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मीडिया से क्यों नाराज

यह शोचनीय स्थिति है—मीडिया के लिए भी और नेताओं के लिए भी, जो बिना सोचे-समझो कुछ भी बोल देते हैं। राजनेता बयान तो दे देते हैं, लेकिन जब विरोध होता है तो पलट जाते हैं या यह कहते हैं 'मेरा यह मतलब नहीं था।' इसलिए कहा जाता है, सोच-समझाकर बोलिए। सार्वजनिक जीवन में रहने वालों पर यह बात ज्यादा शिद्दत से लागू होती है।

वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह मीडिया से खफा हैं। क्योंकि सांसद मीनाक्षी नटराजन के बारे में उनके बयान को मीडिया ने गलत परिभाषित किया। दिग्विजय सिंह ही क्यों, कांग्रेस प्रवक्ता राज बब्बर, सांसद रशीद मसूद, केन्द्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला आदि राजनेता भी मीडिया से खफा होंगे, जिसने उनके सस्ते भोजन सम्बंधी बयानों को गलत परिभाषित किया। भले इन नेताओं ने दिग्विजय सिंह की तरह मीडिया पर प्रत्यक्षत: कोई दोष नहीं मंढा, मगर यह हकीकत है कि मीडिया के व्यापक विश्लेषण के चलते इन नेताओं को अपने बयानों पर खेद जताना पड़ा। रशीद मसूद अड़े रहे। इसके बावजूद कि वे दिल्ली में 5 रु. में खाना उपलब्ध होने का अपना दावा साबित नहीं कर सके। अलबत्ता, मीडिया ने पूरी दिल्ली में घूम-घूमकर यह जरूर साबित कर दिया कि भरपेट भोजन का भाव क्या है। दिग्विजय सिंह की जबान फिसल गई, लेकिन वे मानने को तैयार नहीं कि उनसे गलती हो गई। उल्टे मीडिया को ही शब्दों और मुहावरों का पाठ पढ़ा रहे हैं। दिग्विजय सिंह ने कहा, 'मीडिया टीआरपी की अंधी दौड़ में भाग रहा है। किसी व्यक्ति की प्रशंसा में इस्तेमाल किए गए एक प्रचलित मुहावरे पर भी मीडिया ने सेक्स का लेबल चस्पां कर दिया। यह बहुत शोचनीय है।'
सचमुच यह शोचनीय स्थिति है—मीडिया के लिए भी और नेताओं के लिए भी, जो बिना सोचे-समझो कुछ भी बोल देते हैं। दो राय नहीं कि मीडिया अंधी दौड़ में भाग रहा है और उसने दिग्विजय सिंह के 'सौ टंच माल' के बयान को जिस तरह लपक कर लिया इससे उसकी नीयत का खुलासा हुआ। लेकिन दिग्विजय सिंह जी! आपने भी क्या कह दिया। माना आपने बुरी नीयत से नहीं कहा। जिसके लिए कहा उसने (सांसद) भी बुरा नहीं माना। लेकिन क्या सचमुच आपने एक प्रचलित मुहावरे का इस्तेमाल किया? 'सौ टंच माल!' क्या आप जैसे वरिष्ठ राजनेता को यह जानकारी नहीं कि असली मुहावरा 'सौ टंच खरा' है न कि 'सौ टंच माल।' आप वाले 'मुहावरे' का एक स्त्री के संदर्भ में इस्तेमाल करने के क्या मायने हैं। ऐसा तो बम्बइया फिल्में करती हैं, जिसे बोलचाल में 'टपोरी' भाषा कहते हैं। आप 'सौ टंच खरा सोना' कहना चाहते होंगे। बाद में आपके बयानों से भी यह स्पष्ट हुआ। तो आप यही बोलते। जो शब्द आप बोलते हैं, उसके मायने भी वही निकाले जाएंगे, जो वास्तव में हैं। अगर आप कहते हैं पांच रु. में भरपेट भोजन। तो लोग आपसे 5 रु. में भरपेट भोजन