकर को दर्शाया गया है, जो संविधान निर्माण की सुस्त गति पर कटाक्ष है। पास में पंडित जवाहर लाल नेहरू हाथ में चाबुक लिए फटकार रहे हैं। स्वयं बाबा साहब के हाथ में भी चाबुक है। स्वयं बाबा साहब को इस कार्टून पर कोई आपत्ति नहीं थी। उनके पौत्र प्रकाश अंबेडकर के शब्दों में - यह कार्टून बाबा साहब के सामने बना था। उन्हें इस पर कोई ऐतराज नहीं था।
अफसोस! अचानक 63 साल बाद इस कार्टून पर ऐतराज सामने आया। दलों और नेताओं के राजनीतिक स्वार्थ इतने हावी हो गए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुचल दी गई। शायद राजनीतिक कारणों से यह भ्रम फैला दिया गया कि पंडित नेहरू संविधान लेखन में देरी के कारण अंबेडकर यानी एक दलित पर चाबुक बरसा रहे हैं। कुछ दिन पहले जो राजनेता पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को कार्टून विरोधी रुख के कारण कोस रहे थे और तृणमूल सरकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुचलने के लिए दोषी ठहरा रहे थे, वे ही अंबेडकर वाले कार्टून ही नहीं, बल्कि उस सम्पूर्ण पुस्तक को प्रतिबंधित करने की मांग कर रहे थे। और दुखद माजरा देखिए केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने आनन-फानन में न केवल माफी मांगी, बल्कि केन्द्र सरकार ने राजनीति शास्त्र की यह पुस्तक ही वापस लेने की घोषणा कर दी।
इस कार्टून पर न बाबा साहब को ऐतराज था, न नेहरू जी को, न दलित समुदाय को और न उस समय के राजनीतिक दलों को। अगर इसमें कोई आपत्तिजनक बात होती, तो विशेषज्ञों का पैनल एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्य- पुस्तक के लिए इस कार्टून का चयन ही क्यों करता? पुस्तक बाकायदा कठिन चयन प्रक्रिया से गुजरी थी। पुस्तक की विषय सामग्री पर निगरानी दो-दो मॉनिटरिंग कमेटियों के जरिए की गई थी। इन कमेटियों में प्रो. मृणाल मिरी, जी.पी. देशपांडे, प्रो. गोपाल गुरु, प्रो. जोया हसन, सहित प्रो. सुहास पलसीकर और योगेन्द्र यादव जिन्होंने बाद में एन.सी.ई.आर.टी के सलाहकार बोर्ड से इस्तीफा दे दिया- जैसे जाने-माने शिक्षाविद् और विद्वान शामिल रहे। पलसीकर और यादव तो दलितों के उत्थान में योगदान के लिए जाने-जाते हैं, लेकिन दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले दलों और नेताओं ने उन्हें भी नहीं बख्शा। पुणे में प्रो. पलसीकर के दफ्तर पर कथित तौर पर रामदास अठावले के समर्थकों का हमला केवल एक प्रोफेसर पर हमला नहीं था, बल्कि कार्टून-कला और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला था। यह सम्पूर्ण घटनाक्रम एक शर्मनाक अध्याय के रूप में इतिहास में दर्ज हो चुका है। भावी पीढ़ी जब इन पृष्ठों को पढ़ेगी तो हमारी राजनीति की तुच्छता को कोसेगी।
डॉ. अंबेडकर के कार्टून को प्रतिबंधित करने की मांग के पीछे सांसदों का तर्क था कि इससे दलितों की भावना आहत हुई है। निश्चय ही किसी समूह या वर्ग विशेष ही क्यों किसी व्यक्ति विशेष की भी भावना या आस्था को ठेस पहुंचाना किसी कला-विधा का उद्देश्य नहीं हो सकता। कला और अभिव्यक्ति के नाम पर जब भी ऐसी कोशिशें हुई हैं, उनका जन समुदाय में विरोध हुआ है। लेकिन जिस कार्टून को प्रतिबंधित किया गया उसे लेकर आम दलितों में ऐसी कोई प्रतिक्रिया देखने में नहीं आई। यह स्पष्ट रूप से उस वर्ग से मांग उठी, जो अपनी राजनीति चमकाना चाहता है। एक नेता ने मांग उठाई तो दो-चार नेता और साथ हो गए। फिर होड़ मची कि कौन किससे आगे रहे। दलितों के वोट बटोरने में सभी दल एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए बेचैन हो उठे। यह बेचैनी सचमुच दलितोत्थान को लेकर होती, तो कोई बात न थी। बल्कि इसे सराहा ही जाता, लेकिन राजनीतिक स्वार्थों के चलते एक ऐसा तुच्छ निर्णय लिया गया, जो अभिव्यक्ति का गला घोंटने के लिए तो याद किया जाएगा ही, साथ ही छात्र-छात्राओं को रचनात्मक तरीके से पढ़ने के अनुभव से वंचित रखने के लिए भी जाना जाएगा। दुनिया भर की शिक्षा प्रणालियों में नवाचार को बढ़ावा दिया जा रहा है। नए-नए प्रयोग और रचनात्मक तरीके खोजे जा रहे हैं। स्वयं भारत सरकार भी इस पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। प्रतिष्ठित शिक्षाविदों ने राजनीति विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए भारत के जिन मशहूर कार्टूनिस्टों के बनाये कार्टूनों का सहारा लिया और अध्ययन को आसान बनाया, उस पर सरकार ने ही पानी फेर दिया है।

