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सोशल मीडिया व चुनाव-2014

कोई भी राजनीतिक दल सोशल मीडिया की अनदेखी करने की जोखिम नहीं उठा सकता। खासकर, तब जब देश में न केवल युवा बल्कि हर उम्र और वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों की सोशल मीडिया से जुडऩे की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।

आपको याद होगा। साल भर से ज्यादा पुरानी बात नहीं है। सोशल मीडिया को लेकर एक अध्ययन किया गया था। इसमें कहा गया कि 2014 के आम चुनावों में 543 लोकसभा सीटों में से 160 सीटों के नतीजों को सोशल मीडिया प्रभावित कर सकता है। सोशल मीडिया यानी फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, लिंकडिन, व्हाट्स अप आदि इंटरनेट पर उपलब्ध माध्यम देश के राजनीतिक भविष्य को तय करने का जरिया बन सकते हैं। भारत के संदर्भ में यह एक नई बात थी। इसलिए तब इसे इतनी गंभीरता से शायद ही किसी ने लिया। लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद हर कोई इस पर विचार करने को मजबूर है। आज तो सभी राजनीतिक दलों में एक बेचैनी-सी नजर आ रही है। वे अपनी रणनीति का नए सिरे से आकलन करने में जुटे हैं। विश्लेषक भी सोशल मीडिया की इस ताकत को तौल रहे हैं। साल भर के भीतर परिदृश्य बदल गया। 8 दिसंबर के बाद यह परिवर्तन मानो परवान चढ़ गया।
सवाल है, ऐसा क्या हुआ कि सोशल मीडिया को राजनीति के एक सशक्त औजार के रूप में देखा जाने लगा है। क्या सोशल मीडिया के जरिए राजनीति में धूमकेतु की तरह उभरे एक नए दल 'आप' की सफलता का यह परिणाम है या इससे अधिक कुछ और भी है?
यह अध्ययन आई.आर.आई.एस. नॉलेज फाउंडेशन और इंटरनेट एवं मोबाइल एसोसिएशन आफ इंडिया के संयुक्त तत्वावधान में किया गया था। लोकसभा की 160 सीटों के नतीजों को प्रभावित करने वाले निर्वाचन क्षेत्र वे हैं जहां कुल मतदाताओं की दस प्रतिशत आबादी सोशल मीडिया पर सक्रिय है। इसका मतलब यह है कि सोशल मीडिया उपभोक्ताओं की संख्या इन निर्वाचन क्षेत्रों में पिछले चुनाव में विजयी उम्मीदवार की जीत के अन्तर से अधिक है। ये आंकड़े करीब साल भर पुराने हैं। यानी फेसबुक और ट्विटर यूजर्स की संख्या में इस दौरान जो बढ़ोतरी हुई, वह अलग है। इस अध्ययन का दिल्ली चुनाव में एक हद तक परीक्षण हो चुका है। शायद इसीलिए आगामी आम चुनावों पर सबकी नजरें टिक गई हैं। अध्ययन में अलग-अलग राज्यों की सीटों की जो अलग-अलग संख्या बताई गई थीं उनमें दिल्ली अकेला प्रदेश था, जहां सभी 7 सीटें सोशल मीडिया के उच्च प्रभाव में मानी गई। अध्ययन में सोशल मीडिया के सीटों पर असर को चार श्रेणियों में बांटा गया था। ये थीं उच्च प्रभाव, मध्यम प्रभाव, कम प्रभाव तथा प्रभावहीन सीटें। इसमें महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, बिहार, जम्मू-कश्मीर, प. बंगाल, झारखंड आदि राज्यों की करीब 93 सीटों को उच्च प्रभाव की श्रेणी में रखा गया। 67 सीटों को मध्यम प्रभाव, 60 सीटों को कम प्रभाव तथा 256 सीटों को प्रभावहीन घोषित किया गया था। अध्ययन के ये निष्कर्ष कितने सही, कितने गलत साबित होंगे, यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि आज कोई भी राजनीतिक दल इसकी अनदेखी करने की जोखिम नहीं उठा सकता। खासकर, तब जब देश में न केवल युवा बल्कि हर उम्र और वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों की सोशल मीडिया से जुडऩे की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।
इंटरनेट के मामले में तो भारत तेजी से अन्य देशों से आगे निकलता जा रहा है। खास बात यह है कि शहरी क्षेत्र के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़त ज्यादा तेज गति से हो रही है। भारत में इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट की विकास दर 58 प्रतिशत सालाना की दर से हो रही है। ग्रामीण भारत में इस वक्त 6.8 करोड़ उपभोक्ता है। इंटरनेट उपभोक्ताओं की कुल संख्या 20 करोड़ से ऊपर पहुंच गई है। इनमें सोशल मीडिया से जुड़े उपभोक्ताओं की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। आज यह संख्या 9 से 10 करोड़ के बीच आंकी जा रही है। इतनी बड़ी आबादी की अनदेखी करना संभव नहीं है। सोशल मीडिया से जुड़े इस विशाल समुदाय का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन या निजी बातचीत तक सीमित नहीं है। सोशल नेटवर्क पर 45 प्रतिशत से अधिक लोग राजनीतिक विमर्श भी खुलकर कर रहे हैं। यह एक नए किस्म का राजनीतिक समूह है, जो सभी दलों को समझ में आ रहा है।
सवाल मत कर...!
बदलते राजनीतिक दौर में कई नेताओं को पत्रकारों द्वारा तीखे सवाल करना रास नहीं आ रहा। ऐसा ही गत दिनों हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्दर सिंह हुड्डा ने किया। एक संवाददाता ने हरियाणा सिविल सर्विस में उनके रिश्तेदार के चयन पर सवाल पूछ लिया। फिर क्या था। सी.एम. साहब आपा खो बैठे— 'तू बता कौन-सा मेरा रिश्तेदार है... या तो नाम बता या फिर सवाल मत कर।...' हुड्डा यहीं नहीं रुके। उन्होंने युवा कैमरामैन को भी नहीं बख्शा— 'कैमरा तेने ठीक से पकडऩा नी आता। सवाल कर रहा भारी-भारी... जा बेटा... जा... थोड़ा तजुर्बा ले ले...।'

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