मांगेंगे। आप गरीबों का मजाक नहीं उड़ा सकते। राजनेता बयान तो दे देते हैं, लेकिन जब विरोध होता है तो पलट जाते हैं या यह कहते हैं 'मेरा यह मतलब नहीं था।' राजबब्बर और फारुख अब्दुल्ला ने यही किया। भाजपा सांसद चंदन मित्रा ने भी अमत्र्य सेन के बारे दिए बयान के बाद यही किया। इसलिए कहा जाता है, सोच-समझकर बोलिए। सार्वजनिक जीवन में रहने वालों पर यह बात ज्यादा शिद्दत से लागू होती है।
फिर वही घोड़े, वही मैदान
हम मीडिया वालों को यह शिकायत रहती है कि जब तक कोई मामला मीडिया की सुर्खियों में रहता है, उस पर
कार्यवाही का नाटक चलता है। जांच कमेटी बिठाई जाती है। बयान होते हैं। मामला जैसे ही ठंडा पड़ा, गाड़ी पुराने ढर्रे पर लौट आती है। दोषी अफसर या नेता अपनी कुर्सी फिर संभाल लेता है।
मीडिया में भी अपवाद नहीं। हाल ही में उस न्यूज चैनल ने अपने उस रिपोर्टर को चुपचाप वापस काम पर ले लिया, जिसे गुवाहाटी यौन उत्पीडऩ की घटना के बाद हटा दिया गया था। आपको याद होगा, गत वर्ष गुवाहाटी में एक किशोरी अपने दोस्तों के साथ जन्मदिन की पार्टी के बाद रेस्तरां से लौट रही थी। कुछ लोगों ने अचानक उन्हें घेर लिया। इन लोगों ने युवाओं से बर्बरता की। किशोरी के कपड़े फाड़ डाले। स्थानीय न्यूज चैनल ने इस घटना की रिकार्डिंग प्रसारित की। बाद में राष्ट्रीय चैनलों ने भी दिखाया। देशभर में यह घटना यू-ट्यूब के माध्यम से चर्चा का विषय बनी। खूब निन्दा हुई। इस घटना में चैनल न्यूज लाइव के एक रिपोर्टर का नाम सामने आया। सामाजिक कार्यकर्ता अखिल गोगोई ने आरोप लगाया था कि इस रिपोर्टर ने एक्सक्लूसिव वीडियो शूट करने के लिए भीड़ को उकसाया, जिसके परिणामस्वरूप लड़की को बेइज्जत किया गया। हालांकि ऐसी घटनाओं में रिपोर्टर से ज्यादा चैनल दोषी होते हैं, जो टी.आर.पी. के लिए रिपोर्टरों पर दबाव बनाते हैं। लेकिन उस वक्त चौतरफा निन्दा के चलते चैनल ने रिपोर्टर को हटा दिया और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बी.इ.ए.) ने भी मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की। साल भर बाद मामला ठंडा पड़ गया और चैनल ने आरोपी रिपोर्टर को फिर काम पर रख लिया। मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के अनुसार- 'बी.इ.ए. ने अपना नाम चमकाने और न्यूज चैनल को लोगों के गुस्से से दूर रखने के अलावा किसी दूसरे उद्देश्य से इस कमेटी का गठन नहीं किया था। यह बात अब लगभग साल भर बाद स्पष्ट हो गई है।'
फेसबुक बनाम रिपलन
ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग का इस्तेमाल दुनिया में करोड़ों लोग करते हैं। लोकप्रियता के मामले में आज इनके सामने कोई दूसरी नेटवर्किंग साइट नहीं है। लेकिन 'रिपलन' का दावा है कि वह शीघ्र ही फेसबुक व ट्विटर जैसी साइट्स को पछाडऩे वाली है।
'रिपलन' की लांचिंग अमरीका के लॉस वेगास में 4 अगस्त को होने जा रही है। इंटरनेट मीडिया तकनीक के विशेषज्ञ क्रिस थॉमस के अनुसार इस साइट की खासियत यह है कि यह एक ओर फेसबुक की सभी सुविधाएं उपलब्ध कराएगी, वहीं 'एमेजोन' की तरह यूजर्स को सभी ब्रांडेड कंपनियों से भी जोड़े रखेगी। इस साइट की मदद से ऑनलाइन बिलों का भुगतान भी हो सकेगा। कंपनी का दावा तो यहां तक है कि इसके लांच होते ही विश्व के मीडिया का स्वरूप ही बदल जाएगा। 'रिपलन' ही नहीं, हरेक कंपनी लांचिंग से पहले बड़े-बड़े दावे करती ही है, उन्हें पूरा कितना कर पाती है, यह बाद में ही पता चलता है।

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साइबर, सिनेमा और मीडिया

साइबर अश्लील साहित्य पर रोक लगाने को लेकर सुझाव मांगे गए हैं। बच्चों के लिए तो ऐसा तंत्र बनाना ही होगा, जो उन्हें ऐसे अश्लील साहित्य से रोक सके। कुछ देश ऐसा कर भी रहे हैं। लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि इस समस्या का समग्र समाधान होना चाहिए। केवल साइबर साहित्य पर रोक लगाकर बच्चों व युवाओं को 'पथभ्रष्ट' होने से नहीं रोका जा सकता।

देश के प्रमुख अखबारों में राज्य सभा सचिवालय की ओर से एक विज्ञापन छपा है। इसमें साइबर अश्लील साहित्य पर रोक लगाने सम्बन्धी एक याचिका पर लोगों के लिखित सुझाव व टिप्पणियां आदि आमंत्रित की गई हैं। राज्य सभा सांसद भगत सिंह कोश्यारी की अध्यक्षता में गठित समिति इस याचिका पर विचार कर रही है।
जैनाचार्य विजयरत्नासुन्दर सुरिजी और राज्य सभा सांसद विजय दर्डा की याचिका में कहा गया है कि भारत की दो-तिहाई जनसंख्या 35 वर्ष से कम आयु वाले व्यक्तियों की है। हमारी जनसंख्या का यह बड़ा हिस्सा, जो हमारे राष्ट्र की भविष्य की आशा है, वह साइबर अश्लील साहित्य के माध्यम से पथभ्रष्ट, विकृत और भ्रमित हो रहा है। याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि साइबर अश्लील साहित्य से किशोरों यहां तक कि वयस्कों पर भी अत्यन्त दुष्प्रभाव पड़ रहा है, जिससे मानसिक-शारीरिक प्रकृति की कई प्रकार की समस्याएं, यौन रोग, लैंगिक विकृतियां इत्यादि उत्पन्न हो रही हैं। इससे बच्चों के यौन शोषण के मामलों में भी वृद्धि हो रही है। आजकल कम्प्यूटर और टेलीविजन के अतिरिक्त मोबाइल फोन भी किशोरों के लिए इस प्रकार की अश्लील साइट्स देखने का एक आसान जरिया बन गए हैं। लिहाजा इन पर रोक लगाने के कदम उठाए जाएं।
याचिका में आई.टी. यानी सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम-2000 में संशोधन करने का आग्रह किया है ताकि कम्प्यूटर/मोबाइल पर अश्लील साहित्य को देखना एक ऐसा अपराध बनाया जा सके जिसके लिए ऐसी साइट्स के निर्माताओं, वितरकों और उसे देखने वालों के लिए कड़ी सजा का उपबंध हो।
इस याचिका का आशय स्पष्ट है, परन्तु निहित उद्देश्य अस्पष्ट है। इसमें साइबर साहित्य से बच्चों व युवाओं पर पडऩे वाले कुप्रभावों पर जो चिन्ता जाहिर की गई है वह एकांगी और अपूर्ण है। इसलिए बड़ा सवाल यह है कि याचिका से क्या हासिल होगा। मान लें राज्य सभा की याचिका समिति ने साइबर अश्लील साहित्य पर रोक लगाने की अनुशंसा कर दी तो क्या केन्द्र सरकार रोक लगा पाएगी? और मान लें कि केन्द्र सरकार ने रोक लगा दी तो क्या अकेले साइबर साहित्य पर रोक पर्याप्त होगी? अगर अश्लील साहित्य देश में किसी भी माध्यम से सुलभ है तो कोई उससे कैसे बच सकता है। सिनेमा, टीवी और मीडिया भी मौजूदा दौर में अश्लीलता के लिए काफी हद तक जिम्मेदार ठहराए जा रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि इनकी पोर्न साइट्स से तुलना नहीं की जा सकती। लेकिन बच्चों और किशोरों के कच्चे मन पर कई बार इनके कुप्रभाव भी सामने आए हैं। देश में इनकी पहुंच साइबर संसार से ज्यादा व्यापक है। ये माध्यम अलग-अलग कानून और आचार-संहिताओं के दायरे में आते हैं। ऐसे में अकेले सूचना प्रौद्योगिकी कानून-2000 में संशोधन से क्या होगा।
हाल ही में12 जुलाई को केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पोर्न साइट्स को लेकर जो दलील दी है उससे तो साफ है कि वह इन पर रोक लगाने में सक्षम ही नहीं है। इससे पहले सरकार ने 13 जून को जिन 39 वेबसाइट्स को प्रतिबंधित किया था वे ही नहीं रोकी जा सकी तो ऐसी सैकड़ों साइट्स को सरकार कैसे रोक पाएगी। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में बाकायदा शपथ-पत्र पेश कर कहा कि सभी विदेशी पोर्न साइट्स पर रोक लगाना संभव नहीं है, क्योंकि इन पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। ये ज्यादातर अमरीका या अन्य देशों से संचालित होती हैं। अमरीकी साइट्स 18 यूएससी 2257 के तहत संचालित है। इसका मतलब यह नहीं कि अश्लील साइट्स पर रोक नहीं लगानी चाहिए। खासकर, बच्चों के लिए तो ऐसा तंत्र बनाना ही होगा, जो उन्हें रोक सके। कुछ देश ऐसा कर भी रहे हैं। लेकिन महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इस समस्या का समग्र समाधान होना चाहिए। केवल साइबर साहित्य पर रोक लगाकर बच्चों व युवाओं को 'पथभ्रष्ट' होने से नहीं रोका जा सकता।
बर्दाश्त नहीं आलोचना
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं—मीडिया की तो कतई नहीं। आपको याद होगा कार्टून मसले पर दो प्रोफेसरों की गिरफ्तारी की जब देश भर के मीडिया में आलोचना हुई तो उन्होंने धमकी दे डाली कि पश्चिम बंगाल में वे सरकारी टीवी चैनल चालू करेंगी। फिर उन्होंने अखबारों पर गुस्सा निकाला। उन्होंने प. बंगाल के सभी सरकारी तथा सरकार की मदद से चलने वाले पुस्तकालयों में उन अखबारों पर रोक लगा दी, जो उनकी आलोचना करते थे। इन पुस्तकालयों को सिर्फ वे अखबार ही खरीदने की छूट है, जिनके नाम सरकार ने तय कर रखे हैं। इनमें हिन्दी का एक भी अखबार नहीं है। तेरह अखबारों की सरकारी सूची में ज्यादातर उन अल्पज्ञात अखबारों के नाम हैं जो 'दीदी' के गुणगान के लिए जाने जाते हैं।
