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सोशल मीडिया : छवि बनाने का छल

कई विश्लेषक यह मानने लगे हैं कि आगामी आम चुनावों में प्रमुख राजनीतिक दलों और नेताओं की जीत-हार में सोशल मीडिया की मुख्य भूमिका होगी। युवाओं की एक बहुत बड़ी फौज है जो सोशल मीडिया से प्रभावित है। सोशल मीडिया एक दुधारी तलवार है। यह नकारात्मक व सकारात्मक दोनों लक्ष्य साधता है।
अपने पिछले स्तंभ (7 जनवरी) में मैंने भारत में सोशल मीडिया को लेकर किए गए एक अध्ययन का जिक्र किया था। इसमें लिखा था कि सोशल मीडिया को राजनीति के एक सशक्त औजार के रूप में देखा जाने लगा है। अध्ययन की रिपोर्ट इसी बात की पुष्टि करती है। इसके मुताबिक वर्ष 2014 के आम चुनावों में 543 में से 160 सीटों के नतीजों को सोशल मीडिया प्रभावित कर सकता है। हालांकि अध्ययन साल भर पहले किया गया था, लेकिन गत दिनों दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) को मिले जन समर्थन के बाद सबका ध्यान इस अध्ययन पर गया। कारण साफ था।
'आप' का उदय जिस आन्दोलन से हुआ वह सोशल मीडिया के जरिए ही उभरा था। 'आप' ने एक राजनीतिक दल के तौर पर सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया। 'आप' की सफलता ने दूसरे राजनीतिक दलों और नेताओं को भी सोशल मीडिया के प्रति अपने रवैये को बदलने के लिए मजबूर किया। आज तो हर कोई दल और राजनेता सोशल मीडिया की इस ताकत को स्वीकारता है और इसके राजनीतिक इस्तेमाल के लिए उत्सुक दिखाई पड़ता है। शायद इसीलिए कई विश्लेषक भी यह मानने लगे हैं कि आगामी आम चुनावों में प्रमुख राजनीतिक दलों और नेताओं की जीत-हार में सोशल मीडिया की मुख्य भूमिका होगी।
अगर सचमुच ऐसा है तो हमें सावधान रहने की जरूरत है। खासकर, इसलिए कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग करना बहुत आसान हो गया है। पिछले कुछ अरसे में सोशल मीडिया के दुरुपयोग के कई प्रामाणिक मामले सामने आ चुके हैं। बेंगलुरु से उत्तर-पूर्व के लोगों के घर-बार छोड़कर भागने की घटना हमने देखी है, जो इसी सोशल मीडिया पर फैलाई अफवाहों के कारण घटी। पिछले साल मुजफ्फरनगर में एक सामान्य झागड़े को व्यापक दंगों में तब्दील करने में भी सोशल मीडिया की भूमिका सामने आई। हाल ही भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े की अमरीका में निर्वस्त्र तलाशी का फर्जी वीडियो सोशल मीडिया के जरिए ही प्रचारित-प्रसारित किया गया था। ये उदाहरण सोशल मीडिया में सक्रिय किन्हीं शरारती तत्त्वों की कारस्तानी माने जा सकते हैं। लेकिन सोशल मीडिया के दुरुपयोग के कुछ ऐसे उदाहरण भी सामने आए हैं जो और भी गंभीर हैं। ये बाकायदा आई.टी. कंपनियों द्वारा सोशल मीडिया के दुरुपयोग से जुड़े हैं। राजनीति में इसका इस्तेमाल एक खतरनाक प्रवृत्ति का संकेत है।
कुछ समय पूर्व कोबरा पोस्ट ने 'ऑपरेशन ब्लू वायरस' नाम से अपने एक स्टिंग के जरिए देश में फैली ऐसी दर्जनों आई.टी. कंपनियों का पर्दाफाश किया था जो किसी भी नेता या राजनीतिक दल की छवि बनाने या बिगाडऩे में माहिर हैं। इसकी एवज में ये कंपनियां अपने 'ग्राहक' से भारी रकम वसूल करती हैं। ये कंपनियां सोशल मीडिया पर किसी एक दल के प्रचार-प्रसार और छवि निर्माण का कृत्रिम वातावरण तैयार करती हैं। किसी नेता की लोकप्रियता को भी गढ़ती हैं और उसकी महानता का इन्द्रजाल भी बुनती हैं।
