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सरकार का ट्विटर पर चहकना


आजकल ट्विटर पर अभिनेता से लेकर राजनेता तक सभी चहकते (ट्विट करते) हैं। शायद इसीलिए पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने पेट्रोल में कीमतों की कमी की घोषणा अपने ट्विटर अकाउंट पर की। यह पहला अवसर है, जब किसी महत्वपूर्ण निर्णय की जानकारी सरकार ने औपचारिक प्रेस-विज्ञप्ति या प्रेस कान्फे्रन्स की बजाय सोशल नेटवर्किंग के जरिए दी। वह भी पेट्रोल में कीमतों की कमी की तिथि से पूरे चौबीस घंटे पहले। मीडिया को यह खबर ट्विटर से मिली और आम जनता के लिए सार्वजनिक हुई। वैसे कह सकते हैं कि मंत्री ने जब पेट्रोल की कीमत घटाने की जानकारी अपने ट्विटर अकाउंट पर दी तभी यह सूचना सार्वजनिक हो गई थी, लेकिन भारत जैसे देश में ट्विटर पर या मंत्री को फोलो करने वाले लोगों की सीमित तादाद है। सही मायने में आम लोगों के हित की यह सूचना मीडिया के जरिए ही लोगों तक पहुंच पाई।
ऐसे में यह स्वाभाविक सवाल है कि सरकार को अपने महत्वपूर्ण निर्णयों की जानकारी 'ट्विटर', 'फेसबुक' आदि सोशल नेटवर्किंग माध्यमों से देनी चाहिए या मीडिया के मार्फत आम जन तक पहुंचानी चाहिए? प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने अपने मंत्रियों और अफसरों को सोशल मीडिया से जुड़ने के निर्देश दिए थे। स्वयं प्रधानमंत्री भी ट्विटर के जरिए लोगों तक संदेश पहुंचाते हैं। जनता के वोटों से चुनी हुई सरकार जनता से सतत संवाद के लिए इन माध्यमों का उपयोग करे तो शायद किसी को भी एतराज नहीं होगा। अनेक राजनेता 'ट्विटर', 'फेसबुक' आदि माध्यमों पर मौजूद हैं और समय-समय पर अपने प्रशंसकों-मित्रों-शुभचिन्तकों आदि से संवाद करते हैं। विभिन्न मुद्दों पर उनकी राय, सम्मति, प्रतिक्रियाएं मीडिया में सुर्खियां भी बनती हैं। लेकिन सरकार का कोई महत्वपूर्ण निर्णय, वह भी ऐसा जो सीधे जनता से जुड़ा हो- अगर उसे मंत्रीजी अपने 'ट्विटर' अकाउंट पर डालकर इतिश्री कर ले तो इसे क्या कहना चाहिए। सरकार के महत्वपूर्ण व नीतिगत निर्णयों की सूचनाओं-घोषणाओं के लिए सोशल नेटवर्किंग पर निर्भरता सही नहीं मानी जा सकती। बल्कि कई विश्लेषकों की राय में तो यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है। भाजपा के पूर्व नेता गोविन्दाचार्य तो इसे पब्लिक रिकार्ड एक्ट का उल्लंघन मानते हैं और अदालत में जनहित याचिका दायर कर चुके हैं। अगर समय रहते सोशल मीडिया-प्रेमी सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया तो उसके नतीजे भी भुगतने पड़ सकते हैं।
सोशल मीडिया के दुरुपयोग और उसके दुष्परिणाम के विश्व में सैकड़ों उदाहरण हैं। इसमें जितना खुलापन है, उतनी अराजकता भी। किसी भी तरह के नियन्त्रण और नियमन से मुक्त यह माध्यम कई बार सरकारों की फांस बन चुका है। इसका मतलब यह भी नहीं कि सोशल मीडिया की सकारात्मक भूमिका नगण्य है। लेकिन यह एक दुधारी तलवार है। मौजूदा केन्द्र सरकार सोशल मीडिया की शक्ति और कमजोरियों से नावाकिफ होगी, यह सोचना नादानी होगी। सरकार में आने से पहले भाजपा के कई नेता सोशल नेटवर्किंग पर सक्रिय रहे हैं। नरेन्द्र मोदी तो काफी पहले ही सोशल नेटवर्क पर लोकप्रिय राजनेता का खिताब हासिल कर चुके थे। ऐसे में मौजूदा केन्द्र सरकार की सोशल मीडिया पर निर्भरता को सहज ही समझाा जा सकता है। दरअसल, सोशल मीडिया और मुख्य मीडिया के मूलभूत स्वरूप और उनमें परस्पर भिन्नता है।
