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दागी 'माननीयों' का बचाव

 







बड़ा सवाल यह है कि आखिर दागी नेताओं को बचाने की जरूरत क्या है? क्या इसलिए कि ऊपरी अदालत से निर्दोष साबित होने पर सांसदों-विधायकों को उनकी वंचित सदस्यता फिर से नहीं लौटाई जा सकती? सही है। जब तक ऊपरी अदालत का फैसला आएगा, उसकी पांच साल की सदस्यता अवधि खत्म हो चुकी होगी। पर यही अंत नहीं है। चुनाव में दुबारा जाने का अवसर थोड़े ही खत्म होगा।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटकर दागी नेताओं को बचाने की जिद पर क्या सरकार अड़ी रहेगी या राहुल गांधी के बयान के बाद अध्यादेश को वापस लेगी? या फिर विपक्ष के आगे झाुकते हुए विधेयक का रास्ता अपनाएगी अथवा थक-हार कर सर्वोच्च अदालत का फैसला मान लेगी?
इन सवालों के जवाब आने वाले दिनों में मिल जाएंगे, लेकिन दागी सांसदों-विधायकों को बचाने की सरकार की जुगत देश को इतनी भारी पड़ेगी कि नतीजे लम्बे समय तक भुगतने पड़ेंगे।
आम जन दागी नेताओं से छुटकारा पाना चाहता है। वह सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को एक बेहतरीन अवसर मानता है। राजनीति को साफ-सुथरी करने का सरकार को दुर्लभ मौका मिला था। अदालत के फैसले को पूरा देश सराह रहा था। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया पर लोगों की उम्मीदें परवान चढ़ी थी। लेकिन सरकार ने आंखों पर पट्टी बांध ली। सरकार ही क्यों, सारे राजनीतिक दल जनता की उम्मीदों पर पानी फेरने को तैयार थे। आखिरकार अदालत का फैसला पलट दिया गया। फैसला चाहे अध्यादेश से पलटे या विधेयक से- क्या फर्क पड़ता है। जनता की उम्मीदें तो दोनों से टूटेंगी।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला जस का तस मान लिया जाएगा, इसकी उम्मीद बिलकुल नहीं है। फैसला आने के बाद सरकार ने जो कवायदें की, वे गवाह हैं। सबसे पहले कानून की उन धाराओं को ही बदलने का निश्चय किया, जिनके तहत अदालत का फैसला आया। गौरतलब है, 10 जुलाई को अदालत ने दो फैसले किए थे। एक में कहा था कि जो जेल में बंद हैं, वे चुनाव नहीं लड़ सकते और न ही मतदान कर सकते हैं। दूसरे फैसले में कहा कि सांसद या विधायक को किसी आपराधिक मामले में दो साल से ज्यादा की सजा हो तो उसकी सदन से सदस्यता खत्म हो जाएग। जेल से चुनाव नहीं लडऩे की पाबंदी जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा 62(2) तथा सजायाफ्ता होने पर सदस्यता से वंचित करना धारा 8(4) से सम्बंधित हैं। राजनीतिक दलों को अदालत के ये दोनों फैसले मान्य नहीं थे। लिहाजा सरकार ने दोनों धाराओं को बदलकर लोकसभा में संशोधन विधेयक पेश कर दिया। इसमें सभी दलों की सहमति थी। विधेयक लोकसभा से पारित हो गया। लेकिन राज्यसभा में भाजपा और बीजद की कुछ आपत्तियों के चलते अटक गया। 'माननीयों' का बचाव करने में सरकार इतनी जल्दी में थी कि तुरत-फुरत अध्यादेश लेकर आ गई। इस बीच उसने एक कोशिश और की और अदालत में पुनर्विचार याचिका का दांव आजमाया। सर्वोच्च अदालत ने यह याचिका भी खारिज कर दी। विधेयक अब भी राज्यसभा के पटल पर है। एक बार पटल पर रखे जाने के बाद वह सदन की सम्पत्ति बन जाता है। इसके बावजूद सरकार ने न्यायपालिका के बाद विधायिका की भी सर्वोपरिता की अनदेखी करते हुए कार्यपालिका का आसरा लिया और अध्यादेश पेश कर दिया। यह अध्यादेश राष्ट्रपति की मुहर के बाद कानून बन जाएगा। फिलहाल तो राष्ट्रपति ने इस पर सवाल-जवाब करके सरकार को मुश्किल में डाल दिया। रही-सही कसर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पूरी कर दी। सरकार की हालत सांप-छछूंदर जैसी है। न उगलते बन रहा है, न निगलते। हो सकता है वह कोई बेहतर फैसला ले, लेकिन इस पूरी कवायद में उसकी भारी किरकिरी हो चुकी है।