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प्रेस परिषद ने निराश ही किया

भारतीय प्रेस परिषद अपनी भूमिका नहीं निभा पा रही थी, इसीलिए मीडिया जगत में उसे एक निष्प्रभावी संस्था के तौर पर देखा जाता रहा है। अलबत्ता न्यायमूर्ति काटजू ने उम्मीद जगाई थी कि परिषद लीक से हटकर कुछ कर पाएगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। यह निराशाजनक है। भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जे.एस. वर्मा के अनुसार, प्रेस परिषद एक निष्प्रभावी संस्था है, जिसे बंद कर दिया जाना चाहिए।



भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष बनने के तुरन्त बाद न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू ने प्रेस परिषद को अधिकार-सम्पन्न बनाने की बात कही थी। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को लिखे पत्र में काटजू ने कहा कि कानून की धारा 14 (1) के तहत परिषद को प्राप्त अधिकार नाकाफी है। इसके चलते प्रेस परिषद अपना कार्य प्रभावी तरीके से नहीं कर पा रही है। अपने बयानों और भाषणों में उन्होंने यही दोहराया— भय बिनु होई न प्रीति। ऐसे में उनसे उम्मीद थी कि वे प्रेस परिषद को एक ताकतवर संस्था बना पाएंगे। उनके आक्रामक तेवर और अंदाज से लगा कि वे जरूर कुछ करेंगे। लेकिन भारतीय प्रेस परिषद की अब तक की कार्यशैली ने ऐसा कुछ नहीं जताया, जैसा काटजू कहते रहे हैं।
प्रेस परिषद अपने ढर्रे से कुछ भी अलग करती नजर नहीं आ रही है। बल्कि यह कहूं कि प्राप्त अधिकारों का भी पूरी तरह इस्तेमाल नहीं कर पा रही, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रेस परिषद पूर्व की भांति ही एक निष्प्रभावी संस्था बनी हुई है। वह न तो प्रेस की स्वतंत्रता में बाधक बनने वाली राज्य सरकारों के खिलाफ कुछ कर पा रही है और न ही आदर्श आचरण संहिता का उल्लंघन करने वाले अखबारों-पत्रकारों के खिलाफ कोई ठोस कदम उठा पा रही है। पत्रकारों पर हमले और उत्पीडऩ को रोकने में भी इसकी कोई कारगर भूमिका नजर नहीं आ रही है। हो सकता है, प्रेस परिषद के वर्तमान अध्यक्ष यह तर्क दें कि जब तक केन्द्र सरकार परिषद को शक्तियां नहीं देती, तब तक परिषद प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाएगी। लेकिन फिलहाल बड़ा सवाल यह है कि प्रेस परिषद अपने मौजूदा अधिकारों का ही इस्तेमाल नहीं कर पा रही हो, तो क्या कहा जाए?
प्रेस परिषद कानून-१९६५ के अनुसार परिषद के कार्य और उद्देश्यों में अखबारों की स्वतंत्रता कायम रखने में मदद करना तथा अखबारों-पत्रकारों के लिए आदर्श आचरण संहिता लागू करना प्रमुख रूप से शामिल है। देश में पिछले दो-तीन माह के प्रेस-जगत के घटनाक्रम के संदर्भ में अगर प्रेस परिषद की भूमिका का आकलन किया जाए, तो निराशा ही होती है।
फरवरी-मार्च में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए। कई अखबारों पर धन लेकर खबरें प्रकाशित करने (पेड न्यूज) के आरोप लगे। अखबारों की ओर से सरेआम खबरों के पैकेज निर्धारित किए गए। 'पेड न्यूज' के जरिए मतदाताओं को भ्रमित करने वाले विज्ञापन समाचारों की शक्ल में छपे। लोकतंत्र में प्रेस की भूमिका को शर्मसार करने वाली इन कारगुजारियों में कई पत्रकार भी शामिल थे। केन्द्रीय चुनाव आयोग ने तो 'पेड न्यूज' के लिए 167 उम्मीदवारों को नोटिस जारी किए। लेकिन प्रेस परिषद की ओर से न तो अखबारों और न ही पत्रकारों के खिलाफ कोई कार्रवाई सामने आई। यही नहीं गत लोकसभा चुनावों में 'पेड न्यूज' की शिकायतों की जांच के लिए प्रेस परिषद की ओर से गठित समिति की रिपोर्ट भी अब तक धूल फांक रही है। इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते से निकालने की कोई कोशिश नजर नहीं आई है। इसी तरह थल सेनाध्यक्ष की प्रधानमंत्री को लिखी गई गोपनीय चि_ी का प्रकाशन मीडिया की चौतरफा आलोचना का कारण बना था, लेकिन सनसनी फैलाने वाली खबरों का प्रकाशन करने वाले अखबारों के खिलाफ परिषद ने कुछ नहीं किया।