पिछले साल जब सरकार का यह फैसला आया तो अधिवक्ता वासवी रायचौधरी ने हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर सरकार के फैसले को अनैतिक और द्वेषपूर्ण बताया। उन्होंने इस फैसले को खारिज करने की मांग की, जिस पर गत दिनों सुनवाई करते हुए कोलकाता हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के आदेश को संशोधित करने का आदेश दिया है। हाईकोर्ट ने कहा है कि लोकप्रिय और बहु-प्रसारित अखबारों को पुस्तकालयों में रखने की निषेधाज्ञा को तुरन्त खत्म कर दिया जाए। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को 17 जुलाई तक का समय दिया है। और साथ ही चेताया भी है कि अगर सरकार ऐसा स्वयं नहीं करती तो हाईकोर्ट की ओर से समुचित व्यवस्था की जाएगी।
अब देखना है कि सरकार अपना अडिय़ल रवैया छोड़कर बाकी अखबारों के पढऩे के पाठकों के अधिकार की बहाली करती है कि नहीं।
विज्ञापन बनाम खबर
विज्ञापन के बदले खबर छापने या प्रसारित करने के आरोप मीडिया पर अक्सर लगाए जाते हैं। यह उदाहरण रंगे हाथ पकड़े जाने का है। लखनऊ के एक हिन्दी दैनिक ने चार कॉलम में खबर छापी— 'डीएवी कैंट एरिया के छात्रों ने लहराया परचम'। कई छात्रों के फोटो भी थे। खबर के बीच में रंगीन बॉक्स में लिखा— 'डीएवी स्कूल अपना विज्ञापनदाता है। इस कारण कृपया इस खबर को रंगीन पेज पर सभी फोटो के साथ जगह देने की कोशिश करें...' दरअसल, ये पंक्तियां किसी सीनियर द्वारा दिया गया ऐहतियाती निर्देश था, जो कंपोज होकर हूबहू अखबार में छपा गया और पाठकों के हाथ में भी पहुंच गया।

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संवेदनहीन मीडिया!

उत्तराखंड में विभीषिका के दौरान टीवी चैनलों की रिपोर्टिंग के दृश्य एक तटस्थ दर्शक के मन में करुणा कम खीझ ज्यादा पैदा करते थे। पर यह तो कहना ही होगा कि मीडिया की रिपोर्टिंग ने सोई हुई सरकार को जगाया।  वरना पीडि़तों के लिए जितना-कुछ हुआ, वह भी शायद नहीं हो पाता। लापता लोगों की खोज-में मीडिया की भूमिका सरकार से ज्यादा नजर आती है।


उत्तराखंड में बाढ़ की विभीषिका के दौरान मीडिया कवरेज, खासकर टीवी चैनलों की रिपोर्टिंग को लेकर काफी आलोचनाएं हुईं। जिस वक्त सबसे ज्यादा आवश्यकता पीडि़तों की जान बचाना थी, उस वक्त टीवी रिपोर्टर कैमरामैन के साथ उन हेलीकॉप्टरों से जा पहुंचे, जो पीडि़तों की मदद के लिए गए थे। हेलीकॉप्टर बहुत कम थे और पीडि़त बहुत ज्यादा। हेलीकॉप्टर की एक-एक सीट बेशकीमती थी। इतनी जितना कि जीवन। मानव जीवन से ज्यादा तरजीह मीडिया रिपोर्टिंग को नहीं दी जा सकती। लेकिन रिपोर्टरों की संवेदनहीनता देखिए, रुंआसे, बदहवास लोगों से हेलीकॉप्टर में ही 'इंटरव्यू' किये जा रहे थे। हेलीकॉप्टर से बाहर भी उनका रवैया यही था। जान के लाले पड़े थे और रिपोर्टर माइक लेकर पीडि़तों के सामने सवालों की झाड़ी लगा रहे थे। अपनी रिपोर्टिंग को ज्यादा से ज्यादा भावनात्मक 'टच' देने की जुगत में वे एक-दूसरे को पछाडऩे में जुटे थे। मीलों पैदल चल कर आ रहे और दर्द से कराहते बुजुर्ग हों या रोती-बिलखती महिलाएं, यहां तक कि मासूम बच्चे भी—सभी के सामने रिपोर्टर का माइक अचानक प्रलय की तरह प्रकट हो जाता था। ऐसे दृश्य एक तटस्थ दर्शक के मन में करुणा कम खीझा ज्यादा पैदा करते थे।
