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असली और नकली वीडियो

किसी पुराने वीडियो या फोटो को नई घटना से जोड़कर अपलोड कर देना और फोटो तकनीक के जरिए फर्जी दृश्य गढ़ देना, ये तरीके भ्रम पैदा करते हैं। यह बहुत खतरनाक है। इससे बचने के उपाय जरूरी है। कानूनी उपाय पर्याप्त नहीं हैं। तकनीकी और वैज्ञानिक तरीकों की ज्यादा जरूरत है। हमें ऐसे तरीके खोजने होंगे जो आम जन को आगाह कर सके।

जैसे-जैसे सोशल मीडिया ताकतवर बनता जा रहा है, इसके दुरुपयोग की घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं। इसमें शब्द और चित्र दोनों रूप शामिल हैं। चूंकि चित्र ज्यादा असरकारी हैं, इसलिए ज्यादा दुरुपयोग भी चित्रों का ही किया जा रहा है। यह दो तरह से देखने में आता है। पहला, किसी पुराने वीडियो या फोटो को नई घटना से जोड़कर अपलोड कर देना और दूसरा, फोटो तकनीक के जरिए फर्जी दृश्य गढ़ देना। ये दोनों तरीके भ्रम पैदा करते हैं। शरारती व असामाजिक तत्त्व मौका देखकर इनका दुरुपयोग कर डालते हैं।
गत दिनों मुजफ्फरनगर के दंगों को भड़काने में एक ऐसे ही फर्जी वीडियो की अहम भूमिका मानी जा रही है। वीडियो में दो लड़कों की कुछ लोग हत्या करते हुए दिखाए गए थे। कट्टरपंथी तत्त्वों ने इस वीडियो को मुजफ्फरनगर के कंवल गांव की उस घटना से जोड़कर यू-ट्यूब पर अपलोड कर दिया, जहां झागड़े की शुरुआत हुई थी। जाहिर है, यह वीडियो एक समुदाय के लोगों को भड़काने के उद्देश्य से अपलोड किया गया था। बाद में पूरे जिले में हिंसा फैल गई, लोग मारे गए। वहां हिंसा के और भी कारण रहे होंगे, लेकिन जातीय तनाव और परस्पर नफरत पैदा करने में इस वीडियो की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। हकीकत यह थी कि यह वीडियो कंवल गांव का था ही नहीं। यह वीडियो तो दो वर्ष पहले पाकिस्तान में बनाया गया था, जिसमें आतंकियों द्वारा दो लड़कों को नृशंसतापूर्वक मारा जा रहा था। कंवल गांव की घटना शरारती तत्त्वों के लिए एक अवसर बन गई, जिन्होंने इस वीडियो का जमकर दुरुपयोग किया। तकनीकी तौर पर वीडियो असली था, लेकिन संदर्भ बदलकर प्रचारित करने से यह फर्जी ही कहा जाएगा।
इसी दौरान फेसबुक पर उप्र के एक लोकप्रिय हिन्दी अखबार की चार कॉलम में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित खबर अपलोड की गई। खबर का शीर्षक था— 'दंगाइयों को गोली मारने के आदेश'। लेकिन शरारती तत्त्वों ने फोटोशॉप की मदद से शीर्षक बदलकर उसे अत्यन्त भड़काऊ बना दिया। कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने नफरत फैलाने वाली इस फर्जी खबर की पोल खोली और अखबार की असली कटिंग चस्पां की।
इसी तरह एक फर्जी फोटो का इस्तेमाल असम में भड़की हिंसा तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोगों का देश के विभिन्न हिस्सों से पलायन के दौरान किया गया था। शुरुआत पड़ोसी देश म्यांमार में भड़की जातीय हिंसा से हुई, जिसमें अनेक लोग मारे गए थे। इसे फेसबुक पर बयान करते हुए एक फोटो अपलोड की गई। फोटो में एक स्थान पर कई शव दिखाए गए थे। इन्हें म्यांमार में हिंसा में मारे गए एक समुदाय के लोगों के शव बताया गया था। जबकि यह फोटो म्यांमार की न होकर इंडोनेशिया की थी। फोटो में जो शव जातीय हिंसा में मारे गए लोगों के बताए गए थे, दरअसल वे समुद्री तूफान 'सुनामी' में मारे गए लोगों के थे। यह फोटो अंतरराष्ट्रीय फोटो एजेन्सी एपी द्वारा सन् २००४ में जारी की गई थी, जो कई अखबारों में छपी थी। फोटो में मारे गए लोगों के शव समुद्र किनारे बहकर आए एक ढेर के रूप में पड़े थे, जो इस प्राकृतिक आपदा की विभीषिका को बयान कर रहे थे। कट्टरपंथियों ने इसे म्यांमार की हिंसा से जोड़ कर प्रचारित किया। फोटो असली थी, लेकिन इस्तेमाल 'नकली' था।
