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कहां खो गया जनता का प्रहरी?

आज तो मीडिया पर ही निगरानी की ज्यादा जरूरत है। जन को छोड़कर वह तंत्र के हितों को साधने में मशगूल है।
क्या गणतंत्र के प्रहरी के रूप में मीडिया का सामथ्र्य चुक गया? या फिर खुद मीडिया ने अपनी हालत इतनी दयनीय बना ली कि प्रहरी तो दूर वह एक कमजोर चौकीदार की भूमिका भी नहीं निभा पा रहा? उस पर जनता ने लोकतंत्र के तीनों पायों की निगरानी का दायित्व सौंपा था। लेकिन वह खुद चौथा पाया बनकर भ्रष्टतंत्र में शामिल हो गया। आज तो मीडिया पर ही निगरानी की ज्यादा जरूरत है। जन को छोड़कर वह तंत्र के हितों को साधने में मशगूल है। उसके अपने हित सर्वोपरि हैं। इसलिए उसकी आवाज में न ताकत है और न लोगों का उसमें भरोसा। वह जनता से दूर चला गया। सिर्फ कारोबार बन कर रह गया।
मीडिया आज मुख्यत: दो तरह के कारोबारियों के हाथ में है। एक वे जो रियल एस्टेट, चिटफंड, खनन, ऊर्जा जैसे गैर-मीडिया कारोबारी हैं। दूसरे वे जो मीडिया कारोबारी होते हुए भी धीरे-धीरे दूसरे व्यवसाय शुरू कर देते हैं। कुछ अरसे बाद दूसरा व्यवसाय प्रमुख बन जाता है। मीडिया तो सिर्फ उसे चमकाने के काम आता है। जैसे 'पॉवर' प्राप्त करने के लिए कुछ मीडिया कंपनियां पॉवर क्षेत्र में प्रवेश कर गईं तो कुछ पॉवर कंपनियां मीडिया में घुस आईं। दोनों ही सूरत में इस्तेमाल मीडिया का किया जा रहा है। भारत में क्रॉस मीडिया ऑनरशिप पर कोई पाबंदी नहीं है। इसलिए मीडिया में गैर-मीडिया और गैर-मीडिया क्षेत्र में मीडिया का प्रवेश निर्बाध जारी है।
मनोरंजन...
मीडिया की ओर से ऐसा सुनने पर बहुत निराशा होती है। हमारा सबसे पहला काम खबर देना है और वह भी संतुलित खबर। मीडिया स्वयं को लोकतंत्र का चौथा पाया मानता है, तो उसे पूरी तरह से इस भूमिका को निभाना चाहिए और ऐसा भारतीय मीडिया ने किया भी है। आज आम आदमी की जुबान पर जो बड़े-बड़े घोटालों के नाम हैं, वे मीडिया की वजह से ही उजागर हुए हैं। जिन घोटालों या भ्रष्टाचार की शिकायत आज आम आदमी करता है, उसके पीछे मीडिया का बड़ा रोल है। लेकिन यह सही है कि मौजूदा दौर में मीडिया की चौथे पाये की भूमिका में कमी आई है, उसमें सुधार होना चाहिए। भारत ही नहीं, दुनियाभर में मीडिया आज अहम किरदार है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस देश में भी तानाशाही होती है, वहां की सरकार सबसे पहले प्रेस को बंद करती है। किसी भी लोकतंत्र को बचाए रखने के स्वतंत्र और मजबूत प्रेस का होना बहुत जरूरी है।
कमजोर...
