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कौन जिम्मेदार?

टिप्पणी
आई.आई.टी. में पढ़ाई करना युवाओं का सपना होता था, उनमें छात्रों का रुझान क्यों घट रहा है? इन सरकारी संस्थाओं की लगातार फीकी पड़ती चमक को लेकर पिछले कुछ समय से कई स्तरों पर, खासकर शिक्षाविदों में चिन्ता के स्वर उभर रहे थे। लेकिन अब जो आंकड़े सामने आए हैं, वह न केवल शिक्षा-क्षेत्र में बल्कि राज, समाज और सम्पूर्ण विद्यार्थी जगत के लिए चेतावनी की घंटी है। मानव संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों में बताया गया है कि वर्ष 2010 में आई.आई.टी. में 769 छात्रों ने प्रवेश लेने से इनकार कर दिया। हालांकि, दावा किया जा रहा है कि बाद में स्थिति में कुछ सुधार हुआ है। लेकिन अभी भी कई सीटें खाली पड़ी हैं—यह आई.आई.टी. से जुड़े प्रशासनिक पक्ष स्वीकार कर रहे हैं।
 आखिर आई.आई.टी. जैसी नामी संस्थाओं को विद्यार्थियों का टोटा क्यों पड़ रहा है? कई कारण बताए जा रहे हैं। एक कारण इंजीनियरिंग सेक्टर में नौकरियों की कमी को माना जा रहा है। अन्य क्षेत्रों में बढ़ते अवसरों को भी इन संस्थानों से छात्रों के मोहभंग का कारण बताया जा रहा है। यह भी माना जा रहा है कि आई.आई.टी. में अच्छे शिक्षकों की लगातार कमी होती जा रही है। एक कारण सरकार की दोषपूर्ण नीतियों को भी माना जा रहा है। जिसके तहत ज्यादातर संस्थानों में अनेक आरक्षित सीटें खाली रह जाती हैं। ये सीटें जरूरतमंद छात्रों से भरी जा सकती हैं, लेकिन नियम और कानून आड़े आ जाते हैं। रिसर्च पर ध्यान घटता जा रहा है। नतीजा यह है कि प्रौद्योगिकी शिक्षा में ठहराव आ गया है। नवाचार के अभाव में कोर्स नीरस होते जा रहे हैं। कोई दो राय नहीं देश के आई.आई.टी. संस्थानों में छात्रों के घटते रुझाान के ये महत्वपूर्ण कारण है।
रिजर्व सीटों के आंकड़े ज्यादा चौंकाने वाले हैं। प्राय: हर जगह भारी संख्या में सीटें खाली रह जाती है। सवाल है सरकार का इन सीटों पर करोड़ों रुपए खर्च होने के बावजूद कोई
ध्यान क्यों नहीं जाता? क्या संसद में आंकड़े पेश कर देना ही काफी है?
आरक्षित सीटें परिवर्तित नहीं की जा सकती। अदालत के आदेश है। लेकिन सरकार वस्तुस्थिति बताकर अदालत से पुनर्विचार की दरख्वास्त क्यों नहीं कर सकती? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम केवल यह ढोल पीट रहे हैं कि छात्रों का आई.आई.टी. में रुझाान कम हो रहा है, जबकि दूसरी ओर सैकड़ों छात्र प्रवेश से वंचित कर दिए जाते हैं। यह विकट स्थिति है जिसके लिए सरकार जिम्मेदार है। खाली रहने वाली रिजर्व सीटों को भरने की वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं होनी चाहिए? सरकारी नीतियों की विसंगतियां तो हैं ही, शैक्षणिक विसंगतियां भी कम नहीं हैं।
एक समय था जब भारत में आई.आई.टी. से निकले छात्रों को विदेशों में हाथों-हाथ नौकरी मिल जाती थी। देश में तो उसके लिए अवसरों की कोई कमी ही नहीं थी। लेकिन अब जो हालात बनते जा रहे हैं, वे हमारी शैक्षणिक दुरावस्था की ओर स्पष्ट इशारा है। हम केवल औसत इंजीनियर पैदा कर रहे हैं। इंजीनियरिंग के श्रेष्ठ अध्यापक नहीं। सरकार के नीति-निर्माताओं और शिक्षाविदों के लिए यह बड़ी चुनौती है कि वे इन संस्थानों को श्रेष्ठतम फैकल्टीज उपलब्ध कराएं। ऐसा वातावरण दें जिसमें शोध, नवाचार और प्रौद्योगिकी शिक्षा में भी छात्रों का रुझाान बढ़े। आई.आई.टी. ही नहीं, एन.आई.टी. तथा दूसरे उच्च शिक्षण संस्थानों के भी कमोवेश यही हालात हैं। उच्च शिक्षा के प्रति हमारी यह बेरुखी हमें बहुत महंगी पड़ेगी।

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