राष्ट्रीय कहे जाने वाले चैनलों का यह हाल था, तो दूसरे चैनल कहां पीछे रहते! वे भी 'सबसे पहले' की होड़ में लगे थे। शिकार हुआ एक सामान्य रिपोर्टर। बेचारे नारायण वरगाही को बड़ी आलोचना झोलनी पड़ी। न्यूज एक्सप्रेस चैनल का यह संवाददाता एक बाढ़ पीडि़त ग्रामीण के कंधे पर ही जा चढ़ा और बाढ़ में डूबे गांव का आंखों देखा हाल बयान करने लगा। किसी ने इसकी रिकॉर्डिंग तुरंत फेसबुक पर डाल दी। सोशल मीडिया में रिपोर्टर व चैनल की जबरदस्त निन्दा हुई। चैनल ने रिकॉर्डिंग प्रसारित तो नहीं की, लेकिन रिपोर्टर की नौकरी जरूर छीन ली। वरगाही और उन बड़े चैनलों के रिपोर्टरों में कोई खास फर्क नहीं था, जिन्होंने पीडि़तों का हक मारकर हेलीकॉप्टरों में यात्राएं कीं।
मीडिया विशेषज्ञों का मानना है कि दरअसल, मीडिया के पास ऐसी भीषण आपदाओं की कवरेज के लिए कोई मानक कार्य-प्रणाली नहीं थी, जिसके चलते शुरू में उत्तराखंड की रिपोर्टिंग में अफरा-तफरी दिखाई दी। भविष्य में ऐसी गलतियां न दोहराई जाएं, इसके लिए न्यूज चैनलों के संपादकों की संस्था बी.ई.ए. (ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन) ने पांच सदस्यों की एक समिति गठित की है। यह समिति इस तरह की घटनाओं की कवरेज के लिए एक एस.ओ.पी. (स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) तैयार करेगी, जो न सिर्फ रिपोर्टरों के लिए, बल्कि डेस्क पर काम करने वालों के लिए भी दिशा-निर्देश का काम करेगी। एस.ओ.पी. में यह बताया जाएगा कि पीडि़तों को देखते ही उन पर टूट न पड़ें और न ही पीडि़तों की नुमाइश लगाई जाए। जरूरत पडऩे पर उनकी मदद भी की जाए।
बी.ई.ए. ने यह समिति वरिष्ठ पत्रकार कमर वहीद नकवी की अध्यक्षता में गठित की है। इस समिति में 'टाइम्स नाउ' के मुख्य संपादक अर्णब गोस्वामी, इंडिया टीवी के प्रबंध संपादक विनोद कापड़ी, 'सी.एन.एन.-आई.बी.एन' के प्रबंधक संपादक विनय तिवारी तथा 'आज तक' की प्रबंध संपादक सुप्रिया प्रसाद शामिल किए गए हैं। जिस उद्देश्य को लेकर यह एस.ओ.पी. तैयार की जा रही है, उसमें शायद ही किसी को संदेह हो, लेकिन सवाल यह है कि इसका पालन कौन करेगा। एक-दूसरे को पछाडऩे की टीवी चैनलों की अंधी होड़ में बी.ई.ए. के दिशा-निर्देश कितने टिक पाएंगे इसमें संदेह है। बी.ई.ए. के दिशा-निर्देशों का अक्सर न्यूज चैनल उल्लंघन करते रहे हैं। लेकिन कुछ नहीं होता। सवाल यह भी है कि मीडिया-कर्मियों से जिस संवेदनशीलता की उम्मीद आचरण और व्यवहार में की जाती हो, उसके लिए एस.ओ.