मालिक या कम्पनी प्रबंधन की सोच तो अखबार या चैनल में मुनाफा कमाना ही रहेगी। पाठक या दर्शक को अगर उपभोक्ता की तरह देखा जाए, तो फिर नागरिकों के सशक्तीकरण और उनमें जागरूकता की बात बेमानी है।
दिखने लगा सरकार का दबाव : पांच-छह साल से पूरे विश्व में आर्थिक संकट का दौर चल रहा है। हमारे देश की अर्थव्यवस्था भी खराब हुई है। जीडीपी वृद्धि की गति कम हो गई है, इससे बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों ने विज्ञापनों पर खर्च करना कम कर दिया है। इसका मीडिया कम्पनियों पर भी असर पड़ा है। पिछले पांच-दस साल से इंटरनेट की पहुंच लोगों तक बहुत बढ़ गई है। वह मुफ्त में सूचनाएं, खबरें दे रहा है, हालांकि इसकी विश्वसनीयता पर सवाल जरूर है। आर्थिक संकट के चलते अखबारों और चैनलों में निजी संस्थाओं के विज्ञापन कम हो रहे हैं और मीडिया कम्पनियां विज्ञापन के लिए सरकार पर ज्यादा निर्भर हो गई हैं। ऐसे में सरकार विज्ञापन देगी, तो यह भी चाहेगी कि मीडिया उसके खिलाफ न जाए। यह दबाव भी मीडिया पर काम कर रहा है। इसी के चलते विश्वसनीयता खत्म हुई है।
पेड न्यूज के जरिए धोखा : इस दौर में पेड न्यूज ने पाठकों के साथ बड़ा छल किया है। विज्ञापन  को खबरों की तरह पेश किया जा रहा है। लेकिन हमारे देश का पाठक या दर्शक बेवकूफ नहीं है। वह समझाता  है कि कौन पाठकों या दर्शकों से धोखा कर रहा है। खबरों को लेकर विश्वसनीयता खत्म होगी, तो नुकसान मीडिया का ही होगा। बिजनेस मॉडल के चलते अगर सब कुछ विज्ञापन पर ही निर्भर रहेगा, तो आगे चलकर संकट पैदा हो जाएगा। मीडिया पर लगने वाले आरोपों में कुछ सच्चाई तो है। मीडिया को आत्म चिंतन करना चाहिए। जन-सरोकारों को निभाना चाहिए। जिस चौथे खम्भे का दर्जा मीडिया को मिला हुआ है, उसके हिसाब से कितना काम वह कर रहा है , आज यह सबके सामने हैं। हालांकि मीडिया का एक हिस्सा हमेशा  ऐसा रहा है, जो अपनी जिम्मेदारी निभाता रहा है, लेकिन ज्यादातर लोग ऐसा नहीं कर रहे । भारतवर्ष ही अकेला ऐसा देश है, जो खुद को लोकतंत्र कहता है, लेकिन रेडियो पर खबरें सरकार की ही आती हैं।
कहां...
क्रॉस मीडिया ऑनरशिप के दो रूप प्रचलित हैं। पहला, जब एक मीडिया- कंपनी मीडिया-क्षेत्र यानी टीवी, अखबार, रेडियो आदि में ही निवेश करे तो यह 'वर्टिकल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' है। दूसरा, जब एक मीडिया-कंपनी मीडिया से बाहर के क्षेत्र में निवेश करे तो यह 'हारिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' है। अमरीका तथा ज्यादातर यूरोपीय देशों में हॉरिजेन्टल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप पर पाबन्दी है। भारत में ऐसी कोई रोक नहीं होने से मीडिया में घालमेल का कारोबार पनप गया। मीडिया को भ्रष्ट करने में इसकी बड़ी भूमिका है। इसके सूत्र देश के दो सबसे बड़े 2जी स्पैक्ट्रम और कोयला ब्लॉक आवंटन घोटालों में आसानी से देखे जा सकते हैं। 2जी स्पैक्ट्रम के लिए गैर मीडिया कंपनियों ने किस तरह लॉबिंग की और किस तरह लॉबिस्ट नीरा राडिया की मार्फत भ्रष्ट नेताओं, उद्योगपतियों और नामी-गिरामी पत्रकारों में सांठगांठ हुई, यह सबके सामने है। ये तो कुछ टेपों के ही खुलासे थे। अगर 5800 टेपों के राज खुल गए तो पता नहीं किस किसकी पोल खुलेगी। कोयला ब्लॉक्स घोटाले में कुछ मीडिया कंपनियों की भागीदारी सीधे तौर पर सामने आई। कुछ परोक्ष तौर पर जिम्मेदार रहीं। नवीन जिन्दल-जी न्यूज प्रकरण इसका उदाहरण है। देश में जब इतने बड़े घपले-घोटाले हों तो मीडिया की जिम्मेदारी थी कि वह इन्हें उजागर करता। लेकिन खुद मीडिया के हित जुड़े हों तो कौन यह काम करता। देश के बड़े घोटाले कैग, सीवीसी जैसी संस्थाएं सामने लेकर आईं।