विभिन्न प्रदेशों में राज्य सरकारें अपने खिलाफ लिखने वाले समाचार पत्रों की आवाज को किस तरह दबाती हैं, यह किसी से छुपा नहीं है। तमिलनाडु में मनमाने तरीके से पत्रकारों के अधिस्वीकरण रद्द कर दिए जाते हैं, तो छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार अखबारों के विज्ञापन बंद कर देती है। ये हाल ही के उदाहरण हैं। पत्रिका का मामला सामने है। भ्रष्टाचार और अवैध खनन ने राज्य को खोखला कर दिया। अखबार ने जब सरकार  में उच्च स्तर पर लिप्तता को तथ्यों के साथ उजागर किया, तो भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए प्रतिबद्धता का दावा करने वाली सरकार ने अखबार के विज्ञापन ही बंद करके उसकी आवाज दबाने की कोशिश की। किस कानून के तहत राज्य सरकार ने यह दमनकारी रवैया अपनाया — कोई उससे पूछने वाला नहीं है। प्रेस परिषद भी नहीं। क्या छत्तीसगढ़ में सरकार का यह रवैया अखबार की स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर कुठाराघात नहीं है?
राज्य सरकारें प्रेस के प्रति जहां सहिष्णुता खोती जा रही हैं, वहीं सम्पूर्ण मीडिया के प्रति तानाशाही तरीके अख्तियार कर रही है। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सरकारी पुस्तकालयों में पाठकों की मांग के अनुरूप अखबार खरीदने पर ही रोक लगा दी। अब इन पुस्तकालयों के लिए कुछ चुनींदा अखबार तय कर दिए गए हैं। पाठक चाहकर भी इन पुस्तकालयों में अपना पसंदीदा अखबार नहीं पढ़ सकता। क्या ऐसे मामलों में प्रेस परिषद की कोई भूमिका नहीं बनती है?
पत्रकारों का उत्पीडऩ और उन पर जानलेवा हमले निश्चित ही कानून व्यवस्था का मसला है, लेकिन प्रेस परिषद इन मामलों में प्रभावी हस्तक्षेप से बच नहीं सकती। देश के उत्तरी पूर्वी राज्यों, खासकर मणिपुर में पत्रकारों को किस तरह बंदूक के खौफ के साये में काम करना पड़ रहा है; इसका बयान कुछ समय पूर्व वहां के एक पत्रकार ने दिल्ली में किया था। इम्फाल फ्री प्रेस के प्रदीप फैंजोबम का 'द हिन्दू' ने साक्षात्कार प्रकाशित किया, जिसमें प्रदीप ने मणिपुर सहित उत्तर पूर्वी राज्यों में पत्रकारों के सामने पेश आ रहे कठिन हालात का ब्यौरा पेश किया था। यह उल्लेखनीय बात है कि उग्रवादी हमलों में वहां कई पत्रकार अपनी जान गंवा चुके हैं। वहां अखबारों की आवाज को खौफ और आतंक से दबाने की कोशिशें की जा रही हैं। क्या इन हालात में प्रेस परिषद की कोई भूमिका नहीं बनती है? क्या उसे खामोश रहना चाहिए? एक दुखद घटनाक्रम है, पिछले दिनों मध्य प्रदेश में खनन माफिया की पोल खोलने की कोशिशों में पत्रकार चन्द्रिका राय को जो कीमत चुकानी पड़ी, वह भयावह थी। रॉय को पूरे परिवार सहित खत्म कर दिया गया।
कह सकते हैं ये मामले कानून-व्यवस्था से जुड़े हैं और इनका प्रेस की स्वतंत्रता और नियमन से कोई सीधा वास्ता नहीं। लेकिन गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे, तो ये मामले प्रेस की आजादी से जुड़े हुए हैं। किसी भी तरह के भय व दमन तथा सरकारी पक्षपात व प्रलोभन के माहौल में स्वतंत्र प्रेस सांस नहीं ले सकती। स्वतंत्रता के बिना प्रेस पर किसी तरह के नियमन की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। भारतीय प्रेस परिषद इन मामलों में अपनी कोई भूमिका नहीं निभा पा रही थी, इसीलिए मीडिया जगत में उसे एक निष्प्रभावी संस्था के तौर पर देखा जाता रहा है। अलबत्ता न्यायमूर्ति काटजू ने उम्मीद जगाई थी कि परिषद लीक से हटकर अब कुछ कर पाएगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। यह निराशाजनक है। भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जे.एस. वर्मा के अनुसार प्रेस परिषद एक निष्प्रभावी संस्था है, जिसे बंद कर दिया जाना चाहिए। प्रेस परिषद के बारे में कई मीडिया विशेषज्ञ और जानकार भी यही राय व्यक्त कर चुके हैं। अगर भारतीय प्रेस परिषद अपनी भूमिका का सही तौर पर निर्वाह करे तो शायद ऐसी टिप्पणियों की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्योंकि मेरी राय में प्रेस परिषद का औचित्य और उपयोगिता है। प्रेस परिषद अधिकार-सम्पन्न तो हो ही, साथ ही प्राप्त अधिकारों का प्रेस के व्यापक हित में इस्तेमाल करने की इच्छाशक्ति से भी सम्पन्न हो।

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तानाशाहों जैसा अंकुश!