बड़ा सवाल यह है कि आखिर दागी नेताओं को बचाने की जरूरत क्या है? क्या इसलिए कि ऊपरी अदालत से निर्दोष साबित होने पर सांसदों-विधायकों को उनकी वंचित सदस्यता फिर से नहीं लौटाई जा सकती? सही है। जब तक ऊपरी अदालत का फैसला आएगा, उसकी पांच साल की सदस्यता अवधि खत्म हो चुकी होगी। पर यही अंत नहीं है। चुनाव में दुबारा जाने का अवसर थोड़े ही खत्म होगा। बल्कि बेदाग होकर दुबारा चुने जाने के अवसर ज्यादा मजबूत होंगे—ज्यादा जन-समर्थन के साथ। अदालतों के दो फैसलों के परिणाम भिन्न हो सकते हैं। वे अभियुक्त के अनुकूल भी जा सकते हैं और प्रतिकूल भी। न्यायिक प्रक्रिया की यह स्वाभाविक प्रकृति है, जो देश के प्रत्येक नागरिक पर लागू होती है। तो फिर माननीय सांसदों-विधायकों पर क्यों नहीं? यही वो सवाल है जिसका जवाब आम जन राजनीतिक दलों से जानना चाहता है। जो चुनकर भेजता है वही जब कानून के समक्ष समान है तो जो चुनकर जाता है उसे खास दर्जा क्यों? वह भी आपराधिक मामलों में? दागी नेताओं को बचाने की एक आड़ और ली जाती है। वह यह कि नेताओं को राजनीतिक कारणों से झाूठे मामलों में फंसा लिया जाता है। इसलिए उनके लिए कानूनी सुरक्षा-कवच जरूरी है। कौन फंसाता है नेताओं को? पुलिस? अफसर? आम आदमी? अक्सर नेताओं पर मामले उनके प्रतिद्वंद्वी ही प्रत्यक्ष या परोक्षत: दर्ज कराते देखे गए हैं। यह राजनीति की भीतरी बुराई है। इसका दोष दूसरों पर क्यों मढ़ा जाए? अगर दागियों को बचाने की कोशिशें यूं ही चलती रही, तो राजनीति कभी साफ-सुथरी नहीं हो सकती। बगैर साफ-सुथरी राजनीति के लोकतंत्र मजबूत नहीं रह सकता। जिसकी आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी जैसी बुराइयों से उबरने के लिए सख्त जरूरत है।
'इमोशनल' बनाम 'आइडियोलॉजिकल'
लालू यादव को चारा घोटाले में जेल भेजा गया है, लेकिन लगता है राजनेता कोई सबक नहीं सीख रहे हैं। राजद के एक नेता लालू की गिरफ्तारी के तुरन्त बाद टीवी पर बयान दे रहे थे, 'लालू और मजबूत होंगे, फिर चुनाव जीतेंगे। बिहार में उनके लाखों 'इमोशनल सपोर्टर्स' हैं। वे कोई 'आइडियोलॉजिकल सपोर्टर्स' नहीं हैं कि जेल जाने पर लालू का समर्थन बंद कर देंगे, बल्कि जेल जाने पर लालू के साथ उनकी सहानुभूति पैदा होगी और वे लालू का साथ ज्यादा मजबूती से देंगे। देख लेना।'
राजनेता गण जन भावनाओं को समझाने में गलती कर रहे हैं या जमीनी हकीकत बयान कर रहे हैं, इसका फैसला पाठक ही बेहतर कर सकते हैं।
मीडिया को ऐतराज
दिल्ली की रैली में नरेन्द्र मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री को 'देहाती औरत' बताने पर नवाज शरीफ के साथ ही उस भारतीय पत्रकार को भी घसीट लिया, जो वार्ता में शामिल थी। हालांकि उस पत्रकार ने प्रधानमंत्री को अपमानित करने के वाकिये का खंडन किया, लेकिन मोदी की टिप्पणी को 'ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन' ने आपत्तिजनक माना है। पत्रकार पर मोदी के बयान को मीडिया के खिलाफ बताया और कहा कि ऐसे बयानों का उद्देश्य भारतीय मीडिया को बदनाम करना है, जो लोकतंत्र की एक मुख्य संस्था है। बी.इ.ए. ने कहा, भारतीय मीडिया अपनी जिम्मेदारी और आचरण को बखूबी समझता है। मोदी ने पूरे तथ्य जाने बगैर ही पत्रकार पर टिप्पणी कर दी।

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