RSS

मीडिया में 'ट्राई' की सिफारिशें

चाहे किसी भी दल की सरकार हो, बातें तो सभी मीडिया की स्वतंत्रता की करती हैं लेकिन कोई भी सरकार मीडिया को पूरी तरह स्वतंत्रता देना चाहती नहीं। स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र का रक्षक तो हो सकता है लेकिन सरकार का रक्षक भी हो, यह जरूरी नहीं।

'ट्राई' (टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी आफ इंडिया) ने एक बार फिर भारतीय मीडिया को सरकारी दखल और बड़ी कंपनियों के बढ़ते एकाधिकार के खतरों से आगाह किया है। हालांकि 'ट्राई' ने पांच वर्ष पूर्व अपनी विस्तृत रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी लेकिन इतना समय बीत जाने के बाद भी सरकार ने कुछ नहीं किया। इस स्थिति पर चिन्ता जाहिर करते हुए 'ट्राई' ने हाल ही अपनी ताजा सिफारिशें सरकार को भेजी हैं। इन सिफारिशों में कहा गया है कि न केवल सरकार को मीडिया में हस्तक्षेप करने से दूर रहना चाहिए, बल्कि मीडिया में पूंजी के माध्यम से स्थापित किए जा रहे एकाधिकार व वर्चस्व के खतरों को रोकने का भी प्रयास करना चाहिए।
'ट्राई' ने और भी कई सिफारिशें की हैं जिनका सम्बन्ध इलेक्ट्रॉनिक ही नहीं, प्रिंट मीडिया से भी है। 'ट्राई' के पास प्रसारण नियमन का ही अधिकार है। शायद इसीलिए उसकी सिफारिशें और उन्हें जारी करने के अधिकार को लेकर प्रिंट मीडिया में कुछ लोगों ने एतराज जताया है। सवाल किया जा रहा है कि मीडिया-उद्योग ने आज जो स्वरूप धारण कर लिया है, वह बिना विशाल पूंजी के कैसे टिक पाएगा? सवाल अपनी जगह सही है। इसका समाधान मुश्किल मगर असंभव नहीं है। लेकिन इसकी आड़ में मीडिया से जुड़े बुनियादी मुद्दों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। 'ट्राई' की सिफारिशों को इसी दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। 'ट्राई' की बुनियादी दो सिफारिशों पर ही गौर करें तो उनमें आपत्ति की कोई बात नजर नहीं आती।
 मीडिया में सरकारी दखलंदाजी को लेकर देश में एक पाखंड साफ तौर पर देखा जा सकता है। चाहे किसी भी दल की सरकार हो, सभी बातें तो मीडिया की स्वतंत्रता की करती हैं लेकिन कोई भी सरकार मीडिया को पूरी तरह स्वतंत्रता देना चाहती नहीं। स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र का रक्षक तो हो सकता है लेकिन सरकार का रक्षक भी हो, यह जरूरी नहीं। सरकार के घपले घोटाले और शासन की विसंगतियों को लोगों के सामने लाना मीडिया का काम है। सरकार को यही रास नहीं आता और वह मीडिया को काबू में करने के प्रत्यक्ष व परोक्ष हथकंडे अपनाने लगती है। सरकार नियंत्रित या निर्देशित मीडिया कभी अपनी भूमिका को सही ढंग से नहीं निभा सकता। उसका पतन अवश्यंभावी है। ऐसे में अगर 'ट्राई' मीडिया को सरकार की दखलंदाजी से बचाने की सिफारिश करता है तो इसमें गलत क्या है।
 इसी तरह एकाधिकार भी किसी उद्योग के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। खासकर मुक्त अर्थव्यवस्था में तो यह एक गंभीर रोग से कम नहीं। भारतीय मीडिया में एकाधिकार की चर्चा ने पिछले दिनों तब जोर पकड़ा जब रिलायंस इंडस्ट्रीज ने नेटवर्क-१८ को खरीद लिया जिसके तहत कई न्यूज चैनल और वेब पोर्टल्स संचालित होते हैं। 'ट्राई' ने अपनी सिफारिशों में न केवल एकाधिकार को मीडिया उद्योग के लिए घातक बताया है बल्कि मीडिया में मालिकाना हक और नियंत्रण के अन्तर को भी स्पष्ट किया है। 'ट्राई' के अनुसार बिना बहुलांश हिस्सेदारी के भी मीडिया इकाइयों पर नियन्त्रण किया जा सकता है। नियंत्रण' को 'ट्राई' ने विस्तृत परिभाषित किया है। मीडिया के विकास में 'ट्राई' ने बड़ी कंपनियों के एकाधिकार और नियंत्रण दोनों को एक बुराई मानते हुए अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य एच.एच.आई. (हरफिंडाल हर्शमैन इंडेक्स) पद्धति की सिफारिश की है। साथ ही मीडिया में होल्डिंग और क्रॉस होल्डिंग की समीक्षा के लिए सुझााव दिया है कि ऐसे पूंजी निवेश की हर तीन साल में समीक्षा होनी चाहिए।  भारत में मीडिया में मालिकाना हक को लेकर 'क्रास मीडिया ऑनरशिप' पर कोई पाबंदी नहीं है। इससे काफी घालमेल हुआ है। मीडिया में क्रॉस ऑनरशिप के प्रचलित दोनों रूपों पर भारत में कोई प्रतिबंध नहीं है, जबकि अमरीका और कई यूरोपीय देशों में 'हारिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' प्रतिबंधित है।
जब एक मीडिया-कंपनी मीडिया से इतर दूसरे क्षेत्र में निवेश करे तो इसे 'हारिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' कहा जाता है। मीडिया में कई ऐसी कंपनियां या घराने प्रवेश कर चुके हैं जो अपना कारोबार चमकाने के लिए मीडिया को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। मीडिया के नियम और मूल्यों से उनका कोई सरोकार नहीं। भारतीय मीडिया-उद्योग में यह प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ती जा रही है, जो मीडिया में कई बुराइयों को जन्म दे रही है। इसलिए अगर 'ट्राई' ने मीडिया में ऐसे पूंजी निवेश की निरन्तर समीक्षा की बात कही है और एच.एच.आई. पद्धति लागू करने की सिफारिश की है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। प्रिन्ट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया- राजनेताओं के स्वामित्व वाली अधिकतर मीडिया इकाइयों में खबरों को किस तरह राजनीतिक रंग दिया जाता है यह सर्वविदित है। शायद इसीलिए 'ट्राई' ने राजनीतिक संगठनों को भी मीडिया-उद्योग में निवेश और हस्तक्षेप से रोके जाने की सिफारिश
की है।
 'ट्राई' ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में मीडिया पर निगरानी के लिए एक स्वतंत्र प्राधिकरण का गठन करने की जो सिफारिश की है, उस पर विचार-विमर्श की जरूरत है। मीडिया के स्वतंत्र विकास के लिए मीडिया के भीतर ही नियामक संस्था होनी चाहिए- इसे लेकर मीडिया से जुड़े ज्यादातर पक्ष एकमत हैं। किसी बाहरी संस्था के माध्यम से मीडिया पर निगरानी की कोई भी नियामक संस्था सार्थक भूमिका निभा पाएगी, इसमें संदेह है। फिर भी 'ट्राई' की दोनों बुनियादी सिफारिशें निर्विवाद हैं जिन्हें मानने में सरकार और मीडिया-उद्योग को भी कोई परहेज नहीं होना चाहिए।

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • RSS

0 comments: