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संवेदनहीन मीडिया!

उत्तराखंड में विभीषिका के दौरान टीवी चैनलों की रिपोर्टिंग के दृश्य एक तटस्थ दर्शक के मन में करुणा कम खीझ ज्यादा पैदा करते थे। पर यह तो कहना ही होगा कि मीडिया की रिपोर्टिंग ने सोई हुई सरकार को जगाया।  वरना पीडि़तों के लिए जितना-कुछ हुआ, वह भी शायद नहीं हो पाता। लापता लोगों की खोज-में मीडिया की भूमिका सरकार से ज्यादा नजर आती है।


उत्तराखंड में बाढ़ की विभीषिका के दौरान मीडिया कवरेज, खासकर टीवी चैनलों की रिपोर्टिंग को लेकर काफी आलोचनाएं हुईं। जिस वक्त सबसे ज्यादा आवश्यकता पीडि़तों की जान बचाना थी, उस वक्त टीवी रिपोर्टर कैमरामैन के साथ उन हेलीकॉप्टरों से जा पहुंचे, जो पीडि़तों की मदद के लिए गए थे। हेलीकॉप्टर बहुत कम थे और पीडि़त बहुत ज्यादा। हेलीकॉप्टर की एक-एक सीट बेशकीमती थी। इतनी जितना कि जीवन। मानव जीवन से ज्यादा तरजीह मीडिया रिपोर्टिंग को नहीं दी जा सकती। लेकिन रिपोर्टरों की संवेदनहीनता देखिए, रुंआसे, बदहवास लोगों से हेलीकॉप्टर में ही 'इंटरव्यू' किये जा रहे थे। हेलीकॉप्टर से बाहर भी उनका रवैया यही था। जान के लाले पड़े थे और रिपोर्टर माइक लेकर पीडि़तों के सामने सवालों की झाड़ी लगा रहे थे। अपनी रिपोर्टिंग को ज्यादा से ज्यादा भावनात्मक 'टच' देने की जुगत में वे एक-दूसरे को पछाडऩे में जुटे थे। मीलों पैदल चल कर आ रहे और दर्द से कराहते बुजुर्ग हों या रोती-बिलखती महिलाएं, यहां तक कि मासूम बच्चे भी—सभी के सामने रिपोर्टर का माइक अचानक प्रलय की तरह प्रकट हो जाता था। ऐसे दृश्य एक तटस्थ दर्शक के मन में करुणा कम खीझा ज्यादा पैदा करते थे।
राष्ट्रीय कहे जाने वाले चैनलों का यह हाल था, तो दूसरे चैनल कहां पीछे रहते! वे भी 'सबसे पहले' की होड़ में लगे थे। शिकार हुआ एक सामान्य रिपोर्टर। बेचारे नारायण वरगाही को बड़ी आलोचना झोलनी पड़ी। न्यूज एक्सप्रेस चैनल का यह संवाददाता एक बाढ़ पीडि़त ग्रामीण के कंधे पर ही जा चढ़ा और बाढ़ में डूबे गांव का आंखों देखा हाल बयान करने लगा। किसी ने इसकी रिकॉर्डिंग तुरंत फेसबुक पर डाल दी। सोशल मीडिया में रिपोर्टर व चैनल की जबरदस्त निन्दा हुई। चैनल ने रिकॉर्डिंग प्रसारित तो नहीं की, लेकिन रिपोर्टर की नौकरी जरूर छीन ली। वरगाही और उन बड़े चैनलों के रिपोर्टरों में कोई खास फर्क नहीं था, जिन्होंने पीडि़तों का हक मारकर हेलीकॉप्टरों में यात्राएं कीं।
मीडिया विशेषज्ञों का मानना है कि दरअसल, मीडिया के पास ऐसी भीषण आपदाओं की कवरेज के लिए कोई मानक कार्य-प्रणाली नहीं थी, जिसके चलते शुरू में उत्तराखंड की रिपोर्टिंग में अफरा-तफरी दिखाई दी। भविष्य में ऐसी गलतियां न दोहराई जाएं, इसके लिए न्यूज चैनलों के संपादकों की संस्था बी.ई.ए. (ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन) ने पांच सदस्यों की एक समिति गठित की है। यह समिति इस तरह की घटनाओं की कवरेज के लिए एक एस.ओ.पी. (स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) तैयार करेगी, जो न सिर्फ रिपोर्टरों के लिए, बल्कि डेस्क पर काम करने वालों के लिए भी दिशा-निर्देश का काम करेगी। एस.ओ.पी. में यह बताया जाएगा कि पीडि़तों को देखते ही उन पर टूट न पड़ें और न ही पीडि़तों की नुमाइश लगाई जाए। जरूरत पडऩे पर उनकी मदद भी की जाए।