सरकारें सहिष्णुता खो चुकी हैं। कहीं अखबार के सभी सदस्यों पर विधानसभा में प्रवेश पर रोक लगा दी जाती है, कहीं पत्रकारों का अधिस्वीकरण रद्द कर दिया जाता है। विज्ञापन बन्द करना तो रोजमर्रा का शगल हो गया है। दमन का ऐसा स्वरूप पहले नहीं देखा। राजनेताओं की ऐसी पूरी जमात दब्बू और भीरू है, आलोचना का सामना नहीं कर सकती।

सत्यजित राय की मशहूर फिल्म 'सोनार किला' की कहानी मुकुल धर नामक एक पात्र के इर्द-गिर्द घूमती है। इसी मुकुल को प्रतीक बनाकर रचा गया एक कार्टून-चित्र बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को नागवार गुजरा। इतना कि रसायन शास्त्र के एक प्रोफेसर सहित दो जनों को रात भर जेल की हवा खानी पड़ी। प्रोफेसर को ममता के उग्र समर्थकों से पिटना पड़ा, सो अलग। पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी, वर्तमान रेल मंत्री मुकुल रॉय और ममता बनर्जी को लक्षित करके यह कार्टून बनाया गया था। इस कार्टून के राजनीतिक आशय से सभी वाकिफ हैं और 'सोनार किला' के कथा-संदर्भ से भी। मुकुल के साथ ही सत्यजित राय ने फेलुदा, डा. हाजरा, जटायू, बर्मन और बोस जैसे पात्रों की रचना की थी, जो आज भी बंगाली सिनेमा के दर्शकों में खासे लोकप्रिय हैं। इसलिए कार्टून असरकारी था। फिर भी यह इतनी चर्चा में नहीं आता जितना इसे ममता बनर्जी ने बना दिया। कार्टून को बनाने वाले और उसे ई-मेल के जरिए दूसरों तक पहुंचाने वाले दो प्रोफेसरों को गिरफ्तार करके उन्होंने बड़ी भूल की। मीडिया, राजनीतिक दलों, लेखकों, पत्रकारों व बुद्धिजीवियों सहित अनेक लोगों ने इसे अभिव्यक्ति पर सीधे-सीधे ममता बनर्जी सरकार का हमला करार दिया। प्रिन्ट, इलेक्ट्रानिक व सोशल मीडिया में यह एक बड़ा मुद्दा बन गया। आज ममता बनर्जी को स्वतंत्र अभिव्यक्ति और मीडिया के विरोधी के तौर पर देखा जा रहा है। हाल ही में उनके कुछ निर्णय और बयानों को देखें तो इसकी पुष्टि भी होती है।
आजाद और लोकतांत्रिक भारत में शायद ही किसी सरकार ने राज्य के सभी सरकारी पुस्तकालयों के लिए किसी अखबार पर रोक लगाई होगी। जो किसी ने नहीं किया वह पिछले दिनों ममता बनर्जी की सरकार ने प. बंगाल में किया। सरकार ने फरमान जारी किया कि पुस्तकालय केवल वे ८ अखबार ही खरीदेंगे जिनकी राज्य सरकार ने मंजूरी दी है। बाद में इस सूची में ५ अखबार और जोड़े गए। आश्चर्यजनक रूप से हिन्दी का केवल एक अखबार शामिल किया गया, जबकि कोलकाता में हिन्दी के कई अखबार जनता में लोकप्रिय हैं। जाहिर है, सरकार ने एक-दो को छोड़कर अधिकांश चहेते अखबारों को ही मंजूरी दी जो उसका गुणगान करते रहते हैं। सरकार की आलोचना करने वाले अखबारों को पास में फटकने तक नहीं दिया। इस बात की पुष्टि कुछ दिनों बाद इनमें से कुछ अखबार के मालिक-सम्पादकों को राज्य सभा की सदस्यता से उपकृत करके सरकार ने स्वत: ही कर दी। राज्य सरकारों का यह रवैया घोर आपत्तिजनक है। तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ में सरकारों का रवैया पत्रिका के प्रति सर्व विदित है। पत्रिका पाठकों की आवाज मुखरित करता है जो कई सरकारों को रास नहीं आ रहा।