सोशल मीडिया एक निरपेक्ष माध्यम है। इसमें आप इकतरफा संवाद लम्बे समय तक कायम रख सकते हैं। आप जानते हैं लोग आपके 'फॉलोवर' या दूसरे शब्दों में आपके 'समर्थक' होते हैं। वे आपके शब्दों की प्रतीक्षा करते हैं और जब आप उन्हें व्यक्त कर देते हैं तो वे आपकी तारीफ करते हैं। कई तो प्रशंसा के पुल बांध देते हैं। कुछ आलोचक भी होते हैं, लेकिन दिखावे के। वास्तविक आलोचक या विश्लेषकों को कोई पसंद नहीं करता और उन्हें आमतौर पर प्रतिबंधित (ब्लॉक) कर दिया जाता है। अव्वल तो कोई असुविधाजनक सवाल आपसे करता ही नहीं। किसी ने कर भी दिया तो आप उसकी आसानी से अनदेखी कर सकते हैं। 'ट्विटर' में तो वैसे भी १४० अक्षरों की सीमा बंधी है। यानी एक सुविधाजनक परिस्थिति आपको सोशल मीडिया पर उपलब्ध है। इसका सबसे ज्यादा फायदा राजनेता उठा रहे हैं। प्रचार का प्रचार और जवाबदेही नगण्य। सरकार में बैठे नेता के लिए तो यह और भी मुफीद है। मंत्री का सोशल मीडिया के जरिए लोगों से संवाद बुरी चीज नहीं है, लेकिन इसे राजनीतिक सुविधा का माध्यम बना देना अनुचित है।
यह सुविधा मुख्य मीडिया में सहज उपलब्ध नहीं है। हालांकि मीडिया के जो मौजूदा हालात हैं उनमें राजनेता, राजनीतिक दल और सरकार ही नहीं, पहुंचवाला कोई भी व्यक्ति मीडिया से अनुकूल सुविधाएं हासिल कर लेता है। लेकिन मुख्यधारा का मीडिया अपने स्वरूप में ही सोशल मीडिया से इतना भिन्न है कि वह कहीं न कहीं या किसी न किसी स्तर पर आपको जवाबदेही के लिए मजबूर कर सकता है।
मीडिया की इसी शक्ति ने उसे अनेक विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कायम रखा है। मीडिया 'ट्विटर' की तरह निरपेक्ष नहीं है। न ही वह 'फेसबुक' की तरह किसी एक कंपनी या व्यक्ति द्वारा संचालित है। सोशल मीडिया में कुछ नियम और विधियां तय हैं जो निरपेक्ष भाव से स्वत: काम करती रहती है। उसका यह तंत्र अच्छे और बुरे की पहचान नहीं कर सकता। इसके विपरीत मीडिया एक जीवन्त माध्यम है। उसके संचालक ही नहीं, उसमें कार्यरत मीडियाकर्मी भी हर क्षण चौकन्ने रहते हैं। उनमें परस्पर कड़ी प्रतिस्पद्र्र्धा है। वह अलग-अलग रूपों और नामों में मौजूद है। कहीं वह प्रिंट मीडिया है तो कहीं वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। प्रिंट में भी दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक कई स्तर हैं तो इलेक्ट्रॉनिक में भी दृश्य और श्रव्य दोनों माध्यम हैं। न्यूज चैनलों की पूरी शृंखला है। ऐसे में लोगों के प्रति जवाबदेही से बचना मुश्किल है, खासकर किसी सरकारी प्रतिनिधि का। यही बंदिश शायद सरकार को रास नहीं आ रही है और उसने एक सुविधाजनक रास्ता अख्तियार कर लिया है। लेकिन अगर सरकार ने यही राह अपनाने का फैसला कर लिया है तो माना जाएगा कि वह मुख्यधारा के मीडिया की तो अनदेखी कर ही रही है, बल्कि जनता के प्रति जवाबदेही का भी अनादर कर रही है।

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