अभी उत्तर प्रदेश के एक हिन्दी अखबार की खबर की चर्चा की गई। शीर्षक बदलकर उसका दुरुपयोग किया गया। ठीक ऐसे ही गत दिनों कुछ फोटो और वीडियो फुटेज का इस्तेमाल करके फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन का फेक वीडियो 'यू-ट्यूब' पर डाल दिया गया। अमिताभ वीडियो में नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री के तौर पर पैरवी करते हुए बताए गए थे। खुद अमिताभ के तीखे विरोध के बाद राजकोट का एक व्यक्ति सामने आया और उसने अभिनेता से माफी मांगी। इस व्यक्ति का कहना था कि उसने यह वीडियो सिर्फ अपलोड किया था, बनाया नहीं। जाहिर है, तकनीक का इस्तेमाल करते हुए किसी ने तो यह वीडियो बनाया ही था। 'फेक वीडियो' के शिकार तो रूस के प्रधानमंत्री ब्लादीमिर पुतिन भी हो चुके। वर्ष 2010 में उन्हें 'यू ट्यूब' पर अपलोड की गई एक वीडियो फिल्म में सलाखों के पीछे बंदी के रूप में दिखाया गया था। जबकि हकीकत में यह वीडियो रूस के एक बड़े तेल व्यापारी मिखाइल खोदोर्कोवस्की के मुकदमे की सुनवाई का था। वीडियो में सलाखों के पीछे खड़े खोदोर्कोवस्की को हटाकर पुतिन के वीडियो फुटेज इस तरह से चस्पां कर दिए थे कि असली जैसे दिखें। इस वीडियो को रूस में सिर्फ ३ दिन में ही तीस लाख लोगों ने देखा।
जाहिर है, भ्रमित करने, अफवाहें फैलाने, परस्पर नफरत पैदा करने, हिंसा भड़काने के लिए कट्टरपंथी ताकतें और असामाजिक तत्त्व सोशल मीडिया का दुरुपयोग कर रहे हैं। यह बहुत खतरनाक है। इससे बचने के उपाय जरूरी है। कानूनी उपाय पर्याप्त नहीं हैं। तकनीकी और वैज्ञानिक तरीकों की ज्यादा जरूरत है। हमें ऐसे तरीके खोजने होंगे जो आम जन को आगाह कर सके ताकि वे असली और नकली का भेद समझा सकें।
दामिनी दुष्कर्म के दंश
आज के हिंसा और तनाव के दौर में मीडिया से हर कोई यही अपेक्षा करेगा कि उसकी रिपोर्टिंग राहत प्रदान करे। इसके विपरीत दामिनी दुष्कर्म कांड पर न्यायालय के फैसले के बाद मीडिया रिपोर्टिंग ने निराश ही किया। खासकर, अंग्रेजी अखबारों ने मुकदमे की जो विस्तृत रिपोर्टिंग की उसने एक बार फिर 16 दिसम्बर की उस क्रूर घटना के घाव हरे कर दिए। पीडि़ता के मृत्यु पूर्व बयान, चिकित्सकों की रिपोर्ट, वकीलों के तर्क-वितर्क और फैसले में माननीय न्यायाधीश की टिप्पणियों को प्रमुखता से प्रकाशित किया गया। इन खबरों में बताया गया कि बस के भीतर किस तरह युवती से नृशंसतापूर्वक दुष्कर्म किया गया। कैसे वहशी होकर अभियुक्त युवती पर टूट पड़े थे। कैसे लोहे की छड़ उसके अंगों में घुसेड़ी गई। कैसे उसे जगह-जगह से दांतों से काटा गया और कैसे संवेदनशील अंगों को निकाल बाहर किया गया। यह सारा विवरण न केवल जुगुप्सा (घृणा) पैदा करता है, बल्कि पाठक को तनावग्रस्त भी कर देता है। अंग्रेजी के लगभग सभी प्रमुख अखबारों ने यह किया। क्या ऐसा 'विस्तृत वर्णन' जरूरी था?
भूल सुधार
प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया गलती सभी से होती है। गलती सुधार ली जाए, यही उचित है। खासकर जब गलती तथ्यात्मक हो, लेकिन पिछले दिनों बी.बी.सी. ने भूल करके भी नहीं सुधारी। 10 सितंबर को उसने एक बिजनेस रिपोर्ट दिखाई। इसमें एक महिला उद्यमी की सफलता की कहानी थी कि कैसे उसने अपने देश में ऑटो रिपेयरिंग क्षेत्र में पुरुषों के एकाधिकार को तोड़ा। एंकर ने उस उद्यमी को बांग्लादेशी बताते हुए पूरा बखान कर डाला, जबकि वह अफ्रीकी देश सेनेगल की थी।

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