सवाल है, अखबार सरकार के लिए निकलते हैं या पाठकों और आम जनता के लिए। सरकारें सहिष्णुता खो चुकी हैं। कहीं अखबार के सभी सदस्यों पर विधानसभा में प्रवेश पर रोक लगा दी जाती है, कहीं पत्रकारों का अधिस्वीकरण रद्द कर दिया जाता है। विज्ञापन बन्द करना तो रोजमर्रा का शगल हो गया है। दमन का ऐसा स्वरूप मीडिया के अधुनातन साधनों के विकास के इस दौर में संभव है, यह सोचना बड़ा अजीब लगता है। लेकिन स्पष्ट है कि राजनेताओं की ऐसी पूरी जमात दब्बू और भीरू है, आलोचना का सामना नहीं कर सकती, जनता के प्रति अपनी जवाबदेही से कन्नी काटना चाहती है।
प्रो. अंबिकेश की गिरफ्तारी की जब चारों तरफ आलोचना होने लगी तो ममता बौखला गईं। इसके बाद लगातार वे गलतियां करती जा रही हैं। वे मीडिया पर बरस रही हैं और अजीबो-गरीब बयान दे रही हैं। उनके इस बयान से तो हर कोई चौंका। जब उन्होंने २४ परगना जिले में एक सभा को सम्बोधित करते हुए जनता को यह विचित्र सलाह दी कि वे न्यूज चैनल की बजाय मनोरंजन चैनल ही देखें। शुक्र है, ममता ने अखबारों को लेकर यह सलाह नहीं दी कि लोग अखबार पढऩा छोड़ दे। या फिर उनमें फीचर, कहानियां और मनोरंजक सामग्री ही पढ़ें, खबरों के पृष्ठ पढऩा छोड़ दें। यह तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तानाशाहों जैसा अंकुश है। आपातकाल का मीडिया विरोधी स्वरूप भी प. बंगाल के हालात के आगे बौना दिखने लगा। लगता है ममता की सरकार यशोगाथा के अतिरिक्त कुछ देखना-सुनना ही नहीं चाहती।
ममता ने अब एक नई घोषणा की है। प. बंगाल में सरकार अपना अखबार और न्यूज चैनल चलाएगी। जिस मंशा और उद्देश्य को लेकर यह घोषणा की गई वह सवाल खड़े करती है। पश्चिम बंगाल में भी अन्य राज्यों की तरह निजी क्षेत्र के कई प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर के अखबार व चैनल्स हैं जो बांगला सहित अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू आदि अनेक भाषाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। जनता का एक बड़ा वर्ग इनसे जुड़ा हुआ है। ऐसा नहीं है कि ये सरकार की उपलब्धियों को जनता के सामने नहीं लाते। उपलब्धियों के साथ ही वे सरकार की कमियां भी उजागर करते हैं। यही प. बंगाल सरकार को नागवार गुजर रहा है। उसका मानना है कि मीडिया जनता में उसकी नकारात्मक छवि पेश कर रहा है। सो सरकार की सकारात्मक छवि के लिए जनता पर सरकारी मीडिया का बोझा डाला जाएगा। आखिर इस 'सकारात्मक' छवि के क्या मायने है? क्या इसका मतलब यह है कि सामूहिक दुराचार से पीडि़त एक महिला की शिकायत को सरकार फर्जी बताकर रद्द कर दे और जब सरकार की ही एक महिला पुलिस अधिकारी दुराचारियों के विरुद्ध कार्रवाई करने की हिम्मत जुटा ले तो उसका तबादला कर दिया जाए? उस पर तुर्रा यह कि मीडिया इस समूचे प्रकरण से आंख मूंद ले ताकि सरकार की 'सकारात्मक' छवि बनी रहे? आजाद भारत के ये अपूर्व घटनाक्रम हैं।
एक मुख्यमंत्री के तौर पर ममता बनर्जी में सहनशीलता का सर्वथा अभाव है। अभी तो उन्हें इस पद पर एक साल भी पूरा नहीं हुआ है। पता नहीं पश्चिम बंगाल की जनता को एक तुनकमिजाज नेता के तुगलकी फरमानों को कब तक बर्दाश्त करना होगा। लेकिन जनता अपना दायित्व जानती-समझाती है, हिसाब भी वही करेगी।

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कठघरे में है मीडिया!