मीडिया को एक और प्रवृत्ति ने ठेस पहुंचाई। यह है राजनेताओं का मीडिया कारोबार में प्रवेश। आज कई प्रान्तीय अखबार और न्यूज चैनलों पर राजनेताओं का मालिकाना हक है। मीडिया के जरिए गैर-मीडिया कारोबारों की तरह राजनीति को भी चमकाया जा रहा है। जैसे महाराष्ट्र में 'लोकमत', छत्तीसगढ़ में 'हरिभूमि', झारखंड में 'प्रभात खबर' जैसे अखबारों के खनन अथवा बिजली उत्पादन के गैर-मीडिया कारोबार हैं। कई राज्यों से प्रकाशित 'दैनिक भास्कर' के बिजली उत्पादन, खनन, रियल एस्टेट, खाद्य तेल रिफाइनिंग, कपड़ा उद्योग आदि कई गैर-मीडिया कारोबार हैं। इसी तरह राजनेताओं ने भी मीडिया को गैर-मीडिया कारोबार में तब्दील कर दिया। कहने को उनके न्यूज चैनल या अखबार जनता के लिए है, लेकिन असल हित राजनीति के साधे जाते हैं। दक्षिण भारत में यह प्रवृत्ति पहले से थी, अब पूरे देश में फैल गई है। हरियाणा में पूर्व केन्द्रीय मंत्री विनोद शर्मा का 'इंडिया न्यूज चैनल', सांसद के.डी. सिंह का 'तहलका एवन', राज्य के पूर्व गृहमंत्री और गीतिका कांड के आरोपी गोपाल कांडा का 'हरियाणा न्यूज' चैनल व 'आज समाज' अखबार, नवीन जिन्दल का 'फोकस टीवी' है। पंजाब में अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल का 'पीटीसी न्यूज'  चैनल, प.बंगाल में माकपा के अवीक दत्ता का 'आकाश बांग्ला' व '२४ घंटा' टीवी चैनल है। आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी का 'साक्षी टीवी', के.चन्द्रशेखर राव का टी.न्यूज, तमिलनाडु में जयललिता का 'जया टीवी', कलानिधि मारन का 'सन टीवी', कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी की पत्नी अनिता कुमार स्वामी का 'कस्तूरी टीवी', कांग्रेस के राजीव शुक्ला का 'न्यूज 24' है जो जनता के साथ-साथ राजनीति की सेवा भी कर रहे हैं।
पेड न्यूज का रोग भी मीडिया को खोखला कर रहा है। इसका सबसे पहले खुलासा 'वाल स्ट्रीट जनरल' के नई दिल्ली ब्यूरो चीफ पाल बैकेट के एक लेख में किया गया था। शीर्षक था-'प्रेस कवरेज चाहिए, मुझो पैसे दो।' इसमें चंडीगढ के एक निर्दलीय उम्मीदवार की व्यथा बयान की गई थी। 2009के आम चुनावों में पेड न्यूज एक महारोग के रूप में उभरा। प्रेस परिषद की समिति की रिपोर्ट में बड़े-बड़े अखबार और मीडिया घरानों (पत्रिका शामिल नहीं) के नाम सामने आए। कहने की जरूरत नहीं पेड न्यूज ने मीडिया की नैतिक शक्ति को कुंद कर डाला। देश के सारे मीडिया घराने और पत्रकार इन बुराइयों में डूबे हैं-यह सच नहीं है। अभी कुछ बचे हुए हैं। लेकिन इनकी तादाद इतनी कम है कि वे अकेले मीडिया की गिरती हुई साख को नहीं बचा सकते। अलबत्ता, इस कलुषित माहौल में वे अपने आपको साफ-सफ्फाक रखे हुए हैं यही कम बात नहीं है। वे बचे भी हैं और अपना काम भी बखूबी कर रहे हैं। इससे साबित है कि बिना भ्रष्ट हुए भी मीडिया जीवित रह सकता है।

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1 comments:

dr.mahendrag said...

मीडिया के बजाय आप कारोबारी को ढूंढे तो अच्छा रहेगा.अब वहबातें कहाँ .दिन बी दिन नए अखबार, नए नए न्यूज़ चैनल,पर उनका सोच क्या है? केवल जनता को गुमराह करना और अपना उल्लू सीधा करना. पत्रकारिता के मापदंडों को तो कुछ ने ही बनाये रखा है बाकी सब बिका हुआ है,अस्तित्व में आने से पहले या आते ही बिक जाता है.
अच्छा चिंतन किया है आपने.आभार