पी. की क्या जरूरत है। यह तो अलिखित और स्वत: स्फूर्त होनी चाहिए। अगर इसके लिए भी समिति की जरूरत पड़े तो पत्रकारिता-कर्म पर ही सवाल उठ खड़े होंगे। बहरहाल, यह कहना ही होगा कि मीडिया की दिन-रात की रिपोर्टिंग ने सोई हुई सरकार को जगाया। वरना पीडि़तों के लिए 15 दिन गुजरने के बाद भी जितना-कुछ हुआ, वह शायद नहीं हो पाता। बिछुड़े हुए पीडि़तों को परिजनों से मिलवाने और लापता लोगों की खोज-खबर में आज भी सरकार से ज्यादा मीडिया की भूमिका नजर आती है।
न खंडन न मंडन
उत्तराखंड में फंसे 15 हजार गुजरातियों को नरेन्द्र मोदी द्वारा बचा कर घर भेजने की खबर पर काफी बवेला मचा था। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अनभिज्ञता जाहिर की कि यह खबर मीडिया में आई कहां से। यानी उन्होंने इसे मीडिया की गढ़ी हुई खबर बताकर ठंडे पानी के छींटे डालने की कोशिश की। लेकिन मीडिया ने उनकी यह कोशिश कामयाब नहीं होने दी। 'हिन्दू' ने अपने पहले पन्ने पर स्टोरी प्रकाशित की जिसमें उसने 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के पत्रकार आनंद सूंडास का इंटरव्यू लिया था। आनंद सूंडास ने दावा किया कि 15 हजार गुजरातियों को बचाने का समाचार हल्दवानी में भाजपा प्रवक्ता अनिल बलूनी ने किया था। जिस वक्त भाजपा प्रवक्ता से बातचीत की गई उस दौरान उत्तराखंड भाजपा के अध्यक्ष तीरथसिंह रावत भी मौजूद थे। यह खबर सबसे पहले 23 जून को 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में प्रकाशित हुई। बाद में यह खबर सभी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने प्रकाशित व प्रसारित की। दो दिन में 15 हजार लोगों को बचाकर उन्हें घर पहुंचाने का समाचार जिसने भी सुना उसे विश्वास नहीं हुआ। क्योंकि जिन परिस्थितियों में लोग फंसे थे, उन्हें केवल हेलीकॉप्टर से ही लाया जा सकता था। और मोदी अपने साथ सिर्फ 4 हेलीकॉप्टर लेकर गए थे। 'हिन्दू' की खबर का पार्टी ने अभी तक न तो खंडन किया है और न ही समर्थन।
मनमानी तो नहीं!
हाल ही में जांच के दौरान मानकों पर खरे नहीं पाए जाने पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने 61 टीवी चैनलों के लाइसेंस रद्द कर दिए। ये कौन से टीवी चैनल हैं तथा इन चैनलों ने किन मानकों का उल्लंघन किया, यह स्पष्ट नहीं किया गया है। चैनलों की जिस तरह बाढ़ आई हुई है, उसमें मानकों का उल्लंघन आश्चर्यजनक नहीं। लेकिन जांच के नाम पर सरकारी अफसरों की मनमानी भी नहीं चलनी चाहिए।
सरकार को यह देखने की जरूरत है कि जिन चैनलों के लाइसेंस रद्द किए गए उनमें क्या खामियां थीं। छोटी-मोटी कमियां बताकर उन्हें फिजूल तंग तो नहीं किया जा रहा था। आखिरकार यह अभिव्यक्ति का क्षेत्र है, कोई फैक्ट्री-कारखाना नहीं। गौरतलब है, 61 टीवी चैनलों के लाइसेंस रद्द होने के बाद अब भी 816 चैनल काम कर रहे हैं, इनमें से 398 समाचार चैनल हैं।

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