सेना से जुड़ी खबरों को लेकर मीडिया की आलोचना हो रही है। कई प्रेक्षकों का कहना है कि 'ब्रेकिंग न्यूज' और एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में मीडिया मर्यादाएं लांघ रहा है। मीडिया से अपेक्षा की गई कि वह अपनी सीमा में रहे। केवल मीडिया को कठघरे में खड़ा कर देना ठीक नहीं। हमें जितना प्यार देश से है, उतना अभिव्यक्ति की आजादी से भी है। ये दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं।


हाल ही सेना से जुड़े मामलों की खबरों को लेकर मीडिया कटघरे में है। पहले, प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को लिखी गई थलसेनाध्यक्ष वी.के. सिंह की गोपनीय चिट्ठी लीक हुई। उसके बाद सेना की दो इकाइयों की सरकार को बिना सूचित किए दिल्ली की ओर कूच करने की सनसनीखेज खबर सामने आई। यही नहीं, एक न्यूज चैनल ने यह खबर प्रसारित की कि अगर जंग हुई तो भारतीय सेना 10 दिन तक ही लड़ पाएगी, क्योंकि सेना के पास इतना गोला-बारूद ही बचा है।
इन खबरों को लेकर मीडिया की आलोचना हो रही है। कई प्रेक्षकों का कहना है कि 'ब्रेकिंग न्यूज' और एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में मीडिया मर्यादाएं लांघ रहा है। वह अपनी जिम्मेदारियों को भूल गया है। इधर, केन्द्र सरकार और सेनाध्यक्ष का भी मानना है कि मीडिया को ऐसी खबरें प्रकाशित नहीं करनी चाहिए जिससे सेना और सरकार के बीच गलतफहमियां बढ़ें। यह दूसरी बात है कि दोनों तरफ से ही कुछ बयानबाजी ऐसी हुईं जिससे आपसी गलतफहमियां बढ़ीं। परन्तु मीडिया से अपेक्षा की गई कि वह अपनी सीमा में रहे।
एक पाठक ने लिखा—प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ईमानदार राजनेताओं में गिने जाते हैं। वी.के. सिंह की छवि भी ईमानदार जनरल की रही है। लेकिन मीडिया की खबरों ने दुर्भाग्य से इन तीनों को कटघरे में खड़ा कर दिया। पाठक का तर्क  है कि ईमानदार व्यक्ति भ्रष्ट लोगों की आंखों में खटकता है। उसके इर्द-गिर्द भ्रष्ट लोगों का गिरोह सक्रिय हो जाता है। तीनों शख्सियतें इसी कुचक्र का शिकार हो रही है। इसमें मीडिया का इस्तेमाल किया जा रहा है। मीडिया जाने-अनजाने भ्रष्ट और स्वार्थी तत्वों के हाथों खेल रहा है।
प्रिय पाठकगण! इसमें दो राय नहीं ऊपर जिन खबरों का जिक्र किया गया उनमें मीडिया के एक हिस्से ने अभिव्यक्ति की आजादी का अतिरंजित प्रयोग किया। खबरों के प्रस्तुतीकरण में अपेक्षित संयम नहीं बरता गया। इसलिए मीडिया का यह रवैया गैर जिम्मेदाराना मानने में किसी को शायद आपत्ति न हो।
संवेदनशील मसलों की रिपोर्टिंग बहुत सोच-समझकर की जानी चाहिए। इसमें कुछ गलत नहीं। आपत्ति तब होती है, जब संवेदनशीलता के नाम पर सच्चाई पर परदा डालने की अपेक्षा की जाए। सच्चाई छुपाने से समस्या टल सकती है, खत्म नहीं हो सकती। हमारा लक्ष्य समस्याओं का खात्मा होना चाहिए न कि टालना। फिर स्पष्ट करूं कि संवेदनशील मसलों पर मीडिया पूरी जिम्मेदारी बरते। सच्चाई पर परदा डालने की उससे अपेक्षा न की जाए तो ही बेहतर है। संवेदनशील तथ्यों की गोपनीयता सुनिश्चित करने का वैधानिक उत्तरदायित्व शासन-तंत्र पर है। मीडिया पर यह थोपा नहीं जाना चाहिए। वरना मीडिया की स्वतंत्रता की सीमा-रेखा कब लांघ दी जाए, इसकी कोई भनक भी नहीं लगेगी। सरकार तो आजकल वैसे भी मीडिया के 'पर' कतरने पर तुली है। चाहे वह किसी दल की हो। सभी भ्रष्ट सत्ताधीशों और रसूखदारों की आंखों में मीडिया की आजादी खटक रही है। कहीं विशेषाधिकार के नाम पर, तो कहीं गोपनीयता और संवेदनशीलता के नाम पर। ऐसे वातावरण में मीडिया की जिम्मेदारी और बढ़ गई है।
मीडिया ने सेना को लेकर सनसनीखेज खबरें छापने में रुचि दिखाई, उतनी ही सीएजी की रिपोर्ट में दिखानी चाहिए जो सेना की रक्षा तैयारियों की खामियों को लेकर पिछले साल दिसम्बर में आई थी। अफसोस की बात यह है कि हमारे जनप्रतिनिधियों ने भी प्रधानमंत्री को लिखा पत्र लीक होने को तो देशद्रोह कृत्य बताया, लेकिन सीएजी की रिपोर्ट पर खामोश रहे। अगर वे सचमुच देश की सुरक्षा को लेकर चिन्तित हैं तो उन्हें इस रिपोर्ट पर रक्षा मंत्रालय समेत केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा करना चाहिए था। सीएजी की रिपोर्ट क्यों नहीं देश का मुद्दा बनी, क्यों मीडिया की रिपोर्ट मुद्दा बन गई, इस पर ठंडे दिमाग से विचार करने की जरूरत है।