इतना ही नहीं ग्राहक के लिए उसके प्रतिस्पर्धी या विरोधी का खेल बिगाडऩे का काम बड़े करीने से किया जाता है। प्रतिस्पर्धी नेता या दल को नकारात्मक प्रचार के जरिए ध्वस्त करने की तिकड़में आजमाई जाती हैं। इन कंपनियों द्वारा मोटा धन वसूल करके अपने ग्राहक के लिए दी जाने वाली सेवाओं के कुछ प्रस्ताव जो कोबरा पोस्ट के कैमरे में कैद किए गए उन्हें जानकर किसी को भी हैरत होगी। जैसे—फेस बुक पेज पर ग्राहक नेता या राजनीतिक दल के चहेतों का अम्बार लगा देना। यानी फेक खाते बनाकर उनके पेज 'लाइक्स' कराए जाते हैं। जरूरत पडऩे पर ये कंपनियां ग्राहक के लिए 'लाइक्स' खरीदती भी हैं। इसी तरह प्रतिस्पर्धी के खिलाफ भ्रामक और नकारात्मक प्रचार कराया जाता है ताकि विरोधी की छवि खराब की जा सके। ट्विटर पर फालो करने वालों की नकली सेना बनाने का काम भी प्रस्तावित सेवाओं में शामिल है। प्रचार के लिए वीडियो को वायरल बना कर यू-ट्यूब पर फैला देना भी इनकी सेवाओं में शामिल है। चोरी पकड़ में न आए इसके लिए कंपनियों ने तकनीकी रास्ते भी खोज निकाले हैं। ट्रेसिंग से बचने के लिए ऑफशोर आईपी और सर्वर का प्रयोग किया जाता है।
विरोधी की छवि खराब करने के लिए दूसरों के कम्प्यूटर हैक करने तथा अपनी लोकेशन हर घंटे बदलते रहने के लिए कम्प्यूटर पर प्रॉक्सी कोड का इस्तेमाल करने की जुगत की जाती है। कैमरे पर कुछ आई.टी. पेशेवरों के इंटरव्यू हैं जो पैसा लेकर ये सब काम करना न केवल कबूल करते हैं, बल्कि आगे के लिए भी अपनी सेवाएं देने को तत्पर हैं। हालांकि कोबरा पोस्ट के स्टिंग में जो कंपनियां पकड़ी गईं, वे आई.टी. क्षेत्र में कोई बड़ी या नामधारी कंपनियां नहीं मानी जाती, लेकिन इनके कारनामों का खुलासा तो होता ही है जो हमें सचेत करने के लिए काफी है। खासकर इस पृष्ठभूमि में कि सोशल मीडिया एक सशक्त राजनीतिक औजार है जिसका इस्तेमाल आगामी आम चुनावों के दौरान व्यापक स्तर पर किया जाएगा।
युवाओं की एक बहुत बड़ी फौज है जो सोशल मीडिया से प्रभावित है। सोशल मीडिया एक दुधारी तलवार है। यह नकारात्मक व सकारात्मक दोनों लक्ष्य साधता है। अगर लालची आई.टी. कंपनियां और सत्ता के लोभी नेता व दल आगामी आम चुनावों में सोशल मीडिया के जरिए अपना 'इन्द्रजाल' रचने में थोड़े कामयाब भी हो गए तो यह लोकतंत्र की बड़ी हार होगी। इन्हें कैसे रोका जा सकता है, कहना मुश्किल है। 'ट्राई' की नियमावली और सायबर कानून इनके समक्ष बौने नजर आते हैं। आई.टी. दिग्गज ही शायद कोई रास्ता निकाल सके। इसके लिए न केवल चुनाव आयोग बल्कि केन्द्र के स्तर पर भी खास उपायों की जरूरत पड़ेगी।
माफ करें...
ज्यादातर न्यूज चैनल उस रात राहुल गांधी पर चर्चा कर रहे थे। विशेषज्ञों का पैनल बहस में मशगूल था। दिन में हुई एआईसीसी की बैठक के दौरान राहुल के भाषण का सभी अपने-अपने ढंग से विश्लेषण कर रहे थे। राहुल के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की औपचारिक घोषणा न होने का चुनाव अभियान पर क्या असर पड़ेगा। इसी बीच सुनन्दा पुष्कर की मौत का 'फ्लेश' चमका। एंकरों ने चर्चा रोक कर घोषित किया— 'माफ करें, एक महत्त्वपूर्ण खबर आ रही है। हम फिर लौटेंगे, चर्चा जारी रहेगी।' लेकिन इसके बाद सभी चैनलों के कैमरे होटल लीला पर केन्द्रित हो गए। लाइव कवरेज की होड़ मच गई। चर्चा वाले एंकर फिर लौट कर नहीं आए।

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