बी.ई.ए. ने यह समिति वरिष्ठ पत्रकार कमर वहीद नकवी की अध्यक्षता में गठित की है। इस समिति में 'टाइम्स नाउ' के मुख्य संपादक अर्णब गोस्वामी, इंडिया टीवी के प्रबंध संपादक विनोद कापड़ी, 'सी.एन.एन.-आई.बी.एन' के प्रबंधक संपादक विनय तिवारी तथा 'आज तक' की प्रबंध संपादक सुप्रिया प्रसाद शामिल किए गए हैं। जिस उद्देश्य को लेकर यह एस.ओ.पी. तैयार की जा रही है, उसमें शायद ही किसी को संदेह हो, लेकिन सवाल यह है कि इसका पालन कौन करेगा। एक-दूसरे को पछाडऩे की टीवी चैनलों की अंधी होड़ में बी.ई.ए. के दिशा-निर्देश कितने टिक पाएंगे इसमें संदेह है। बी.ई.ए. के दिशा-निर्देशों का अक्सर न्यूज चैनल उल्लंघन करते रहे हैं। लेकिन कुछ नहीं होता। सवाल यह भी है कि मीडिया-कर्मियों से जिस संवेदनशीलता की उम्मीद आचरण और व्यवहार में की जाती हो, उसके लिए एस.ओ.पी. की क्या जरूरत है। यह तो अलिखित और स्वत: स्फूर्त होनी चाहिए। अगर इसके लिए भी समिति की जरूरत पड़े तो पत्रकारिता-कर्म पर ही सवाल उठ खड़े होंगे। बहरहाल, यह कहना ही होगा कि मीडिया की दिन-रात की रिपोर्टिंग ने सोई हुई सरकार को जगाया। वरना पीडि़तों के लिए 15 दिन गुजरने के बाद भी जितना-कुछ हुआ, वह शायद नहीं हो पाता। बिछुड़े हुए पीडि़तों को परिजनों से मिलवाने और लापता लोगों की खोज-खबर में आज भी सरकार से ज्यादा मीडिया की भूमिका नजर आती है।
न खंडन न मंडन
उत्तराखंड में फंसे 15 हजार गुजरातियों को नरेन्द्र मोदी द्वारा बचा कर घर भेजने की खबर पर काफी बवेला मचा था। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अनभिज्ञता जाहिर की कि यह खबर मीडिया में आई कहां से। यानी उन्होंने इसे मीडिया की गढ़ी हुई खबर बताकर ठंडे पानी के छींटे डालने की कोशिश की। लेकिन मीडिया ने उनकी यह कोशिश कामयाब नहीं होने दी। 'हिन्दू' ने अपने पहले पन्ने पर स्टोरी प्रकाशित की जिसमें उसने 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के पत्रकार आनंद सूंडास का इंटरव्यू लिया था। आनंद सूंडास ने दावा किया कि 15 हजार गुजरातियों को बचाने का समाचार हल्दवानी में भाजपा प्रवक्ता अनिल बलूनी ने किया था। जिस वक्त भाजपा प्रवक्ता से बातचीत की गई उस दौरान उत्तराखंड भाजपा के अध्यक्ष तीरथसिंह रावत भी मौजूद थे। यह खबर सबसे पहले 23 जून को 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में प्रकाशित हुई। बाद में यह खबर सभी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने प्रकाशित व प्रसारित की। दो दिन में 15 हजार लोगों को बचाकर उन्हें घर पहुंचाने का समाचार जिसने भी सुना उसे विश्वास नहीं हुआ। क्योंकि जिन परिस्थितियों में लोग फंसे थे, उन्हें केवल हेलीकॉप्टर से ही लाया जा सकता था। और मोदी अपने साथ सिर्फ 4 हेलीकॉप्टर लेकर गए थे। 'हिन्दू' की खबर का पार्टी ने अभी तक न तो खंडन किया है और न ही समर्थन।
मनमानी तो नहीं!
हाल ही में जांच के दौरान मानकों पर खरे नहीं पाए जाने पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने 61 टीवी चैनलों के लाइसेंस रद्द कर दिए। ये कौन से टीवी चैनल हैं तथा इन चैनलों ने किन मानकों का उल्लंघन किया, यह स्पष्ट नहीं किया गया है। चैनलों की जिस तरह बाढ़ आई हुई है, उसमें मानकों का उल्लंघन आश्चर्यजनक नहीं। लेकिन जांच के नाम पर सरकारी अफसरों की मनमानी भी नहीं चलनी चाहिए।
सरकार को यह देखने की जरूरत है कि जिन चैनलों के लाइसेंस रद्द किए गए उनमें क्या खामियां थीं। छोटी-मोटी कमियां बताकर उन्हें फिजूल तंग तो नहीं किया जा रहा था। आखिरकार यह अभिव्यक्ति का क्षेत्र है, कोई फैक्ट्री-कारखाना नहीं। गौरतलब है, 61 टीवी चैनलों के लाइसेंस रद्द होने के बाद अब भी 816 चैनल काम कर रहे हैं, इनमें से 398 समाचार चैनल हैं।

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