इंडियन एक्सप्रेस में सेना की दो इकाइयों के कूच करने की खबर सनसनी तो पैदा करती है, लेकिन यह सवाल भी उठाती है कि क्यों सेना के एक रूटीन अभ्यास ने सत्ता के गलियारों में हड़कम्प मचा दी। क्या इसे सेनाध्यक्ष की संभावित बर्खास्तगी से जोड़कर देखा गया? क्या सरकार और सेना में विश्वास के रिश्ते इतने कमजोर हो गए? क्या दुनिया की सबसे ताकतवर सेनाओं में शुमार हमारी सेना और सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की सरकार के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है? इन सवालों को खारिज करना जितना आसान है, उतना ही कठिन है इनका सामना करना। सच्चाई से आंख चुराकर केन्द्र सरकार अपनी व्यवस्थागत खामियों और जवाबदेही से बच नहीं सकती। जरूरत है तो खामियों को दूर करने की न कि परदा डालने की। मीडिया को या फिर सेनाध्यक्ष को कटघरे में खड़ा करके यही कोशिश की जा रही है। यह सही है कि उम्र विवाद की टीस में सेनाध्यक्ष ने भी कुछ गलतियां की हैं। बेशक, उन्हें की गई14 करोड़ घूस की पेशकश पर परदा नहीं पडऩा चाहिए था। उस पर कार्रवाई होनी चाहिए थी। इसमें सेनाध्यक्ष और सरकार बराबर दोषी है। लेकिन सरकार खुद पाक साफ रहकर अकेले सेनाध्यक्ष को निशाना बना रही है। क्या सरकार और सेनाध्यक्ष के बीच खींचतान का नतीजा नहीं है कि मीडिया में कई गोपनीय तथ्य लीक किए जा रहे हैं?
केवल मीडिया को कटघरे में खड़ा कर देने से इन सवालों का जवाब नहीं मिल सकता। हमें जितना प्यार देश से है, उतना अभिव्यक्ति की आजादी से भी है। ये दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं। भारतीय मीडिया इतना गैर जिम्मेदाराना नहीं कि राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मसलों की अनदेखी कर दे। सेना की दो इकाइयों की दिल्ली कूच सम्बंधी खबर को गौर से पढ़ें तो साफ हो जाएगा कि यह सेना के विद्रोह की बजाय सरकार के भय पर केन्द्रित है। सवाल है, जिस दिन सेनाध्यक्ष ने अपनी उम्र विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई उस दौरान सरकार इतनी सशंकित क्यों थी कि सेना के रुटीन अभ्यास से घबरा गई। जबकि सेनाध्यक्ष तो अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का ही इस्तेमाल कर रहे थे। मीडिया भी यही कर रहा है।

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मीडिया संस्थान, पत्रकारों पर हमले

पत्रकारों से मारपीट, अपहरण से लेकर हत्याएं व मीडिया के दफ्तरों पर संगठित हमलों की पृष्ठभूमि का सबब यही है कि मीडिया की आवाज को दबाया जाए। वह आवाज जो सच्चाई सामने लाती है।

भारत के उ. पूर्वी राज्यों में मीडिया किन हालात से गुजर रहा है, इसकी एक झलक वहां के एक पत्रकार ने बयां की है। 50 वर्षीय प्रदीप फेंजौबम इम्फाल फ्री प्रेस के मालिक हैं और इसी अखबार के सम्पादक रहे हैं। हाल ही अंग्रेजी दैनिक 'द हिन्दू' में उनका इंटरव्यू प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने मणिपुर सहित उ. पूर्वी राज्यों में अखबार, टीवी चैनल्स और पत्रकारों के सामने आ रही कठिनाइयों का जिक्र किया।
प्रदीप के अनुसार क्षेत्र के पत्रकार हर समय भयपूर्ण माहौल में काम करते हैं। यहां सत्तारूढ़ दल हो, या विरोधी दल- सभी यही चाहते हैं कि उनकी भेजी हुई विज्ञप्ति अखबार में ज्यों की त्यों छपे। अगर कोई पत्रकार विज्ञप्ति से विपरीत तथ्य उजागर करता है और सच्चाई लिखता है तो उसकी खैर नहीं। या तो पत्रकार की पिटाई की जाती है या उसका अपहरण कर लिया जाता है। कई मामलों में तो पत्रकार की हत्या भी कर दी जाती है। प्रदीप के अनुसार मणिपुर में पिछले वर्षों में विभिन्न अखबारों के छह सम्पादकों का अपहरण करके हत्या की जा चुकी है। उन्होंने बताया- 'हम (पत्रकार) जिन्दगी का जोखिम उठाकर कलम चलाते हैं। स्वयं मेरे अखबार का रिपोर्टर कोन्साम रिषिकान्त 2008 में एक उग्रवादी द्वारा मारा जा चुका है। आज मणिपुर के पत्रकारों के लिए बंदूक के खौफ के साये में कलम चलाना कोई नई बात नहीं रह गई है।'
प्रिय पाठकगण! मीडिया संस्थानों और पत्रकारों पर हमले लगातार हो रहे हैं। देश में शायद ही कोई राज्य होगा, जहां पत्रकारों पर हमले नहीं किए गए हों। अलबत्ता, मणिपुर सहित उत्तरी पूर्वी राज्यों के जो हालात यहां बयां किए गए हैं, वे और भी ज्यादा खराब हैं। मीडिया पर हमले कहीं पर भी हों, किसी भी कारण से हों, गंभीर चिन्ता का विषय होना चाहिए। इसी स्तंभ में पाठक कई बार मीडिया पर हमले की विभिन्न घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर चुके हैं। शायद ही किसी पाठक ने मीडिया पर हमलों की पैरवी की होगी। मीडिया वास्तविक हालात की तस्वीर जनता के सामने रखता है, जबकि ऊंचे पदों पर बैठे लोग और निहित स्वार्थी तत्व हमेशा सच्चाई को छुपाना चाहते हैं। सच्चाई उजागर होने पर जनता के सामने उनकी पोल खुल जाती है। लिहाजा वे पत्रकारों और मीडिया संस्थानों पर हमले करवाते हैं। अफसोस की बात है कि मीडिया की आवाज को खामोश करने की कोशिशों का अभी तक कोई माकूल उपाय नहीं किया जा सका है।
पिछले माह मध्य प्रदेश के एक पत्रकार चन्द्रिका रॉय की परिवार सहित हत्या कर दी गई। पत्नी सहित उनके दो मासूम बच्चों को भी मौत की नींद में सुला दिया गया। वास्तविक स्थिति का खुलासा होना अभी बाकी है। मध्य प्रदेश में प्रतिपक्ष के नेता अजय सिंह का आरोप है कि चन्द्रिका रॉय अवैध खनन माफिया की आंख की किरकिरी बने हुए थे।
पाठकों को यह याद होगा, इन्दौर में दो वर्ष पहले पत्रिका पर सुनियोजित हमले किए गए थे, जब अखबार ने भूमाफियाओं की पोल खोलनी शुरू की। हॉकरों-वितरकों से पत्रिका के बंडल छीनकर उनकी क्रूरतापूर्वक पिटाई की गई। पाठकों में  इसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई और लोकसभा में भी मामला गूंजा।
इसी माह की शुरुआत में बेंगलुरु में वकीलों के एक समूह ने पत्रकारों पर हमला बोल दिया। पत्रकार अदालत में कर्नाटक के पूर्व मंत्री जी.जनार्दन रेड्डी के खिलाफ अवैध खनन के मुकदमे की कवरेज करने गए थे। वकीलों का समूह इस बात को लेकर पत्रकारों से खफा था कि पिछले माह जब वे ऐसा ही उग्र प्रदर्शन कर रहे थे, तो मीडिया ने उनकी नेगेटिव कवरेज की। भंवरी अपहरण कांड की कवरेज कर रहे पत्रकारों पर जोधपुर में अभियुक्तों के रिश्तेदारों और समर्थकों ने हमला बोल दिया था।
मुम्बई के खोजी पत्रकार ज्योतिर्मय डे (जेडी) की हत्या को भी पाठक भूले नहीं होंगे, जो महाराष्ट्र के अंडर वल्र्ड सरगनाओं की सच्चाइयों को उजागर कर रहे थे। महाराष्ट्र में ही रेव पार्टी की कवरेज करने गए पत्रकारों पर समाजकंटकों का हमला सुर्खियां बना था। शिव सेना से जुड़े कार्यकर्ताओं द्वारा टीवी चैनलों और अखबार के दफ्तरों में तोड़-फोड़ की घटनाएं कई बार दोहराई जा चुकी हैं। कश्मीर, उड़ीसा, तमिलनाडू, बंगाल, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में भी पत्रकार राजनीतिक दलों, अपराध समूहों, उग्रवादी संगठनों, कट्टरपंथियों के हमलों का शिकार होते रहे हैं।
पत्रकारों से मारपीट, अपहरण से लेकर हत्याएं तथा मीडिया के दफ्तरों पर संगठित हमलों की पृष्ठभूमि का एकमात्र सबब यही है कि मीडिया की आवाज को दबाया जाए। लोकतंत्र में असहमति जताने का हक सभी को है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी। दोनों की अपनी-अपनी मर्यादाएं हैं। लेकिन मीडिया से असहमति या शिकायतें दर्ज करने के वैधानिक तरीकों को छोड़कर हिंसक करतूतों को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
मीडिया की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है, जिसकी रक्षा हर कीमत पर ही जानी चाहिए, लेकिन इस स्थिति का गंभीर पहलू यह है कि न तो राज्य सरकारें और न केन्द्र सरकार लोकतंत्र के चौथे पाये के महत्व और उपयोगिता को लेकर फिक्रमंद नजर आती हैं। सरकार चाहे किसी भी दल की हो। उल्टे मीडिया संस्थानों पर हमलों में कई बार उनकी कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष भूमिका स्पष्ट नजर आती है। यह इस समस्या का सर्वाधिक भयावह पक्ष है।

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